साल 2019 छत्तीसगढ़ के कलाजगत के लिए अपूरणीय क्षति का वर्ष कहा जाएगा।अभी छ:महिना पहले ही छत्तीसगढ़ के महान कलाकार खुमान साव जी जून में हमसे बिछड़े थे।उस दुख से उबर भी न पाए थे कि एक और क्षति का सामना करना पड़ गया।16 दिसंबर 2019 को हम सबके चहेते और लोकप्रिय लोकगायक मिथलेश साहू जी भी चिरनिद्रा में लीन हो गए।
28 जून 1960 को छत्तीसगढ़ के वनांचल में बसे वन्यग्राम बारूका में मिथलेश साहू जी का जन्म हुआ था।पिता स्व.जीवनलाल साहू भी कलासाधक थे।वे नाचा मंडली से जुड़े हुए थे।इसलिए लोककला के प्रति उनका झुकाव स्वाभाविक ही था।
उनकी प्रारंभिक शिक्षा छुरा ब्लाक के अंतर्गत स्थित कुकदा और पांडुका ग्राम में हुई। उच्च शिक्षा के लिए वे रायपुर गए। सन् 1977 में उनके गांव में रवेली साज के मशहूर नाचा कलाकार मदन निषाद का कार्यक्रम हुआ।उस कार्यक्रम के दौरान वे मदन निषाद की कला से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने लोककला की राह ही पकड़ लिया। अध्ययन के दौरान ही उनको छत्तीसगढ़ के कलापुरोधा दाऊ महासिंह चंद्राकर और मशहूर गायक केदार यादव का सान्निध्य प्राप्त हुआ।उस दौरान उनकी सोनहा बिहान लोककला मंच की छत्तीसगढ़ में धूम हुआ करती थी।जल्दी ही उनको सोनहा बिहान में गाने और अभिनय का अवसर प्राप्त हुआ और वे लोककला की सेवा में मगन हो गए।अच्छे खासे पढ़े लिखे थे तो आगे चलकर सन् 1984 में उनको शिक्षक की सरकारी नौकरी भी मिल गई। हालांकि लोककला की सेवा और नौकरी के बीच सामंजस्य बिठा पाना आसान नहीं था फिर भी उन्होंने लोककला और अपनी नौकरी के बीच तालमेल बिठा लिया।जिस पांडुका गांव से उनको शिक्षा मिली थी उसी गांव में ही उन्होंने एक लंबा समय शिक्षक के रूप में व्यतीत किया।अपने विद्यार्थियों की प्रगति के लिए उन्होंने हरसंभव प्रयास किया।विशेषकर कमार जनजाति के विद्यार्थियों के प्रति उनको विशेष लगाव था। सामान्यतः आखेट और वनोपज संग्रहण करके जीवनयापन करने वाले कमार जनजाति के बच्चों को शिक्षा से जोडना आसान काम नहीं था लेकिन अपने प्रयासों से उन्होंने कमार बच्चों को उच्च शिक्षा के लिए प्रेरित किया फलत:आज उनके बहुत से विद्यार्थी शासकीय सेवा में है।सन् 1994 में जब जनजाति अनुसंधान विभाग भोपाल द्वारा कमार जनजाति पर डाक्यूमेंट्री फिल्म का निर्माण कराया गया तो समन्वयक के रुप में मिथलेश जी का सहयोग लिया गया।एक शिक्षक के रूप में शालेय बच्चों को जिला,संभाग और राज्य स्तर पर कई सालों तक सांस्कृतिक गतिविधियों में पुरस्कार दिलवाए।उनके द्वारा पढाए कई विद्यार्थियों से मेरी बात हुई है,प्राय:सभी उनकी सादगी और समर्पण का गुणगान करते दिखे।ये उनके उच्च शिक्षकीय गुण का परिचायक है।
शिक्षकीय दायित्वों के निर्वहन के बाद भी लोककला के प्रति उनका समर्पण कभी भी कम नहीं हुआ था।सोनहा बिहान के विसर्जन के पश्चात वे दीपक चंद्राकर के साथ "लोकरंग अर्जुंदा"से जुड़ गए और मंचीय प्रस्तुतियां देने लगे।दीपक जी के साथ लोकरंग अर्जुंदा के मंच पर देवार डेरा प्रहसन में उनका देवार के रूप में जुगलबंदी देखते ही बनती थी।मंच पर गायन से मुक्त उनको हास्य अभिनय करते देखना बड़ा मजेदार होता था।मुझे याद है जब सन 2002 में उनका कार्यक्रम देखने एक बार मैं अपने छोटे भाई के साथ माघ महीने की कड़कड़ाती ठंड में राजिम गया था। जहां राजिम महोत्सव के मंच पर महानदी की रेत में ठिठुरन भरी ठंड में हमने उनका कार्यक्रम देखा था।लोकरंग में भी मिथलेश जी अपने अभिनय और आवाज का जादू जगाते रहे तत्पश्चात सन् 2006 में उनके अनुज भूपेंद्र साहू द्वारा एक नए लोकमंच "रंग-सरोवर" की स्थापना की गई। मिथलेश गुरूजी के मुख्य गायन स्वर में इस लोकमंच ने अल्प समय में ही अच्छी ख्याति अर्जित कर लिया।इसके पूर्व वे छत्तीसगढ़ी फिल्मों में पार्श्वगायन और अभिनय से भी जुड़े रहे।मया देदे मया लेले,परदेशी के मया,तोर मया के मारे और कारी उनकी सुपरहिट संगीतमय फिल्में रही है।सन् 2003 में उनको एक ही वर्ष में श्रेष्ठ शिक्षक का राज्य पुरस्कार और श्रेष्ठ पार्श्व गायक का पुरस्कार भी प्राप्त हुआ है। इसके पूर्व उनको भिलाई इस्पात संयंत्र द्वारा स्थापित दाऊ महासिंह चंद्राकर पुरस्कार सन् 2000 में मिल चुका था।उनको प्राप्त सम्मानों और पुरस्कारों की फेहरिस्त लंबी है,जिनका वर्णन यहां करना संभव नहीं है।
जब छत्तीसगढी फ़िल्मो की असफलता का दौर आया और बाजार में प्रायवेट एल्बमों की बाढ़ आ गई तब इनके द्वारा देखंव रे तोला नाम से एल्बम लाया गया।इस एल्बम के गीतों ने तब धूम मचा दिया था। पारंपरिक गीतों को नए वाद्ययंत्रों के साथ सुमधुरता के साथ प्रस्तुत किया गया था जिसे श्रोताओं ने हृदय से सराहा।इस एल्बम के पश्चात मोर मनबसिया,गाडीवाला जहुंरिया,मया के मडवा, मया के सुवा,देवारी,अलबेली,मोर आजा सजन,और सुमिरन कई एल्बम सुपरहिट हुए।उनके गाए कुछ गीत जैसे-फुल झरे हांसी,आजा न गोरी और सुन्ना होगे फुलवारी जैसे गीत उनकी पहचान बन गए।अंग्रेजी में एक शब्द होता है सिग्नेचर जिसका शाब्दिक अर्थ होता है हस्ताक्षर। परंतु किसी की विशिष्टता को दर्शाने के लिए भी इस शब्द का प्रयोग होता है।उपर वर्णित ये गीत मिथलेश जी के सिग्नेचर सांग ही हैं।जो उनके अलावा किसी और के कंठ से सुनने में अच्छा नहीं लगता।रंग सरोवर कार्यक्रम की चार पांच प्रस्तुतियां मैं देख चुका हूं।उस मंच पर जब ताल गुलागुल टुरी झन जा मंझनिया गीत वे गाते थे तो वे स्वयं खूब ठुमकते थे और साथी कलाकारों को भी ठुमकने पर विवश कर दिया करते थे।मंच में मस्ती छा जाती थी और दर्शक दीर्घा भी उनके इस गीत पर थिरक उठती थी।इस लोकमंच की प्रस्तुति का समापन उनके मशहूर गीत "सुन्ना होगे फुलवारी"से हुआ करती थी।ये रंग सरोवर की अंतिम सांगीतिक प्रस्तुति होती थी।
आकाशवाणी में श्रीमती ममता चंद्राकर और कुलेश्वर ताम्रकार के साथ उनके गीत को छत्तीसगढ़ के श्रोताओं ने खूब सराहा और आज भी वे उसी चाव से ग्रामीण क्षेत्रों में सुने जाते हैं। छत्तीसगढ़ की लोकगीतों की अश्लीलता रहित प्रस्तुति और लोकगीतों के संग्रहण में उनके योगदान को कभी विस्मृत नहीं किया जा सकता।वे गांव और माटी से जुड़े कलाकार थे।मुझे महसूस होता है कि ये उनके अपने गांव से लगाव ही था कि ग्राम बारूका की पृष्ठभूमि में फिल्म मया देदे मया लेले को फिल्माया गया और उनके द्वारा निर्मित तकरीबन सभी एल्बमों में बारूका और पैरी नदी का दृश्यांकन जरूर होता था। अभावग्रस्त जनजाति की पीड़ा को वे लोकमंच के माध्यम से समाज के सामने लाने का काम प्रमुखता से करते थे। छत्तीसगढ़ के लोकगीतों को सहेज कर रखने का काम देवार जैसी जनजातियों ने किया है।उनके इस सांस्कृतिक अवदान का आभार उनकी प्रस्तुतियों के दौरान जरूर होता था।देवार के रोल में मिथलेश जी को फिल्म तोर मया के मारे में देख सकते हैं।देवारों की अभावग्रस्तता और पीडा उनके अभिनय में साकार होता सा प्रतीत होता है।रंग सरोवर के एक प्रहसन"मुसाफिरी"में भी देवार जनजाति की व्यथा और रहन-सहन की छोटी सी अभिव्यक्ति होती है।मेरी उनसे सम्मुख भेंट सिर्फ अभिवादन तक ही थी जब वे तीन साल तक हमारे गांव में रंग सरोवर की प्रस्तुति देने आए थे।इस साल उनसे मुलाकात करने का कार्यक्रम दो बार बना पर उनके गृहग्राम से स्वास्थ्य गत कारणों से अनुपस्थिति के कारण संभव नहीं हो पाया। अंततः उनके अंतिम दर्शन के लिए जाने का अवसर मिला और उनको अपनी आदरांजलि देने में मैं कामयाब रहा।
मिथलेश जी जैसे कलाकार विरल होते हैं जो सादगी के साथ जनमानस से जुड़े रहते हैं।वे हमारे बीच अब सशरीर भले ही नहीं हैं पर उनकी अमर आवाज हमारे आस-पास सदा गुंजती रहेगी।गीत पहले भी बनते थे।अब भी बन रही है और आगे भी लिखे और गाए जाते रहेंगे। लेकिन छत्तीसगढ़ के कलाजगत के फुलवारी का एक अनमोल पुष्प परमात्मा ने अपने पास रख लिया और हम कहने को विवश हैं....आज सुन्ना होगे फुलवारी।उनके जाने के बाद एक सन्नाटा सा पसरा हुआ है।और याद आ रहा है उनके गाए गीत के बोल..
मोर रोवत हे तमूरा,सुन्ना हे मोर पारा
जरूर आबे ना.......
नमन मिथलेश गुरूजी ला.. भावभीनी श्रद्धांजलि
रीझे टेंगनाबासा
28 जून 1960 को छत्तीसगढ़ के वनांचल में बसे वन्यग्राम बारूका में मिथलेश साहू जी का जन्म हुआ था।पिता स्व.जीवनलाल साहू भी कलासाधक थे।वे नाचा मंडली से जुड़े हुए थे।इसलिए लोककला के प्रति उनका झुकाव स्वाभाविक ही था।
उनकी प्रारंभिक शिक्षा छुरा ब्लाक के अंतर्गत स्थित कुकदा और पांडुका ग्राम में हुई। उच्च शिक्षा के लिए वे रायपुर गए। सन् 1977 में उनके गांव में रवेली साज के मशहूर नाचा कलाकार मदन निषाद का कार्यक्रम हुआ।उस कार्यक्रम के दौरान वे मदन निषाद की कला से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने लोककला की राह ही पकड़ लिया। अध्ययन के दौरान ही उनको छत्तीसगढ़ के कलापुरोधा दाऊ महासिंह चंद्राकर और मशहूर गायक केदार यादव का सान्निध्य प्राप्त हुआ।उस दौरान उनकी सोनहा बिहान लोककला मंच की छत्तीसगढ़ में धूम हुआ करती थी।जल्दी ही उनको सोनहा बिहान में गाने और अभिनय का अवसर प्राप्त हुआ और वे लोककला की सेवा में मगन हो गए।अच्छे खासे पढ़े लिखे थे तो आगे चलकर सन् 1984 में उनको शिक्षक की सरकारी नौकरी भी मिल गई। हालांकि लोककला की सेवा और नौकरी के बीच सामंजस्य बिठा पाना आसान नहीं था फिर भी उन्होंने लोककला और अपनी नौकरी के बीच तालमेल बिठा लिया।जिस पांडुका गांव से उनको शिक्षा मिली थी उसी गांव में ही उन्होंने एक लंबा समय शिक्षक के रूप में व्यतीत किया।अपने विद्यार्थियों की प्रगति के लिए उन्होंने हरसंभव प्रयास किया।विशेषकर कमार जनजाति के विद्यार्थियों के प्रति उनको विशेष लगाव था। सामान्यतः आखेट और वनोपज संग्रहण करके जीवनयापन करने वाले कमार जनजाति के बच्चों को शिक्षा से जोडना आसान काम नहीं था लेकिन अपने प्रयासों से उन्होंने कमार बच्चों को उच्च शिक्षा के लिए प्रेरित किया फलत:आज उनके बहुत से विद्यार्थी शासकीय सेवा में है।सन् 1994 में जब जनजाति अनुसंधान विभाग भोपाल द्वारा कमार जनजाति पर डाक्यूमेंट्री फिल्म का निर्माण कराया गया तो समन्वयक के रुप में मिथलेश जी का सहयोग लिया गया।एक शिक्षक के रूप में शालेय बच्चों को जिला,संभाग और राज्य स्तर पर कई सालों तक सांस्कृतिक गतिविधियों में पुरस्कार दिलवाए।उनके द्वारा पढाए कई विद्यार्थियों से मेरी बात हुई है,प्राय:सभी उनकी सादगी और समर्पण का गुणगान करते दिखे।ये उनके उच्च शिक्षकीय गुण का परिचायक है।
शिक्षकीय दायित्वों के निर्वहन के बाद भी लोककला के प्रति उनका समर्पण कभी भी कम नहीं हुआ था।सोनहा बिहान के विसर्जन के पश्चात वे दीपक चंद्राकर के साथ "लोकरंग अर्जुंदा"से जुड़ गए और मंचीय प्रस्तुतियां देने लगे।दीपक जी के साथ लोकरंग अर्जुंदा के मंच पर देवार डेरा प्रहसन में उनका देवार के रूप में जुगलबंदी देखते ही बनती थी।मंच पर गायन से मुक्त उनको हास्य अभिनय करते देखना बड़ा मजेदार होता था।मुझे याद है जब सन 2002 में उनका कार्यक्रम देखने एक बार मैं अपने छोटे भाई के साथ माघ महीने की कड़कड़ाती ठंड में राजिम गया था। जहां राजिम महोत्सव के मंच पर महानदी की रेत में ठिठुरन भरी ठंड में हमने उनका कार्यक्रम देखा था।लोकरंग में भी मिथलेश जी अपने अभिनय और आवाज का जादू जगाते रहे तत्पश्चात सन् 2006 में उनके अनुज भूपेंद्र साहू द्वारा एक नए लोकमंच "रंग-सरोवर" की स्थापना की गई। मिथलेश गुरूजी के मुख्य गायन स्वर में इस लोकमंच ने अल्प समय में ही अच्छी ख्याति अर्जित कर लिया।इसके पूर्व वे छत्तीसगढ़ी फिल्मों में पार्श्वगायन और अभिनय से भी जुड़े रहे।मया देदे मया लेले,परदेशी के मया,तोर मया के मारे और कारी उनकी सुपरहिट संगीतमय फिल्में रही है।सन् 2003 में उनको एक ही वर्ष में श्रेष्ठ शिक्षक का राज्य पुरस्कार और श्रेष्ठ पार्श्व गायक का पुरस्कार भी प्राप्त हुआ है। इसके पूर्व उनको भिलाई इस्पात संयंत्र द्वारा स्थापित दाऊ महासिंह चंद्राकर पुरस्कार सन् 2000 में मिल चुका था।उनको प्राप्त सम्मानों और पुरस्कारों की फेहरिस्त लंबी है,जिनका वर्णन यहां करना संभव नहीं है।
जब छत्तीसगढी फ़िल्मो की असफलता का दौर आया और बाजार में प्रायवेट एल्बमों की बाढ़ आ गई तब इनके द्वारा देखंव रे तोला नाम से एल्बम लाया गया।इस एल्बम के गीतों ने तब धूम मचा दिया था। पारंपरिक गीतों को नए वाद्ययंत्रों के साथ सुमधुरता के साथ प्रस्तुत किया गया था जिसे श्रोताओं ने हृदय से सराहा।इस एल्बम के पश्चात मोर मनबसिया,गाडीवाला जहुंरिया,मया के मडवा, मया के सुवा,देवारी,अलबेली,मोर आजा सजन,और सुमिरन कई एल्बम सुपरहिट हुए।उनके गाए कुछ गीत जैसे-फुल झरे हांसी,आजा न गोरी और सुन्ना होगे फुलवारी जैसे गीत उनकी पहचान बन गए।अंग्रेजी में एक शब्द होता है सिग्नेचर जिसका शाब्दिक अर्थ होता है हस्ताक्षर। परंतु किसी की विशिष्टता को दर्शाने के लिए भी इस शब्द का प्रयोग होता है।उपर वर्णित ये गीत मिथलेश जी के सिग्नेचर सांग ही हैं।जो उनके अलावा किसी और के कंठ से सुनने में अच्छा नहीं लगता।रंग सरोवर कार्यक्रम की चार पांच प्रस्तुतियां मैं देख चुका हूं।उस मंच पर जब ताल गुलागुल टुरी झन जा मंझनिया गीत वे गाते थे तो वे स्वयं खूब ठुमकते थे और साथी कलाकारों को भी ठुमकने पर विवश कर दिया करते थे।मंच में मस्ती छा जाती थी और दर्शक दीर्घा भी उनके इस गीत पर थिरक उठती थी।इस लोकमंच की प्रस्तुति का समापन उनके मशहूर गीत "सुन्ना होगे फुलवारी"से हुआ करती थी।ये रंग सरोवर की अंतिम सांगीतिक प्रस्तुति होती थी।
आकाशवाणी में श्रीमती ममता चंद्राकर और कुलेश्वर ताम्रकार के साथ उनके गीत को छत्तीसगढ़ के श्रोताओं ने खूब सराहा और आज भी वे उसी चाव से ग्रामीण क्षेत्रों में सुने जाते हैं। छत्तीसगढ़ की लोकगीतों की अश्लीलता रहित प्रस्तुति और लोकगीतों के संग्रहण में उनके योगदान को कभी विस्मृत नहीं किया जा सकता।वे गांव और माटी से जुड़े कलाकार थे।मुझे महसूस होता है कि ये उनके अपने गांव से लगाव ही था कि ग्राम बारूका की पृष्ठभूमि में फिल्म मया देदे मया लेले को फिल्माया गया और उनके द्वारा निर्मित तकरीबन सभी एल्बमों में बारूका और पैरी नदी का दृश्यांकन जरूर होता था। अभावग्रस्त जनजाति की पीड़ा को वे लोकमंच के माध्यम से समाज के सामने लाने का काम प्रमुखता से करते थे। छत्तीसगढ़ के लोकगीतों को सहेज कर रखने का काम देवार जैसी जनजातियों ने किया है।उनके इस सांस्कृतिक अवदान का आभार उनकी प्रस्तुतियों के दौरान जरूर होता था।देवार के रोल में मिथलेश जी को फिल्म तोर मया के मारे में देख सकते हैं।देवारों की अभावग्रस्तता और पीडा उनके अभिनय में साकार होता सा प्रतीत होता है।रंग सरोवर के एक प्रहसन"मुसाफिरी"में भी देवार जनजाति की व्यथा और रहन-सहन की छोटी सी अभिव्यक्ति होती है।मेरी उनसे सम्मुख भेंट सिर्फ अभिवादन तक ही थी जब वे तीन साल तक हमारे गांव में रंग सरोवर की प्रस्तुति देने आए थे।इस साल उनसे मुलाकात करने का कार्यक्रम दो बार बना पर उनके गृहग्राम से स्वास्थ्य गत कारणों से अनुपस्थिति के कारण संभव नहीं हो पाया। अंततः उनके अंतिम दर्शन के लिए जाने का अवसर मिला और उनको अपनी आदरांजलि देने में मैं कामयाब रहा।
मिथलेश जी जैसे कलाकार विरल होते हैं जो सादगी के साथ जनमानस से जुड़े रहते हैं।वे हमारे बीच अब सशरीर भले ही नहीं हैं पर उनकी अमर आवाज हमारे आस-पास सदा गुंजती रहेगी।गीत पहले भी बनते थे।अब भी बन रही है और आगे भी लिखे और गाए जाते रहेंगे। लेकिन छत्तीसगढ़ के कलाजगत के फुलवारी का एक अनमोल पुष्प परमात्मा ने अपने पास रख लिया और हम कहने को विवश हैं....आज सुन्ना होगे फुलवारी।उनके जाने के बाद एक सन्नाटा सा पसरा हुआ है।और याद आ रहा है उनके गाए गीत के बोल..
मोर रोवत हे तमूरा,सुन्ना हे मोर पारा
जरूर आबे ना.......
नमन मिथलेश गुरूजी ला.. भावभीनी श्रद्धांजलि
रीझे टेंगनाबासा