बुधवार, 5 जून 2019

ईद और नन्हें हामिद की यादें...

आज ईद है। मुस्लिम भाईयों का सबसे बडा त्योहार।पर बचपन के कुछ वर्षों तक मुझे इसके बारे में कुछ भी पता नहीं था।तब हमारे लिए रक्षाबंधन,होली, दशहरा,दीवाली और कुछ स्थानीय त्योहार ही त्योहार हुआ करते थे। हालांकि एक दो मुस्लिम परिवार हमारे गांव मे भी हुआ करते थे पर वो त्योहार मनाने नजदीक के कस्बे मे जाते थे तो उनके त्योहार का कुछ भी त्योहार जैसा नहीं लगता था।
   हमारी बाल मति अनुसार जब उन लोगों के घर मे खाट के पाए से बांधकर सेवईयां बनाई जाती थी तब समझ मे आ जाता था कि उनका त्योहार करीब  है।और जिस दिन वे लोग नए कपडे पहनते थे,हमारे घर मे सेवई की कटोरी आती थी और हमारे स्कूल मे छुट्टी होती थी तब हमें मालूम पडता था कि आज उनका त्योहार है।
वैसे ईद से और हामिद से मेरा पहला परिचय हमारी भाषा की किताब मे कक्षा तीन मे हुआ था। ईदगाह कहानी से। हामिद... एक छोटा सा बच्चा जो उस समय तकरीबन हमारे जित्ते ही रहा होगा।पर उसकी सोच एक जिम्मेदार आदमी से भी बडी थी।बालमन लालची होता है।अपने सामर्थ्य के अंदर और बाहर कि सभी चीजों को पाने के लिए लालायित होता है।किंतु हामिद एक बैरागी संत की तरह मोहमाया से विरक्त खिलौनों और मिठाईयों को नजर अंदाज करके अपनी दादी की परेशानी को ही याद रखता है। दुनिया भर के आकर्षण की चमक उसे याद नहीं....सिर्फ दादी और रोटी बनाते समय उनके जलते हाथ ही उसे याद रहा।उसे पूरे मेले मे सिर्फ चिमटा ही उपयोगी वस्तु लगा।वो भी इसलिए कि चिमटे पाकर दादी की हाथ नहीं जलेगी।अपने हमउमर दोस्तों की सभी  दलीलों को उसने अपने अकाट्य तर्कों से काट डाला था।
    कितनी मासूमियत और कितनी बडी सोच थी उस नन्हे से फरिश्ते की।आज बच्चों मे उस मासूमियत की कमी खलती है।आज मां बाप का बर्ताव अपने बच्चों के साथ किसी सर्कस के रिंग मास्टर की तरह हो गया है जिनके आदेश मुताबिक बच्चों को चलना होता है।फलां काम करो,ऐसे बैठो,वैसे रहो आदि।बच्चे भी अब अतिरिक्त सुविधा मिलने के कारण जिम्मेदारी की भावना से मुक्त नजर आते हैं।वैसे संघर्ष ही आदमी को जिम्मेदार बनाता है जीने,की कला सिखाता है।संघर्षहीन जीवन मे कोई किसी चीज की कदर भला क्यों करे?अधिकांश घरों मे बच्चे अब अपनी मांगों को मनवाने के लिए अपने पालकों को भावनात्मक रूप से  ब्लैकमेल करते नजर आते हैं।इस क्लास मे जाउंगा तो सायकल दिलाओ,अमुक काम करने पर मुझे मोबाईल दिलाओ वगैरह वगैरह।अब बच्चों को तनिक भी परवाह नहीं है कि उनकी मांग पूरी करने मे उनके पैरेंट्स की क्या हालत होगी?उनको इन बातों से कोई मतलब नहीं।
     मां-बाप अपने बच्चों की जरूरतें तो पूरी कर रहे हैं पर उनको पैसे  और किसी सामान की अहमियत और उनकी इज्जत करना नहीं सीखा रहे हैं। परिवार सुविधाएं भले ही बढती जा रही है पर सामंजस्य घटता जा रहा है।एक दूसरे की परवाह की भावना कम हो रही है शायद इसीलिए हामिद वाली सोच अब नदारद हो रही है....ईद मुबारक
     
   

कोई टिप्पणी नहीं:

दिन चारी मइहरवा में....सुरता स्व.मिथलेश सर के

  लोकगीतों की अपनी एक अलग मिठास होती है।बिना संगीत के भी लोकगीत मन मोह लेता है,और परंपरागत वाद्य यंत्रों की संगत हो जाए, फिर क्या कहने!! आज ...