सोमवार, 16 दिसंबर 2024

दिन चारी मइहरवा में....सुरता स्व.मिथलेश सर के


 

लोकगीतों की अपनी एक अलग मिठास होती है।बिना संगीत के भी लोकगीत मन मोह लेता है,और परंपरागत वाद्य यंत्रों की संगत हो जाए, फिर क्या कहने!!

आज छत्तीसगढ़ के प्रख्यात लोकगायक स्व. मिथलेश साहू जी की पुण्यतिथि है।5 वर्ष पूर्व 16 दिसम्बर 2019 को वे छत्तीसगढ़ी लोककला जगत में कभी ना भरने वाली रिक्तता छोड़कर परलोक गमन कर गए।उनके गायन में माधुर्य का आकर्षण था।लोकगीतों के विविध छटाओं को उन्होंने अपने स्वर से सजाया है। प्रेमगीत,हास्यगीत, पारंपरिक उत्सव गीत,विवाह गीत आदि में उनके गायन का अंदाज बेहतरीन था।साल 1977 में उन्होंने सोनहा बिहान लोककला मंच से अपनी कला यात्रा की शुरुआत करी थी। उनके पिता स्व श्री जीवनलाल साहू भी एक लोक कलाकार थे। इसलिए कला के प्रति उनका झुकाव नैसर्गिक था।नाचा के विख्यात कलाकार मदन निषाद की कलाकारी ने उनको लोककला के सम्मोहन में बांधा था।इस सम्मोहन से बंधकर वे कला पथिक बन गए। वर्ष 1978 से वे आकाशवाणी रायपुर से पंजीकृत लोकगायक के रूप में प्रसारित हुए।फिर कभी रुके नहीं। श्रोताओं का प्यार उन्हें सदैव मिला।

पिछले कुछ सालों में मैं निरंतर दुखद प्रसंगों का साक्षी रहा हूं। इसलिए ऊपर वर्णित गीतों के अतिरिक्त जो गीत मुझे सबसे ज्यादा पसंद आते हैं,वो गीत हैं उनके गाए निर्गुण भजन।लाग लपेट से दूर सीधे मर्मस्थल तक पहुंचने वाली कबीरवाणी।जिस प्रकार हिंदी सिनेमा में किशोर कुमार के रोमांटिक गीतों का श्रोता वर्ग होने के साथ उनके सैड गीतों को पसंद करने वाले श्रोताओं की संख्या भी अच्छी खासी है। मैं भी मिथलेश सर के इन भजनों का प्रशंसक हूं। किशोर सुख और दुख के दोनों गीतों को सहजता से गाते थे वैसे ही हमारे मिथलेश साहू जी भी प्रेमगीत और भजन गाने में महारत रखते थे।

लोकगायक कुलेश्वर ताम्रकार जी के साथ उनकी जोड़ी खूब जमती थी। आडियो कैसेट के दौर में उनके नाचा और जोक्कड़गीत को श्रोताओं ने सराहा। लोककला मंच लोकरंग अर्जुंदा में दोनों ने बहुत दिनों तक एक साथ प्रस्तुति दिया।जब उनके अनुज भूपेंद्र साहू ने पृथक लोककला मंच"रंग सरोवर" बनाया तब वे अलग हुए।

हां,तो मैं बात कर रहा था मिथलेश साहू सर जी के गाए भजनों की। मिथलेश जी के भजन गीतों का एक संकलन भूपेंद्र साहू जी के निर्देशन में निकला था"सुमिरन" नाम से। क्षेत्र के भिन्न-भिन्न स्थानों पर उसकी विडियो शूटिंग हुई थी। इस संकलन में एक से बढ़कर एक लोक भजन संग्रहित है। उसमें के एक गीत का साग रांधो संवलिया...की शूटिंग स्थानीय छुरा बाजार में हुई थी। उनके गाए गीतों में हीरा गंवा गयो कचरे में,दिन चारी मइहरवा में मुझे बेहद पसंद है। विशेष रूप से दिन चारी मइहरवा में....

इस गीत की दार्शनिकता अद्भुत है।जीव का संसार से लगाव,संसारी रीति रिवाज और आडंबर,जीवन का सार तत्व इसमें निहित है।इस गीत की एक पंक्ति विशेष उल्लेखनीय है। अउॅंठ हाथ के काया जरगे। भुइंया में मिलही रासा।।

इस पंक्ति में एक छत्तीसगढ़ीशब्द आया है "अउॅंठ"।आजकल ये शब्द प्रचलन में नहीं है। लेकिन लोकजीवन में ये शब्द लंबाई का मात्रक है।अउॅंठ मतलब साढ़े तीन यानि पूर्ण चार में आधा कम। कहते हैं कि हर व्यक्ति के शरीर का नाप उसके खुद के हाथ में साढ़े तीन हाथ ही होता है।इसी गीत की दूसरी पंक्ति हाड़ जलै तोर बन कस लकड़ी केस जरै बनघासा महादेव हिरवानी द्वारा गाए भजन कैसा खेल रचाया रचाने वाला में भी है।संतोष शुक्ला द्वारा गाए गीत तोर नांव अमर कर ले गा भैय्या का राखे हे तन मा... में भी भाव साम्यता है।

मैंने इस गीत के दो वर्जन को सुना है।एक कुलेश्वर ताम्रकार और मिथलेश साहू के स्वर में है और दूसरा सिर्फ मिथलेश सर के स्वर में।दो गायकों के स्वर वाले गीत में कुल चार अंतरा है और एकल स्वर वाले गीत में तीन अंतरा है। दोनों ही मधुर हैं लेकिन युगल स्वर वाला ज्यादा बेहतर है।इस आलेख के लिए मेरे पास स्व. मिथलेश साहू जी का फोटो नहीं था।आनलाइन फोटो अच्छी क्वालिटी में नहीं मिल पा रहा था तो मैंने उनके भतीजे मलयज साहू जी से संपर्क किया तो उन्होंने सहर्ष सर का फोटो उपलब्ध कराया। इसके लिए उनको हृदय से धन्यवाद!!!

मिथलेश साहू सर ने छत्तीसगढ़ी लोकगीतों को नया आयाम दिया है।जब तक छत्तीसगढ़ी गीतप्रेमी छत्तीसगढ़ी गीत सुनते रहेंगे मिथलेश साहू सर लोककला जगत से विस्मृत नहीं हो सकते।उनकी पुण्यतिथि पर उनको सादर भावभीनी श्रद्धांजलि...

शुक्रवार, 13 दिसंबर 2024

उमरिया ला धोखा धोखा मा खोई डारे भाई....

 


पिछले दिनों एक मित्र के पिताजी का देहावसान हो गया तो उनके दशगात्र कार्यक्रम में शामिल हुआ। छत्तीसगढ़ में दशगात्र के दिन मृतक की आत्मशांति के लिए विशिष्ट पूजा किया जाता है।

निकटतम परिजनों और ग्रामीणों के द्वारा तालाब में जाकर 5 अंजुरी पानी अर्पित कर देह त्यागने वाली आत्मा को श्रद्धांजलि अर्पित की जाती है।इस अवसर पर कहीं कहीं भजन कीर्तन आदि का कार्यक्रम रखा जाता है। लोकजीवन में परंपरागत लोकभजन के माध्यम से शरीर की नश्वरता और प्रभु भक्ति की श्रेष्ठता का गायन किया जाता है।

वहां पर भी ऐसा ही कुछ गीत लोकधुन में खंजरी,तमूरा और झांझ की मधुर आवाज़ के साथ कुछ बुजुर्ग गा रहे थे... उमरिया ला धोखा धोखा मा खोई डारे भाई...।बिना तामझाम के ताली की थाप और तीन वाद्ययंत्रों का संगम गीत को सरस बना रहा था।भजन के बाद एक बुजुर्ग दृष्टांत और कथा का वाचन करता था। तत्पश्चात पुनः वही भजन चल पड़ता था।

मैं भी कुछ समय के लिए उनके पास बैठ गया।जो बुजुर्ग टीका कहकर दृष्टांत वाचन कर रहे थे वो भक्ति की श्रेष्ठता और संत सेवा की महानता के बारे में बता रहे थे। उसने कथा प्रसंग में शबरी की गुरुवचनों के प्रति आस्था के बारे में बताया।जब मतंग ऋषि ने शबरी को ये बताया कि तुम प्रभु की प्रतीक्षा करो...वो जरुर आयेंगे।दिन,सप्ताह,माह और वर्ष बीतते गया।शबरी प्रभु की प्रतीक्षा में तरुणी से वृद्ध हो गई पर उन्होंने गुरुवचनों पर संदेह नहीं किया।वो गुरुवचनों पर आस्था रखकर प्रतीक्षा करती रही.. अंततः प्रभु श्रीराम उनके पास स्वयं चलकर आए।इसके बारे में उन्होंने बताया कि मनुष्य अधीर होता है।वह किसी की भी प्रतीक्षा लंबे समय तक नहीं करता है।अपना मार्ग और विचार बदल देता है। लेकिन शबरी एकटक प्रभु का ही राह निहारती रही।इस अवधि में ना तो वह किसी तीर्थ दर्शन के लिए गई और ना ही किसी देवी-देवता की भक्ति में जप तप किया।उसका एकमात्र लक्ष्य था त्रिलोक अधिपति के सम्मुख दर्शन करना। इसलिए भगवान को स्वयं उसके पास आना पड़ा।

ग्रामीण बुजुर्ग के मुख से इस प्रकार का अद्भुत टीका सुनना मेरे लिए अद्भुत था। इसके बाद पुनः वही भजन चल पड़ा..

धोखा धोखा मा खोई डारे उमरिया ला

धोखा धोखा मा खोई डारे भाई

ना भाव भक्ति करे,ना संत सेवा जाने

न तो करे करम कमाई भाई

उमरिया ला धोखा धोखा मा खोई डारे भाई...

इस भजन का भावानुवाद कुछ इस तरह है कि मनुष्य मेरे पास बहुत समय बाकी है सोचकर राग रंग में व्यस्त रहता है। फिर अकस्मात जब उसकी मृत्यु का समय आ जाता है तब वह पछतावा करता है कि उसने ना तो किसी का सेवा किया और ना ही किसी प्रकार का सद्कर्म किया।इस प्रकार पछतावा लिए जीव पुनः जन्म मरण के चक्कर में फंस जाता है।

इसलिए अगर समय रहते मनुष्य चेत जाए तो वह अपने जीवन को अनुकरणीय बना सकता है।

जय जगन्नाथ 

दिन चारी मइहरवा में....सुरता स्व.मिथलेश सर के

  लोकगीतों की अपनी एक अलग मिठास होती है।बिना संगीत के भी लोकगीत मन मोह लेता है,और परंपरागत वाद्य यंत्रों की संगत हो जाए, फिर क्या कहने!! आज ...