छत्तीसगढ़ जनजाति बाहुल्य राज्य है। सन् 2011 के जनसंख्या आंकड़ों के मुताबिक राज्य के कुल जनसंख्या में एक तिहाई जनसंख्या जनजातियों की है।हमारे प्रदेश में कुल 42 जनजातियां पाई जाती है।जिनकी अपनी विशिष्ट जीवनशैली और रहन-सहन है।वन संपदा से भरपूर छत्तीसगढ़ में सीधे सरल स्वभाव वाले विभिन्न जनजाति समूह छत्तीसगढ़ महतारी के कोरा में आदिकाल से निवासरत हैं। दुनिया की रेलमपेल से दूर सुदूर वन प्रांतर में निवासरत होती है अधिकांश जनजातियां।दिखावे और ढकोसला से दूर प्रकृति के सामिप्य के संग अपने में मगन।इस भागदौड़ की जिंदगी में बड़े बड़े पैसेवालों के पास भी बंगला नहीं हैं ऐसे में न्यूनतम जरूरत के साथ अपनी गुजर-बसर करने वाले किसी जनजातिय समूह के पास आप बंगला की कल्पना कर सकते हैं।शायद बिल्कुल भी नहीं!!! लेकिन आप मानें या ना मानें प्रकृतिपुत्रों के पास भी होता है उनका बंगला...लाली बंगला।
बंगला शब्द सुनने से ही किसी विशाल अट्टालिका का बोध होता है और सामान्यतः ऐसे भवनों के लिए ही बंगला शब्द का प्रयोग किया जाता है।बंगले आमतौर पर आर्थिक रूप से संपन्न व्यक्तियों के पास ही होता है।जैसे हमारे फिल्म स्टारों के बंगले प्रतीक्षा,जलसा,मन्नत, आशीर्वाद आदि-आदि इत्यादि। धनकुबेरों के संदर्भ में बंगला की बात समझ आती है लेकिन आर्थिक रूप से विपन्न जनजातिय समूह के पास बंगला की बात थोड़ी अजीब लगती है।लेकिन है ये सोला आना सच!!हमारे छत्तीसगढ़ में रहनेवाली एक विशिष्ट जनजाति के पास बंगले की बात भी सच है।चलिए आगे पढ़ते और समझते हैं।
मैंने जिस बंगले की बात ऊपर की है वो किसी बड़ी सी भव्य भवन की नहीं बल्कि छत्तीसगढ़ के गरियाबंद जिले में मिलने वाली भुंजिया जनजाति के रसोईघर के बारे में की है।ये विशिष्ट जनजाति अपने दृढ़ सामाजिक नियमों और रीति-रिवाजों के लिए जानी जाती है।इस जनजाति को शासन ने विशेष पिछड़ी जनजाति का दर्जा दिया है और इनके विकास के लिए विशेष कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं।ये जनजाति छत्तीसगढ़ के गरियाबंद जिले के छुरा,गरियाबंद व मैनपुर विकासखंड ,धमतरी जिले के सिहावा नगरी क्षेत्र और महासमुंद के बागबाहरा विकासखंड में निवास करती है।ये जनजाति चिंडा,चोकटिया या चौखुटिया और खोल्हारजिहा उपजाति में विभक्त है। जिसमें मैनपुर क्षेत्र में चिंडा भुंजिया, गरियाबंद छुरा क्षेत्र में चोकटिया भुंजिया और महासमुंद के बागबाहरा विकासखंड अंतर्गत खल्लारी क्षेत्र में खोल्हारजिहा भुंजिया जनजाति निवासरत है।
यूं तो उपरोक्त सभी उपजाति में मूल भुंजिया रीति-रिवाजों का पालन किया जाता है लेकिन विशेष रूप से चोकटिया भुंजिया अपने विशिष्ट सांस्कृतिक प्रतीक लाली बंगला के लिए जाना जाता है।वैसे तो बनावट के आधार पर प्रकृति प्रदत्त सामग्री से ही इस बंगले का निर्माण किया जाता है लेकिन इस लाली बंगले के नियमों के कारण इसकी महत्ता और बढ़ जाती है।इस बंगले का निर्माण छत्तीसगढ़ी कवि मीर अली मीर की पंक्तियों के जैसे ही होता है-माटी के भितिया,खदर के छानी गोबर पानी पाय।मतलब लाली बंगला मिट्टी की दीवार,घास फूस की छत और गोबर से लीपकर बनाई जाती है। दीवारों को लाल रंग देने के लिए पहले लाल मुरूम को घोलकर पोता जाता था।बाद में सहूलियत के लिए गेरू से पुताई की जाने लगी।इस रसोईघर के निर्माण के दौरान भोजन पकाने में सहायक सभी सामग्री और यंत्रों को रखने के लिए स्थान और भोजन करने के लिए पर्याप्त स्थान का भी ध्यान रखा जाता है।जब हालर मिल नहीं हुआ करती थी तब ढेंकी और जांता भी लाली बंगला का अनिवार्य हिस्सा हुआ करती थी।अब समय के साथ ये विलुप्त होते जा रहे हैं।कोई भी जनजाति वर्ग अब आधुनिकता से बच नहीं सकता तो स्वाभाविक रूप से इस जनजाति के ऊपर भी प्रभाव अवश्य पड़ेगा। शासन के योजना के तहत अब पक्के मकान का निर्माण किया जा रहा है। फिर भी चोकटिया भुंजिया जनजाति द्वारा लाली बंगला को संरक्षित रखने का कार्य किया जा रहा है।
सन् 1924 में प्रकाशित रायपुर गजेटियर में भुंजिया जनजाति की विशेषता को उल्लेखित किया गया है। जिसमें बताया गया है कि रायपुर जिले में भुंजिया जनजाति पाई जाति है जिसकी झोपड़ी को ब्राम्हण भी छू दे तो वह अपवित्र हो जाती है और वो उसको जला डालते हैं।भोजन पकाने के मामले में तो ये कान्यकुब्जों के भी कान काटते हैं।
लाली बंगला की बहुत सी विशिष्टता है जैसे कि भुंजिया जाति के अलावा कोई उसे छू भी नहीं सकता और अन्य जाति वर्ग का लाली बंगला में प्रवेश पूर्णतः निषेध रहता है।भूलवश भी अगर कोई अन्य जातिवर्ग का व्यक्ति हाथ लगा दे तो उसको तत्काल आग लगा दी जाती है और नये लाली बंगला का निर्माण किया जाता है।रजस्वला स्त्रियां भी इस बंगले में प्रवेश नहीं कर सकती।इस जनजाति में कांड विवाह का नियम होता है।जिस पर आगे किसी पोस्ट पर चर्चा करेंगे।कांड विवाह के पश्चात बालिका लाली बंगला में ही भोजन ग्रहण करती है। लेकिन जब लड़की की शादी हो जाती है और वह ससुराल चली जाती है तब वह अपने मायके के लाली बंगला में प्रवेश नहीं कर सकती। जूता-चप्पल पहनकर भी इस बंगला में नहीं घुस सकते।
अगर वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखें तो जिस शुद्धता और पवित्रता का ध्यान रसोईघर में इस जनजाति के द्वारा रखा जाता है वैसा तो बड़े से बड़े तथाकथित उच्च वर्गों में देखने को नहीं मिलता।जिस प्रकार बंगला बेशकीमती होता है उसी प्रकार भुंजिया जनजाति के लिए उनका रसोईघर अनमोल होता है।शायद इसीलिए उन्होंने इसका नामकरण लाली बंगला किया होगा।इस जनजाति की बहुत सी विशिष्टताओं पर अगले पोस्ट में जरूर चर्चा करूंगा।इस पोस्ट को लिखने में मेरे मित्र द्वय रामनाथ मरकाम और शत्रुहन नेताम का भी सहयोग प्राप्त हुआ है। उन्होंने मेरा मार्गदर्शन किया है। दोनों को हृदय से धन्यवाद।इस लेख को लिखने के दौरान मुझे लोकरंग अर्जुंदा का एक प्रसिद्ध गीत याद आ रहा है-लाली बंगला में गा,मोर जोड़ीदार करले करार लाली बंगला में.....
पर ये लाली बंगला शायद मेरे लेख वाले लाली बंगला से अलग है।क्योंकि जिस लाली बंगला की बात मैंने की है वो एक देवालय है, जहां पवित्र भोजन बनता है।प्रेम की खिचड़ी नहीं पकती।तो फिर मिलेंगे अगले पोस्ट में...जय-जोहार
2 टिप्पणियां:
बड़ सुघ्घर लेख सादा जीवन उच्च विचार हमर छत्तीसगढ़ राज्य के संस्कृति ल देखावत अउ उज्जर परिपाटी ल बतावत सुघ्घर सिरजन बर अंतस ले बधाई पठोवत हंव।
बहुत जबरदस्त लेखन
आपके लेखन कौशल
बहुत ऊंची स्तर के है
Rijhe भाई धन्यवाद बहुत सुंदर लेख के लिए
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