सोमवार, 10 जून 2019

माटी होही तोर चोला....

कल ही की तो बात है। प्रतिदिन की भांति वाटसप को खंगाल रहा था तो एक ग्रुप मे अचानक छत्तीसगढ़ कलाजगत के अनमोल रतन और छत्तीसगढ़ी लोकसंगीत के पितामह श्री खुमान लाल साव जी के देहावसान का समाचार मिला।यकीन नहीं हुआ तो एक दो और कलाप्रेमी मित्रों से समाचार को पुष्ट करने का प्रयास किया।जब उनका उत्तर नहीं मिला तो गूगल गुरु से समाचार की पुष्टि हुई और इस मनहूस से समाचार से दिल बैठ सा गया।
  खुमान लाल साव, छत्तीसगढ़ी कलाजगत के ऐसे वटवृक्ष थे जिनके नीचे कितने ही कलाकारों ने आश्रय पाया और कलाजगत मे नाम कमाया।एक शिक्षक के रुप मे भी उन्होंने यश कमाया और एक कलाकार के रुप मे उनके साथ छत्तीसगढ़ ने भी यश कमाया।उनके संगीत का जादू ऐसा था कि बरबस मन मयूर झूम उठता था। अश्लीलता और बाजारू गीत-संगीत से उनका दूर-दूर तक कोई नाता न था।उनके रचे संगीत मे साहित्य स्थान पाता था।पं.रविशंकर शुक्ल,पं.द्वारिका प्रसाद तिवारी"विप्र",संत पवन दीवान,लक्ष्मण मस्तूरिहा जैसे विलक्षण साहित्य साधकों की रचना को उन्होंने अपने संगीत के जादू से अमर कर दिया है। उनके संगीत का स्पर्श पाकर छत्तीसगढ़ की मशहूर गायिका श्रीमती कविता वासनिक की आवाज को प्रसिद्धि मिली। प्रसिद्ध कवि लक्ष्मण मस्तूरिहा के गीतों को एक नया आयाम मिला।
     जिन लोगों ने चंदैनी गोंदा की प्रस्तुति देखी है वे लोग खुमान साव जी के संगीत और प्रस्तुति मे उनके समर्पण को बेहतर महसूस कर सकते हैं।जब तक उनके शरीर ने जवाब नहीं दिया वे चंदैनी गोंदा की प्रस्तुति मे स्वयं हारमोनियम बजाते रहे।वे सिगरेट के कस लगाते रहते और पूरी रात उनका कार्यक्रम निर्बाध गति से चलता रहता। उनके साथ मेरा प्रत्यक्ष रुप से मिलना नहीं हुआ था लेकिन उनको करीब से देखने और उनके संगीत को सुनने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ है।लगभग चार वर्ष पूर्व उनका कार्यक्रम हमारे गांव मे हुआ था।
   हमारे गांव से कुछ लोग जब उनके कार्यक्रम को अनुबंधित करने उनके गृहग्राम ठेकवा गए थे तो उनसे जुडी एक वाकया साथ गए एक सज्जन ने बताया कि जब वे उनके निवास पहुंचे और बताया कि कार्यक्रम अनुबंध के सिलसिले मे वे लोग ढाई सौ किलोमीटर दूर से आए हैं तो साव जी ने उनको आत्मीयता से बिठाया और तत्काल उनकेे लिए जलपान की व्यवस्था किए।बाद मे जब कार्यक्रम के लिए एडवांस पैसा दिया तो वे उसे बिना गिने रखने लगे।जब उनसे गिनने का आग्रह किए तो बोले-"तुमन छत्तीसगढ़िया हरव।अउ एक छत्तीसगढ़िया ह दूसर छत्तीसगढ़िया ल ठगही थोरे जी।"ऐसा कहते हुए उन्होंने पुनः बिना गिने ही पैसा रख लिया।उनका ऐसा स्वभाव देखकर साथ गए लोग गदगद हो गए।
   वे अपने धुन मे रमे व्यक्ति थे। राजनीतिक उठापटक और सम्मान पुरस्कार की दौड से कोसों दूर। दर्शकों के प्यार को ही वे अपना सबसे बडा पुरस्कार मानते थे। उन्होंने बहुत से पुरस्कार को पुरस्कार नीति से आहत होकर ग्रहण नहीं किया।पिछले वर्ष ही उनको राष्ट्रपति महोदय के द्वारा संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार प्राप्त हुआ।कला प्रेमियों के द्वारा उनकी इस उपलब्धि के लिए उनका नागरिक अभिनंदन राजनांदगांव मे किया गया।वे पुरस्कार के लिए जुगाड लगाने वालों मे से नहीं थे। इसलिए प्राय: उपेक्षित ही रहे।मेरा मानना है कि खुमान साव जी पद्म पुरस्कार के हकदार रहे हैं।जो उन्हें नहीं मिल पाया। उनका निधन छत्तीसगढी कला जगत के लिए अपूरणीय क्षति है। पर संगीत प्रेमियों के दिलों मे उनका स्थान सदैव रहेगा।अपने रचे अमर संगीत के माध्यम से वे छत्तीसगढ़ मे सदैव गुंजित रहेंगे।जन्म लेने वाले का मृत्यु निश्चित है।इस कठोर सत्य से कोई नहीं बच सकता।उनके जाने के बाद मुझे चंदैनी गोंदा की प्रस्तुति और उनके संगीतबद्ध गीत बहुत याद आ रहे हैं और उन अनेक गीतों में से एक गीत...
माटी होही तोर चोला रे संगी! माटी होही तोर चोला.....
खुमान बबा ल विनम्र श्रद्धांजलि





   

बुधवार, 5 जून 2019

ईद और नन्हें हामिद की यादें...

आज ईद है। मुस्लिम भाईयों का सबसे बडा त्योहार।पर बचपन के कुछ वर्षों तक मुझे इसके बारे में कुछ भी पता नहीं था।तब हमारे लिए रक्षाबंधन,होली, दशहरा,दीवाली और कुछ स्थानीय त्योहार ही त्योहार हुआ करते थे। हालांकि एक दो मुस्लिम परिवार हमारे गांव मे भी हुआ करते थे पर वो त्योहार मनाने नजदीक के कस्बे मे जाते थे तो उनके त्योहार का कुछ भी त्योहार जैसा नहीं लगता था।
   हमारी बाल मति अनुसार जब उन लोगों के घर मे खाट के पाए से बांधकर सेवईयां बनाई जाती थी तब समझ मे आ जाता था कि उनका त्योहार करीब  है।और जिस दिन वे लोग नए कपडे पहनते थे,हमारे घर मे सेवई की कटोरी आती थी और हमारे स्कूल मे छुट्टी होती थी तब हमें मालूम पडता था कि आज उनका त्योहार है।
वैसे ईद से और हामिद से मेरा पहला परिचय हमारी भाषा की किताब मे कक्षा तीन मे हुआ था। ईदगाह कहानी से। हामिद... एक छोटा सा बच्चा जो उस समय तकरीबन हमारे जित्ते ही रहा होगा।पर उसकी सोच एक जिम्मेदार आदमी से भी बडी थी।बालमन लालची होता है।अपने सामर्थ्य के अंदर और बाहर कि सभी चीजों को पाने के लिए लालायित होता है।किंतु हामिद एक बैरागी संत की तरह मोहमाया से विरक्त खिलौनों और मिठाईयों को नजर अंदाज करके अपनी दादी की परेशानी को ही याद रखता है। दुनिया भर के आकर्षण की चमक उसे याद नहीं....सिर्फ दादी और रोटी बनाते समय उनके जलते हाथ ही उसे याद रहा।उसे पूरे मेले मे सिर्फ चिमटा ही उपयोगी वस्तु लगा।वो भी इसलिए कि चिमटे पाकर दादी की हाथ नहीं जलेगी।अपने हमउमर दोस्तों की सभी  दलीलों को उसने अपने अकाट्य तर्कों से काट डाला था।
    कितनी मासूमियत और कितनी बडी सोच थी उस नन्हे से फरिश्ते की।आज बच्चों मे उस मासूमियत की कमी खलती है।आज मां बाप का बर्ताव अपने बच्चों के साथ किसी सर्कस के रिंग मास्टर की तरह हो गया है जिनके आदेश मुताबिक बच्चों को चलना होता है।फलां काम करो,ऐसे बैठो,वैसे रहो आदि।बच्चे भी अब अतिरिक्त सुविधा मिलने के कारण जिम्मेदारी की भावना से मुक्त नजर आते हैं।वैसे संघर्ष ही आदमी को जिम्मेदार बनाता है जीने,की कला सिखाता है।संघर्षहीन जीवन मे कोई किसी चीज की कदर भला क्यों करे?अधिकांश घरों मे बच्चे अब अपनी मांगों को मनवाने के लिए अपने पालकों को भावनात्मक रूप से  ब्लैकमेल करते नजर आते हैं।इस क्लास मे जाउंगा तो सायकल दिलाओ,अमुक काम करने पर मुझे मोबाईल दिलाओ वगैरह वगैरह।अब बच्चों को तनिक भी परवाह नहीं है कि उनकी मांग पूरी करने मे उनके पैरेंट्स की क्या हालत होगी?उनको इन बातों से कोई मतलब नहीं।
     मां-बाप अपने बच्चों की जरूरतें तो पूरी कर रहे हैं पर उनको पैसे  और किसी सामान की अहमियत और उनकी इज्जत करना नहीं सीखा रहे हैं। परिवार सुविधाएं भले ही बढती जा रही है पर सामंजस्य घटता जा रहा है।एक दूसरे की परवाह की भावना कम हो रही है शायद इसीलिए हामिद वाली सोच अब नदारद हो रही है....ईद मुबारक
     
   

दिन चारी मइहरवा में....सुरता स्व.मिथलेश सर के

  लोकगीतों की अपनी एक अलग मिठास होती है।बिना संगीत के भी लोकगीत मन मोह लेता है,और परंपरागत वाद्य यंत्रों की संगत हो जाए, फिर क्या कहने!! आज ...