मंगलवार, 29 नवंबर 2022

आस्था हर मुश्किल को आसान बना देती है

 


फोटो गूगल से साभार 

पिछले दिनों गुजरात के विश्व विख्यात द्वारिकाधीश मंदिर में महादेव देसाई नाम के एक व्यक्ति ने अपनी 25 गायों के साथ भगवान द्वारिकाधीश के मंदिर की परिक्रमा किया और प्रभु का प्रसाद भी ग्रहण किया।ये अनूठा अवसर था जब गौमाता के साथ एक भक्त की मनोकामना पूर्ण करने के लिए मंदिर प्रशासन ने अपना नियम बदला और आधी रात को भगवान द्वारिकाधीश के गर्भगृह का पट खुला।चूंकि भगवान द्वारिकाधीश स्वयं गौसेवक थे इसलिए मंदिर प्रशासन ने अपने नियमों को सरल बना दिया और एक भक्त की वांछित मनोकामना पूर्ण हुई।
इस अद्भुत घटना के पीछे ईश्वर के प्रति आस्था की बहुत सुंदर तस्वीर है।गौपालक देसाई जी के अनुसार पिछले वर्ष लंपी वायरस के प्रकोप के चलते उनकी सारी गायें बीमार पड़ गईं‌।ऐसी विषम परिस्थिति में देसाई जी ने ईश्वर की शरण लिया और मन ही मन संकल्प लिया कि अगर उनकी गाएं बीमारी के प्रकोप से बच जाती है तो वे उन गायों को लेकर भगवान द्वारिकाधीश के दर्शन को जायेंगे।उन्होंने अपनी परेशानी ईश्वर को सौंप दिया और बीमार गायों के ईलाज में लगे रहे।
कुछ समय के पश्चात बीमारी का बुरा दौर खत्म हुआ और उनकी एक भी गाय वायरस के प्रकोप से हताहत नहीं हुई।तब देसाई जी अपने कुछ साथियों को लेकर भगवान द्वारिकाधीश के दर्शन को चल पड़े।उनके निवास से द्वारिका की दूरी लगभग 450 किमी के आसपास थी। फिर भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और पैदल ही गायों को लेकर चल पड़े।70 दिन की यात्रा के पश्चात उन्हें और उनकी गायों को भगवान द्वारिकाधीश ने दर्शन दिया।
क्या ये घटना आज की भौतिकवादी युग में ईश्वरीय चमत्कार का एक उदाहरण नहीं है?जिसमें एक साधारण से व्यक्ति की आस्था ने असंभव को संभव कर दिखाया।ये घटना हर तथ्य को तर्क के कसौटी पर कसने वाली और चमत्कार को देखने के बाद प्रमाणिक मानने वाली पीढ़ी के लिए ईश्वर के प्रति आस्था व विश्वास एवं सर्वशक्तिमान ईश्वर का प्राणियों के प्रति प्रेम का एक अद्भुत उदाहरण भी है।
हालांकि लोग इसको अलग अलग नजरिए से देखकर अलग अलग तरीके से परिभाषित भी कर सकते हैं।सकल ब्रम्हांड जिनके नियंत्रण में है।उस जगत नियंता की कृपा असीम है।जरुरत है उसे महसूस करने की।जिसने सरल हृदय से ईश्वर को पुकारा ईश्वर ने उन सबको अपना साक्षात्कार कराया।चाहे वो स्वामी रामकृष्ण परमहंस हो या गोस्वामी तुलसीदास।
आस्था को परिभाषित करना मुश्किल है।ईश्वर ब्रम्हांड के कण कण में व्याप्त है।ऐसा संत महात्माओं और ज्ञानियों का कहना है।भक्ति धारा से जुड़े लोग इस बात को मानते भी हैं।बात आस्था और समर्पण की हो तो सब संभव हो जाता है।
ईश्वर को पाने के लिए हृदय की सरलता सबसे पहली आवश्यकता है।सरल बनकर देखिए ईश्वर की प्राप्ति सहज हो जायेगी।गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्रीरामचरितमानस में लिखा भी है-
निर्मल मन जन सो मोहि पावा।
मोहि छल छिद्र कपट नहीं भावा।।
हमारा देश गांवों का देश है।जब कभी आप ग्रामीण क्षेत्रों से गुजरेंगे तो आपको रास्ते पर अनेक छोटे छोटे मंदिर या देवालय मिलेंगे।हर देवालय में भगवान की सुंदर प्रतिमा नहीं मिलेंगी। कहीं कहीं पर आपको अनगढ़ पाषाण ही पूजित होते दिखेंगे।अधिकांश स्थानों पर अनगढ़ पत्थर को सिंदूर पोतकर भोले भाले ग्रामीण देव प्रतिमा के रुप में स्थापित कर देते हैं।आस्था से उसकी पूजा अर्चना करते हैं और मजेदार बात ये है कि उनकी मनोकामनाएं फलित भी होती हैं।किसी बड़े देवालय में जाने की जरूरत नहीं पड़ती। यहां बात ईश्वर के सुंदर स्वरूप के पूजन की नहीं है।केवल जनआस्था की है।
आस्था हर चीज को मुमकिन कर सकती है।आस्तिकता व्यक्ति के हृदय में सकारात्मक ऊर्जा और आत्मविश्वास का प्रसार करती है।नई स्फूर्ति और आशा का संचार करती है।किसी ने क्या खूब कहा है-
इंसानियत आदमी को इंसान बना देती है।
लगन हर मुश्किल को आसान बना देती है।।
लोग यूं ही नहीं जाते मंदिरों में पूजा करने।
आस्था ही पत्थर को भगवान बना देती है।।

रविवार, 20 नवंबर 2022

सुख कहां है?

 

जनम से लेकर मरण तक इंसान सिर्फ एक ही चीज पाने के लिए संघर्ष करता है।सोचिए क्या?....धन.. सम्मान... स्वास्थ्य....!!जी! सही समझे आप!इसका सही जवाब है सुख। इंसान सिर्फ सुख पाना चाहता है।

सुख पाने के तौर तरीके और नजरिया भिन्न भिन्न हो सकते हैं।एक ही तरीका किसी के लिए सही तो किसी के लिए गलत हो सकता है।चोर चोरी करके सुख पाता है। पुलिस चोर को पकड़ कर सुख पाता है।शेर हिरण का शिकार करके सुख पाता है तो वही हिरण शेर से अपने प्राण बचाकर सुख पाता है।
कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि सुख के अपने अपने मायने है। पिछले दिनों एक अच्छी सोच वाले व्यक्ति से मुलाकात हुई।डेली नीड्स का दुकान चलाते हैं।खाने पीने की कई प्रकार की चीजें रखते हैं। खासकर बच्चों की मनपसंद चीजें केक,चाकलेट्स, बिस्कुट आदि। चूंकि दुकानदार है इसलिए मुनाफे की बात का हमेशा ध्यान रखते हैं।लेकिन बच्चों को लेकर उनका नजरिया थोड़ा अलग है। उन्होंने बताया कि वे बच्चों को कभी भी निराश नहीं करते।चाहे उनके पास पसंद की चीजें खरीदने लायक पैसे हों या नहीं।वो बताते हैं कि कभी बच्चे शौक से केक खरीदने आते हैं जो आमतौर पर डेढ़ सौ के आसपास की कीमत की रहती है। बच्चों के हाथ में सिक्के देखकर समझ जाता हूं कि पैसे पर्याप्त नहीं है।फिर भी पूछता हूं कितने हैं। बच्चे सकुचाते हुए बताते हैं कि 90 हैं या 100 है।फिर मैं बिना गिने उनसे पैसे लेकर गल्ले में डाल देता हूं।चाहे 90 हो या 100...। उन्होंने बताया कि बच्चों को केक बेचकर खुद का 20-30 का नुक़सान हमेशा होता है। लेकिन उनके चेहरों पर केक खरीदकर जो खुशी देखता हूं उससे मुझे सुख मिलता है।उन नन्हें ग्राहकों से हुई नुकसान की भरपाई मैं किसी दूसरे ग्राहक के मुनाफे से कर लेता हूं।
एक दूसरे सज्जन बताते हैं कि वो कभी भी किसी की मदद के लिए तैयार रहते हैं। इसमें उनको सुख मिलता है।किसी किसी व्यक्ति को किसी दूसरे को सताकर भी सुख मिलता है।
मजेदार बात ये है कि सुख को इकट्ठा करके नहीं रखा जा सकता।सुख आकस्मिक निधि है।इसे चिरस्थाई रुप से नहीं रखा जा सकता।सुख पाने के यत्न किए जा सकते हैं। लेकिन आपके यत्न से सुख मिलेगा ही इसकी कोई भी गारंटी नहीं है।कुछ लोग सुविधा को सुख मानकर गलतफहमी में पड़े रहते हैं।अमीर आदमी गरीब के पास सुख की कल्पना करता है।गरीब आदमी ये समझता है कि धनवान सुखी है।अमीर आदमी के आंखों में जब नींद नहीं आती तो उसके लिए नींद ही सुख है।गरीब आदमी के पास नींद होती है तो सोने के लिए ठीकठाक व्यवस्था नहीं होती। उसके नजरिए से सोफे और गद्दे मिले तो उसे सुख मिले।भूखे के लिए भोजन में सुख है तो पाचन संबंधी समस्या झेल रहे बीमार के लिए भोजन से दूरी बनाने में सुख है।किसी को हंसाने में सुख मिलता है तो किसी को रुलाने में सुख मिलता है।कोई फटेहाल रहकर भी सुखी है तो कोई मालामाल होकर भी सुख के लिए मरा जा रहा है।मुझे लिखकर सुख मिल रहा है...आपको पढ़कर...कुल जमा मतलब ये है कि सारा दौड़ भाग केवल और केवल सुख पाने के लिए होता है। लेकिन इतना करने पर भी ज्यादातर मायूसी ही हाथ लगती है।सुख केवल स्वप्न जान पड़ता है। हालांकि ईश्वर की बनाई सारी चीजें सुखदाई है केवल उसके प्रयोग कि विधि के ऊपर निर्भर करता है कि वो चीज उपयोग कर्ता के लिए सुख का कारण बनेगा या दुख का। 
कोशिश और कामना हमेशा शुभ की होनी चाहिए। उद्देश्य पवित्र होने चाहिए। फिर सर्वत्र सुख ही सुख है।वैसे सुख की कामना मृगतृष्णा के समान है जो शायद ही किसी प्राणी की पूर्ण होती हो।किसी संत के भजन की पंक्ति क्या खूब है...
निर्धन कहे धनवान सुखी
धनवान कहे सुख राजा को भारी
राजा कहे चक्रवर्ती सुखी
चक्रवर्ती कहे सुख इंद्र को भारी
इंद्र कहे श्री राम सुखी
श्री राम कहे सुख संत को भारी
संत कहे संतोष में सुख सब
बिना संतोष के दुनिया दुखारी
मतलब संतुष्टि बढ़कर कोई सुख दुनिया में नहीं है। तृष्णा का तो कोई अंत ही नहीं है।जो है,जितना है उसी में खुश रहने की कला अगर इंसान सीख ले तो शायद दुनिया में कोई दुखी ही ना रहे। सर्वत्र सुख की मंगल कामना के साथ अंत में यही कामना करता हूं.. सर्वे भवन्तु सुखिन:

रविवार, 13 नवंबर 2022

अजब समय के पांव....

 




समय की यात्रा अनवरत जारी रहती है।समय किसी के लिए ना कभी रुका था,ना रुका है और ना ही रुकेगा।बचपन में स्कूल की किताबें अरुचिकर लगती है।संभवतः आप में से भी कोई सहमत हो।उस समय संत, कवियों के दोहे,सीख वाली कहानियां और सूक्तियां पढ़कर खिन्नता होती थी।हालांकि ये सब मूल्यवान तब भी थी,अब भी है और भविष्य में भी होगा।‌लेकिन बचपन में पढ़ी बहुत सी बातों का मर्म अब समझ में आ रहा है। स्कूली किताबों के पाठ्यक्रम में शामिल रहीम और कबीर के दोहे उस समय हमारी बालबुद्धि में समझ के बाहर थे।सोचते थे इन सबसे कब मुक्ति मिले?कब किताबों का ये जंजाल छूटे! कब बड़े हों!!!

कबीर का एक दोहा याद आ रहा है-

काल करे सो आज कर,आज करे सो अब!!

पल में परलय होएगी,बहुरि करेगा कब!!

मतलब ये है कि जो काम करना है वो तत्काल करनी चाहिए। बाद में शायद वक्त उस काम के लिए वक्त ही ना दे तो।कवि प्रदीप का लिखा एक गीत भी खूब चलता था।कभी उलटे कभी सीधे पड़ते अजब समय के पांव...कभी धूप तो कभी छांव....

सच में!कितनी गहरी बात है।समय कब बीत जायेगा या समय कब अपना मिजाज बदल ले कुछ कह नहीं सकते। हममें से ज्यादातर ने आज का काम कल पर टालने की आदत बना ली है।हर काम भविष्य के लिए अधर में लटकाकर वर्तमान में मुक्त रहना चाहते हैं।लेकिन क्या ये संभव है कि समय आपकी योजनाओं को भविष्य में कार्य रुप में परिणित करने के लिए समय देगा।ये कोई भी नहीं जानता।

हर एक के पास भविष्य के लिए ढेरों योजनाएं हैं।हर कोई वर्तमान का सुख छोडकर भविष्य में सुख पाने के लिए योजनाएं बना रहा है। मैं ऐसा करुंगा,मैं वैसा करुंगा...अमका..ढिमका वगैरह.. वगैरह..!!

वास्तव में ये सब कल्पना मात्र है। भविष्य समय के गर्भ में रहता है।मनुष्य अपने भविष्य के लिए योजनाएं तो बना सकता है, लेकिन उसका पूर्ण होना ना होना समय के हाथ में है।हम जो सोचते हैं या जो हमारी भविष्य की योजनाएं हैं उसकी पूर्णता हमारे हाथ में नहीं है।हम केवल कल्पना और परिश्रम कर सकते हैं। इससे अधिक कुछ नहीं।

कुछ दिन पूर्व ही एक विचित्र दृश्य देखा मैंने।एक शिक्षक जो कभी हृष्ट पुष्ट थे और विभिन्न प्रकार के सामाजिक संगठनों की अगुवाई करते थे। वर्तमान में पक्षाघात का शिकार होकर अपनी दिनचर्या के कार्यों के लिए दूसरे पर निर्भर है।एक दौर था जब वो अपनी मोटर सायकल में खूब घूमा करते थे।उसके पास मित्रों और समर्थकों का जमावाड़ा होता था।आज नितांत अकेले हैं।

एक अन्य व्यक्ति जो कभी बढ़िया कलाकार और नीजी स्कूल में शिक्षक रहे हैं। वर्तमान मेंअर्धविक्षिप्त जैसे इधर उधर घूमते रहते हैं।जबकि उनके परिजन आर्थिक रूप से समृद्ध है और उनको खूब शिक्षा दीक्षा भी दिलाए थे। संभवतः उन्होंने भी संबंधित के लिए अनगिनत स्वप्न देखे रहे होंगे और योजना बनाई होंगी।

एक व्यापारी थे जो कभी सिर्फ ब्रांडेड चीजें उपयोग करते थे।हर चीज में ब्रांड की बातें करते थे।स्थानीय स्तर पर उत्पादित सामग्री को लोकल कहकर तिरस्कार करते थे।आज दाने दाने के लिए मोहताज है।एक अन्य व्यापारी ने व्यापार में खूब पैसा बनाया और आलीशान बंगला बनवाया।उसकी कामना थी परिवार के साथ खूब ऐशोआराम से जिंदगी गुजारना।तभी समय ने करवट लिया और उनकी पत्नि का असामयिक निधन हो गया।अब उस बंगले में रहने के लिए कोई नहीं है।खुद बड़े से बंगले में खामोशी से बतियाते पड़े रहते थे।इन सब उदाहरणों को प्रस्तुत करने का एक ही मंतव्य है।क्या हम आज जो संपत्ति बना रहे हैं कल हमारे भविष्य को सुरक्षित कर सकती है?

मेरा नीजी विचार है नहीं कर सकती।इसलिए जो है सो वर्तमान है।वर्तमान को ही सार्थक बनाने की कोशिश होनी चाहिए। छोटी बड़ी जो सुख मिल रहे हों उसे समेटने का प्रयास होना चाहिए। सही नजरिया और सही नीयत किसी भी क्षेत्र में कामयाबी का मूलमंत्र है।इस मूलमंत्र को अपनाने वाले कभी निराश नहीं होते। हालांकि कभी कभी संघर्ष का समय कुछ अधिक लग जाता है। लेकिन जीत अंततः संघर्ष करने वाले की ही होती है। इसलिए आनंद को भविष्य के लिए जमा ना करें।हर छोटी बड़ी खुशियों का आनंद वर्तमान में लें।आपने अपने आसपास ही देखा होगा।कभी कभी गुलाब जामुन खाने का शौकीन व्यक्ति कंजूसी कर कर के बुढ़ापे में गुलाब जामुन खाने की योजना बनाता है।भरपूर गुलाब जामुन खाने लायक रुपया भी जमा कर लेता है। लेकिन तब तक सेहत जवाब दे चुका होता है।डाक्टर परहेज के बंधन में बांध देता है।शुगर लेवल से शरीर को खतरा की सूचना दे देता है।सेहत जवाब देने लगता है और परहेज करके जीना पड़ता है। अंततः सारी हसरतें धरी की धरी रह जाती है। और हाथ आता है केवल अफसोस!!पछतावा!!!उम्मीद है आप ऐसे व्यक्ति नहीं है...

दिन चारी मइहरवा में....सुरता स्व.मिथलेश सर के

  लोकगीतों की अपनी एक अलग मिठास होती है।बिना संगीत के भी लोकगीत मन मोह लेता है,और परंपरागत वाद्य यंत्रों की संगत हो जाए, फिर क्या कहने!! आज ...