गुरुवार, 19 दिसंबर 2019

सुन्ना होगे फुलवारी....

साल 2019 छत्तीसगढ़ के कलाजगत के लिए अपूरणीय क्षति का वर्ष कहा जाएगा।अभी छ:महिना पहले ही छत्तीसगढ़ के महान कलाकार खुमान साव जी जून में हमसे बिछड़े थे।उस दुख से उबर भी न पाए थे कि एक और क्षति का सामना करना पड़ गया।16 दिसंबर 2019 को हम सबके चहेते और लोकप्रिय लोकगायक मिथलेश साहू जी भी चिरनिद्रा में लीन हो गए।
28 जून 1960 को छत्तीसगढ़ के वनांचल में बसे वन्यग्राम बारूका में मिथलेश साहू जी का जन्म हुआ था।पिता स्व.जीवनलाल साहू भी कलासाधक थे।वे नाचा मंडली से जुड़े हुए थे।इसलिए लोककला के प्रति उनका झुकाव स्वाभाविक ही था।
उनकी प्रारंभिक शिक्षा छुरा ब्लाक के अंतर्गत स्थित कुकदा और पांडुका ग्राम में हुई। उच्च शिक्षा के लिए वे रायपुर गए। सन् 1977 में उनके गांव में रवेली साज के मशहूर नाचा कलाकार मदन निषाद का कार्यक्रम हुआ।उस कार्यक्रम के दौरान वे मदन निषाद की कला से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने लोककला की राह ही पकड़ लिया। अध्ययन के दौरान ही उनको छत्तीसगढ़ के कलापुरोधा दाऊ महासिंह चंद्राकर और मशहूर गायक केदार यादव का सान्निध्य प्राप्त हुआ।उस दौरान उनकी सोनहा बिहान लोककला मंच की छत्तीसगढ़ में धूम हुआ करती थी।जल्दी ही उनको सोनहा बिहान में गाने और अभिनय का अवसर प्राप्त हुआ और वे लोककला की सेवा में मगन हो गए।अच्छे खासे पढ़े लिखे थे तो आगे चलकर सन् 1984 में उनको शिक्षक की सरकारी नौकरी भी मिल गई। हालांकि लोककला की सेवा और नौकरी के बीच सामंजस्य बिठा पाना आसान नहीं था फिर भी उन्होंने लोककला और अपनी नौकरी के बीच तालमेल बिठा लिया।जिस पांडुका गांव से उनको शिक्षा मिली थी उसी गांव में ही उन्होंने एक लंबा समय शिक्षक के रूप में व्यतीत किया।अपने विद्यार्थियों की प्रगति के लिए उन्होंने हरसंभव प्रयास किया।विशेषकर कमार जनजाति के विद्यार्थियों के प्रति उनको विशेष लगाव था। सामान्यतः आखेट और वनोपज संग्रहण करके जीवनयापन करने वाले कमार जनजाति के बच्चों को शिक्षा से जोडना आसान काम नहीं था लेकिन अपने प्रयासों से उन्होंने कमार बच्चों को उच्च शिक्षा के लिए प्रेरित किया फलत:आज उनके बहुत से विद्यार्थी शासकीय सेवा में है।सन् 1994 में जब जनजाति अनुसंधान विभाग भोपाल द्वारा कमार जनजाति पर डाक्यूमेंट्री फिल्म का निर्माण कराया गया तो समन्वयक के रुप में मिथलेश जी का सहयोग लिया गया।एक शिक्षक के रूप में शालेय बच्चों को जिला,संभाग और राज्य स्तर पर कई सालों तक सांस्कृतिक गतिविधियों में पुरस्कार दिलवाए।उनके द्वारा पढाए कई विद्यार्थियों से मेरी बात हुई है,प्राय:सभी उनकी सादगी और समर्पण का गुणगान करते दिखे।ये उनके उच्च शिक्षकीय गुण का परिचायक है।
  शिक्षकीय दायित्वों के निर्वहन के बाद भी लोककला के प्रति उनका समर्पण कभी भी कम नहीं हुआ था।सोनहा बिहान के विसर्जन के पश्चात वे दीपक चंद्राकर के साथ "लोकरंग अर्जुंदा"से जुड़ गए और मंचीय प्रस्तुतियां देने लगे।दीपक जी के साथ लोकरंग अर्जुंदा के मंच पर देवार डेरा प्रहसन में उनका देवार के रूप में जुगलबंदी देखते ही बनती थी।मंच पर गायन से मुक्त उनको हास्य अभिनय करते देखना बड़ा मजेदार होता था।मुझे याद है जब सन 2002 में उनका कार्यक्रम देखने एक बार मैं अपने छोटे भाई के साथ माघ महीने की कड़कड़ाती ठंड में राजिम गया था। जहां राजिम महोत्सव के मंच पर महानदी की रेत में ठिठुरन भरी ठंड में हमने उनका कार्यक्रम देखा था।लोकरंग में भी मिथलेश जी अपने अभिनय और आवाज का जादू जगाते रहे तत्पश्चात सन् 2006 में उनके अनुज भूपेंद्र साहू द्वारा एक नए लोकमंच "रंग-सरोवर" की स्थापना की गई। मिथलेश गुरूजी के मुख्य गायन स्वर में इस लोकमंच ने अल्प समय में ही अच्छी ख्याति अर्जित कर लिया।इसके पूर्व वे छत्तीसगढ़ी फिल्मों में पार्श्वगायन और अभिनय से भी जुड़े रहे।मया देदे मया लेले,परदेशी के मया,तोर मया के मारे और कारी उनकी सुपरहिट संगीतमय फिल्में रही है।सन् 2003 में उनको एक ही वर्ष में श्रेष्ठ शिक्षक का राज्य पुरस्कार और श्रेष्ठ पार्श्व गायक का पुरस्कार भी प्राप्त हुआ है। इसके पूर्व उनको भिलाई इस्पात संयंत्र द्वारा स्थापित दाऊ महासिंह चंद्राकर पुरस्कार सन् 2000 में मिल चुका था।उनको प्राप्त सम्मानों और पुरस्कारों की फेहरिस्त लंबी है,जिनका वर्णन यहां करना संभव नहीं है।
 जब छत्तीसगढी फ़िल्मो की असफलता का दौर आया और बाजार में प्रायवेट एल्बमों की बाढ़ आ गई तब इनके द्वारा देखंव रे तोला नाम से एल्बम लाया गया।इस एल्बम के गीतों ने तब धूम मचा दिया था। पारंपरिक गीतों को नए वाद्ययंत्रों के साथ सुमधुरता के साथ प्रस्तुत किया गया था जिसे श्रोताओं ने हृदय से सराहा।इस एल्बम के पश्चात मोर मनबसिया,गाडीवाला जहुंरिया,मया के मडवा, मया के सुवा,देवारी,अलबेली,मोर आजा सजन,और सुमिरन कई एल्बम सुपरहिट हुए।उनके गाए कुछ गीत जैसे-फुल झरे हांसी,आजा न गोरी और सुन्ना होगे फुलवारी जैसे गीत उनकी पहचान बन गए।अंग्रेजी में एक शब्द होता है सिग्नेचर जिसका शाब्दिक अर्थ होता है हस्ताक्षर। परंतु किसी की विशिष्टता को दर्शाने के लिए भी इस शब्द का प्रयोग होता है।उपर वर्णित ये गीत मिथलेश जी के सिग्नेचर सांग ही हैं।जो उनके अलावा किसी और के कंठ से सुनने में अच्छा नहीं लगता।रंग सरोवर कार्यक्रम की चार पांच प्रस्तुतियां मैं देख चुका हूं।उस मंच पर जब ताल गुलागुल टुरी झन जा मंझनिया गीत वे गाते थे तो वे स्वयं खूब ठुमकते थे और साथी कलाकारों को भी ठुमकने पर विवश कर दिया करते थे।मंच में मस्ती छा जाती थी और दर्शक दीर्घा भी उनके इस गीत पर थिरक उठती थी।इस लोकमंच की प्रस्तुति का समापन उनके मशहूर गीत "सुन्ना होगे फुलवारी"से हुआ करती थी।ये रंग सरोवर की अंतिम सांगीतिक प्रस्तुति होती थी।
आकाशवाणी में श्रीमती ममता चंद्राकर और कुलेश्वर ताम्रकार के साथ उनके गीत को छत्तीसगढ़ के श्रोताओं ने खूब सराहा और आज भी वे उसी चाव से ग्रामीण क्षेत्रों में सुने जाते हैं। छत्तीसगढ़ की लोकगीतों की अश्लीलता रहित प्रस्तुति और लोकगीतों के संग्रहण में उनके योगदान को कभी विस्मृत नहीं किया जा सकता।वे गांव और माटी से जुड़े कलाकार थे।मुझे महसूस होता है कि ये उनके अपने गांव से लगाव ही था कि ग्राम बारूका की पृष्ठभूमि में फिल्म मया देदे मया लेले को फिल्माया गया और उनके द्वारा निर्मित तकरीबन सभी एल्बमों में बारूका और पैरी नदी का दृश्यांकन जरूर होता था। अभावग्रस्त जनजाति की पीड़ा को वे लोकमंच के माध्यम से समाज के सामने लाने का काम प्रमुखता से करते थे। छत्तीसगढ़ के लोकगीतों को सहेज कर रखने का काम देवार जैसी जनजातियों ने किया है।उनके इस सांस्कृतिक अवदान का आभार उनकी प्रस्तुतियों के दौरान जरूर होता था।देवार के रोल में मिथलेश जी को फिल्म तोर मया के मारे में देख सकते हैं।देवारों की अभावग्रस्तता और पीडा उनके अभिनय में साकार होता सा प्रतीत होता है।रंग सरोवर के एक प्रहसन"मुसाफिरी"में भी देवार जनजाति की व्यथा और रहन-सहन की छोटी सी अभिव्यक्ति होती है।मेरी उनसे सम्मुख भेंट सिर्फ अभिवादन तक ही थी जब वे तीन साल तक हमारे गांव में रंग सरोवर की प्रस्तुति देने आए थे।इस साल उनसे मुलाकात करने का कार्यक्रम दो बार बना पर उनके गृहग्राम से स्वास्थ्य गत कारणों से अनुपस्थिति के कारण संभव नहीं हो पाया। अंततः उनके अंतिम दर्शन के लिए जाने का अवसर मिला और उनको अपनी आदरांजलि देने में मैं कामयाब रहा।
  मिथलेश जी जैसे कलाकार विरल होते हैं जो सादगी के साथ जनमानस से जुड़े रहते हैं।वे हमारे बीच अब सशरीर भले ही नहीं हैं पर उनकी अमर आवाज हमारे आस-पास सदा गुंजती रहेगी।गीत पहले भी बनते थे।अब भी बन रही है और आगे भी लिखे और गाए जाते रहेंगे। लेकिन छत्तीसगढ़ के कलाजगत के फुलवारी का एक अनमोल पुष्प परमात्मा ने अपने पास रख लिया और हम कहने को विवश हैं....आज सुन्ना होगे फुलवारी।उनके जाने के बाद एक सन्नाटा सा पसरा हुआ है।और याद आ रहा है उनके गाए गीत के बोल..
        मोर रोवत हे तमूरा,सुन्ना हे मोर पारा
         जरूर आबे ना.......
नमन मिथलेश गुरूजी ला.. भावभीनी श्रद्धांजलि
रीझे टेंगनाबासा

   








शनिवार, 14 दिसंबर 2019

ए पानवाला बाबू.....

बहुत दिनों के बाद आज खुल्ला पान खरीदने के लिए पानठेला (पान बेचने के खोमचे) में जाना हुआ। दुकानदार ने बड़ी उम्मीद से पूछा-कौन सा पान बनाऊं?तो मैंने उनको मायूस करने वाला जवाब दिया-भाई मुझे खुल्ले पान चाहिए,कुछ काम है।तो उन्होंने दस रूपए लेकर मुझे बंगला पान के चार पत्ते कागज में लपेटकर थमा दिए। मैं भी पान लेकर लौट आया।मुझे ताज्जुब हुआ कि उसने बिना पूछे मुझे बंगला पान ही क्यों दिया?
अगले दिन उनके दुकान पर फिर जाना हुआ तो मैंने उनसे अपने मन की बात कही।तो उन्होंने बताया कि ज्यादातर पूजा पाठ के लिए बंगला पान का ही उपयोग होता है, इसलिए बिना पूछे ही दे दिया।ये होता है कामन सेंस!!!
वैसे पानवाले भाई साहब की याददाश्त की दाद देनी चाहिए क्योंकि उनको अपने ग्राहकों के टेस्ट और पसंद हमेशा याद रहती है।फलाने साहब की पसंद ये है,ढेकाने साहब ये बनवाते हैं।एकदम कंम्प्यूटर के मेमोरी में जैसे फिट कर दी हो। बचपन में जब किसी को पान मंगाना होता था तो वो सामनेवाले पान दुकान का नाम बता दिया करते थे और हम जाकर पानवाले को उन सज्जन का नाम बता दिया करते थे तब वो फौरन  ही सामने वाले बंदे की मनपसंद पान बना दिया करते थे।बचपन में कुछ पान में डलने वाले सामानों के नाम बड़े अच्छे लगते थे। रिमझिम,किमाम,रत्ना,चमन चटनी,बाबा 420 वगैरह।उस समय हमको मालूम भी नहीं होता था कि कुछ लोग पान में तंबाकू भी डलवाया करते थे। खैर,जो बीत गई सो बात गई।
अब बात पान की करते हैं।पान भारतीय संस्कृति का हिस्सा रही है।देवपूजा से लेकर खान-पान तक में पान का उपयोग समाहित है।संस्कृत भाषा में पान को नागवल्ली और तांबूल कहा जाता है।हिंदी में पान और हमारी छत्तीसगढी में बीरो पान।नाम कुछ भी हो पर पान वही है,दिल के आकार वाली। भारत में पान की ज्यादातर खेती दक्षिण प्रदेशों में होती है। छत्तीसगढ़ में एक समय में छुईखदान का पान फेमश हुआ करता था।पान की कई प्रजातियां होती हैं और स्वाद और गुण के आधार पर नाम भी अलग-अलग होते हैं। मैं ज्यादा नाम तो नहीं जानता पर कपूरी,मीठा पत्ती और बंगला पान आदि नामों से परिचित हूं।।पान सिर्फ मुंह की शोभा या स्वाद बढाने के लिए नहीं खाया जाता,पान में औषधीय गुण भी होते हैं।भोजन के बाद पान खाना स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से अच्छा होता है और पाचन में सहायक होता है।ये मुंह को बैक्टीरियल संक्रमण से भी बचाते हैं।कटने छिलने पर घाव में बांधने से घाव जल्दी भर जाते हैं।वैसे हमारे यहां माउथ फ्रेशनर के रुप में ही ज्यादातर पान का उपयोग करते हैं। इसमें डाले जाने वाले मसाले के अनुसार पान के नाम भी अलग अलग होते हैं।जैसे चुनिया,सादा,मीठा मसाला वगैरह।चुनिया पान खानेवालों का अंदाज ही निराला होता है।वो पान चबाते चबाते बीच-बीच में चूना चाटते रहते हैं।बताते हैं कि इससे कैल्शियम की कमी पूरी होती है।
एक दौर होता था जब दुनिया भर की ब्रेकिंग न्यूज पान के ठेले खोमचे से ही मिला करती थीं।पान चबाते-चबाते दुनिया भर की बातें इधर से उधर हुआ करती थी यहां।इन ठेलों में एक आईना और एक जलती हुई ढिबरी जरूर होती थी।मै छोटा था तब हर पान दुकान में दिन के उजाले में भी जलती हुई ढिबरी को देखकर आश्चर्य होता था।दिन में भला ढिबरी जलाने का क्या मतलब?
थोड़ा बड़ा होने के बाद समझ में आया कि तब दुकानदार माचिस मांगने वालों से तंग आकर और धुम्रपान करने वालों की सुविधा के लिए दिन में भी ढिबरी जलाया करते थे। जहां सिगरेट कैस के छोटे-छोटे कतरन काट के रखे होते।उसी से ढिबरी की लौ से धुम्रपान के शौकीन लोग बीड़ी सिगरेट जलाया करते थे।है न मितव्यता की बात!!
पान के असर से बालीवुड भी अछूता नहीं रहा है।एक से बढ़कर एक लाजवाब गीत पान पर बने हैं।खईके पान बनारस वाला तो याद ही होगा और पान खाए संईया हमारो सांवली सुरतिया होंठ लाल लाल" को कौन भूल सकता है। छत्तीसगढ़ी गीत पान खई लेबे मोर राजा ने भी धूम मचाया था। संबलपुरी गीत ए पानवाला बाबू तब मेले मडई में दूर तक गूंजा करते थे।
पान अतिथि सत्कार का माध्यम हुआ करते थे। तब गुटखे का चलन शुरू नहीं हुआ था।पान में थोड़ी सी महंगाई का दौर आया और विकल्प के रूप में लोगों ने गुटखे को अपनाया।अठन्नी में मिलने वाले गुटखे ने देश की युवा पीढ़ी,लोगों का स्वास्थ्य,घर की दीवारों और इन पान दुकानों का बेड़ा गर्क कर रखा है। स्वास्थ्य के लिए बेहद ख़तरनाक गुटखे का प्रयोग बढता ही जा रहा है। इससे मुंह के कैंसर जैसी बिमारियों में इजाफा हुआ है। खासतौर से देश की जवान पीढ़ी इसके घातक चपेट में है। ईश्वर करे पान का दौर फिर वापस आए और हमारी पीढियां सुरक्षित रहें।अब पान विक्रेता फंक्शन वगैरह में पान लगाने की बुकिंग लेकर इस पेशे को कायम रखे हुए है। खासतौर से शादी की पार्टियों में इनकी विशेष डिमांड होती है।कुछ लोगों ने इसमें रचनात्मकता जोडकर नाम और दाम भी कमाया है। गरियाबंद के एक डिजाइनर पानवाले ने पान की गिलौरी को अलग-अलग रूप देकर प्रसिद्धि प्राप्त किया है।उनकी इस कला को विभिन्न टेलीविजन चैनलों ने प्रसारित किया था। फिल्म कलाकार भी उनके पान के दीवाने हैं।
पान का बीड़ा उठाने से ही "बीड़ा उठाना"कहावत बनी है शायद।किसी भी जोखिम भरे या मुश्किल काम को करते वक्त कहा जाता है-अमुक ने फलाने काम का बीड़ा उठाया है।मतलब बीड़ा उठाना साहस का काम होता है।खैर, हमारे यहां साहसी बंदों की भरमार है। छत्तीसगढ़ में भी कहा जाता है-सियान संग रहिबे त खाबे बीरो पान,लइका संग रहिबे त कटाबे दूनों कान।इसका मतलब ये है कि बुद्धिमान आदमी के साथ रहने से पान खाने को मिल सकता है जबकि नादान के साथ रहने से कान कटाने तक की नौबत आ सकती है।
सदा गुलजार रहनेवाले इन पानठेलों पर आज वक्त की मार और बदलाव से सन्नाटा पसरा हुआ है।इस धंधे से जुड़े लोगों के सामने जीवन यापन की समस्या खड़ी हो गई है।कामना करते हैं जल्द ही पहले की तरह यहां रौनक लौटे।आज यहीं पर विश्राम...बाकि बातें अगली बार.. राम-राम
रीझे
टेंगनाबासा

गुरुवार, 5 दिसंबर 2019

उम्मीदों के गीत.....


जीवन सतत चलने का नाम है।ये ऐसा सफर है जिसमें पथिक को विश्राम तभी मिलता है जब वह मौत के आगोश में चला जाता है।जीवन में उतार-चढ़ाव आते रहते हैं।कभी खुशियों के बसंत आते हैं तो कभी गम की पतझड़ का सामना भी करना पड़ता है। हंसी-खुशी के पल जितने भी मिले कम लगते हैं और जब दुख का सामना करना पड़ता है तो एक-एक पल भारी लगने लगता है।उस समय ऐसा लगता है मानों दुनिया में कुछ भी नहीं रह गया है।सारी बातें बेमानी सी लगने लगती हैं।
हौसला जवाब देने लगता है।कदम डगमगाने लगते हैं और खुद को संभालना भी मशक्कत का काम हो जाता है।ऐसे समय में दुखी आदमी किसी अपने का सहारा ढूंढता है। लेकिन सबको अपनों का साथ हर वक्त मिल जाए ये मुमकिन नहीं।तब ऐसे समय में हम गीत-संगीत सुनकर या ऐसी ही किसी मनपसंद काम करके अपने आपको मशरूफ रखते हैं।गीतों का जिक्र आया है तो मुझे कुछ चुनिंदा गीत याद आ रहे हैं,जो दुखी मन में आशा का संचार करते हैं।थके हारे से उदासी भरे मन को धीरज बंधाते हैं।
किशोर दा के रोमांटिक गीतों के साथ सैड सांग्स भी बेहद पसंद किए जाते हैं। उन्होंने उम्मीद और आशाभरे बहुत से गीतों को अपने आवाज से सजाया है।जो जीने का जज्बा पैदा करते हैं और नए उत्साह का संचार करते हैं।एक फिल्म आई थी दोस्ती धर्मेंद्र और शत्रुघ्न सिन्हा की जोड़ी वाली। उसमें एक गीत है"गाड़ी बुला रही है...सीटी बजा रही है.."आनंद बक्षी के कलम से निकले शब्द और लक्ष्मी प्यारे के संगीत के साथ किशोर कुमार के आवाज़ के ताल-मेल के क्या कहने!! रेलगाड़ी के माध्यम से जीवन की दार्शनिकता को इस गीत में बखूबी पिरोया गया है। एक-एक लफ्ज सच्चाई का करीब से सामना कराता है।
 ऐसे ही मि.इंडिया फिल्म से"जिंदगी की यही रीत है...",कहां तक ये मन को अंधेरे छलेंगे(बातों बातों में),जिंदगी एक सफर है सुहाना (अंदाज),रूक जाना नहीं तू कहीं हार के(इम्तेहान),एक रास्ता है जिंदगी(काला पत्थर)आदि।सभी गीत किशोर कुमार के आवाज की जादू से सराबोर एक से बढ़कर एक और बेहतरीन हैं।
 रफी साहब के गीत भी बेहद लाजवाब है। फिल्म जीने की राह का गीत तो आप सबने सुना ही होगा....एक बंजारा गाए,जीवन के गीत सुनाए।है ना दिलकश और जीने का राह दिखाती गीत।वैसे ही रफी साहब का माझी चल ओ माझी चल गीत भी बेहद खूबसूरत और अर्थपूर्ण है।
मन्नाडे साहब ने फिल्म सफर में बेहद प्यारा सा गीत गाया है।जीवन में चलने की सार्थकता सिद्ध करती सी-नदिया चले,चले रे धारा...तुझको चलना होगा।और संसार के दोहरे चरित्र को उजागर करते से मलंग चाचा के गीत"कस्में वादे प्यार वफा सब बातें हैं,बातों का क्या?"याद ही होगा। उपकार फिल्म का ये गीत उनकी आवाज में कालजयी बन पड़ा है।
राजकपूर की आवाज कहे जानेवाले मुकेश जी के सभी गीत सदाबहार हैं।आज भी उनके चाहनेवालों की कमी नहीं है। उन्होंने फिल्म संबंध में कवि प्रदीप की लेखनी और ओपी नैय्यर साहब की संगीत की जादू के साथ एक बेहद प्यारा गीत गाया है-चल अकेला,चल अकेला तेरा मेला पीछे छूटा राही चल अकेला।गुरूदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर की एकला चलो रे की तरह अकेले ही सभी झंझावातों का सामना करने की ताकता भरता सा गीत।खास बात ये है कि कवि प्रदीप के एक-एक शब्द बेहद महत्वपूर्ण है।एक पंक्ति मुझे बड़ी अच्छी लगती है-
जमाना साथ ना दे तो तू खुद से प्रीत जोड़ ले।
बिछौना धरती को कर ले,अरे! आकाश ओढ़ ले।।
कितनी बड़ी बात!वैसे एक कवि की लेखनी का कमाल ही कुछ और होता है।उनका ही लिखा एक और बेहद सुंदर गीत है-सुख दुख दोनों रहते जिसमें जीवन है वो गांव।
कभी धूप तो कभी छांव।
जीवन में होने वाले बदलाव को रेखांकित करता ये गीत आज भी प्रासंगिक है और एक एक शब्द अक्षरशः सत्य भी।
महेंद्र कपूर देशभक्ति गीतों के लिए जाने जाते हैं।उनकी आवाज मनोज कुमार पर खूब जचती है।उनकी फिल्म शोर में उन्होंने बहुत बढ़िया गीत गाया है-जीवन चलने का नाम,चलते रहो सुबहो शाम।जीवन में निरंतर चलने का संदेश देता ये गीत बेहतरीन है।इसके अलावा उन्होंने शायद हमराज फिल्म के लिए ये गीत भी गाया है-न सर छुपा के जियो और न सर झुका के जियो।
गमों का दौर भी आए तो मुस्कुरा के जियो।
  इतना सारा लिखने का कुल जमा हासिल ये है कि जिंदगी हमेशा खुशगवार नहीं होती। इसमें उतार चढ़ाव के पल आते-जाते रहेंगे। परिस्थितियां कभी कभी विपरीत भी हो सकती है।तब आप संघर्ष से पलायन के बारे में ना सोचें।मूसीबतों का हमेशा डटकर मुकाबला करें।हो सकता है आपकी दुश्वारियां अपनों के साथ मिलने से जल्द ही दूर हो जाएं या कुछ ज्यादा वक्त ले। बावजूद इसके कोशिश करें सबको खुश रखने और खुद खुश रहने की। लेकिन अगर आप अकेले हैं और किसी अपने का साथ या हमदर्द ना मिलें तो जरूर सुनें... उम्मीदों के गीत
रीझे
 टेंगनाबासा(छुरा)







रविवार, 1 दिसंबर 2019

कब तक....?

अभी पूरे देश को हैदराबाद की घटना ने हिलाकर रख दिया। सर्वत्र इस अमानुषिक कृत्य की निंदा की जा रही। आरोपियों को तत्काल फांसी पर चढाने की मांग को लेकर लोग आंदोलनरत हैं। पीड़िता को न्याय दिलाने के लिए आम आदमी,युवा वर्ग और मिडिया भी उद्वेलित है।ये अच्छी बात है और होनी भी चाहिए।
  इस घटना के पूर्व एक अमानवीय घटनाक्रम साल 2012 में भी घटित हुआ था।जब पूरा देश पीड़िता के लिए न्याय की मांग को लेकर उठ खड़ा हुआ था। तब दामिनी और निर्भया कांड के नाम से चर्चित अनाचार की उस घटना ने शासन-प्रशासन को कुंभकर्णी नींद से जागने के लिए मजबूर कर दिया था। इंसानियत को शर्मसार करने वाली उस घटना ने समूचे देश को हिलाकर रख दिया था।जन आंदोलन के दबाव में तब पीड़िता को न्याय दिलाने की त्वरित कोशिश की गई।सभी आरोपियों की गिरफ्तारी के बाद उनको सजा दिलाने का त्वरित प्रयास हुआ। तब वकीलों ने आरोपियों का मुकदमा लडने से इंकार कर दिया और भारत की उस मासूम बच्ची के नाम पर शासन की ओर से निर्भया फंड की स्थापना की गई।जिसके तहत प्राप्त राशि को महिलाओं और बच्चियों की सुरक्षा में खर्च करने का प्रावधान रखा गया।
  उस लोमहर्षक घटना के बाद बलात्कार संबंधी सजा के नियमों में बदलाव किया गया और ऐसे जघन्य अपराध के लिए कठोर दंड की व्यवस्था की गई।तब ऐसा लगा जैसे देश में अब बेटियां सुरक्षित हो गई।अब ऐसे अपराधों में कमी आयेगी।लेकिन इस सोच के ठीक विपरीत दुष्कर्म की घटनाओं में लगातार इजाफा हो रहा है।ज्यादातर ऐसी घटनाएं उत्तर भारत के क्षेत्रों में ज्यादा देखने-पढने में आता था। धीरे-धीरे ऐसी घटनाएं भारत के कोने-कोने से समाचार पत्र की सुर्खियां बनने लगीं।
    बीते 27 नवंबर की रात घटे हैदराबाद दुष्कर्म की घटना से ये साबित हो गया कि नरपिशाच सर्वत्र मौजूद है।इंसानी खाल में छुपे भेड़िए हर जगह खुले घूम रहे हैं।जरा सी चूक इन भेड़ियों के लिए मौका साबित हो रहा है।हम अपनी बेटियों को इन वहशी दरिंदों से बचाने में नाकाम साबित हो रहे हैं।शासन का सुरक्षातंत्र ऐसी घटनाओं से प्राय: अनभिज्ञ ही बना रहता है।एक ओर हम मातृशक्ति के उपासक के रूप में पूरी दुनिया में अपनी बड़ाई करते फिरते हैं। नवरात्रि के नौ दिन शक्ति की आराधना में बिताते हैं।नवरात के अंतिम दिन नौ कन्या पूजन का विधान भी करते हैं।तो फिर ये नरपिशाच,नराधम,और वहशी दरिंदे कहां से पैदा हो रहे हैं। बेटियां हर जगह अपनी सुरक्षा को लेकर चिंतित क्यों रहती हैं?हर तरफ घूरने वाली निगाहों से अपने आप को बचाने की चेष्टा क्यो?क्यों अकेली औरत को सब मौका समझते हैं?शायद इस क्यों का जवाब बहुतेरों के पास नहीं है।
  आज तकनीक ने आदमी को सुविधा संपन्न बना दिया है। लेकिन तकनीक के कारण ही आज अपराध में बढ़ोतरी भी हो रही है। इंटरनेट उपयोग की खुली छूट ने  देश के बच्चों और युवा पीढ़ी का बेड़ा गर्क कर रखा है। इंटरनेट पर अश्लील सामग्री की भरमार है।इन सामग्रियों के कारण बच्चों से लेकर बूढों तक के दिमाग में विकृति आ रही है। मोबाइल के आगमन से लोगों का एकाकीपन बढ रहा है।लोग वास्तविकता के बजाय आभासी दुनिया में रमने लगे हैं।लोग भले ही अपने पड़ोसी को न पहचानते हों पर सोशल मीडिया के माध्यम से देश दुनिया के लोगों के साथ परिचय रखते हैं।ये अच्छे संकेत नहीं हैं।
  जब हम परस्पर जुडाव और एक दूसरे के प्रति सम्मान की भावना रखते हैं तो एक अपनेपन का एहसास होता है।हमारी नई पीढ़ी को तकनीक के ज्ञान के साथ-साथ संस्कार देने की भी जरूरत है ताकि वे सबका सम्मान करना सीख सकें।रिश्तों की मर्यादा और अहमियत को समझ सकें।हमें अपनी सामाजिक जिम्मेदारी समझनी होगी।अपनी बहन बेटियों की सुरक्षा के प्रति सचेत रहना होगा।पहले गांवों में परंपरा थी सबकी बहू बेटियों को अपना समझने की।पूरा का पूरा गांव रिश्तों की डोर से बंधा होता था।तब किसी की नीयत गंदी नहीं होती थी।और गंदी नियत के लिए कठोर सजा तय हुआ करती थी।हम अपने धर्म ग्रंथों को खोलकर देखेंगे तो पाएंगे कि स्त्री के सम्मान की रक्षा के लिए रामचंद्र जी ने रावण को उसी के घर में जाकर मारा था।गंदी नियत वाले रावण की पूरी लंका जला दी गई थी। महाभारत के प्रसंग में नारी अपमान करने वाले दु:शासन के छाती को चीरा गया था।दुर्योधन की टांगे तोड़ दी गई थी। हमें भी दुष्कर्म करने वाले के लिए ऐसे ही कठोर दंड की व्यवस्था करनी होगी ताकि किसी भी नराधम का साहस न हो ऐसे दुष्कृत्य के लिए।दुष्कर्मी केअपराध को साबित करने के लिए प्रत्येक राज्य में फोरेंसिक लैब की स्थापना की जानी चाहिए ताकि अपराध जल्द से जल्द साबित हो और पीड़ित को न्याय मिले।पुलिस स्टेशन और कोर्ट में खाली पड़े पदों को भरा जाए ताकि स्टाफ की कमी का रोना बंद हो और न्याय प्रक्रिया सहज और सुलभ बन सके। पीड़िता के प्रति सामाजिक नजरिए में बदलाव की भी जरूरत है।उनके साथ ऐसा व्यवहार न हो जो उन्हें ठेस पहुंचाए।प्राय:देखने में आता है कि अपराधी से ज्यादा पीड़िता का जीवन कष्टप्रद हो जाता है।उनके प्रति सम्मान और स्नेह का भाव होना चाहिए तिरस्कार का नहीं।
शासन को स्वास्थ्य,शिक्षा, सुरक्षा और न्याय के लिए सजग होना होगा।मुफ्त की चीजें बांटने और अन्य सहूलियत देकर लोगों को अकर्मण्य बनाने के बजाय उक्त चारों व्यवस्था को सुधारने का यत्न करना चाहिए।न्याय मिलने में देरी से पीड़ित का आत्मविश्वास डगमगाता है।सजा में नरमी और देरी से अपराधियों के हौसले बुलंद होते है।शासन को ऐसे घटनाक्रम में आरोपियों की सजा के लिए तुरंत कार्रवाई की जरूरत है।
ईश्वर करे आगे से किसी और बेटी के साथ ऐसा अमानवीय घटना ना घटे। पीड़िता को श्रद्धांजलि,नमन।
रीझे
टेंगनाबासा(छुरा)

दिन चारी मइहरवा में....सुरता स्व.मिथलेश सर के

  लोकगीतों की अपनी एक अलग मिठास होती है।बिना संगीत के भी लोकगीत मन मोह लेता है,और परंपरागत वाद्य यंत्रों की संगत हो जाए, फिर क्या कहने!! आज ...