अभी गर्मी की छुट्टियां चल रही है, जो अब समर वैकेशन कहलाती है।इन छुट्टियों को अब बच्चे स्कील डेवलपमेंट, हाबी क्लासेज या किसी हिल स्टेशन पर छुट्टियां मनाने मे बिताते हैं।
एक बचपन हमारा भी होता था जब गर्मी की छुट्टियों मे हमारा समय मित्रों के संग आम तोडने,तालाब मे घंटो तक तैरने,मामा के घर जाने और किताबें पढते पढते बीत जाता था।
उस समय हमको पाकेट खर्च नामक सुविधा अधिक प्राप्त नहीं होती थी।पच्चीस पैसे और पचास पैसे मे पूरा दिन निकालना होता था।उस पर भी कोई आइसक्रीम वाला अचानक भोंपू की पों..पों... करते आ जाता तो बडी मुश्किल से दादा-दादी की बैंक से डूब जानेवाला लोन मिलता था।तिस पर भी आइसक्रीम वाले को दादी दो चार खरी खोटी सुनाकर ही पैसे दिया करती थीं।हम उस फ्री फायनेंस वाली बैंक के सबसे डिफाल्टर और चहेते ग्राहक हुआ करते थे।
दो रूपये और पांच रूपये तब हमारे लिए रकम हुआ करती थी जो अक्सर हमें त्यौहारों पर या किसी मेहमान के बिदाई के समय उनके करकमलों से प्राप्त होता था।
कुछ मेहमान आते वक्त जलेबियाँ या पारले जी का पैकेट भी लेकर आते थे।ये प्रथा समय के साथ विलुप्त हो गई।वैसे भी चालीस रूपये वाली किंडरज्वाय के दौर मे अब पारलेजी को कौन याद करेगा?
खैर,अब बात करते हैं उन किताबों की जो हमारे बचपन का अभिन्न हिस्सा हुआ करती थी।कामिक्स और चंदामामा उस समय हमारे समय काटने का माध्यम हुआ करता था।कामिक की पुस्तकें किराये पर मिला करती थी।पृष्ठ संख्या और कामिक की मोटाई,और उसकी लोकप्रियता के आधार पर किराया दर तय होता था।प्रायः50 पैसे से लेकर ढाई तीन रूपये मे दिनभर के लिए किसी कामिक्स का मालिक बना जा सकता था।
एक भाई साहब रोज शाम को अपनी छोटी सी सायकल पर कामिक्स को लाते और अगली शाम को जमा करते।उस समय उधारी भी मिलता था और लेटलतीफी से कामिक्स वापस करने पर लेटफीस भी भरना पडता था।तब नागराज,ध्रुव, डोगा,चाचा चौधरी,बिल्लू, और अपने आसपास के जान पडते थे।लगता था कभी न कभी इनसे मुलाकात जरूर होगी।उस समय तक कामिक्स के किरदार काल्पनिक नहीं लगते थे।वो तो बडे होने के बाद समझ आया कि ये काल्पनिक हैं।तब सचमुच के राजनगर मे जाने की इच्छा होती थी।चाचा चौधरी,रमन,बिल्लू,पिंकी पडोस के जान पडते थे।
कामिक्स पढने से मनोरंजन तो होता ही था लेकिन उसका सबसे बडा फायदा ये था कि पढने की आदत बनती थी।पढने मे मात्रा संबंधी त्रुटियां सुधरती थीं।मनमोहक चित्रों को देखकर कितने ही मित्रों को चित्र बनाने की प्रेरणा मिलींं।जो बाद मे पढाई के दौरान जरुर कभी न कभी काम आई होगी।अब आडियो विजुअल का जमाना है।सब काम तकनीक से हो रहा है।किताबें भी अब कागज के पन्नों पर नहीं बल्कि लैपटॉप और मोबाइल के स्क्रीन पर पढी जाती हैं।लेकिन...
माना कि किताबों को तकनीक मोबाइल मे ले आई है
पर वो खुशबू जो किताबों से आती थी,कहां मिल पायेगी......
1 टिप्पणी:
बहुत बढ़िया
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