फुरसत के पल में पुरानी यादों की जुगाली करने में मुझे बड़ा आनंद आता हैऔर अक्सर मैं अपने बचपन की पुरानी यादों में खो जाता हूं।ये वर्चुअल मतलब आभासी दुनिया में खोने से ज्यादा अच्छा है जो स्मार्ट फोन के हाथ में आते ही हमें वास्तविक दुनिया से बेखबर कर देती है।हम अपनी मोबाइल पर आंखें गड़ाए अपने में मगन और आजू बाजू क्या हो रहा है उसकी कोई खबर ही नहीं।किसी समय पर अमीर खुसरो ने बातूनी स्त्रियों के गपबाजी में व्यस्तता को लेकर एक पंक्ति कही थी-खीर बनाई जतन से ,चरखा दिया चलाय।आया कुत्ता खा गया,तू बैठी ढोल बजाय।
आज अगर अमीर खुसरो होते तो शायद पंक्तियां यूं होती-खीर बनाई जतन से, मोबाइल दिया चलाय।आया कुत्ता खा गया,तू बैठी नजर गड़ाय।
कुल जमा मतलब ये है कि आज मोबाइल ने सबको जकड़ रखा है और सभी उसके आगे पीछे घूम रहे हैं। उनमें मैं भी शामिल हूं।कभी कभी फुरसत निकालकर पुरानी यादों पर जमी धूल भी झाडनी चाहिए।जैसे वक्त बेवक्त मैं करते रहता हूं।आज मुझे बात करनी है बचपन वाली सिनेमा पर।मतलब विडियो और वीसीपी के जमाने की बातें।वीसीपी नब्बे के दशक की एक जादुई चीज होती थी जिसका इंतजार बच्चे बूढ़े सभी किया करते थे। आखिर करे भी क्यों ना? इलेक्ट्रॉनिक माध्यम में मनोरंजन के लिए वही एक अनूठा मशीन था जो टाकीज का आनंद घर बैठे देता था। विडियो का मतलब होता था एक कलर टीवी और वीसीपी की जोड़ी। वीसीपी का मतलब काफी बड़े होने के बाद में समझ आया विडियो कैसेट प्लेयर।एक और चीज का नाम भी सुना था तब वीसीआर मतलब विडियो कैसेट रिकॉर्डर।खैर,बचपन में हमको दोनों का मतलब एक ही लगता था फिल्म दिखाने की मशीन।
नब्बे के दशक में कुछ मध्यमवर्गीय परिवारों में ब्लैक एंड व्हाइट टीवी का आगमन हो गया था लेकिन रंगीन टीवी ज्यादातर अमीर लोगों के यहां हुआ करती थी।दो वक्त की रोटी के लिए संघर्ष के उस दौर में रंगीन टीवी और वीसीपी में फिल्म सिर्फ किराया में लाकर देखी जाती थी।
ग्रामीण क्षेत्रों में किसी पर्व या किसी के घर नया मेहमान आने पर ही गांव में वीसीपी आने का संयोग बनता था। हालांकि गणेशोत्सव आदि के मौके पर कुछ उत्साही नवयुवकों के द्वारा भी सार्वजनिक रुप से आपस में चंदा कर विडियो लाया जाता था।तब पूरा गांव का गांव भोजन पश्चात जूट के बोरे का आसन लेकर अपना स्थान सुरक्षित करने निकल पडता था। फिल्म की शुरुआत भक्ति भावना से होती थी और फिल्में भी क्रम से लगा करती थी जिनमें पहले धार्मिक,फिर पारिवारिक,फिर एक्शन और लास्ट में हारर मूवी का क्रम होता था।अमूमन विडियो पार्लर वाले एक रात के लिए चार कैसेट दिया करते थे और एक एक्स्ट्रा का भी विकल्प होता था,जो कभी कभार ही देखना नसीब होता था क्योंकि विडियो चलाने वाले के भोजन ग्रहण करने और उसके बाद कैसेट को रिवर्स करने फिर फिटिंग का तामझाम,टेबल-बिजली आदि की व्यवस्था में रात के नौ बज जाते थे।बचपन में इन सबको देखकर व्यग्रता बहुत होती थी।तब एक एक पल में लाखों के नुक़सान की फीलिंग होती थी।जल्दी चालू होने पर बचपन में कम से कम एक फिल्म देखनी नसीब हो जाती थी, नहीं तो हमारे सोने का टाईम हो जाता था। नवमी कक्षा के आसपास लड़कपन के दिनों में हम लोग फिल्म देखने के चक्कर में रातभर जागा करते थे और अगले दिन दिनभर सोते थे।द्वितीय दिवस घर और स्कूल दोनों जगह जमके खुराक मिला करती थी।लेकिन सिलसिला कभी खत्म नहीं होता था। सन् 2000 के लगभग जब मनोरंजन के अन्य साधनों जैसे सीडी वगैरह का आगमन हुआ तब वीसीपी का दौर खत्म हो गया।वीसीपी में सबसे लास्ट फिल्म मैंने कहो ना प्यार है देखी थी।
मुझे तो जुबानी याद है उस दौर की फिल्मों के नाम जो बार बार विडियो में दिखाने के लिए लाई जाती थी। कृष्ण गोपाल, महाभारत, बजरंगबली,नदिया के पार,गंगा जमुना सरस्वती,मर्द,शोले,गजब आदि उस दौर की सर्वाधिक पसंद की जाने वाली फिल्में थी।कक्षा दूसरी में आने तक मुझे बारहखड़ी भले याद न थी पर नदिया के पार के चंदन और गुंजा का नाम याद था। फिल्म भले ही समझ न आती थी पर कैरेक्टर का नाम जरूर याद रहता था।मिथुन, धर्मेंद्र,दारासिंग, अमिताभ उस दौर के फेमस कलाकार थे। अमिताभ को तब लंबू भी कहते थे जो हमने बाद में जाना।
उस समय जब साइकिल कैरियर में दो तकियों के बीच कलर टीवी को चादर से लपेटकर बांधे और आगे हैंडिल में दो झोले में कैसेट और वीसीपी लेकर जो बंदा गांव में आता था उसका रूवाब ही अलग होता था।आजकल बड़े बड़े मंत्रियों को जो सम्मान नहीं मिलता वो उस समय वीसीपी चलाने के लिए आए आदमी को मिलता था।उस आदमी से परिचय रखनेवाले का भी अलग ही रौब हुआ करता था।फिल्में उसकी पसंद अनुसार दिखाई जाती थी।फिर रातभर मनोरंजन का एक मेला सा लगता था तब। फिल्म के चलने के दौरान कमेंट्री भी चला करती थी कि अब हीरो आयेगा और विलेन को मार पड़ेगी या गाना गायेंगे आदि-आदि इत्यादि। आमतौर पे जो लोग किसी फिल्म को देख लिए रहते थे वो सीन दर सीन कांमेट्री करके अपना ज्ञान बघारते थे और सामने वाले की जिज्ञासा खतम करते थे।रातभर से जारी फिल्म प्रदर्शन का सिलसिला सवेरे के सूरज निकलने पर ही खत्म होता था। अगले दिन फिर वही रोज की दिनचर्या शुरु हो जाती थी... लेकिन तब लोग आज की तरह परेशान और चिंतित नहीं थे
काश वो दौर फिर लौट आता...