सोमवार, 29 जून 2020

बचपन का सिनेमा.....


  फुरसत के पल में पुरानी यादों की जुगाली करने में मुझे बड़ा आनंद आता हैऔर अक्सर मैं अपने बचपन की पुरानी यादों में खो जाता हूं।ये वर्चुअल मतलब आभासी दुनिया में खोने से ज्यादा अच्छा है जो स्मार्ट फोन के हाथ में आते ही हमें वास्तविक दुनिया से बेखबर कर देती है।हम अपनी मोबाइल पर आंखें गड़ाए अपने में मगन और आजू बाजू क्या हो रहा है उसकी कोई खबर ही नहीं।किसी समय पर अमीर खुसरो ने बातूनी स्त्रियों के गपबाजी में व्यस्तता को लेकर एक पंक्ति कही थी-खीर बनाई जतन से ,चरखा दिया चलाय।आया कुत्ता खा गया,तू बैठी ढोल बजाय।
आज अगर अमीर खुसरो होते तो शायद पंक्तियां यूं होती-खीर बनाई जतन से, मोबाइल दिया चलाय।आया कुत्ता खा गया,तू बैठी नजर गड़ाय।
   कुल जमा मतलब ये है कि आज मोबाइल ने सबको जकड़ रखा है और सभी उसके आगे पीछे घूम रहे हैं। उनमें मैं भी शामिल हूं।कभी कभी फुरसत निकालकर पुरानी यादों पर जमी धूल भी झाडनी चाहिए।जैसे वक्त बेवक्त मैं करते रहता हूं।आज मुझे बात करनी है बचपन वाली सिनेमा पर।मतलब विडियो और वीसीपी के जमाने की बातें।वीसीपी नब्बे के दशक की एक जादुई चीज होती थी जिसका इंतजार बच्चे बूढ़े सभी किया करते थे। आखिर करे भी क्यों ना? इलेक्ट्रॉनिक माध्यम में मनोरंजन के लिए वही एक अनूठा मशीन था जो टाकीज का आनंद घर बैठे देता था। विडियो का मतलब होता था एक कलर टीवी और वीसीपी की जोड़ी। वीसीपी का मतलब काफी बड़े होने के बाद में समझ आया विडियो कैसेट प्लेयर।एक और चीज का नाम भी सुना था तब वीसीआर  मतलब विडियो कैसेट रिकॉर्डर।खैर,बचपन में हमको दोनों का मतलब एक ही लगता था फिल्म दिखाने की मशीन।
 नब्बे के दशक में कुछ मध्यमवर्गीय परिवारों में ब्लैक एंड व्हाइट टीवी का आगमन हो गया था लेकिन रंगीन टीवी ज्यादातर अमीर लोगों के यहां हुआ करती थी।दो वक्त की रोटी के लिए संघर्ष के उस दौर में रंगीन टीवी और वीसीपी में फिल्म सिर्फ किराया में लाकर देखी जाती थी।
   ग्रामीण क्षेत्रों में किसी पर्व या किसी के घर नया मेहमान आने पर ही गांव में वीसीपी आने का संयोग बनता था। हालांकि गणेशोत्सव आदि के मौके पर कुछ उत्साही नवयुवकों के द्वारा भी सार्वजनिक रुप से आपस में चंदा कर विडियो लाया जाता था।तब पूरा गांव का गांव भोजन पश्चात जूट के बोरे का आसन लेकर अपना स्थान सुरक्षित करने निकल पडता था। फिल्म की शुरुआत भक्ति भावना से होती थी और  फिल्में भी क्रम से लगा करती थी जिनमें पहले धार्मिक,फिर पारिवारिक,फिर एक्शन और लास्ट में हारर मूवी का क्रम होता था।अमूमन विडियो पार्लर वाले एक रात के लिए चार कैसेट दिया करते थे और एक एक्स्ट्रा का भी विकल्प होता था,जो कभी कभार ही देखना नसीब होता था क्योंकि विडियो चलाने वाले के भोजन ग्रहण करने और उसके बाद कैसेट को रिवर्स करने फिर फिटिंग का तामझाम,टेबल-बिजली आदि की व्यवस्था में रात के नौ बज जाते थे।बचपन में इन सबको देखकर व्यग्रता बहुत होती थी।तब एक एक पल में लाखों के नुक़सान की फीलिंग होती थी।जल्दी चालू होने पर बचपन में कम से कम एक फिल्म देखनी नसीब हो जाती थी, नहीं तो हमारे सोने का टाईम हो जाता था। नवमी कक्षा के आसपास लड़कपन के दिनों में हम लोग फिल्म देखने के चक्कर में रातभर जागा करते थे और अगले दिन दिनभर सोते थे।द्वितीय दिवस घर और स्कूल दोनों जगह जमके खुराक मिला करती थी।लेकिन सिलसिला कभी खत्म नहीं होता था। सन् 2000 के लगभग जब मनोरंजन के अन्य साधनों जैसे सीडी वगैरह का आगमन हुआ तब वीसीपी का दौर खत्म हो गया।वीसीपी में सबसे लास्ट फिल्म मैंने कहो ना प्यार है देखी थी।
मुझे तो जुबानी याद है उस दौर की फिल्मों के नाम जो बार बार विडियो में दिखाने के लिए लाई जाती थी। कृष्ण गोपाल, महाभारत, बजरंगबली,नदिया के पार,गंगा जमुना सरस्वती,मर्द,शोले,गजब आदि उस दौर की सर्वाधिक पसंद की जाने वाली फिल्में थी।कक्षा दूसरी में आने तक मुझे बारहखड़ी भले याद न थी पर नदिया के पार के चंदन और गुंजा का नाम याद था। फिल्म भले ही समझ न आती थी पर कैरेक्टर का नाम जरूर याद रहता था।मिथुन, धर्मेंद्र,दारासिंग, अमिताभ उस दौर के फेमस कलाकार थे। अमिताभ को तब लंबू भी कहते थे जो हमने बाद में जाना।
 उस समय जब साइकिल कैरियर में दो तकियों के बीच कलर टीवी को चादर से लपेटकर बांधे और आगे हैंडिल में दो झोले में कैसेट और वीसीपी लेकर जो बंदा गांव में आता था उसका रूवाब ही अलग होता था।आजकल बड़े बड़े मंत्रियों को जो सम्मान नहीं मिलता वो उस समय वीसीपी चलाने के लिए आए आदमी को मिलता था।उस आदमी से परिचय रखनेवाले का भी अलग ही रौब हुआ करता था।फिल्में उसकी पसंद अनुसार दिखाई जाती थी।फिर रातभर मनोरंजन का एक मेला सा लगता था तब। फिल्म के चलने के दौरान कमेंट्री भी चला करती थी कि अब हीरो आयेगा और विलेन को मार पड़ेगी या गाना गायेंगे आदि-आदि इत्यादि। आमतौर पे जो लोग किसी फिल्म को देख लिए रहते थे वो सीन दर सीन कांमेट्री करके अपना ज्ञान बघारते थे और सामने वाले की जिज्ञासा खतम करते थे।रातभर से जारी फिल्म प्रदर्शन का सिलसिला सवेरे के सूरज निकलने पर ही खत्म होता था। अगले दिन फिर वही रोज की दिनचर्या शुरु हो जाती थी... लेकिन तब लोग आज की तरह परेशान और चिंतित नहीं थे
काश वो दौर फिर लौट आता...

रविवार, 28 जून 2020

टीकटाक गाथा...


जब से हमारे देश में इंटरनेट की सुविधा का विस्तार हुआ और स्मार्ट फोन आम आदमी के बजट में आया तब से सोशल मीडिया नाम के एक लत का प्रवेश भारतीय जनमानस में हुआ। प्रारंभिक दौर में फेसबुक का आगमन हुआ और देश के एक छोटे से गांव में रहने वाले आम आदमी की पहुंच वैश्विक स्तर पर हुई और अंतर्राष्ट्रीय मित्रता की शुरुआत हुई। फेसबुक के बदौलत जिनका पड़ोस में भी दोस्त नहीं था उनकी दोस्ती दुनिया भर के लोगों से होने लगी।फिर आया वाट्सएप...ये भी फेसबुक का अनुगामी था और आगे चलकर फेसबुक के अधिकार क्षेत्र अंतर्गत आ ही गया।फिर आया सबसे प्रलंयकारी एप...टीकटाक।जिसने भारत में धूम मचा दिया।इस एप के बदौलत एक से बढ़कर एक छुपे रूस्तम कलाकार निकलकर बाहर आए।टीकटाक के कारण ही एक से बढकर एक डांसर,सिंगर, आर्टिस्ट और बहुमुखी प्रतिभा के धनी लोगों का अभ्युदय हुआ।
  वैसे टीकटाक का जन्म हमारे पड़ोसी देश चीन में हुआ और उसका सबसे बेहतर पालन-पोषण हमारे यहां हुआ।शंघाई के दो युवा मित्रों ने मिलकर मनोरंजन के उद्देश्य से इस अद्भुत और अलौकिक एप्प का निर्माण किया। शुरूआती दौर में इसका नाम Musically था जिसे एक प्रसिद्ध चीनी कंपनी ने खरीदकर टीकटाक नाम से दुनिया को उपलब्ध कराया।इस एप में लिपसिंक और डांस के माध्यम से अपना हुनर दुनिया को दिखाया जा सकता है।साल 2016 से यह एप्प अस्तित्व में आया और बहुत ही कम समय में इसने अपार लोकप्रियता प्राप्त कर लिया।खासतौर से हमारे देश में तो इस एप्प को हाथों-हाथ लिया गया।15 से 30 सेकंड की अवधि में अपने हुनर को गीत संगीत और डांस के माध्यम से लोगों के सामने रखना प्रतिभा प्रदर्शन का सहज और सुगम माध्यम साबित हुआ ये एप्प। खासतौर से सीमित सुविधा के बीच रहने वाली ग्रामीण प्रतिभाएं मुखरित हुई।
   हमारे देश मे प्रतिभा का अपार भंडार है।जितने कलाकार बालीवुड और क्षेत्रीय सिनेमा में नहीं होंगे उससे कहीं अधिक हम सबके आसपास बाजार में सब्जी खरीदने झोला लिए घूम रहे थे।ऐसे ही गुमनाम और प्रतिभाशाली लोगों के लिए टीकटाक वरदान साबित हुआ।अपनी प्रतिभा प्रदर्शन का एक बेहतरीन प्लेटफार्म  नजर आया इस एप्प में लोगों कोऔर टीकटाक को भारत में अपार सफलता मिली।इस एप्प के माध्यम से नैसर्गिक प्रतिभा के धनी लोगों को अपनी कला के लिए पहचान मिली और वे समाज में अपना अलग स्थान बनाने मे कामयाब भी हुए।टीकटाक स्टार के रूप में स्थापित कुछ लोगों को अपनी कला के माध्यम से रोजगार भी मिला।
लेकिन जैसा कि होता आया है-अति सर्वत्र वर्जयेत।कुछ लोगों को टीकटाक की लत लग गई और उसके चक्कर में वे अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा,नौकरी यहां तक की प्राणों से भी हाथ धो बैठे। खतरनाक स्थानों पर टीकटाक बनाने के चक्कर में कुछ नवजवान काल की गाल में समा रहे हैं। समाचार पत्रों में आए दिन इस आशय का समाचार छपते रहता है।टीकटाक लोकप्रिय होने के साथ-साथ विवादास्पद भी होता जा रहा है।कुछ समय पहले ही टीकटाक विडियो के माध्यम से एसिड अटैक की घटना को प्रोत्साहित करने के कारण एक फेमस टीकटाक स्टार की आइडी टीकटाक से हटाया गया और उसको विरोध का सामना करना पड़ा।टीकटाक के कारण बेशर्मी भी बढ़ी नजर आती है।निजी जीवन के क्षण,शादी, सालगिरह यहां तक की शवयात्रा के विडियो भी टीकटाक पर वायरल होने लगे हैं।किसी भी प्रसिद्ध व्यक्ति के मौत के दो मिनट बाद ही उनसे संबंधित फोटो और विडियो के विडियो टीकटाक में दिखने लगता है।
 इस एप्प पर अश्लीलता को बढ़ावा देने के आरोप भी लगते रहे हैं।वैसे तो टीकटाक आधिकारिक रूप से 13 वर्ष के अधिक उम्र के लोगों को टीकटाक बनाने की अनुमति देता है लेकिन उससे कम उम्र के लोगों की टीकटाक विडियो की भरमार टीकटाक में देखने को मिलती है।कुछ अभद्र युवक-युवतियों के द्वारा टीकटाक में अश्लील इशारे और द्विअर्थी संवाद भी किया जाता है जो किसी भी किस्म का फिल्टर टीकटाक में न होने के कारण सीधे ही टीकटाक पर दिखाई देते हैं।अश्लीलता को बढ़ावा देने के आरोप में कुछ देशों ने इस पर आंशिक बैन भी लगाया था। हमारे देश में भी इस पर बैन लगाने की मांग हुई थी लेकिन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर कुछ समय के बैन के बाद इस फिर से अनुमति मिल गई।टीकटाक की लोकप्रियता का आलम ये है कि बड़े और छोटे पर्दे के सितारे भी इसमें अपने विडियो बनाकर सोशल मीडिया में शेयर करते नजर आते हैं।बालीवुड कलाकारों के हमशक्ल तो टीकटाक पर खासे व्यस्त और मशहूर हैं। क्षेत्रीय सिनेमा के कलाकार भी टीकटाक के माध्यम से अपनी लोकप्रियता को भुना रहे हैं। उनके अनेकानेक चाहनेवाले लाखों की संख्या में फालोवर बनकर अपने प्रिय सितारे का उत्साहवर्धन करते हैं।
  बीते 15 जून को चीनी सैनिकों के साथ भारतीय सैनिकों का झड़प हुआ जिसमें हमारे देश के 20 जवान शहीद हुए और भारत माता की गोद में तिरंगा ओढ़कर सदा-सदा के लिए चिरनिद्रा में लीन हो गए।इस घटना के बाद से भारत में चीन के खिलाफ आक्रोश का माहौल है।स्थिति तनावपूर्ण है।चाइना निर्मित वस्तुओं के बहिष्कार की बातें देशभर में चल रही है साथ ही तमाम सोशल मीडिया के माध्यम से इस चाइनीज एप्प टीकटाक के बहिष्कार करने का निवेदन भी वायरल हो रहा है।जिसके समर्थन और विरोध में हमारे अपने ही तू-तू-मैं-मैं कर रहे हैं।इस मुद्दे पर सबके विचार अलग-अलग हो सकते हैं।पर मेरा मानना है कि किसी भी कलाकार को अपनी कला दिखाने का मौका तभी मिल सकता है जब देश सलामत रहेगा।देश के सम्मान की कीमत पर किसी मनोरंजक एप्प के प्रति अत्यधिक लगाव मूर्खता का ही परिचायक है।अभी वक्त हमारे देश के सैनिकों का मनोबल ऊंचा करने का है।आप भी अपना योगदान दें.....

शनिवार, 27 जून 2020

टूरिंग टाकीज की यादें....



आज मनोरंजन के साधन आप सबकी हाथों में है। तकनीक ने इंटरनेट और मोबाइल के माध्यम से मनोरंजन के तमाम सामग्री को सहजता से उपलब्ध करा दिया है। लेकिन एक दौर वह भी था जब मनोरंजन के लिए लोकनाट्य,बाइस्कोप,सर्कस, खेलकूद और रेडियो ही मनोरंजन का साधन हुआ करती थी।फिल्म देखने के शौकीन लोगों के लिए फिल्मी मनोरंजन का तब एकमात्र साधन होती थी टूरिंग टॉकिज।ये टाकीजें विशेष अवसरों जैसे मेले या धार्मिक उत्सव आदि में आया करती थीं।बाद में टेलीविजन का दौर भी आया जब फिल्मी मनोरंजन की पहुंच घर घर तक हुई।हां तो हम बात करेंगे टूरिंग टॉकिज की।सत्तर अस्सी के दशक तक और उसके बाद भी स्थायी सिनेमा घर छोटे कस्बों में स्थापित नहीं हुए थे। फिल्म के शौकीन लोगों को तब फिल्म देखने के लिए बड़ी शहरों का सफर करना पड़ता था जो उस दौर में काफी महंगा और तकलीफ भरा होता था।छोटे कस्बों के लोगों को तब फिल्म देखने के लिए स्थानीय मेलों का बेसब्री से इंतजार हुआ करती थी जब टूरिंग टाकीज आती थी और फ़िल्म देखने का शौक पूरा होता था। हालांकि तब भी नई रिलीज फ़िल्में देखने को नहीं मिलती थी। पुरानी फिल्मों को देखकर ही फिल्मों के ग्रामीण और कस्बाई दर्शक खुश हो लेते थे।
 नए जमाने के बच्चों के लिए टूरिंग टाकीज की कल्पना आश्चर्यजनक हो सकती है क्योंकि वे आजकल महंगे माल और सर्व सुविधायुक्त वातानुकूलित थियेटर में डिजिटल प्रिंट और हाई फाई साउंड क्वालिटी के साथ पापकार्न खाते हुए फिल्म देखते हैं।उनके लिए खुले आसमान के नीचे जमीन पर बैठकर फिल्म देखने की बातें अचरजभरी हो सकती है, लेकिन ये वास्तव में होता था।टूरिंग टॉकिज जैसे कि नाम से ही स्पष्ट है टूर करने वाला टाकीज मतलब एक जगह से दूसरी जगह घूम घूमकर फिल्म दिखाने वाली टाकीज।ये टाकीज अमूमन मेले आदि के अवसर पर ग्रामीण और कस्बाई इलाकों में आते थे और हिंदी सिनेमा के प्रदर्शन का माध्यम हुआ करते थे।इन टाकीजों को किसी बड़े से मैदान पर बांस,टाट की चटाई,लोहे के चादरों और कपड़ों का घेरा डालकर अस्थायी रूप से स्थापित किया जाता था जहां मैदान के एक छोर पर खुले आसमान के नीचे कपड़े का बड़ा सा पर्दा लगाया जाता था और उसके ठीक सामने होता था प्रोजेक्शन रूम जहां से फिल्में पर्दे पर प्रसारित होती थी और साउंड के लिए आजू बाजू हार्न लगा होता था,जिसे हम पोंगा कहते थे। इनमें प्रसारित होनेवाली फिल्मों की पेटियां या रीलें अमूमन टूरिंग टाकीज के मालिक निकटतम सिनेमाघरों से किराए पर लाया करते थे।इन रीलों को फिल्म प्रर्दशन के बाद फिर से चकरी के माध्यम से रिवर्स किया जाता था आगामी प्रदर्शन के लिए।ठीक वैसे ही जैसे हम एक जमाने में टेप कैसेटों को रिवर्स किया करते थे।ज्यादातर टूरिंग टाकीज में अमिताभ और मिथुन जैसे प्रसिद्ध हीरों की पारिवारिक फिल्में या धार्मिक फिल्में ही दिखाई जाती थीं जिनके प्रदर्शन पर दर्शकों की तालियां और सीटियां बजा करती थी।इन फिल्मों के शुरू होने के पहली आरती बजाई जाती थी..ओम जय जगदीश हरे।और  फिल्म के चालू होने तक एनाउंसर फिल्म का गुणगान करते हुए बड़े ही स्टाइलिश अंदाज में लोगों को फिल्म का टिकट लेने पर मजबूर कर दिया करते थे।जहां तक मुझे याद है कुछ ऐसा लहजा हुआ करता था....मेहरबान,कदरदान आइए...आइए सुपरहिट कलाकारों और सुपरहिट गीत संगीत से सजी फिल्म देखिए...पहली बार पहली मर्तबा आपके गांव..आपके शहर में।और टिकट खिड़की पर भीड़ टूट पड़ती थी।मै जब छोटा था तब इन टूरिंग टाकीज में टिकट दर तीन रूपए के आसपास हुआ करती थी।टूरिंग टॉकिज में बैठने के लिए खुली जमीन ही होती थी कुछ पैसे वाले लोगों के लिए कुर्सी की सुविधा भी उपलब्ध कराई जाती थी।इन टाकीजों में स्थानीय छुटभैय्ये नेताओं और अधिकारियों को सपरिवार फ्री में फिल्म देखने की छूट हुआ करती थी ताकि टाकीज मालिक को स्थानीय स्तर पर किसी परेशानी का सामना ना करना पड़े।ऐसे टाकीज महाराष्ट्र में बहुत चलते थे जिनमें ज्यादातर क्षेत्रीय फिल्मों का ही प्रसारण होता था।छत्तीसगढ़ में भी मेले मडाई में टूरिंग टाकीज आया करती थी। हमारे क्षेत्र के खड़मा,पांड़का अऔर छुरा मड़ई में ये टूरिंग टॉकिज आकर्षण का केन्द्र होती थीं।
मुझे कल सुखद आश्चर्य हुआ जब डा गुप्ता भैय्या ने 80 के दशक का एक टाकीज टिकट वाट्सएप ग्रुप में शेयर किया। मेरे लिए आश्चर्य की बात थी कि अपने छुरा में भी कभी टूरिंग टॉकिज हुआ करती थी।नाम था श्री कृष्णा टाकीज। भैय्या बताते हैं कि उस दौर में रात को 2 शो होता था। मात्र 25 पैसे में बड़े पर्दे पर सिनेमा का मजा!!!उस पर भी बच्चों के लिए टोटल फ्री!!! वैसे भैय्या धन्यवाद के पात्र हैं जो अब तक उन्होंने स्मृतियों को संभाल रखा है।आप सबके पास भी अपना अपना कोई किस्सा जरूर होगा।
मैने सबसे पहिली बार बड़े पर्दे पर फिल्म टूरिंग टाकीज में ही देखी थी। फिल्म का नाम था नागिन...।हां वही रीना राय और जितेंद्र वाली.. मल्टीस्टारर।जिसके तेरे संग प्यार मैं वाली गीत आज भी फेमस है।आप भी याद करें अपनी भूली बिसरी यादों को मेरे संग...
इसका बहुत सारा हिस्सा और है जो अगले लेख में आप सबसे साझा करूंगा।तब तक राम राम...




शुक्रवार, 26 जून 2020

गोधन न्याय योजना


छत्तीसगढ़ गांवों का प्रदेश है। यहां शहरी आबादी कम है ग्रामीण आबादी ज्यादा है और गांवों की आय का प्रमुख स्रोत होता है कृषि और पशुपालन।बीते कुछ वर्षों से छत्तीसगढ़ ने कृषि कार्य में यांत्रिक स्वरूप लिया है।फलत:कृषि कार्यों में उपयोग होनेवाला हमारा पशुधन अनुपयोगी और तिरस्कृत हो गया।कभी गौठानों और घर के गौशाला की शोभा बढ़ाने वाला पशुधन लावारिस अवस्था में यत्र-तत्र भटकने पर विवश हुआ। आधुनिक जीवनशैली के कारण होने वाले गंभीर बिमारियां अब गांवों तक पहुंच रही है।लोग धनलिप्सा के चक्कर में स्वयं यंत्रवत व्यवहार करने लगे है।कभी गांवों में दूध की नदिया बहा करती थी अब वहां दारु का गंदा नाला बहता है। छत्तीसगढ़ के गांवों का स्वरूप अब कुछ विकृत सा होता जा रहा है।
  कल छत्तीसगढ़ शासन द्वारा एक महत्वाकांक्षी योजना की घोषणा की गई है-गोधन न्याय योजना।पूरे देश में अपनी तरह की यह अनूठी योजना है जिसके अंतर्गत गांव के पशुपालकों से गांव में कार्यरत स्व सहायता समूह के माध्यम से गोबर खरीदने का कार्य किया जायेगा।यह छत्तीसगढ़ शासन के सत्ता प्राप्ति के समय की योजना नरवा गरवा घुरवा बारी योजना का ही एक अंग है जिसके माध्यम से गांव गांव में रोजगार सृजन का कार्य करने का उद्देश्य है।इस योजना में पशुधन द्वारा प्राप्त गोबर को इकट्ठा कर उसे वर्मी कंपोस्ट खाद बनाया जायेगा जिसका उपयोग छत्तीसगढ़ के खेतों में जैविक खाद के रूप में होगा और रासायनिक खाद के उपयोग में कमी आयेगी।उत्पादन अधिक होने की दशा में अन्य राज्यों को भी खाद बेचने का लक्ष्य रखा गया है।
  छत्तीसगढ़ शासन की यह योजना नि:संदेह बहुत उपयोगी होगा ,अगर धरातल पर यह उचित ढंग से कार्य रूप में परिणीत होगा।प्राय:देखने में आता है कि ज्यादातर सरकारों की बहुत सी योजनाएं पावन उद्देश्य लेकर पैदा होती है और दुखद अंत के साथ परमगति को प्राप्त होती है। पूर्ववर्ती शासन का एक महत्वाकांक्षी योजना और नारा याद आ रहा है-तेल नहीं अब खाड़ी से,डीजल मिलेगा बाड़ी से।जैव ईंधन उत्पादन के पावन लक्ष्य को लेकर बनाई गई योजना करोड़ों रूपयों के खर्च के साथ पतन को प्राप्त हुई।हम आज भी ईराक -ईरान का ईंधन उपयोग कर रहे हैं। छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा बहुत से गांवों में गौठानों का निर्माण किया गया है जहां सर्वप्रथम इस योजना का क्रियान्वयन होगा।इस योजना को सफल बनाने में शासन, प्रशासन के साथ गांवों को भी अहम भूमिका निभानी पड़ेगी। वर्तमान में गांवों में लावारिस पशुओं के कारण किसानों को आर्थिक नुकसान उठाना पड़ रहा है।ये पशु हादसे का सबब भी बनते हैं जिसके कारण जान माल की हानि की खबरें समाचार पत्रों में स्थान पाती हैं।इन सबका निवारण इस योजना से हो सकता है।अभी गांवों में पशुधन निरर्थक है क्योंकि उनसे उनको आर्थिक लाभ नहीं हो पा रहा है।जब ये पशुधन आय के स्रोत बनेंगे तो लोग उनकी सुरक्षा करेंगे,उनको पुनः गौशालाओं में जगह मिलेगा और ये बेजुबान यत्र तत्र भटकेंगे नहीं।
  जैविक कृषि आज समय की मांग है। उत्पादकता बढ़ाने के लिए कृषि में अंधाधुंध विषैली रासायनिक खादों के प्रयोग से अनाज भी विषैले हो रहे हैं।इस योजना के सफल क्रियान्वयन से इसमें कमी आयेगी। पशुपालन का कार्य गांवों में फिर से समृद्ध होगा। गौवंश का ध्यान रखनेवाले यदुवंशियों में पुनः उत्साह का संचार होगा और वे पैतृक व्यवसाय में फिर से जुड़ेंगे।एक अच्छी सोच और योजना के लिए शासन को शुभकामनाएं....

रीझे

दिन चारी मइहरवा में....सुरता स्व.मिथलेश सर के

  लोकगीतों की अपनी एक अलग मिठास होती है।बिना संगीत के भी लोकगीत मन मोह लेता है,और परंपरागत वाद्य यंत्रों की संगत हो जाए, फिर क्या कहने!! आज ...