कुआं शब्द से हम सब परिचित है।जब दुनिया मे ट्यूबवेल या नलकूप का अस्तित्व नहीं था तब कुआं ही पेयजल का प्रमुख साधन हुआ करता था।बीते कुछ वर्षों से कुआं अब बडी तेजी से पाटे जा रहे हैं।नल और ट्यूबवेल जैसे पानी की घर पहुंच या कहें किचन पहुंच सेवा ने कुएं के अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया है।कुआं की उपयोगिता और अस्तित्व शनैःशनैः खत्म हो रहा है।
पिछले दिनों ही हमारे पडोस के एक सज्जन ने मकान बनाने के नाम पर अपना पुश्तैनी कुआं पटवा दिया।मुझे लगता है कि कुछ सालों के बाद गूगल बाबा ही कुआं के बारे मे बता पाएंगे।वास्तविकता मे तो अब कुएँ विलुप्ति के कगार पर है।पर कुएं से जुडी यादों को स्मृति पटल से कभी विस्मृत नहीं किया जा सकता।
बडे बुजुर्ग बताते हैं कि पहले जिन लोगों के पास थोडी संपत्ति होती थी वे लोग सडक किनारे या गांव के सामूहिक उपयोग के लिए कुआं खुदवाया करते थे।परलोक सुधारने की आकांक्षा लिए लोग कुआं खुदवाकर पुण्य अर्जित कर लेते थे।यह स्वर्ग मे स्थान सुरक्षित करने का सहज और सुगम मार्ग होता था।सडक किनारे राहगीरों के लिए कुएँ खुदवाए जाते थे ताकि कोई राहगीर प्यासा न रहे।साथ ही उन कुओं के पास ही विश्राम के लिए प्रायः सराय हुआ करती थी।तब रस्सी और बाल्टी कुएं पर हमेशा खुले मे हुआ करती थी।तब आजकल की वाटर कूलर के गिलासों को जैसे जंजीर मे जकड कर रखा जाता है वैसी स्थिति नहीं थी।लोग ईमानदार थे और अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों का बखूबी समझते थे।
कुआं मे सवेरे का दृश्य मनोरम हुआ करता था।महिलाएं कुआं मे पानी भरने के लिए जब इकट्ठा होतीं थी तो अपने अंतर्मन की बातें,परेशानियां,सुख-दुख की बातें आपस में बांट लिया करती थीं।कुआं ही उनके मनोरंजन का स्थल और परेशानी के समाधान का केंद्र हुआ करती थीं।सहयोग और मित्रता के अंकुर तब कुएं के पास ही फूटा करती थीं।बरतन मांजते हाथों से निकलती चूडियों की आवाज से सुबह का आरंभ हुआ करता था।नई-नवेली बहू से पडोस की महिलाओं का प्रथम परिचय भी कुएं पर ही होती थी।
कृषि क्रांति के दौर मे असंख्य कुएं खोदे गए।उन कुओं के अमृत जल से ही देश खाद्यान्न उत्पादन मे आत्मनिर्भरता की ओर बढा।तब खेतों के कुएं मे रहट की शान हुआ करती थी।
छत्तीसगढ़ मे कुआं पाटना पाप माना जाता था।ऐसा माना जाता है कि पानी के स्त्रोत को पाटने से पाप लगता है और पाटने वाले के कुल का समूल विनाश हो जाता है।लेकिन अब ये बीते समय की बात हो गई है।लोग अपनी वर्तमान की जरूरतों को पूरा करने की कोशिश मे ऐसी बातों को अब नजरअंदाज कर देते है।खैर,सच जो भी हो पर ऐसा सुनने को मिलता था।हम जब छोटे थे तो कुओं की खुदाई के समय कम गहराई तक उसमे चढना और उतरना हमारा प्रिय खेल हुआ करता था।और जब कुएं को पक्के ईंट या पत्थर से बांध लिया जाता था तब भगवान सत्यनारायण की पूजन के पश्चात ही कुएँ के पानी का उपयोग किया जाता था।
कुछ कुएं इतिहास को भी अपने अंदर समाहित किये हुए हैं।जैसे जलियांवाला बाग के कुएं ब्रिटिश बर्बरता के मूक गवाह है।कुआं से भारतीयों का अद्भुत नाता है।लेकिन अब उनकी उपेक्षा बढती ही जा रही है।कुओं को अब कचरा फैंकने का ठिकाना बना दिया गया है।जहाँ कभी अमृत जल हुआ करता था अब उसमें प्लास्टिक और दूसरे कचरे की सडांध होती है।
क्या हमारी कोशिश इन धरोहरों को संरक्षित करने की नहीं होनी चाहिए।
कुछ वर्षों के बाद शायद कुएं देखने को न मिल पाएं।तब इन कहावतों को नई पीढी के बच्चों को हम कैसे समझा पायेंगे...
आगे कुआं पीछे खाई
कुएं का मेढक होना
प्यासा कुएं के पास आता है कुआं प्यासे के पास नहीं
आग लगने पर कुआं खोदना
रोज कुआं खोदना और रोज पानी पीना आदि-आदि इत्यादि....
1 टिप्पणी:
एक उद्यमी का सार्थक "उदीम"...। nice thought Yadav Sir
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