फोटो सोशल मीडिया से साभार |
आज भारत के दो विराट व्यक्तित्व वाले महामानवों की जयंती हैं।किनकी है?अगर ये पूछने की और बताने की नौबत आती है,तो निश्चित रूप से हमें शर्म आनी चाहिए अपने हिंदुस्तानी होने पर!!
आज विश्व अहिंसा दिवस भी है। अहिंसा के परम उपासक बापू के सम्मान में उनकी जयंती को विश्व ने अहिंसा दिवस के रूप में मान्यता देकर उनको आदरांजलि दी है। लेकिन ऐसे विराट और महान व्यक्तित्व के लिए पिछले कुछ सालों से कुछ अल्पबुद्धियों और अधकचरे ज्ञान के धनी लोगों ने सोशल मीडिया पर घृणा का अभियान चला रखा है। गांधीजी की फोटो पर अभद्र मीम्स बनाये और प्रसारित किए जा रहे हैं।इन लोगों के दिमाग में एक प्रकार की कुंठित मानसिकता घर कर गई है।उनको लगता है कि भारत विभाजन के लिए गांधीजी ही जिम्मेदार हैं।अनेक क्रांतिकारियों की शहादत गांधी की उदासीनता के कारण अकारण हुई।
जिस बापू को टैगोर ने महात्मा, बोस ने राष्ट्रपिता और अखिल विश्व ने अहिंसा के पुजारी की पदवी से अलंकृत किया उनके योगदान पर आज की पीढ़ी सिर्फ वाट्सएप ज्ञान के बूते उनके चरित्र पर उंगली उठाती है तो क्षोभ होता है।
गांधी का त्याग अतुलनीय है। स्वतंत्रता के रण में उन्होंने अपना सब कुछ राष्ट्र के लिए न्यौछावर कर दिया था। संपूर्ण भारतवर्ष को पैदल नापने का दुस्साहस भी किया था।कुछ तो बात जरूर रही होगी उस महामानव में जो पूरा भारत उसके पीछे-पीछे चलने के लिए आतुर था।
आज़ादी की लड़ाई का नेतृत्व कई नेताओं ने किया। लेकिन सर्वमान्य नेता केवल गांधी थे। आडंबर रहित जीवन जीने वाले गांधीजी पर पूरे भारत की श्रद्धा थी। गांधी के अहिंसात्मक आंदोलनों से ब्रिटिश सरकार थर-थर कांपती थी।कई महत्वपूर्ण निर्णयों को ब्रिटिश शासन वापस लेने पर बाध्य हुई थी। गांधीजी की रणनीति अंग्रेजों को मजबूर कर देती थी। संभवतः इसलिए आज भी कहा जाता है "मजबूरी के नाम महात्मा गांधी"!
गांधीजी के कुछ निर्णय भले ही वर्तमान परिस्थितियों में असहमतिजनक हो सकते हैं।पर तत्कालीन परिस्थितियों में वस्तुस्थिति के मुताबिक सही थे।
गांधीजी भारत के विभाजन से आहत थे। इसलिए वो आजादी की स्वर्णिम बेला पर दिल्ली से कहीं दूर चले गए थे।अगर वे सत्ता का आकर्षण और आकांक्षा रखते तो स्वतंत्रता उपरांत वे खुद को भी किसी राजनैतिक पद के लिए प्रस्तुत कर सकते थे, और संभवतः उनका विरोध भी नहीं होता। लेकिन उनका उद्देश्य ये सब नहीं था।वे भारत को एक खुशहाल और उन्नत राष्ट्र के रूप में देखना चाहते थे।
वे उपदेश देने के बजाय किसी भी बात को स्वयं आचरण में उतारने पर बल देते थे।जब अप्रैल 1917 में चंपारण सत्याग्रह चल रहा था तब वहां जाने पर उनको ज्ञात हुआ कि नील के कारखानों में काम करने वाले मज़दूरों को जूते नसीब नहीं होते। उन्होंने उसी क्षण जूतों का परित्याग कर दिया। चंपारण सत्याग्रह के दूसरे चरण में जब उन्होंने एक गरीब महिला को वस्त्र की कमी से जूझते देखा तो अपना चोगा त्याग दिया।
सन् 1918 में अहमदाबाद के कारखानों में काम करने वाले मज़दूरों की दीन- हीन दशा को देख पगड़ी पहनना छोड़ दिया।उनका तर्क था कि इस पगड़ी में जितना कपड़ा लगता है,उतने में 4 महिलाओं के तन ढंक सकते हैं।उनके त्याग का ये क्रम जारी रहा।अल्पतम में जीने को उन्होंने अपना अभियान बना लिया। सितंबर 1921 में एक रेलयात्रा के दौरान हुए कष्टप्रद अनुभव के बाद उन्होंने कमीज और धोती का भी त्याग कर दिया। सिर्फ घुटने तक धोती ही उनका परिधान बन गया।
गांधी को समझना आसान नहीं है।गांधी को जानना हो तो उनकी आत्मकथा पढ़ें जिसमें उन्होंने अपनी सच्चाई खुली किताब की तरह रख दी है।दूसरे राजनैतिक व्यक्तियों के गांधी के बारे में विचार पढ़ें। गांधी कल भी प्रासंगिक थे और आज भी प्रासंगिक हैं।उनके विचार अमर हैं।ऐसे महान व्यक्तित्व के बारे में सोशल मीडिया पर अंट शंट अधकचरा ज्ञान ना बाटें। गांधीजी आज भी कितने प्रासंगिक हैं, ये धमतरी से प्रकाशित इस खबर को पढ़कर समझा जा सकता है।
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