छत्तीसगढ़ ,अपनी लोकजीवन मे सादगी और सहज सरल परंपरा के कारण भारतवर्ष मे विशिष्ट स्थान रखता है।सामान्यतः छत्तीसगढ़ के ग्रामीण अंचल मे गरमी के दिनों मे वैवाहिक कार्यक्रम रखे जाते हैं।हो सकता है पूर्व मे छत्तीसगढ़ मूलतः कृषि प्रधान क्षेत्र होने के खेती-किसानी के महीने मे अपनी व्यस्तता के कारण ठंड के दिनों मतलब देवउठनी एकादशी के बाद ऐसे वैवाहिक आयोजन मे असमर्थ रहा हो।और ग्रीष्म ऋतु मे वैवाहिक आयोजन की प्रथा चल पडी हो।
खैर,कारण जो भी रहा हो पर छत्तीसगढ़ मे वैवाहिक आयोजन प्रायःमाघ-फागुन से प्रारंभ होकर आषाढ़ माह तक चलता है।जेठ महीने मे सबसे ज्येष्ठ मतलब सबसे बडी संतान का विवाह निषेध होता है।
छत्तीसगढ़ की विवाह परंपरा मे सभी जाति-वर्ग से सहयोग लेने की परंपरा रही है।ग्रामीण अंचल मे वैवाहिक कार्यक्रम प्रायः आपसी सहयोग से ही संपन्न होता था।शादी के लिए वर-वधु की तलाश से लेकर संपूर्ण वैवाहिक कार्यक्रम के संपन्न होने मे सभी जाति वर्ग का सहयोग आवश्यक होता है।शादी मे प्रयुक्त होने वाले बांस निर्मित सामग्री जैसे-झांपी,पंर्रा,बिजना,टुकनी ,चंगोरा आदि कंडरा जाति के लोगों के सहयोग से मिलता था।कुछ क्षेत्रों मे कमार जनजाति भी यही काम करती है।
कलश और अन्य मिट्टी के बर्तन कुम्हार जाति के लोग उपलब्ध कराते थे।शादी मे भोजन व्यवस्था मे राउत जाति के लोगों का अहम स्थान होता था।प्रायःवैवाहिक आयोजन संबंधी पूजा मे पुरोहित के सहयोग के लिए नाई की भूमिका अहम होती है।भोजन के लिए जब पत्तल दोने का दौर होता था तो उनकी पूर्ति का जिम्मा भी नाई जाति के लोगों की हुआ करती थी।कुछ समाज मे सील-बट्टे को नवदंपत्ति को भेंट दिया जाता है और उसकी भी कुछ रस्मे होती हैं।सील-बट्टे बेलदार समाज के लोग प्रदान करते थे।कुछ वैवाहिक रस्मों मे लाई आदि की व्यवस्था केंवट जाति के लोगों के सहयोग से होता था।
इन सबके अलावा नव वरवधु के लिए जूते या जूतिया मोची समुदाय के लोग देते थे।खानपान के लिए सब्जी व्यवस्था की जिम्मेदारी मरार समाज की हुआ करती थी।नई गृहस्थी की शुरुआत करने के लिए वधु पक्ष की ओर से नवदंपत्ति को पचहर दाईज(कांसे और पीतल के पांच बरतन जिसमें थाली,लोटा,बटकी,कोपरा(परात) और हंडा होता है।)दिया जाता था जिसे कसेर(कंसारी) समाज के सहयोग से पूरा किया जाता था।
इसके बाद वैवाहिक रस्मों के लिए बाम्हन(ब्राह्मण) और बइगा(जो प्रायः आदिवासी संप्रदाय के होते हैं)का सहयोग लिया जाता था।
इन सारी बातों को लिखने का एक ही अर्थ है छत्तीसगढ़ मे आला दर्जे का सहयोगी स्वभाव की भावना।जो कभी हमारी विशिष्टता हुआ करती थी।सबका आपस मे सघन प्रेम था।दिखावटी अपनेपन को लोग जानते तक नहीं थे।तब वैवाहिक आयोजन निजी न होकर सार्वजनिक हुआ करता था।तब सब अपनी जिम्मेदारी का बखूबी निर्वहन करते थे।
अब पैसा फेंक तमाशा देख......वाली स्थिति निर्मित हो रही है।हर सामान बाजार मे रेडीमेड उपलब्ध है।पैसा दो और सामान ले आओ.....काश वो पुरानावाला अपना कहीं मिल पाता?
खैर,कारण जो भी रहा हो पर छत्तीसगढ़ मे वैवाहिक आयोजन प्रायःमाघ-फागुन से प्रारंभ होकर आषाढ़ माह तक चलता है।जेठ महीने मे सबसे ज्येष्ठ मतलब सबसे बडी संतान का विवाह निषेध होता है।
छत्तीसगढ़ की विवाह परंपरा मे सभी जाति-वर्ग से सहयोग लेने की परंपरा रही है।ग्रामीण अंचल मे वैवाहिक कार्यक्रम प्रायः आपसी सहयोग से ही संपन्न होता था।शादी के लिए वर-वधु की तलाश से लेकर संपूर्ण वैवाहिक कार्यक्रम के संपन्न होने मे सभी जाति वर्ग का सहयोग आवश्यक होता है।शादी मे प्रयुक्त होने वाले बांस निर्मित सामग्री जैसे-झांपी,पंर्रा,बिजना,टुकनी ,चंगोरा आदि कंडरा जाति के लोगों के सहयोग से मिलता था।कुछ क्षेत्रों मे कमार जनजाति भी यही काम करती है।
कलश और अन्य मिट्टी के बर्तन कुम्हार जाति के लोग उपलब्ध कराते थे।शादी मे भोजन व्यवस्था मे राउत जाति के लोगों का अहम स्थान होता था।प्रायःवैवाहिक आयोजन संबंधी पूजा मे पुरोहित के सहयोग के लिए नाई की भूमिका अहम होती है।भोजन के लिए जब पत्तल दोने का दौर होता था तो उनकी पूर्ति का जिम्मा भी नाई जाति के लोगों की हुआ करती थी।कुछ समाज मे सील-बट्टे को नवदंपत्ति को भेंट दिया जाता है और उसकी भी कुछ रस्मे होती हैं।सील-बट्टे बेलदार समाज के लोग प्रदान करते थे।कुछ वैवाहिक रस्मों मे लाई आदि की व्यवस्था केंवट जाति के लोगों के सहयोग से होता था।
इन सबके अलावा नव वरवधु के लिए जूते या जूतिया मोची समुदाय के लोग देते थे।खानपान के लिए सब्जी व्यवस्था की जिम्मेदारी मरार समाज की हुआ करती थी।नई गृहस्थी की शुरुआत करने के लिए वधु पक्ष की ओर से नवदंपत्ति को पचहर दाईज(कांसे और पीतल के पांच बरतन जिसमें थाली,लोटा,बटकी,कोपरा(परात) और हंडा होता है।)दिया जाता था जिसे कसेर(कंसारी) समाज के सहयोग से पूरा किया जाता था।
इसके बाद वैवाहिक रस्मों के लिए बाम्हन(ब्राह्मण) और बइगा(जो प्रायः आदिवासी संप्रदाय के होते हैं)का सहयोग लिया जाता था।
इन सारी बातों को लिखने का एक ही अर्थ है छत्तीसगढ़ मे आला दर्जे का सहयोगी स्वभाव की भावना।जो कभी हमारी विशिष्टता हुआ करती थी।सबका आपस मे सघन प्रेम था।दिखावटी अपनेपन को लोग जानते तक नहीं थे।तब वैवाहिक आयोजन निजी न होकर सार्वजनिक हुआ करता था।तब सब अपनी जिम्मेदारी का बखूबी निर्वहन करते थे।
अब पैसा फेंक तमाशा देख......वाली स्थिति निर्मित हो रही है।हर सामान बाजार मे रेडीमेड उपलब्ध है।पैसा दो और सामान ले आओ.....काश वो पुरानावाला अपना कहीं मिल पाता?
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें