अभी देश में हालात काफी मुश्किल भरा है।चीन से आई महामारी ने देश दुनिया की कमर तोड़ कर रख दी है। इस वैश्विक महामारी के रोकथाम के लिए संपूर्ण देश में लाकडाऊन लागू है। सभी लोग घर में रहने के लिए बाध्य है और चिकित्सा आपात के इस कठिन दौर में ये उचित भी है।इस अवस्था में लोग घर में बैठकर बोरियत महसूस ना करें इसलिए दूरदर्शन द्वारा पुराने पौराणिक धारावाहिकों का पुनर्प्रसारण किया जा रहा है जिसमें रामायण धारावाहिक भी शामिल है।एक समय में इस धारावाहिक ने लोकप्रियता की बुलंदी को छुआ था और सालों बाद इसके पुनर्प्रसारण ने भी टीआरपी में दूरदर्शन को बुलंदियों पर पहुंचा दिया है।खैर,हम बात रामायण की कर रहे हैं और मैं इस पौराणिक गाथा में वर्णित भातृप्रेम पर कुछ विचार रखना चाहता हूं।
रामायण में जीवन के सभी पक्षों को सुंदरता के साथ अभिव्यक्त किया गया है। रिश्ते-नाते,मर्यादा,कर्तव्य और जीवन में आनेवाली कठिनाई तथा उसके समाधान के अथक प्रयास का बड़ी ही सुंदरतम चित्रण देखने को मिलता है इस महागाथा में।वैसे रामायण ही भगवान श्रीराम के जीवन चरित्र को समझने का मूल माध्यम है लेकिन गोस्वामी तुलसीदास रचित श्रीरामचरितमानस की कथा जन सामान्य में अधिक प्रचलित है।
श्रीरामचरितमानस में राम,लक्ष्मण,भरत और शत्रुघ्न, सुग्रीव और बाली तथा रावण, कुंभकर्ण और विभिषण जैसे भाईयों का प्रसंग देखने में आता है।इन सभी भाइयों के भातृप्रेम की गाथा बड़ा ही विचित्र है। सर्वप्रथम हम मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम और उसके प्राण प्यारे भाई लक्ष्मण के बीच के भातृप्रेम को देखेंगे। राम और लक्ष्मण के बीच अपार स्नेह था। गोस्वामीजी विरचित मानस के विभिन्न कथाप्रसंगों में राम के जीवन के सभी निर्णायक क्षणों में लक्ष्मण मौजूद थे।मुझे याद आता है जब जनकपुरी में सीता स्वयंवर में जब समस्त राजा धनुष उठाने में अक्षम साबित होते हैं तो जनकजी निराश हो जाते हैं और धरती को वीर विहिन होने की बात करते हैं तो लक्ष्मण उसी क्षण तत्काल उनकी उस उक्ति पर आपत्ति करते हैं और श्रीराम जी के पौरूष से उनका परिचय कराते हैं।अपने बड़े भाई के गुणों को लक्ष्मण जी अच्छी तरह से जानते थे तो ऐसे अवसर पर वे भला कैसे चुप रहते ? ठीक उसी प्रकार से जब परशुराम धनुष भंग पर रोष प्रकट करते हैं तो उनके सभी प्रश्नों का जवाब लक्ष्मणजी देते हैं।मतलब ये है कि लक्ष्मण अपने बड़े भाई के विरुद्ध किसी भी प्रकार की बातों का तत्काल विरोध करते थे चाहे परिणाम जो हो।लेकिन इस अवसर पर राम का अपने छोटे भाई के प्रति स्नेह भी दिखता है और वे अपने मृदु स्वभाव से असहज स्थिति को सहज बनाकर अपने छोटे भाई की सुरक्षा भी करते हैं।
चौदह वर्ष का वनवास केवल राम को मिला था।लेकिन बिना राम के लक्ष्मण का कोई अस्तित्व नहीं था।राम के साथ उनकी सहधर्मिणी सीता भी वनवास में गई। लेकिन इससे भी बढ़कर अपने गृहस्थ सुख का परित्याग करने का साहस लक्ष्मण जी ने दिखाया था।अपने बड़े भाई का साथ देने के लिए उन्होंने राजमहल के वैभव विलास के जीवन को भी त्याग दिया।ठीक इसी प्रकार जब लक्ष्मण शक्ति बाण लगने से मृत्यु शैय्या पर होते हैं तो राम के दुख का वर्णन नहीं किया जा सकता।वे अपने भाई की प्राण रक्षा के लिए व्याकुल हो उठते हैं।
रावण को मारकर जब अयोध्या में श्रीराम का राजतिलक होता है और कुछ समय के पश्चात परिस्थितिवश सीता के परित्याग का कठोर निर्णय राम को लेना पडता है तो वे इस कठोर कार्य के लिए लक्ष्मण को ही चुनते हैं ।क्योंकि लक्ष्मण से अधिक राम को समझ पाने का सामर्थ्य संभवतः अन्य चरित्रों में नहीं था।रावण भी राम-लक्ष्मण के भातृप्रेम का प्रशंसक था।प्राण त्यागते समय वे रामजी को कहते हैं कि भाई मेरे पास भी था और भाई तुम्हारे पास भी है।लेकिन मेरी मृत्यु का कारण मेरा भाई बना और आपकी जीत का कारण आपका भाई है।इस प्रकार से लक्ष्मण और राम के बीच का भातृप्रेम दुर्लभतम है।काश!! भाई-भाई के बीच आज ऐसा रिश्ता होता।
राम जी को लक्ष्मण के जैसा ही स्नेह अपने दूसरे भाई भरत से भी था।जब माता कैकेई के द्वारा स्वयं को वनवास दिए जाने और भरत के राजतिलक का समाचार उन्हें ज्ञात हुआ तो वे भरत के राजतिलक से अत्यंत हर्षित हुए न कि अपने वनवास से व्यथित।ठीक उसी प्रकार से जब भरत जी को राम वनवास और अपने राजतिलक का समाचार मिला तो वे भी अत्यंत दुखी हुए। उन्होंने राजमहल और राजतिलक को ठुकरा दिया और अपने बड़े भैया को वापस लाने दौड़ पड़े। भौतिक संपदा के भागमभाग के पीछे आज रिश्तों की मर्यादा तार-तार हो रही है।भाई अपने ही भाई का प्राण लेने के लिए आतुर दिखाई पड़ता है।हम सबको रामायण के इस प्रसंग से प्रेरणा लेने की आवश्यकता है।भरत के बारंबार निवेदन करने पर भी जब राम पुनः अयोध्या लौटने के लिए तैयार न हुए तो वे उनके चरण कमल की धूल और खडाऊ शिरोधार्य करके लौट गए और नंदीग्राम में कुटिया बनाकर अपने भाई राम के जैसे ही कष्टसाध्य जीवन को अंगीकार कर लिया।पूरे वनवास काल तक भरत ने अपने नियम का पालन किया और बड़े भाई के खडाऊ को राजसिंहासन पर आसीन किया।ऐसा त्याग दुर्लभ है। शत्रुघ्न भी अपने भाईयों की सेवा में सदैव तत्पर रहते थे और अपने अग्रजों के अनुगामी थे लेकिन उनका प्रसंग कम ही देखने में आता है।
किष्किन्धाकाण्ड के प्रसंग में बाली और सुग्रीव की कथा मिलती है।ये दोनों भी भाई थे लेकिन एक छोटी सी गलतफहमी ने दोनों के बीच शत्रुता के बीज बो दिया था।कथा कुछ ऐसा था कि एक बार दुंदुभी नामक दैत्य ने वानर राज बाली को युद्ध के लिए ललकारा तो बाली उससे युद्ध करने चला गया।जब बाली से लड़ते-लड़ते दैत्य को बाली के अपार बल का पता चला तो वो एक गुफा में घुस गया।उसके साथ ही बाली ने भी गुफा में प्रवेश किया और अपने अनुज सुग्रीव को निर्देशित किया कि अगर छ: माह तक वे बाहर न निकले तो वह बाली को मृत मानकर राज-काज का संचालन करे।अपने भाई के आदेश पालन करते-करते सुग्रीव ने लगभग वर्ष भर का समय गुफा के बाहर बाली की प्रतीक्षा में बिताया।तभी एक दिन गुफा से रक्त की धारा प्रवाहित हुई और गुफा से भीषण गर्जन की आवाज आई।सुग्रीव ने अनुमान लगाया कि शायद बाली मारे गए और दैत्य कहीं गुफा से बाहर ना निकल आये इस भय से गुफा के द्वार बंद कर दिए।जब वे अपने नगर लौटे और गुफा का समाचार सुनाया तो उनके नागरिकों ने उनका राज्याभिषेक कर दिया। कुछ समय बाद पश्चात बाली वापस अपने नगर लौटा और सुग्रीव को राजसिंहासन पर आसीन देखकर क्रोधित हो गया और सुग्रीव को लात मारकर अपने राज्य से भगा दिया और उसके प्राण का प्यासा बन बैठा।इस घटना में सुग्रीव का बाली के प्रति अविश्वास ही संशय का कारण बना।बाली को वरदान प्राप्त था कि जो उसके सम्मुख आता उसकी आधी ताकत बाली को मिल जाती थी।सुग्रीव को बाली के इस गुण का ज्ञान था फिर भी वह सशंकित हो गया जो उसके निष्कासन का कारण बना ठीक उसी प्रकार बाली को भी अपने छोटे भाई की निष्ठा पर अकारण ही संदेह हो गया और वो उसका शत्रु बन बैठा।इस प्रसंग से सीख मिलती है कि भाईयों के बीच विश्वास होना चाहिए।कभी भी भाईयों के बीच में अविश्वास की खाई नहीं होनी चाहिए अन्यथा रिश्ते का पतन तय है।
अब चलते हैं रावण, विभीषण और कुंभकर्ण के भातृत्व भाव की ओर।असुर होने के बाद भी विभीषण संत स्वभाव का था और वह रावण के अनुचित कार्य पर उनको सावधान करता था लेकिन अहंकार में चूर रावण अपने भाई की बात को हमेशा ही अनसुना कर देता था।जब विभीषण के लिए रावण के सान्निध्य में रहना दुष्कर हो गया तो वह शत्रुपक्ष में शामिल हो गया मतलब वे रामजी के शरण में चले गए।और अपने साथ ले गए रावण के गुप्त रहस्यों की जानकारी जो बाद में उसके विनाश का कारण बना।भाई द्वारा भाई की उपेक्षा ही विनाश का मार्ग प्रशस्त करती है यह बात रावण विभीषण प्रसंग से स्पष्ट हो जाता है।रावण के दूसरे भाई का अधिक वर्णन नहीं है।वे युद्ध के समय केवल अपने बड़े भाई के आज्ञापालन के लिए आते हैं। हालांकि वे भी रावण को उचित सलाह देते हैं पर रावण के ना मानने पर भी शत्रु को हराने के लिए अपने भाई का ही साथ देते हैं। कुंभकर्ण का चरित्र आज्ञापालन सीखाता है। हालांकि अधर्मी का साथ देने के कारण उसका भी पतन हो जाता है। लेकिन विभीषण की भांति वो युगों-युगों तक उलाहना का पात्र नहीं बना।आज भी घर के भेद दूसरों को बताने वाले के लिए कहा जाता है-घर का भेदी लंका ढाए।
तो भाईयों अपने भाईयों से स्नेह प्रेम बनाकर रखें।कभी भी महाभारत वाले भाई ना बनें।बल्कि मर्यादा के प्रतिरूप राम,लक्ष्मण और भरत सम भाई बनें।तो देखिएगा रामायण और विचार किजियेगा.....जय श्री राम
रीझे