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गुलाबी शर्ट में दीपक भाई और सफेद शर्ट में फिल्मकार मनोज वर्मा |
कल भूलन द मेज फिल्म देखने की इच्छा पूरी हुई।बहुत सालों से ये फिल्म देखने की इच्छा थी,जो अब जाके पूरी हुई।फिल्म संपादन की लंबी प्रक्रिया एवं कोरोनाकाल के कारण संभवतःफिल्म को रिलीज होने में लंबा समय लग गया।67वें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार में इस फिल्म को श्रेष्ठ क्षेत्रीय फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त हुआ है।नि:संदेह यह उपलब्धि छत्तीसगढ़ और छत्तीसगढ़ी सिनेमा जगत के लिए गौरव की बात है।
साल 2017 में इस फिल्म की शूटिंग हमारे अंचल में हुई थी।मौहाभाठा, गरियाबंद और रसेला में इस फिल्म के महत्वपूर्ण दृश्य फिल्माए गए हैं।
फिल्म की पृष्ठभूमि ही मौहाभाठा गांव हैं। जहां सीधे सरल भुंजिया आदिवासी निवास करते हैं। गरियाबंद जिला मुख्यालय से लगभग 30 किमी की दूरी पर घने वनों के बीच बसा है यह वन्यग्राम।इस फिल्म के सूत्रधार लेखक, शिक्षक के रुप में इस गांव में आते हैं।कालखंड छत्तीसगढ़ राज्य के नवनिर्माण के समय का बताया गया है याने साल 2000।
कहानी उसी समय से आरंभ होती है।यह फिल्म संजीव बख्शी जी के उपन्यास"भूलन कांदा"पर आधारित है।इस उपन्यास को पाठकों ने सराहा था। उपन्यास के सिनेमाईकरण में उसके मूल तत्व को सुरक्षित रखा गया है। इस फिल्म के निर्देशक मनोज वर्मा उपन्यास के मूल तत्व को परदे पर दिखाने में पूरी तरह सफल हुए हैं।
कहानी की विषयवस्तु में एक ग्रामीण भकला का अन्य ग्रामीण बिरजू से जमीन के मामले में झड़प होती है, और उसी झड़प के दौरान हुए धक्का मुक्की में दुर्घटनावश बिरजू की मौत हो जाती है। ग्रामीणों को जब यह बात पता चलती है तो वे गांव के मुखिया के साथ घटनास्थल पर आते हैं और घटना का विवरण लेते हैं तत्पश्चात मुखिया पुलिस प्रशासन को इस संबंध में सूचित करता है और किसी भी ग्रामीण को इस मसले पर कुछ भी बोलने के लिए मना करते हैं।
रात में इस मामले को लेकर गांव में बैठक बुलाई जाती हैं जिसमें मुखिया और ग्रामीणों द्वारा भकला की पारिवारिक स्थिति को ध्यान में रखते हुए गांव के एक बुजुर्ग व्यक्ति गंजहा को हत्या का अपराध स्वीकार करने के लिए तैयार किया जाता है और दूसरे दिन पुलिस आकर उसको ले जाकर जेल में बंद कर देती है। फिर गंजहा की रिहाई के लिए और भकला को बचाने की जद्दोजहद पूरी फिल्म में दिखाया गया है।इस प्रक्रिया में सरकारी तंत्र की खामियों को उजागर किया गया है। बंदोबस्त रिकॉर्ड में त्रुटियां ग्रामीण क्षेत्रों में संघर्ष का बहुत बड़ा कारण बनता है।इसे अच्छे से बताया गया है।एक दृश्य में कोटवार का पात्र चुटकी लेते हुए गांव के नवपदस्थ शिक्षक को बताता है कि जिस जगह तालाब है बंदोबस्त रिकॉर्ड में वो पहाड़ है, जहां पहाड़ी है वहां खेत है, जहां खेत है वहां तालाब है।ये सत्य है,कपोल कल्पना नहीं। हजारों किसान आज भी रिकॉर्ड दुरुस्तीकरण के लिए चक्कर काट रहे हैं।आजादी के इतने वर्षों बाद भी ऐसी त्रुटियों का ग्रामीण क्षेत्रों में निवारण नहीं होना समस्याओं को जन्म देता है।न्याय प्रक्रिया में विलंब,आफिस में रिश्वतखोरी और अधिकारियों व कर्मचारियों का आम जनता के साथ रूखा व्यवहार बहुत बढ़िया ढंग से दर्शाया गया है। फिल्म संदेशपरक है।यह सरकारी तंत्र में व्याप्त विसंगतियों पर सीधा प्रहार करता है।
फिल्म में सीधे सादे ग्रामीणों का अपने गांव के आदमी के लिए आत्मीय लगाव देखते ही बनता है।कुछ जगहों पर फिल्म दर्शकों को भावुक कर देती है। खासतौर पर भकला को बड़ी सजा से बचाने के लिए एक बड़ी राशि एकत्र करने का दृश्य।ये दृश्य अति भावुक लोगों के आंखों से आंसू निकालने का सामर्थ्य रखती है।
फिल्म के स्टार कास्ट में नत्था के नाम से चर्चित ओंकारदास मानिकपुरी ने भकला की भूमिका अभिनीत किया है।उसकी पत्नी प्रेमिन की भूमिका में कई सिरियल में काम कर चुकी सीहोर की अभिनेत्री अनिमा पगारे ने बेहतरीन अभिनय किया है।उसकी भाव भंगिमा और बोलने के ढंग से एहसास नहीं होता कि वे गैरछत्तीसगढी अभिनेत्री है।सच कहूं तो इनसे भी अधिक जिस अभिनेता ने फिल्म में प्राण फूंके हैं वो है गंजहा की भूमिका अभिनीत करने वाले कलाकार सलीम अंसारी।इस फिल्म में अंसारी का अभिनय अद्वितीय है। संभवतः अभी तक उनके द्वारा निभाए गए किरदारों में मैं इसे सबसे बेस्ट मानता हूं।
हास्य कलाकारों में संजय महानंद,सेवकराम यादव,हेमलाल कौशल ने भी हास्यपक्ष का बेहतरीन निर्वहन किया है।अन्य महिला कलाकारों को कोई खास महत्व नहीं दिया गया है।उपासना वैष्णव और अनुराधा दुबे को कुछ संवाद मिले हैं।स्व.आशीष सेन्द्रे ने मुखिया की भूमिका का बढ़िया निर्वाह किया है।पुलिस की भूमिका मे पुष्पेंद्र सिंह और शिक्षक की भूमिका में अशोक मिश्रा भी जमते हैं।
जिस प्रकार भारतीय क्रिकेट टीम और तेंदुलकर के मैच मे सुधीर कुमार चौधरी का रहना अनिवार्य है उसी प्रकार छत्तीसगढी फिल्म मे डा अजय सहाय की छोटी मोटी भूमिका अनिवार्य है।इस फिल्म में उनका मात्र एक संवाद है।जज की भूमिका में योगेश अग्रवाल ने भी प्रभावी अभिनय किया है।त्रिपाठी वकील की भूमिका में कलाकार शासन और समाज के समक्ष प्रश्न रखता है कि नियम आमजन की सुविधा के लिए एसी कमरों में बैठकर अफसरों द्वारा बनाए जाते हैं। जबकि वास्तविकता में ऐसे नियम ही आम जनता की पीड़ा का कारण बनते हैं। व्यवस्था में सुधार की जरूरत की ओर शासन का ध्यान आकृष्ट कराने में फिल्मकार सफल साबित हुआ है।
कोर्टरुम ड्रामा को हिंदी सिने जगत के दो बडे कलाकार मुकेश तिवारी और राजेंद्र गुप्ता ने अविस्मरणीय बना दिया है।मुकेश तिवारी ने फिल्म चाइना गेट के मेन विलेन और राजेंद्र गुप्ता ने धारावाहिक चंद्रकांता और चिडिया घर में अपने अभिनय का लोहा मनवाया है।इस फिल्म में वे दोनों वकील के रूप में दर्शकों के सामने आते हैं।कलाकारों के चयन में निर्देशक ने पात्रानुरुप बहुत बढ़िया कलाकारों का चयन किया है।
फिल्म का बैक ग्राउंड म्यूजिक बेहतरीन है।स्थानीय बांस गीत वगैरह का बढिया प्रयोग हुआ है।गीत में मीर अली मीर की मशहूर कविता नंदा जाही का..झूमर जा पडकी और टाइटल सांग बेहतरीन बन पड़े हैं।सुनील सोनी का संगीत मधुर है। कैलाश खेर ने टाइटल गीत बहुत बढ़िया गाया है और प्रसंगानुसार इसका बेहतरीन प्रयोग हुआ है।
छायांकन भी बेहतरीन है। छत्तीसगढ़ की मडई और जंगल का दृश्यांकन मंत्रमुग्ध कर देता है। संपादन भी बहुत बढ़िया है।कुल मिलाकर फिल्म बहुत बढ़िया बनी है। लेकिन एक दो प्रेमदृश्य वाले संवाद और दृश्य थोड़ा असहज भी महसूस कराते हैं।मेरे विचार से ऐसे दृश्यों से बचा भी जा सकता था।भकला को कुछ ज्यादा ही रोमांटिक दिखा दिया गया है,जो हजम नहीं होता।कत्ल के सजा से आशंकित व्यक्ति को रोमांस कैसे सूझेगा। प्रेमीन की भूमिका में अभिनेत्री अल्हड़ युवती लगती है ना कि दो बच्चों की मां।पर उसे दो बच्चों की मां बताया गया है।साल 2000 के आसपास मोबाईल जैसे संचार साधनों की उपलब्धता ग्रामीण क्षेत्रों में अविश्वसनीय प्रतीत होता है। नवपदस्थ शिक्षक का शिक्षा कार्यालय के बजाय थाने में जाकर गांव के बारे में पता करना और थानेदार का शिक्षक को गांव तक छोड़ कर आना गले नहीं उतरता है।ये छोटी मोटी चूक नजर आती है लेकिन समग्र दृष्टिकोण से आकलन करें तो फिल्म मनोरंजक और देखने योग्य है।छत्तीसगढ़ के दर्शकों को फिल्मकार के उत्साह वर्धन के लिए जरूर देखना चाहिए।इस फिल्म को अपने मित्र दीपक साहू जो मौहाभाठा में शिक्षक रह चुके थे,उनके साथ देखने से आनंद दुगुना हो गया था। क्योंकि इस फिल्म में उनके स्कूली छात्रों ने काम किया था और उनके परिचित ग्रामीण जन भी थे। फिल्म की शूटिंग का भी मैं साक्षी रहा हूं और टाकीज में फिल्म देखने के बाद फिल्मकार मनोज वर्मा जी से भी मुलाकात हो गई।एक अच्छे फिल्म के निर्माण के लिए उनको बधाई प्रेषित कर हम लोग वापस अपने गंतव्य की ओर चल पड़े।एक बात और.. कभी कभी तकिया कलाम का उपयोग भी जी का जंजाल बन सकता है...हहो...सहीच काहत हॅंव
1 टिप्पणी:
लंबे अर्से के बाद छत्तीसगढ़ही सिनेमा में अच्छी मूवी बनी है पूरी टीम को बधाई...दीपक भाई के पुराने कार्यरत गांव में इस मूवी की शूटिंग हुई है ये बात अब और ज्यादा रोमांचित कर रही है..
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