आज अंतर्राष्ट्रीय वृद्धजन दिवस है।जीवन की विदाई बेला पर खड़े अनुभव के पिटारे को सम्मानित करने का दिन।साल 1991 से 1 अक्टूबर को बुजुर्गों के सम्मान के लिए समर्पित किया गया है। लेकिन इस एक दिन को छोड़ बाकी दिनों में क्या बुजुर्गों का सम्मान नहीं किया जाना चाहिए।
मनुष्य में एक बड़ी गंदी आदत है, जो चीज उनके काम की रहे या जब तक उनसे कोई लाभ मिल रहा हो तभी तक वह उसकी कद्र करता है। भौतिकतावादी इस युग में अब बुजुर्गों को भी किसी सामग्री की तरह उपयोगी और अनुपयोगी में वर्गीकृत कर दिया गया है। शारीरिक शक्ति से हीन और मानसिक रूप से खिन्न बुजुर्गों को आज हाशिये पर रखा जा रहा है।आज घर घर में बुजुर्गों का अपमान होता है।किसी के पास धन संपत्ति हो तब बात अलग हो जाती है।
बचपन के दिनों में पढ़ी मुंशी प्रेमचंद की लिखी दो कहानियों "पंच परमेश्वर" और "बूढ़ी काकी" की दोनों बुजुर्ग पात्रों की तस्वीर आज भी आंखों के आगे बरबस आ जाता है। विशेष रूप से बूढ़ी काकी की वो दीन-हीन बुजुर्ग, जिसका अत्यंत मार्मिक चित्रण मुंशीजी ने किया है। कहानी पढ़ते पढ़ते ही बरबस आंखें छलक आती है। बुढ़ापे में जीभ से स्वाद पाने की व्यग्रता और परिवार के लोगों के द्वारा किए जाने वाले निरंतर तिरस्कार का चित्रण अत्यंत हृदय विदारक है।
आज ऐसी ही अनेक बुजुर्गों को समाज के भीतर ही प्रताड़ना और अपमान झेलना पड़ रहा है। बुजुर्गों को जीवंत देव प्रतिमा का दर्जा देने वाले देश में बुजुर्गों के साथ होने वाली अमानवीय व्यवहार की खबरों से आज के समाचार पत्र भरे होते हैं।हमारे देश में अब वृद्धाश्रम जैसी संस्थाओं की संख्या बढ़ती जा रही हैं।जीवन की संध्या वेला पर खड़े बुजुर्गों को जहां सम्मानजनक विदाई दी जानी चाहिए वहां उनको उम्र के अंतिम पड़ाव पर भिक्षाटन और दर दर भटकने के लिए मजबूर किया जा रहा है।
जब संयुक्त परिवार होते थे,तब तक बुजुर्गों का मान सम्मान बना रहा।आज के एकल परिवार वाली संस्कृति ने बुजुर्गों को अनाथ कर दिया है।किसी शायर ने बड़ी सुंदर पंक्तियां कही थी जिसका आशय था -फूल और फल भले ही ना दे पर बूढ़ा पेड़ ठंडी छांव तो देगा।इन बूढ़े दरख्तों की स्नेहिल छांव की जरूरत आज भी समाज को है।उनके अनुभव का सम्मान किया जाना चाहिए। कहते हैं कि बुजुर्गों के आशीर्वाद और श्राप अवश्य फलित होते हैं।तो समाज का यत्न आशीर्वाद बटोरने की होनी चाहिए। वृद्धावस्था जीवन का एक अनिवार्य पड़ाव है।हम सबको एक दिन इस पड़ाव तक पहुंचना ही है। इसलिए वरिष्ठ जनों का परिवार और समाज में यथोचित सम्मान जरूर हो, ताकि कोई बुजुर्ग ये ना कहे-
मुझे इतना सताया है मेरे अपने अज़ीज़ों ने
कि अब जंगल भला लगता है घर अच्छा नहीं लगता
फोटो सोशल मीडिया से साभार
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