हमारे देश में बच्चों की पढ़ाई लिखाई को चौपट हुए डेढ़ साल होने को है।चीन देश की आफत हमारे देश सहित विश्व भर में कहर बरपा रही है।अमूमन बहुत से देशों में पढ़ाई लिखाई ठप्प पड़ा है।स्कूलों और कॉलेजों में ताले लगे हैं। हालांकि पढ़ाई-लिखाई का कार्य यथावत रखने के लिए आनलाईन पढ़ाई जैसे वैकल्पिक उपायों का सहारा लिया जा रहा है।परिस्थितियों के अनुकूल होने के बाद ही सभी प्रकार के नुक़सान की भरपाई हो सकती है, लेकिन जो अकारण काल के ग्रास बने उनकी और बच्चों के बीते समय की पढ़ाई के नुक़सान की भरपाई कभी नहीं हो सकती।आज सोशल मीडिया में किसी ने बचपन के दिनों की एक कविता शेयर किया तो गुजरे दौर की यादें चलचित्र की भांति चलायमान हो गई।
आज मुझे अपने स्कूली दिनों की भाषा की किताबें और उसमें लिखी कविता और कहानियां याद आ रही है। सचमुच तब कितनी दिलचस्प हुआ करती थी हमारी स्कूली किताबें।उस समय ना तो आज की तरह प्राइवेट स्कूलों की भरमार थी और ना ही आज की तरह ताम-झाम और फालतू के चोचले। उस समय सब बच्चे विद्यार्जन के लिए सरकारी स्कूलों में ही पढ़ते थे चाहे उनके पालक व्यापारी हों, कर्मचारी हों या किसान हो। सब बिना भेदभाव बिना कोई ठसनबाजी के एक साथ पढ़ते थे।स्टेटसबाजी नाम की बीमारी नहीं आई थी उस वक्त तक।
हम लोगों की पढ़ाई अविभाजित मध्यप्रदेश में हुई थी।तब स्कूलों में मध्यप्रदेश पाठ्य-पुस्तक निगम की किताबें पढ़ाई जाती थी।उस समय के स्कूली किताबों में लिखा पापुनि और पेड़ की डाली पर बैठे मोर का लोगो मानस पटल पर आज भी अंकित है।तब कक्षा पहिली और दूसरी की किताबें रंगीन होती थीं जबकि कक्षा तीसरी के बाद किताबें श्वेत श्याम हो जाती थी।मतलब सफेद कागज पर काली स्याही से छपी पुस्तकें पढ़ने को मिलती थी।ठीक भी थीं,जीवन का फलसफा भी यही सिखाता है।आदमी के जीवन में बचपन के दिन ही रंग बिरंगे होते हैं।बाद में धीरे-धीरे दुनियादारी की कालिख मन-मस्तिष्क पर चढ़ने लगती है और जीवन की रंगीनियां खोने लगती है।शनै:शनै: आदमी का जीवन श्वेत श्याम हो जाता है। लेकिन कोशिश जीवन में रंग भरने की ही होनी चाहिए।सारे रंग ना मिले ना सही,जो मिल जाए उसी से जीवन में खुशियां भरने की कोशिश होनी चाहिए।
खैर,इस पर फिर कभी चर्चा करूंगा। फिलहाल तो बातें स्कूली किताबों की।भाषा की किताब में सर्वप्रथम ईश वंदना के पाठ होते थे।जगत नियंता की आराधना से पठन पाठन का कार्य शुरू होता था।इन पाठों को प्रायः हम लोग गणतंत्र दिवस और स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर सांस्कृतिक कार्यक्रमों में पढ़ते थे और तालियां और ईनाम बटोरते थे। एक वंदना आज भी थोड़ा बहुत याद है।
जिसने सूरज चांद बनाया
जिसने तारों को चमकाया
जिसने फूलों को महकाया
जिसने चिड़ियों को चहकाया
जिसने सारा जगत बनाया
हम उस ईश्वर के गुण गाएं
उसे प्रेम से शीश झुकाएं।
बस इतना ही!!!
उस समय के स्कूली पाठ्यक्रम में सरल शब्दों में सुंदर सुंदर कविता और चित्र मजेदार होते थे।जिनसे बचपन मजेदार हो जाती थी।कुछ कविताएं और कहानियां आज भी याद है जैसे अब्बू खां की बकरी,सुई धागा और मशीन,पांच बातें,लक्ष्मी बहू, प्रायश्चित,पंच परमेश्वर,खुदीराम बोस आदि आदि।बचपन में पढ़े कुछ कहानियों के पाठों का नाम भले ही भूल गया हूं, पर उसकी कलावस्तु और पात्रों के नाम आज भी याद है।हरपाल सिंह और उसकी पांच बातें,लालची पंडित का बिल्ली मारने पर सोने की बिल्ली दान करवाने का सुझाव,पंच परमेश्वर के अलगू चौधरी और जुम्मन शेख।लाल बुझक्कड और चल रे मटके टम्मक टूं के बुढ़िया की चतुराई।मां खादी की चादर दे दो, यह कदंब का पेड़, पुष्प की अभिलाषा कविता आज भी जुबानी याद है।सारी कविताएं और कहानियां बेजोड़!एक से बढ़कर एक!!
आजकल की किताबों में मुझे व्यक्तिगत तौर पर वो बात नहीं दिखाई देती है जो हमारे दौर की स्कूली किताबों में हुआ करती थी।तब पाठ्य-पुस्तक आज के किताबों की तरह बोझिल और उबाऊ नहीं होते थे। किताबें देखकर भागने का मन नहीं करता था। लेकिन आजकल की किताबें नीरस जान पड़ती है।शायद इसीलिए बच्चे किताबें देखकर भागते हैं।ऐसे में मुझे बच्चों का कोई दोष नहीं दिखाई देता।पता नहीं वर्तमान के शिक्षाविदों को क्या हो गया है कि वे बच्चों के मन को रिझाने वाले विषय-वस्तु को पाठ्यक्रमों में स्थान नहीं दे रहे हैं। बच्चों की किताबों से साहित्य गायब हो रहे हैं और कामचलाऊ रचनाएं पाठ्य-पुस्तक की शोभा बढ़ा रही है।मुंशी प्रेमचंद,पंत,निराला,परसाई,शरद जोशी जैसे विलक्षण साहित्यकारों की रचना का स्कूली किताबों में अभाव खटकता है।रोचकता के अभाव में बच्चों में पढ़ाई के प्रति ललक बढ़े भी तो कैसे? हालांकि बदलते समय के साथ आधुनिक तकनीक और
विचारधारा वाले विषय-वस्तु का समावेश स्कूली किताबों में जरूरी है, लेकिन अतीत के पन्नों को भी जोड़ा जाना चाहिए।
एक पालक के तौर पर बच्चों की किताबों को जरूर खंगालें....
चित्र सोशल मीडिया से साभार