रविवार, 26 मई 2019

एक कुएं की मौत....



कुआं शब्द से हम सब परिचित है।जब दुनिया मे ट्यूबवेल या नलकूप का अस्तित्व नहीं था तब कुआं ही पेयजल का प्रमुख साधन हुआ करता था।बीते कुछ वर्षों से कुआं अब बडी तेजी से पाटे जा रहे हैं।नल और ट्यूबवेल जैसे पानी की घर पहुंच या कहें किचन पहुंच सेवा ने कुएं के अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया है।कुआं की उपयोगिता और अस्तित्व शनैःशनैः खत्म हो रहा है।
  पिछले दिनों ही हमारे पडोस के एक सज्जन ने मकान बनाने के नाम पर अपना पुश्तैनी कुआं पटवा दिया।मुझे लगता है कि कुछ सालों के बाद गूगल बाबा ही कुआं के बारे मे बता पाएंगे।वास्तविकता मे तो अब कुएँ विलुप्ति के कगार पर है।पर कुएं से जुडी यादों को स्मृति पटल से कभी विस्मृत नहीं किया जा सकता।
   बडे बुजुर्ग बताते हैं कि पहले जिन लोगों के पास थोडी संपत्ति होती थी वे लोग सडक किनारे या गांव के सामूहिक उपयोग के लिए कुआं खुदवाया करते थे।परलोक सुधारने की आकांक्षा लिए लोग कुआं खुदवाकर पुण्य अर्जित कर लेते थे।यह स्वर्ग मे स्थान सुरक्षित करने का सहज और सुगम मार्ग होता था।सडक किनारे राहगीरों के लिए कुएँ खुदवाए जाते थे ताकि कोई राहगीर प्यासा न रहे।साथ ही उन कुओं के पास ही विश्राम के लिए प्रायः सराय हुआ करती थी।तब रस्सी और बाल्टी कुएं पर हमेशा खुले मे हुआ करती थी।तब आजकल की वाटर कूलर के गिलासों को जैसे जंजीर मे जकड कर रखा जाता है वैसी स्थिति नहीं थी।लोग ईमानदार थे और अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों का बखूबी समझते थे।
कुआं मे सवेरे का दृश्य मनोरम हुआ करता था।महिलाएं कुआं मे पानी भरने के लिए जब इकट्ठा होतीं थी तो अपने अंतर्मन की बातें,परेशानियां,सुख-दुख की बातें आपस में बांट लिया करती थीं।कुआं ही उनके मनोरंजन का स्थल और परेशानी के समाधान का केंद्र हुआ करती थीं।सहयोग और मित्रता के अंकुर तब कुएं के पास ही फूटा करती थीं।बरतन मांजते हाथों से निकलती चूडियों की आवाज से सुबह का आरंभ हुआ करता था।नई-नवेली बहू से पडोस की महिलाओं का प्रथम परिचय भी कुएं पर ही होती थी।
   कृषि क्रांति के दौर मे असंख्य कुएं खोदे गए।उन कुओं के अमृत जल से ही देश खाद्यान्न उत्पादन मे आत्मनिर्भरता की ओर बढा।तब खेतों के कुएं मे रहट की शान हुआ करती थी।
   छत्तीसगढ़ मे कुआं पाटना पाप माना जाता था।ऐसा माना जाता है कि पानी के स्त्रोत को पाटने से पाप लगता है और पाटने वाले के कुल का समूल विनाश हो जाता है।लेकिन अब ये बीते समय की बात हो गई है।लोग अपनी वर्तमान की जरूरतों को पूरा करने की कोशिश मे ऐसी बातों को अब नजरअंदाज कर देते है।खैर,सच जो भी हो पर ऐसा सुनने को मिलता था।हम जब छोटे थे तो कुओं की खुदाई के समय कम गहराई तक उसमे चढना और उतरना हमारा प्रिय खेल हुआ करता था।और जब कुएं को पक्के ईंट या पत्थर से बांध लिया जाता था तब भगवान सत्यनारायण की पूजन के पश्चात ही कुएँ के पानी का उपयोग किया जाता था।
  कुछ कुएं इतिहास को भी अपने अंदर समाहित किये हुए हैं।जैसे जलियांवाला बाग के कुएं ब्रिटिश बर्बरता के मूक गवाह है।कुआं से भारतीयों का अद्भुत नाता है।लेकिन अब उनकी उपेक्षा बढती ही जा रही है।कुओं को अब कचरा फैंकने का ठिकाना बना दिया गया है।जहाँ कभी अमृत जल हुआ करता था अब उसमें प्लास्टिक और दूसरे कचरे की सडांध होती है।
क्या हमारी कोशिश इन धरोहरों को संरक्षित करने की नहीं होनी चाहिए।
  कुछ वर्षों के बाद शायद कुएं देखने को न मिल पाएं।तब इन कहावतों को नई पीढी के बच्चों को हम कैसे समझा पायेंगे...
आगे कुआं पीछे खाई
कुएं का मेढक होना
प्यासा कुएं के पास आता है कुआं प्यासे के पास नहीं
आग लगने पर कुआं खोदना
रोज कुआं खोदना और रोज पानी पीना आदि-आदि इत्यादि....




रविवार, 19 मई 2019

बचपन,गर्मी की छुट्टियां और किताबें...



अभी गर्मी की छुट्टियां चल रही है, जो अब समर वैकेशन कहलाती है।इन छुट्टियों को अब बच्चे स्कील डेवलपमेंट, हाबी क्लासेज या किसी हिल स्टेशन पर छुट्टियां मनाने मे बिताते हैं।
एक बचपन हमारा भी होता था जब गर्मी की छुट्टियों मे हमारा समय मित्रों के संग आम तोडने,तालाब मे घंटो तक तैरने,मामा के घर जाने और किताबें पढते पढते बीत जाता था।
उस समय हमको पाकेट खर्च नामक सुविधा अधिक प्राप्त नहीं होती थी।पच्चीस पैसे और पचास पैसे मे पूरा दिन निकालना होता था।उस पर भी कोई आइसक्रीम वाला अचानक भोंपू की पों..पों... करते आ जाता तो बडी मुश्किल से दादा-दादी की बैंक से डूब जानेवाला लोन मिलता था।तिस पर भी आइसक्रीम वाले को दादी दो चार खरी खोटी सुनाकर ही पैसे दिया करती थीं।हम उस फ्री फायनेंस वाली बैंक के सबसे डिफाल्टर और चहेते ग्राहक हुआ करते थे।
दो रूपये और पांच रूपये तब हमारे लिए रकम हुआ करती थी जो अक्सर हमें त्यौहारों पर या किसी मेहमान के बिदाई के समय उनके करकमलों से प्राप्त होता था।
कुछ मेहमान आते वक्त जलेबियाँ या पारले जी का पैकेट भी लेकर आते थे।ये प्रथा समय के साथ विलुप्त हो गई।वैसे भी चालीस रूपये वाली किंडरज्वाय के दौर मे अब पारलेजी को कौन याद करेगा?
खैर,अब बात करते हैं उन किताबों की जो हमारे बचपन का अभिन्न हिस्सा हुआ करती थी।कामिक्स और चंदामामा उस समय हमारे समय काटने का माध्यम हुआ करता था।कामिक की पुस्तकें किराये पर मिला करती थी।पृष्ठ संख्या और कामिक की मोटाई,और उसकी लोकप्रियता के आधार पर किराया दर तय होता था।प्रायः50 पैसे से लेकर ढाई तीन रूपये मे दिनभर के लिए किसी कामिक्स का मालिक बना जा सकता था।
एक भाई साहब रोज शाम को अपनी छोटी सी सायकल पर कामिक्स को लाते और अगली शाम को जमा करते।उस समय उधारी भी मिलता था और लेटलतीफी से कामिक्स वापस करने पर लेटफीस भी भरना पडता था।तब नागराज,ध्रुव, डोगा,चाचा चौधरी,बिल्लू, और अपने आसपास के जान पडते थे।लगता था कभी न कभी इनसे मुलाकात जरूर होगी।उस समय तक कामिक्स के किरदार काल्पनिक नहीं लगते थे।वो तो बडे होने के बाद समझ आया कि ये काल्पनिक हैं।तब सचमुच के राजनगर मे जाने की इच्छा होती थी।चाचा चौधरी,रमन,बिल्लू,पिंकी पडोस के जान पडते थे।
     कामिक्स पढने से मनोरंजन तो होता ही था लेकिन उसका सबसे बडा फायदा ये था कि पढने की आदत बनती थी।पढने मे मात्रा संबंधी त्रुटियां सुधरती थीं।मनमोहक चित्रों को देखकर कितने ही मित्रों को चित्र बनाने की प्रेरणा मिलींं।जो बाद मे पढाई के दौरान जरुर कभी न कभी काम आई होगी।अब आडियो विजुअल का जमाना है।सब काम तकनीक से हो रहा है।किताबें भी अब कागज के पन्नों पर नहीं बल्कि लैपटॉप और मोबाइल के स्क्रीन पर पढी जाती हैं।लेकिन...
माना कि किताबों को तकनीक मोबाइल मे ले आई है
पर वो खुशबू जो किताबों से आती थी,कहां मिल पायेगी......











शनिवार, 18 मई 2019

वो पुरानावाला अपनापन...

छत्तीसगढ़ ,अपनी लोकजीवन मे सादगी और सहज सरल परंपरा के कारण  भारतवर्ष मे विशिष्ट स्थान रखता है।सामान्यतः छत्तीसगढ़ के ग्रामीण अंचल मे गरमी के दिनों मे वैवाहिक कार्यक्रम रखे जाते हैं।हो सकता है पूर्व मे छत्तीसगढ़ मूलतः कृषि प्रधान क्षेत्र होने के खेती-किसानी के महीने मे अपनी व्यस्तता के कारण ठंड के दिनों मतलब देवउठनी एकादशी के बाद ऐसे वैवाहिक आयोजन मे असमर्थ रहा हो।और ग्रीष्म ऋतु मे वैवाहिक आयोजन की प्रथा चल पडी हो।
खैर,कारण जो भी रहा हो पर छत्तीसगढ़ मे वैवाहिक आयोजन प्रायःमाघ-फागुन से प्रारंभ होकर आषाढ़ माह तक चलता है।जेठ महीने मे सबसे ज्येष्ठ मतलब सबसे बडी संतान का विवाह निषेध होता है।
छत्तीसगढ़ की विवाह परंपरा मे सभी जाति-वर्ग से सहयोग लेने की परंपरा रही है।ग्रामीण अंचल मे वैवाहिक कार्यक्रम प्रायः आपसी सहयोग से ही संपन्न होता था।शादी के लिए वर-वधु की तलाश से लेकर संपूर्ण वैवाहिक कार्यक्रम के संपन्न होने मे सभी जाति वर्ग का सहयोग आवश्यक होता है।शादी मे प्रयुक्त होने वाले बांस निर्मित सामग्री जैसे-झांपी,पंर्रा,बिजना,टुकनी ,चंगोरा आदि कंडरा जाति के लोगों के सहयोग से मिलता था।कुछ क्षेत्रों मे कमार जनजाति भी यही काम करती है।
कलश और अन्य मिट्टी के बर्तन कुम्हार जाति के लोग उपलब्ध कराते थे।शादी मे भोजन व्यवस्था मे राउत जाति के लोगों का अहम स्थान होता था।प्रायःवैवाहिक आयोजन संबंधी पूजा मे पुरोहित के सहयोग के लिए नाई की भूमिका अहम होती है।भोजन के लिए जब पत्तल दोने का दौर होता था तो उनकी पूर्ति का जिम्मा भी नाई जाति के लोगों की हुआ करती थी।कुछ समाज मे सील-बट्टे को नवदंपत्ति को भेंट दिया जाता है और उसकी भी कुछ रस्मे होती हैं।सील-बट्टे बेलदार समाज के लोग प्रदान करते थे।कुछ वैवाहिक रस्मों मे लाई आदि की व्यवस्था केंवट जाति के लोगों के सहयोग से होता था।
इन सबके अलावा नव वरवधु के लिए जूते या जूतिया मोची समुदाय के लोग देते थे।खानपान के लिए सब्जी व्यवस्था की जिम्मेदारी मरार समाज की हुआ करती थी।नई गृहस्थी की शुरुआत करने के लिए वधु पक्ष की ओर से नवदंपत्ति को पचहर दाईज(कांसे और पीतल के पांच बरतन जिसमें थाली,लोटा,बटकी,कोपरा(परात) और हंडा होता है।)दिया जाता था जिसे कसेर(कंसारी) समाज के सहयोग से पूरा किया जाता था।
इसके बाद वैवाहिक रस्मों के लिए बाम्हन(ब्राह्मण) और बइगा(जो प्रायः आदिवासी संप्रदाय के होते हैं)का सहयोग लिया जाता था।
इन सारी बातों को लिखने का एक ही अर्थ है छत्तीसगढ़ मे आला दर्जे का सहयोगी स्वभाव की भावना।जो कभी हमारी विशिष्टता हुआ करती थी।सबका आपस मे सघन प्रेम था।दिखावटी अपनेपन को लोग जानते तक नहीं थे।तब वैवाहिक आयोजन निजी न होकर सार्वजनिक हुआ करता था।तब सब अपनी जिम्मेदारी का बखूबी निर्वहन करते थे।
अब पैसा फेंक तमाशा देख......वाली स्थिति निर्मित हो रही है।हर सामान बाजार मे रेडीमेड उपलब्ध है।पैसा दो और सामान ले आओ.....काश वो पुरानावाला अपना कहीं मिल पाता?

दिन चारी मइहरवा में....सुरता स्व.मिथलेश सर के

  लोकगीतों की अपनी एक अलग मिठास होती है।बिना संगीत के भी लोकगीत मन मोह लेता है,और परंपरागत वाद्य यंत्रों की संगत हो जाए, फिर क्या कहने!! आज ...