बुधवार, 3 फ़रवरी 2021

चढ़ता सूरज धीरे-धीरे ढलता है ढल जायेगा


आप सबको कभी कभी महसूस नहीं होता कि ये पूरी दुनिया मैं.. मैं..मैं.... चिल्लाने वालोें से भरी पड़ी हैं।आपने क्या सोचा? हम किसकी बात कर रहे हैं....बकरी की!!!

जी नहीं; हम यहां बकरियों की बात नहीं कर रहे हैं।हम बात कर रहे हैं उन लोगों की, जिनको ये भ्रम है कि दुनिया उनके भरोसे चल रही है।वो नहीं रहेंगे तो दुनिया डगमगाने लगेगा। ऐसा सोचने वाले लोग!! मैंने ये किया,मैंने वो किया, मैं ये जानता हूं, मैं वो जानता हूं,मुझे ये चीज आती है, मैं सब जानता हूं कहने वाले।याने मैं ही मैं का रट्टा मारने वाले आत्ममुग्ध इंसान।

वैसे ऐसे लोगों को ढूंढने के लिए ज्यादा दूर जाने की जरूरत नहीं है।हम सबके आसपास ही ऐसे लोग बेहिसाब तादाद में अगल-बगल में खड़े मिलते हैं।हमारे धार्मिक ग्रंथों में बताया भी गया है कि इंसान मिट्टी से बना है और अंत में मिट्टी में ही मिल जायेगा।

छिति जल पावक गगन समीरा। पंच रचित अति अधम सरीरा

पर ये मानता कौन है? समझता कौन है?

धार्मिक ग्रंथ पढ़ने का टाईम किसके पास है? कम से कम आज की पीढ़ी के पास तो बिल्कुल नहीं हैं। तमाम सुख सुविधाओं से लैस आज की पीढ़ी आईफोन,सोशल मीडिया, आनलाईन गेमिंग और उल्लू जैसे प्लेटफार्म में अपने वर्तमान का कबाड़ा कर रहे हैं। ऐसे में जीवन की कड़वी सच्चाई को जानने समझने का सबसे सरल तरीका है आप अजीज नाजा साहब कि कव्वाली सुन लीजिए।अब आप पूछेंगे कौन अजीज नाजा? यूट्यूब में सर्च कीजिए मिल जायेगा।कदाचित कुछ मदिराप्रेमियों को स्मरण भी हो आया हो।

हां..हां...वही अजीज़ साहब जिनकी कव्वालियों ने शराबियों को मदमस्त किया था।मस्ती में आ पीये जा...झूम बराबर झूम जैसे सुपरहिट कव्वाली गाने के गायक।उसी अजीज नाजा साहब ने खूबसूरत संगीत के साथ कैसर रत्नागिरवी के चौबीस कैरेट सोने से खरे शब्दों को जब अपनी आवाज़ की खनक के साथ मिलाया तो ये कव्वाली कालजयी बन पड़ा है।जो शायद सदियों तक सुनी जाती रहेगी।जीवन की सच्चाई का आईना दिखाती और दिखावे से दूर रहने की हिदायत देती ये कव्वाली कमाल बनी है। झूठे घमंड में चूर लोगों को ये कव्वाली जरूर सुननी चाहिए।मुझे तो इसकी दो पंक्तियां सबसे ज्यादा भाती है-

याद कर सिकंदर को हौसले तो आली थे।

जब गया वो दुनिया से, दोनों हाथ खाली थे।।

हमारे बचपन के दिनों में ये कव्वाली खूब चला करती थी।अजीज साहब के बाद उसके साहबजादे जाहिद नाजा ने भी इस कव्वाली को उन्हीं की आवाज में गाया है,जिसे आप यूट्यूब में सुन और देख सकते हैं। महाभारत युद्ध के समय भगवान श्रीकृष्ण ने जीवन का सार गीता में बताया था। बिल्कुल उसी कृष्ण के गीता उपदेश का सार सा लगता है ये कव्वाली।शब्द ज्यों का त्यों उद्धृत कर रहा हूं-

हुए नामवर ... बेनिशां कैसे कैसे ...

ज़मीं खा गयी ... नौजवान कैसे कैसे ...


आज जवानी पर इतरानेवाले कल पछतायेगा - ३

चढ़ता सूरज धीरे धीरे ढलता है ढल जायेगा - २

ढल जायेगा ढल जायेगा - २


तू यहाँ मुसाफ़िर है ये सराये फ़ानी है

चार रोज की मेहमां तेरी ज़िन्दगानी है

ज़र ज़मीं ज़र ज़ेवर कुछ ना साथ जायेगा

खाली हाथ आया है खाली हाथ जायेगा

जानकर भी अन्जाना बन रहा है दीवाने

अपनी उम्र ए फ़ानी पर तन रहा है दीवाने

किस कदर तू खोया है इस जहान के मेले मे

तु खुदा को भूला है फंसके इस झमेले मे

आज तक ये देखा है पानेवाले खोता है

ज़िन्दगी को जो समझा ज़िन्दगी पे रोता है

मिटनेवाली दुनिया का ऐतबार करता है

क्या समझ के तू आखिर इसे प्यार करता है

अपनी अपनी फ़िक्रों में

जो भी है वो उलझा है - २

ज़िन्दगी हक़ीकत में

क्या है कौन समझा है - २

आज समझले ...

आज समझले कल ये मौका हाथ न तेरे आयेगा

ओ गफ़लत की नींद में सोनेवाले धोखा खायेगा

चढ़ता सूरज धीरे धीरे ढलता है ढल जायेगा - २

ढल जायेगा ढल जायेगा - २


मौत ने ज़माने को ये समा दिखा डाला

कैसे कैसे रुस्तम को खाक में मिला डाला

याद रख सिकन्दर के हौसले तो आली थे

जब गया था दुनिया से दोनो हाथ खाली थे

अब ना वो हलाकू है और ना उसके साथी हैं

जंग जो न कोरस है और न उसके हाथी हैं

कल जो तनके चलते थे अपनी शान-ओ-शौकत पर

शमा तक नही जलती आज उनकी तुरबत पर

अदना हो या आला हो

सबको लौट जाना है - २

मुफ़्हिलिसों का अन्धर का

कब्र ही ठिकाना है - २

जैसी करनी ...

जैसी करनी वैसी भरनी आज किया कल पायेगा

सरको उठाकर चलनेवाले एक दिन ठोकर खायेगा

चढ़ता सूरज धीरे धीरे ढलता है ढल जायेगा - २

ढल जायेगा ढल जायेगा - २


मौत सबको आनी है कौन इससे छूटा है

तू फ़ना नही होगा ये खयाल झूठा है

साँस टूटते ही सब रिश्ते टूट जायेंगे

बाप माँ बहन बीवी बच्चे छूट जायेंगे

तेरे जितने हैं भाई वक़तका चलन देंगे

छीनकर तेरी दौलत दोही गज़ कफ़न देंगे

जिनको अपना कहता है सब ये तेरे साथी हैं

कब्र है तेरी मंज़िल और ये बराती हैं

ला के कब्र में तुझको मुरदा बक डालेंगे

अपने हाथोंसे तेरे मुँह पे खाक डालेंगे

तेरी सारी उल्फ़त को खाक में मिला देंगे

तेरे चाहनेवाले कल तुझे भुला देंगे

इस लिये ये कहता हूँ खूब सोचले दिल में

क्यूँ फंसाये बैठा है जान अपनी मुश्किल में

कर गुनाहों पे तौबा

आके बस सम्भल जायें - २

दम का क्या भरोसा है

जाने कब निकल जाये - २

मुट्ठी बाँधके आनेवाले ...


मिलते हैं अगले पोस्ट में..तब तक राम-राम

मुट्ठी बाँधके आनेवाले हाथ पसारे जायेगा

धन दौलत जागीर से तूने क्या पाया क्या पायेगा

चढ़ता सूरज धीरे धीरे ढलता है ढल जायेगा




ड्रामे की किताब


 आज एक किताब की दुकान में जाना हुआ। पिछले साल से स्कूल कालेज बंद चल रहे हैंं। पर बच्चों की परीक्षा आयोजित होना तय है, इसलिए गाईड और प्रश्न बैंक वगैरह सजाके दुकानदार बैठा था।दुकानदार परिचित था इसलिए थोड़ी देर तक इधर-उधर की बातें होती रही।तभी मेरी नजर कुछ पुरानी पतली से पुस्तकों पर पड़ी।समय के मार से धूल खाते पड़ी थी।शायद सालों से उन पतली पुस्तकों की माॅंग नहीं थी। मैंने उन पुस्तकों पर पड़ी धूल झाड़कर देखा तो समझ में आया कि ये किताबें तो नाटकों की हैं,जो पहले गांवों के रंगमंचों पर खेला जाता था।
तब का जमाना भी क्या जमाना था? मनोरंजन के विशेष साधन ना थे। विशेष अवसरों पर ही नाचा या अन्य मंचीय कार्यक्रमों का संयोग बनता था।अक्सर दशहरे के अवसर पर रामलीला होता था।और अन्य अवसर के लिए ड्रामा की मंचीय प्रस्तुति होती थी। जिनमें सामान्यतः सामाजिक विषयों का फिल्मी टच के साथ मसालेदार कहानी हुआ करती थी।डाकू,सती,दहेज और रामायण तथा महाभारत के विभिन्न प्रसंगों के नाटक हुआ करते थे। नाटकों के शीर्षक भी दिलचस्प होते थे।जैसे-राखी के दिन, इंसाफ की आवाज,लहू की सौगंध,गरीब का बेटा,जयद्रथ वध,राजा हरिश्चंद्र,कीचक वध,सती सावित्री आदि।ये नाटक ऐसे होते थे जिन्हें कम बजट पर मंच पर प्रस्तुत किया जा सकता था।
इन नाटकों की पुस्तकें ज्यादातर भागलपुर बिहार से प्रकाशित हुआ करती थी।डायलॉग सरल सहज हिंदी में लिखे होते थे। जिन्हें गांव के कम पढ़े लिखे लोग भी आसानी से रट्टा मार लिया करते थे। मनोरंजन का सशक्त माध्यम होता था ये ग्रामीण क्षेत्रों में। जहां अभिनेता और दर्शक गांव के लोग ही होते थे। स्त्री पात्र का अभिनय भी पुरुष ही करते थे। 
इन नाटकों का कोई निर्देशक नहीं होता था।नाटक का मैनेजर ही सबका एक्टींग में मार्गदर्शन करता था। कलाकार भी भोले भाले ग्रामीण होते थे जिन्हें स्त्री पुरुष दोनों का अभिनय करना होता था।चेहरे की बनावट,अभिनय क्षमता और पार्ट याद करने की क्षमता के आधार पर पात्र का चयन किया जाता था।रातभर नाटक चलता था जिसमें बीच-बीच में प्रसंगानुसार स्थानीय बोली के गीत और फिल्मी गानों का भी समावेश होता था। पेट्रोमेक्स की रोशनी और लो बजट के साउंड सिस्टम के साथ कपड़े और बांस बल्लियों से बने अस्थाई रंगमंच पर रातभर कामेडी, इमोशन,एक्शन और रोमांस का तड़का लगता था। लोगों का रातभर मनोरंजन करने वाले कलाकार अगली सुबह फिर दैनिक दिनचर्या में व्यस्त हो जाते थे।
उस दौर में पैसे की कमी जरूर थी.... लेकिन दिल बड़ा हुआ करते थे

दिन चारी मइहरवा में....सुरता स्व.मिथलेश सर के

  लोकगीतों की अपनी एक अलग मिठास होती है।बिना संगीत के भी लोकगीत मन मोह लेता है,और परंपरागत वाद्य यंत्रों की संगत हो जाए, फिर क्या कहने!! आज ...