रविवार, 16 मई 2021

स्कूली किताबें



 हमारे देश में बच्चों की पढ़ाई लिखाई को चौपट हुए डेढ़ साल होने को है।चीन देश की आफत हमारे देश सहित विश्व भर में कहर बरपा रही है।अमूमन बहुत से देशों में पढ़ाई लिखाई ठप्प पड़ा है।स्कूलों और कॉलेजों में ताले लगे हैं। हालांकि पढ़ाई-लिखाई का कार्य यथावत रखने के लिए आनलाईन पढ़ाई जैसे  वैकल्पिक उपायों का सहारा लिया जा रहा है।परिस्थितियों के अनुकूल होने के बाद ही सभी प्रकार के नुक़सान की भरपाई हो सकती है, लेकिन जो अकारण काल के ग्रास बने उनकी और बच्चों के बीते समय की पढ़ाई के नुक़सान की भरपाई कभी नहीं हो सकती।आज सोशल मीडिया में किसी ने बचपन के दिनों की एक कविता शेयर किया तो गुजरे दौर की यादें चलचित्र की भांति चलायमान हो गई।

आज मुझे अपने स्कूली दिनों की भाषा की किताबें और उसमें लिखी कविता और कहानियां याद आ रही है। सचमुच तब कितनी दिलचस्प हुआ करती थी हमारी स्कूली किताबें।उस समय ना तो आज की तरह प्राइवेट स्कूलों की भरमार थी और ना ही आज की तरह ताम-झाम और फालतू के चोचले। उस समय सब बच्चे विद्यार्जन के लिए सरकारी स्कूलों में ही पढ़ते थे चाहे उनके पालक व्यापारी हों, कर्मचारी हों या किसान हो। सब बिना भेदभाव बिना कोई ठसनबाजी के एक साथ पढ़ते थे।स्टेटसबाजी नाम की बीमारी नहीं आई थी उस वक्त तक।

हम लोगों की पढ़ाई अविभाजित मध्यप्रदेश में हुई थी।तब स्कूलों में मध्यप्रदेश पाठ्य-पुस्तक निगम की किताबें पढ़ाई जाती थी।उस समय के स्कूली किताबों में लिखा पापुनि और पेड़ की डाली पर बैठे मोर का लोगो मानस पटल पर आज भी अंकित है।तब कक्षा पहिली और दूसरी की किताबें रंगीन होती थीं जबकि कक्षा तीसरी के बाद किताबें श्वेत श्याम हो जाती थी।मतलब सफेद कागज पर काली स्याही से छपी पुस्तकें पढ़ने को मिलती थी।ठीक भी थीं,जीवन का फलसफा भी यही सिखाता है।आदमी के जीवन में बचपन के दिन ही रंग बिरंगे होते हैं।बाद में धीरे-धीरे दुनियादारी की कालिख मन-मस्तिष्क पर चढ़ने लगती है और जीवन की रंगीनियां खोने लगती है।शनै:शनै: आदमी का जीवन श्वेत श्याम हो जाता है। लेकिन कोशिश जीवन में रंग भरने की ही होनी चाहिए।सारे रंग ना मिले ना सही,जो मिल जाए उसी से जीवन में खुशियां भरने की कोशिश होनी चाहिए।

खैर,इस पर फिर कभी चर्चा करूंगा। फिलहाल तो बातें स्कूली किताबों की।भाषा की किताब में सर्वप्रथम ईश वंदना के पाठ होते थे।जगत नियंता की आराधना से पठन पाठन का कार्य शुरू होता था।इन पाठों को प्रायः हम लोग गणतंत्र दिवस और स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर सांस्कृतिक कार्यक्रमों में पढ़ते थे और तालियां और ईनाम बटोरते थे। एक वंदना आज भी थोड़ा बहुत याद है।

जिसने सूरज चांद बनाया

जिसने तारों को चमकाया

जिसने फूलों को महकाया

जिसने चिड़ियों को चहकाया

जिसने सारा जगत बनाया

हम उस ईश्वर के गुण गाएं

उसे प्रेम से शीश झुकाएं।

बस इतना ही!!!

उस समय के स्कूली पाठ्यक्रम में सरल शब्दों में सुंदर सुंदर कविता और चित्र मजेदार होते थे।जिनसे बचपन मजेदार हो जाती थी।कुछ कविताएं और कहानियां आज भी याद है जैसे अब्बू खां की बकरी,सुई धागा और मशीन,पांच बातें,लक्ष्मी बहू, प्रायश्चित,पंच परमेश्वर,खुदीराम बोस आदि आदि।बचपन में पढ़े कुछ कहानियों के पाठों का नाम भले ही भूल गया हूं, पर उसकी कलावस्तु और पात्रों के नाम आज भी याद है।हरपाल सिंह और उसकी पांच बातें,लालची पंडित का बिल्ली मारने पर सोने की बिल्ली दान करवाने का सुझाव,पंच परमेश्वर के अलगू चौधरी और जुम्मन शेख।लाल बुझक्कड और चल रे मटके टम्मक टूं के बुढ़िया की चतुराई।मां खादी की चादर दे दो, यह कदंब का पेड़, पुष्प की अभिलाषा कविता आज भी जुबानी याद है।सारी कविताएं और कहानियां बेजोड़!एक से बढ़कर एक!!

आजकल की किताबों में मुझे व्यक्तिगत तौर पर वो बात नहीं दिखाई देती है जो हमारे दौर की स्कूली किताबों में हुआ करती थी।तब पाठ्य-पुस्तक आज के किताबों की तरह बोझिल और उबाऊ नहीं होते थे। किताबें देखकर भागने का मन नहीं करता था। लेकिन आजकल की किताबें नीरस जान पड़ती है।शायद इसीलिए बच्चे किताबें देखकर भागते हैं।ऐसे में मुझे बच्चों का कोई दोष नहीं दिखाई देता।पता नहीं वर्तमान के शिक्षाविदों को क्या हो गया है कि वे बच्चों के मन को रिझाने वाले विषय-वस्तु को पाठ्यक्रमों में स्थान नहीं दे रहे हैं। बच्चों की किताबों से साहित्य गायब हो रहे हैं और कामचलाऊ रचनाएं पाठ्य-पुस्तक की शोभा बढ़ा रही है।मुंशी प्रेमचंद,पंत,निराला,परसाई,शरद जोशी जैसे विलक्षण साहित्यकारों की रचना का स्कूली किताबों में अभाव खटकता है।रोचकता के अभाव में बच्चों में पढ़ाई के प्रति ललक बढ़े भी तो कैसे? हालांकि बदलते समय के साथ आधुनिक तकनीक और


विचारधारा वाले विषय-वस्तु का समावेश स्कूली किताबों में जरूरी है, लेकिन अतीत के पन्नों को भी जोड़ा जाना चाहिए।

एक पालक के तौर पर बच्चों की किताबों को जरूर खंगालें....

चित्र सोशल मीडिया से साभार 

शुक्रवार, 14 मई 2021

एक छोटी सी कहानी अक्षय तृतीया की



 

बहुत दिनों से कुछ लिखना नहीं हो पा रहा है।महामारी ने इतनी दहशत फैला रखी है कि कुछ भी सूझता नहीं है।फिर भी आज कुछ लिखने का मन किया तो एक कहानी लिखा हूं।एक सुखांत प्रेमकथा...
अक्षय तृतीया...
आज अक्षय तृतीया है।कहते हैं इस दिन कोई भी कार्य अगर शुरू किया जाये तो वह अवश्य सफल होता है।अक्षय तृतीया स्वयंसिद्ध शुभ मुहूर्त है। इसलिए छत्तीसगढ़ के ग्रामीण क्षेत्रों में इस दिन हजारों की संख्या में शादी ब्याह रचाया जाता है।कुछ जीवनपर्यंत साथ निभाने के लिए रचाई जानेवाली सचमुच की शादियां और कुछ गुड्डे-गुड़ियों वाली शादी जिसे बच्चे आपस में मिल जुलकर रचाते हैं।
ऐसे ही गुड्डे-गुड़ियों की शादी में तो मिले थे, सरला और सुधीर! बच्चों ने बहुत जिद करके सुधीर को लड़के पक्ष की ओर से बाराती बना लिया था, और सरला तो अपनी ममेरी बहन की जिद के कारण उस शादी में शामिल हुई थी।सरला अभी पढ़ाई कर रही थी अपने मामाजी के घर में रहकर जबकि सुधीर सालभर पहले ही अपनी पढ़ाई पूरी करके गांव लौटा था।सुधीर अच्छा खासा पढ़ा लिखा था, इसलिए उसको घर की खेती किसानी में कुछ खास रूचि नहीं थी।वह घर में रहकर ही नौकरी के लिए अर्जियां देते रहता और प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करते रहता।
बच्चों ने लोकजीवन में निभाई जाने वाली तमाम रस्मों को खूब मन लगाकर पूरा किया।शादी संपन्न हुई।रसोई में भोजन बनाने का जिम्मा सरला और उसकी कुछ सहेलियां संभाल रही थी।इधर सुधीर बराती बनकर शादी का लुत्फ उठा रहा था अपने मित्रों के साथ।जब भोजन करने की बारी आई तो सरला और सुधीर का एक दूसरे से सामना हुआ। दोनों ने एक दूसरे को देखा और देखते ही रह गए।सरला को उसकी छोटी ममेरी बहन ने दीदी!दीदी! चिल्लाकर जब झंझोड़ा तब उसकी तंद्रा भंग हुई, और वो नजरें झुका कर वहां से चली गई।इधर सुधीर भी वहां से दूसरे कामों में लग गया।
माना जाता है कि अक्षय तृतीया के दिन बीज बोना शुभ होता है और फसल में बढ़ोतरी होती है।आज सरला और सुधीर के मन में भी प्रेम के बीज पड़ चुके थे।
अक्षय तृतीया की शादी संपन्न हुई।अक्षय तृतीया का अगला दिन सबके लिए दिन सामान्य दिनों की तरह ही पहले जैसे हो गया। लेकिन सरला और सुधीर के लिए अब दिन पहले जैसे ना रहा। दोनों ही एक-दूसरे को देखने का बहाना ढूंढते।
सुधीर के घर में नींबू का पेड़ था।सरला कुछ दिनों बाद अक्सर ही अपनी ममेरी बहन के साथ नींबू लेने के बहाने सुधीर के घर आ जाती।कभी कभी तो अकेले भी।अब सरला का सुधीर की मां से गहरा परिचय हो चुका था।जब भी नींबू लेने आती मां के साथ गपशप जरूर करती और कनखियों से सुधीर को निहारती।इधर सुधीर भी किताबों से नजर हटाकर सरला को देखने का लालच नहीं छोड़ पाता था।एक अलग ही प्रकार का आकर्षण दोनों के बीच बढ़ रहा था। लेकिन जुबां दोनों ने नहीं खोले थे। सिर्फ आंखों ही आंखों में बात कर लेते थे।
एक दिन रोज की तरह सरला नींबू लेने आई तो सुधीर की मां नहीं थी।मां!मां कहकर उसने आवाज लगाई‌।जब कोई उत्तर नहीं मिला तो लौटने लगी।तब सुधीर ने उससे कहा-ठहरो!! मैं लेके आता हूं। कहकर घर की बाड़ी में गया और उसके हाथ में तीन चार नींबू रख दिए।सरला ने आंखे नीचे किए नींबू लिए और दौड़कर घर आ गई।सुधीर उसे जाते देखता रहा अपलक!
बहुत दिनों तक उन दोनों के मध्य मौन वार्तालाप चलता रहा।समय गुजरता रहा।इसी बीच क्वांर नवरात्र का पर्व आया।बस्ती वालों ने गौराचौकी पर हमेशा की तरह मां दुर्गा की मूर्ति स्थापित कर माता की पूजन अर्चन और सेवा आरंभ किया।रात में गांव के सभी लोग जसगीत गाते और माता का जयगान करते।सरला और सुधीर भी इसमें शामिल होते।सुधीर को मांदर की थाप पर जसगीत गाते देख सरला मंत्रमुग्ध हो जाया करती।इधर सुधीर सरला की उपस्थिति से उत्साहित होकर देर रात तक जसगीत गाता था। नवरात्र के अंतिम दिवस जब सब लोग माता को विदाई देकर लौट रहे थे सरला नीम के पेड़ के नीचे खड़ी होकर अपनी सहेलियों की राह देख रही थी तभी सुधीर उसके पास आया और चुपके से एक कागज हाथ में थमा गया।
सरला ने उस कागज को धड़कते दिल से खोला। उसमें लिखा था-अगर तुम मुझे पसंद करती हो तो इस बार दीवाली यहीं मनाओगी।
इससे ज्यादा कुछ भी नहीं लिखा था।क्वांर का महीना बीता और कार्तिक मास आया।सरला के पिताजी दीवाली के दस दिन पहले ही उसको घर ले जाने के लिए आ गए थे।हर बार अपने घर जाने के लिए एक पैर पर खड़ी रहने वाली सरला ने इस बार जब अपने मामाजी के घर दीवाली मनाने का निर्णय लिया तो उसके बाबूजी और मामाजी को बहुत अचंभा हुआ।फिर सरला की खुशी के लिए सबने उसकी हां में हां मिला दी।
इधर सुधीर को जैसे ही ये खबर मिली।उसका मन मयूर नाच उठा।गांव में घर की लिपाई पुताई का काम चरम पर था।सब दीवाली की तैयारियों में लगे थे।आखिर दीवाली की रात आई।चौक में गौरी गौरा स्थापित हो चुका था। बच्चियां,महिलाएं और युवतियां सिर में कलश लिए गौरी गौरा की परिक्रमा कर रही थीं। उनमें सरला भी शामिल थी।सुधीर अपने मित्रों के साथ इस मनोरम दृश्य का आनंद ले रहा था।तभी सुधीर को लगा कि सरला का कलश कुछ तिरछा हो गया है।वह दौड़कर गया और उसने उसकी कलश को सीधा किया।रात भर गौरी गौरा गीत का गायन चलता रहा।सवेरे गौरी गौरा के विसर्जन से लौटने के बाद सरला ने दीवाली की मिठाई और कागज का एक छोटा सा टुकड़ा अपनी ममेरी बहन को देकर सुधीर के पास चुपचाप देकर आने के लिए कहा। वो बच्ची सुधीर के पास गई और उसका सामान थमाकर लौट गई।सुधीर ने मिठाई को किनारे रखा और कागज खोलकर देखा।लिखा था-इन मिठाईयों से ज्यादा मीठास है मेरे प्रीत में।इतना पढ़ कर सुधीर गटागट सरला की भेजी मिठाईयां निगलता चला गया।
इसके बाद दोनों कभी कभार इशारों इशारों में बात भी कर लिया करते थे। धीरे-धीरे उन दोनों को लेकर पड़ोसी खुसर-पुसर करने लगे।बात सरला के मामाजी के कानों तक पहुंची तो उसने सरला को बाहर निकलने से मना कर दिया और उसे पढ़ने की सख्त हिदायत दी और परीक्षा के बाद उसे उसके घर छोड़ आया।
इधर सुधीर परेशान हो उठा।उसकी मां अपने बेटे की मनोदशा  समझ चुकी थी। उसने सुधीर को प्यार से समझाया-बेटा! सब-कुछ अपने मन का नहीं होता।अगर तुम चाहते हो कि सब कुछ अपने मन का हो तो तुमको काबिल बनना होगा।
सुधीर ने मां की बात को गांठ बांध लिया और नौकरी के लिए सरला की स्मृति को रखकर परीक्षा की तैयारियों में जुट गया।कुछ दिन के बाद परीक्षा का परिणाम आया और सुधीर उंचे पोस्ट के लिए चुन लिया गया।तब सुधीर की मां ने उसके पिताजी से सरला के बारे में बात किया और उसको सुधीर की मनोदशा से अवगत कराया।सुधीर के पिता सुलझे हुए इंसान थे।जैसे ही चैत्र का महीना आया वो सरला के मामाजी को साथ लेकर सरला के घर गए।
उन्होंने सरला के पिताजी को सुधीर के बारे में बताया और अपने बेटे के लिए सरला का हाथ मांगा। थोड़ी बहुत औपचारिक बातें हुई और सरला के पिताजी आखिरकर रिश्ते के लिए मान गए।
अक्षय तृतीया का पावन पर्व आ चुका था।चारों तरफ हर्षोल्लास का माहौल था।दुल्हा दुल्हन सजकर फेरे ले रहे थे। लेकिन ये शादी गुड्डे-गुड़ियों का ना था।ये शादी थी सरला और सुधीर की।अक्षय तृतीया को प्रस्फुटित प्रेम का बीज अक्षय हो चुका था...जन्म जन्मांतर के लिए..
और मंडप पर गूंज रही थी स्वर लहरियां-  ये मोर दाई सीता ला बिहावय राजा राम....

दिन चारी मइहरवा में....सुरता स्व.मिथलेश सर के

  लोकगीतों की अपनी एक अलग मिठास होती है।बिना संगीत के भी लोकगीत मन मोह लेता है,और परंपरागत वाद्य यंत्रों की संगत हो जाए, फिर क्या कहने!! आज ...