जैसा कि मैंने पिछले पोस्ट में बताया था कि छत्तीसगढ़ से निकलते निकलते ही शाम ढलने लगा था। लगभग सवा 7 बजे के आसपास हम लोग खरियार रोड पहुंचे।खरियार रोड छत्तीसगढ़ और ओड़िशा दोनों के लिए महत्वपूर्ण कस्बा है। यहां दोनों जगहों से लोग खरीददारी करने आते हैं।कभी खरियाररोड अविभाजित दक्षिण कौसल का हिस्सा रहा है।जब सिरपुर दक्षिण कौसल कहे जाने वाले छत्तीसगढ़ की राजधानी थी तब खरियार, नुआपड़ा और कालाहांडी का क्षेत्र छत्तीसगढ़ में समाहित था। वर्तमान में अब ये सारे ओडिशा राज्य के अंतर्गत आते है। यहां हमारी छत्तीसगढ़ी बोली और समझी जाती है। हालांकि उनकी स्थानीय मातृभाषा ओडिया का भी यहां चलन है। शासकीय प्रक्रिया भले ही दो प्रांतों में सीमा निर्धारण कर देती है, लेकिन सांस्कृतिक मेल मिलाप उनको जोड़े रहती है। यहां की दशहरा विख्यात है। छत्तीसगढ़ के बड़े बड़े लोककला मंचों का उस दिन यहां प्रदर्शन होता है। रामलीला होती है।रावण दहन में खूब आतिशबाजी होती है।
जैसा कि आपको ज्ञात है यात्रा के शुरुआत में निकलते ही हमारी गाड़ी पंचर हो गई थी इसलिए उसकी मरम्मत कराना जरुरी था।खरियार रोड पहुंचते ही सर्वप्रथम एक आटो दुकान में पंचर टायर का रिपेयरिंग करवाए और वहीं पास में एक ठेले पर नींबू सोडा का आनंद लिया।राह चलते जायजा लेने पर लगा कि वहां जैन मारवाडियों का व्यापार में बढ़िया दखल है।भोजन या नास्ता अगले शहर नुआपड़ा में करने की योजना थी, इसलिए बातचीत करते हमारा कारवां बढ़ गया। नुआपड़ा पहुंचे तो पता चला कहीं पर खाने लायक उचित व्यवस्था नहीं है। तो फिर आगे बढ़ गए। हमारी टीम के तरुण वर्मा सर तकनीकी विशेषज्ञ हैं। मोबाईल के अच्छे ज्ञाता हैं। उन्हीं के मार्गदर्शन में गूगल मैप के भरोसे आगे बढ़ रहे थे। बहुत सारे छोटे छोटे गांवों को पार करने के बाद एक शहर आया-सोहेला।शायद हमें जाना दूसरे मार्ग पर था लेकिन हम लोग दूसरा कोई रास्ता पकड़ लिए थे।तब तक रात के 10 बज गए थे और सबको जोरों की भूख लग रही थी। वहां पर ढाबा तलाशने लगे तो एक ढाबा नजर आया-मास्टर ढाबा!!! हमारे ग्रुप में ज्यादातर लोग पेशे से मास्टर ही थे,सो मास्टर प्रेम तो होगा ही। इसलिए इसी ढाबा में जम गए। सबने मिलकर तय किया कि रोटी,दाल फ्राई और मिक्स वेज आर्डर करते हैं। आर्डर देने के आधे घंटे के बाद हमारा भोजन टेबल पर सर्व हुआ।उसके पहले मुंहदिखाई में रखे खीरा,प्याज के सलाद का कार्यक्रम संपन्न हो गया था।भूखे थे इसलिए टूट पड़े।खाना खाने और डकार लेने के बाद समझ में आया कि सब्जी ज्यादा टेस्टी नहीं था। मिक्स वेज वैसे भी नाम बड़े दर्शन छोटे वाली डिश है। रेस्टोरेंट में बचे सब्जियों को काट फिट कर परोस दिया जाता है। छत्तीसगढ़ी में मिंझरा साग बोलने से छोटे दर्जे का समझा जाता है और वही सब्जी अंग्रेजी में मिक्स वेज बोलने से प्रतिष्ठित हो जाती है।खैर,जो था जैसा था बढ़िया था।भोजन उपरांत ढाबे के मिश्री सौंफ को चबाते हुए गाड़ी पर सवार होकर फिर निकल पड़े।भोजन पश्चात ड्राइविंग की कमान महाडिक सर ने संभाल लिया था।।ऐसे करते करते लगभग डेढ़ बजे रात तक सब लोग जागते ही रहे।लंबी दूरी के बाद रास्ते में एक छोटा-सा चाय का टपरा दिखा तो तत्काल गाड़ी के पहिए थम गए।रात का सफर अब तक सुहाना ही था। चायवाले को चाय के लिए आदेशित किया फिर थोड़ी देर में चाय के डिस्पोजल कप हमारे हाथों में थे।अच्छी बात ये थी कि ग्रुप के सारे सदस्य चायप्रेमी ही थे और चाय के मामले में मैं उन सबका सरदार था।चाय बढ़िया बनी थी। चायपान के बाद ड्राइविंग से महाडिक सर ने रेस्ट लिया और गाड़ी की स्टेयरिंग वर्मा सर ने संभाल लिया।बताता चलूं कि सोहेला के बाद हमने सोनेपुर वाला रोड ले लिया था यात्रा के लिए,जो आगे बौड नयागढ़ होते हुए पुरी जाती है।इस बीच घनश्याम के साथ त्रिवेदी भैय्या और बोस भैय्या ने हल्की झपकी ले लिया और मैं, महाडिक सर बात करते रहे और वर्मा सर ने रिमिक्स गाना आन कर दिया ताकि नींद ना आए ।इस तरह दुनिया भर की गपशप करते चलते रहे। सवेरे सवेरे हम लोग बौड पहुंच चुके थे।उसके आगे नयागढ़ आनेवाला था।उसके बाद पुरी धाम का नंबर था।
गर्मी के दिनों वहां का मौसम बड़ा अजीब था।बादल छाए थे और भरपूर ऊमस थी।बदन का चिपचिपापन बड़ा अजीब लग रहा था। नयागढ़ में रास्ते के दोनों ओर सूखी मछलियों की दुकान लगी थी।हम लोग ऐसी जगह देख रहे थे जहां ब्रश वगैरह करके कम से कम चाय पी सकें। लेकिन गूगल के दिखाए रास्ते ने हमें मेन रोड से हटाकर गांव के रास्ते में डाल दिया था।मैप पुरी शहर को नजदीक दिखाता था लेकिन दूर दूर तक कहीं नजर ही नही आता था।अब आयेगा तब आयेगा करते करते सुबह के 8 बज गए।अंततः कुछ देर के बाद पुरी मेन रोड का बोर्ड नजर आया और पुरी की ओर जाने वाला मुख्य मार्ग पर हमारी गाड़ी दौड़ने लगी।जिस तरह अंधा क्या चाहे दो आंखें उसी तरह उनींदें थके लोग क्या चाहें-चाय!!! तो चाय तलाशती हमारी आंख को रास्ते में एक जगह चाय का टपरा दिखा तो रुक गए। वहां के मौसम में बहुत ज्यादा ऊमस थी इसलिए कुछ लोगों ने वहां कपड़े चेंज कर शार्ट पहन लिया और ब्रश करने के लिए पानी मांगकर ब्रश किया।चाय बेचने वाला दुकानदार एक किशोरवय लड़का था।उसकी मुस्कान बड़ी प्यारी थी।हम लोग वहां छत्तीसगढ़ी में ही बात कर रहे थे। बीच बीच में हिंदी में भी वार्तालाप होता था।हंसी मजाक जारी था।उस लड़के ने हमारी विनोदप्रियता को शायद भांप लिया था। इसलिए चाय के पैसे देने के बाद जब मैं बोला कि वापसी का चाय अपनी ओर से पिला देना।तो वो हंसते हुए बोला-ठीक है पिला देगा।आप लोग मजाक बहुत करता है।खैर,ना हम उस रास्ते पर लौटे और ना ही वहां दोबारा चाय पीने का मौका मिला। वैसे भी सफर में मिले लोग हर बार कहा ं साथ होते हैं।
लगभग-लगभग साढ़े आठ बजे हम लोग चारों धाम में से एक जगन्नाथ पुरी धाम की पुण्य धरा पर थे। मार्ग में ही भगवान जगन्नाथ जी के वाहन गरुड़ की एक विशाल मूर्ति लगी थी।जिस दिशा की ओर वे देख रहे थे।उसे देखकर समझ आ गया था कि मंदिर किस दिशा में है। लेकिन रातभर के उनींदे थे इसलिए सबसे पहले हम लोगों ने होटल खोजकर आराम करना ज्यादा उचित समझा और वहीं बस स्टैंड से पूछकर होटल की खोज में निकल पड़े.... ज्यादा लंबे पोस्ट से उबासी आ जाएगी इसलिए अगले पोस्ट में दर्शन लाभ का वर्णन करुंगा....जय जगन्नाथ!!!!
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