आज बहुत सालों के बाद नदिया के पार फिल्म देखी।बचपन के दिनों में विडिय में इस फिल्म को बहुत बार देखा था।जब कभी भी गांव में कलर टीवी और वीसीपी आया करती थी तब हर पांच बार में से तीन बार ये फिल्म जरूर आती थी।बचपन की स्मृतियां ताजा हो गई।ये फिल्म ग्रामीण पृष्ठभूमि पर आधारित है और फिल्म की भाषा अवधी हिन्दी है।और गांव के आदमी को गांव से आत्मीय लगाव होता है।वह गांव से जुड़ी चीजों से सहजता से जुड़ जाता है।इस फिल्म की भाषा हमारी मातृभाषा छत्तीसगढी से बहुत मेल खाती है।जैसे पहुना,भौजी,आदि।इस फिल्म के प्रति छत्तीसगढ़ के ग्रामीण क्षेत्रों में जुड़ाव संभवतः फिल्म के ग्रामीण परिवेश से हमारे छत्तीसगढ़ अंचल के ग्रामों से साम्यता होना हो सकता है। फिल्म में ग्रामीण जनजीवन में आज से तीस चालीस बरस पहले जो चीजें मिला करती थी या यूं कहें की गांव की पहचान हुआ करती थी वो सारी चीज़ें दिखाई गई है।मसलन लकड़ी की खाट,बांस की सीढ़ी, लालटेन,बटलोही(खाना पकाने का पात्र),हल, बैलगाड़ी,पटसन की डोरी आंटने का ढेरा, कुआं, मिट्टी के कवेलू(खपरा) वाली छत, मिट्टी से बने घर,पठेरा(आला) आदि। फिल्म में चित्रित शादी के रस्मों रिवाज भी छत्तीसगढ़ की वैवाहिक रस्मों से मिलती जुलती है। फिल्म की भाषा लगभग-लगभग छत्तीसगढ़ी बोली का स्पर्श देती है।बचपन में फिल्म की कथावस्तु भले ही समझ में नहीं आती थी पर गीत संगीत और फिल्म के दृश्यों को देखकर मजा आता था। फिल्म थी ही ऐसी जो मंत्रमुग्ध कर देती थी।वैसे फिल्म की शूटिंग उत्तर प्रदेश के जौनपुर जिले में स्थित विजयपुर गांव में हुई थी।आज भी फिल्म से संबंधित कुछ स्थल वहां मौजूद है जिसे आप यूट्यूब में देख सकते हैं।
ये फिल्म सन् 1982 में प्रदर्शित हुई थी।तब तो हमारा जन्म भी नहीं हुआ था।जब हम नौ दस साल के हुए तब विडियो कैसेट से फिल्म को गांव में देखा था। पारिवारिक और साफ सुथरी फिल्म की परिभाषा इस फिल्म से दी जा सकती है। फिल्म में रवींद्र जैन का गीत और संगीत था जिसकी मधुरता आज भी कानों में रस घोलती है।जसपाल सिंह,हेमलता और सुरेश वाडेकर के मधुर कंठ से निकले गीत आज भी सदाबहार हैं।मुझे तो इस फिल्म के सारे गाने बहुत पसंद हैं।कौन दिशा में लेके चला रे बटोहिया और जब तक पूरे ना हो फेरे सात का आज भी कोई टक्कर नहीं है।जब सुनो तब लाजवाब।इस फिल्म में एक गीत है हम दोनों में दोनों खो गए। सुरेश वाडेकर और हेमलता की आवाज में।इस गीत में एक पंक्ति आती है-बूढे बरगद की माटी को शीश धरले..दीपासत्ती को सौ सौ परनाम कर ले।इस गीत में आए दीपासत्ती के बारे में इस फिल्म के मूल उपन्यास में बताया गया है।वो भी इसे गुंजा ही बताती है चंदन को।वास्तव में दीपासत्ती एक चौदह साला की बालिका रहती है जिसकी शादी एक पैंतालीस साल के बुजुर्ग से कराया जा रहा था।जब दीपा नाम की वो बालिका चुपके से वर को देख लेती है तो घर से भाग जाती है और बरगद के पेड़ में फांसी लगाकर जान दे देती है और तब से वह एक देवी के रूप में स्थापित हो जाती है।उसके बाद जब भी गांव में कोई विवाह का प्रसंग आता वर-वधू दीपासत्ती का आशीर्वाद लेने जाते।ऐसा कुछ कुछ तो हमारे यहां भी होता है।हर गांव की अपनी-अपनी किंवदंती और दंतकथाएं हुआ करती है।कुछ दुर्घटना जन्य स्थान लोक श्रद्धा का केन्द्र बन जाया करते हैं।जैसे हमारे यहां के कचना धुरवा महराज की लोकगाथा।नदिया के पार फिल्म के गीतों का एक एक शब्द और संगीत अद्भुत है।शायद इसी कारण फिल्म के प्रदर्शन के सैंतीस साल बाद भी नदिया के पार फिल्म के गीतों का जादू बरकरार है।इस फिल्म में मुख्य भूमिका सचिन,साधना सिंह,मिताली,इंदर कुमार,लीला मिश्रा और राम मोहन ने निभाई थी। फिल्म की कहानी उत्तर प्रदेश में स्थित बलिहार और चौबेछपरा गांव की पृष्ठभूमि पर आधारित है जहां फिल्म के नायक चंंदन और नायिका गुंंजा के भैय्या और दीदी की शादी होती है।शादी के कुछ महीनों बाद अपनी दीदी के प्रसवास्था के दौरान देखभाल के लिए नायिका का अपने दीदी के ससुराल में आगमन होता है।जहां फिल्म के नायक चंदन से गुंंजा से आपसी नोंकझोंक के दौरान प्रेम का प्रस्फुटन होता है और कहानी में अनेक मोड़ आते हैं।प्रसव के कुछ समय बाद दुर्घटना वश नायिका के दीदी की मौत हो जाती है। घटनाक्रम तेेेजी से बदलता है और परिस्थितियां ऐसी निर्मित होती है कि फिल्म की नायिका को अपनी दीदी के देहांत के बाद अपने जीजा से शादी करने की नौबत आ जाती है। लेेकिन बहुत से भावनात्मक मोड़ से गुजरते हुए फिल्म अंततः चन्दन और गुुंजा की शादी पर खतम होती है। फिल्म का हैप्पी एंडिंग होता हैं।
इसी कहानी को आधार बनाकर इसका शहरीकरण करते हुए इस फिल्म का रिमेक राजश्री प्रोडक्शन द्वारा सन् 1994 में पुनः प्रस्तुत किया गया-हम आपके हैं कौन नाम से।इस बार फिल्म में सलमान खान,माधुरी दीक्षित, रेणुका सहाणे,मोहनीश बहल और अनुपम खेर जैसे सितारे थे।नदिया के पार की तरह इस फिल्म को भी दर्शकों ने सराहा और इस फिल्म ने कामयाबी के झंडे गाड़े। फिल्म के गीत संगीत को भी सराहा गया।इस फिल्म के बाद सलमान खान राजश्री प्रोडक्शन के स्थायी कलाकार बन गए और राजश्री प्रोडक्शन की बहुत से फिल्मों में नजर आए।हम आपके हैं कौन फिल्म के बाद राजश्री प्रोडक्शन और सूरज बड़जात्या पारिवारिक फिल्म का प्रतीक बन गए।बाद के वर्षों में हम साथ-साथ हैं,विवाह,एक विवाह ऐसा भी और प्रेम रतन धन पायो जैसी फिल्मों का निर्माण करके राजश्री प्रोडक्शन ने अपनी परिपाटी को निभाया भी।ये तो हुई फिल्म की बात। लेकिन अब बात करते हैं फिल्म की मूल पटकथा यानि उपन्यास की।नदिया के पार फिल्म वास्तव में एक साहित्यिक रचना पर आधारित है।
ये फिल्म केशव प्रसाद मिश्र जी द्वारा लिखित उपन्यास "कोहबर की शर्त" की मूल कहानी पर आधारित है जिसमें थोड़ी सी फेरबदल की गई है। फिल्म की कहानी में फिल्म का अंत सुखांत होता है जबकि उपन्यास की मूल कहानी का अंत दुखद है। फिल्म में कहानी नायक नायिका के प्रेम और बलिदान पर आधारित है जबकि उपन्यास में नायिका का बलिदान ही सर्वस्व प्रतीत होता है। उपन्यास की नायिका गुंजा ही मूल पात्र है जिसके इर्द-गिर्द उपन्यास की कहानी घूमती है। फिल्म में जहां नायक नायिका का मिलन होता हैं वहीं उपन्यास में गुंजा की पीड़ा का अंतहीन सफर दिखाई देती है।नियति के हाथों की कठपुतली बनकर गुंजा पल-पल छली जाती है। उपन्यास पढ़ते समय गुंजा और चंदन की व्यथा पाठक को टीस पहुंचाते हैं। आंखों से आंसू झरने लगते हैं।
उपन्यास में गुंजा के त्याग और चंदन के मौन का कोई विकल्प नहीं है। कदम कदम पर गुंजा के ऊपर दुखों का पहाड़ टूटता है जिसका सामना करते करते वो स्वयं टूट जाती है। उपन्यास में गुंजा एक अल्हड़ ग्रामीण बाला,फिर एक प्रेमिका,फिर पत्नी और अंत में एक विधवा के रूप में दुखों को झेलते झेलते मृत्यु को प्राप्त होती है।जब आप उपन्यास पढ़ना शुरू करेंगे तो कहानी दिमाग में चल चित्र के भांति चलते ही रहता है।गुंजा का चरित्र बलिदान की पराकाष्ठा है।अपनी दीदी की मौत के बाद उसके बच्चे के लालन-पालन के लिए परिस्थितिवश वह अपने जीजा की पत्नी बन जाती है।जिस गुंजा को चंदन पत्नी के रुप में देखना चाहता था वो उसकी भौजाई के रुप में आ जाती है।चंदन के प्रति अपने पवित्र प्रेम को गुंजा ताउम्र रखे रहती है लेकिन मर्यादा के साथ।अपार कष्ट झेलते दोनों अपनी-अपनी मर्यादा में रहकर अपने दायित्वों का निर्वहन करते हैं। उपन्यास में नारी के त्याग और बलिदान की प्रतिमूर्ति है गुंजा।उसका रोम रोम बलिदान के लिए लालायित जान पड़ता है।चंदन का चरित्र भी बलिदान की पराकाष्ठा है। आमतौर पर जब कोई स्त्री या पुरुष शरीर से अशक्त हो जाता है तो समाज में स्त्रियां ही सेवा सुश्रुषा करती है।लेकिन इस उपन्यास में एक पुरुष निश्छल भाव से नारी की सेवा सुश्रुषा करता दिखाई देता है।शरीर से अशक्त गुंजा की दिनचर्या को चंदन संपादित करवाता है।अंत में गुंजा शरीर त्याग देती है और गंगा मैय्या की लहरों में समा जाती है।इस उपन्यास के रचनाकार केशव प्रसाद मिश्र जी की लेखनी को प्रणाम है।ग्रामीण पृष्ठभूमि की इस रचना में आंचलिकता भरपूर है।साथ है देह से परे अलौकिक पवित्र प्रेम का दर्शन और एक स्त्री का अतुल्य बलिदान!!समय मिले तो जरूर पढ़ें-कोहबर की शर्त।
चित्र-साभार राजश्री प्रोडक्शन
4 टिप्पणियां:
बहुत बढिया खोज के साथ फिल्म का विवेचन
ये एक सदाबहार फिल्म है, जब भी देखा नया और उतना ही मनोरंजक लगता है ।
शानदार वर्णन.... बधाई हो मित्र रीझे....
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