शनिवार, 27 जून 2020

टूरिंग टाकीज की यादें....



आज मनोरंजन के साधन आप सबकी हाथों में है। तकनीक ने इंटरनेट और मोबाइल के माध्यम से मनोरंजन के तमाम सामग्री को सहजता से उपलब्ध करा दिया है। लेकिन एक दौर वह भी था जब मनोरंजन के लिए लोकनाट्य,बाइस्कोप,सर्कस, खेलकूद और रेडियो ही मनोरंजन का साधन हुआ करती थी।फिल्म देखने के शौकीन लोगों के लिए फिल्मी मनोरंजन का तब एकमात्र साधन होती थी टूरिंग टॉकिज।ये टाकीजें विशेष अवसरों जैसे मेले या धार्मिक उत्सव आदि में आया करती थीं।बाद में टेलीविजन का दौर भी आया जब फिल्मी मनोरंजन की पहुंच घर घर तक हुई।हां तो हम बात करेंगे टूरिंग टॉकिज की।सत्तर अस्सी के दशक तक और उसके बाद भी स्थायी सिनेमा घर छोटे कस्बों में स्थापित नहीं हुए थे। फिल्म के शौकीन लोगों को तब फिल्म देखने के लिए बड़ी शहरों का सफर करना पड़ता था जो उस दौर में काफी महंगा और तकलीफ भरा होता था।छोटे कस्बों के लोगों को तब फिल्म देखने के लिए स्थानीय मेलों का बेसब्री से इंतजार हुआ करती थी जब टूरिंग टाकीज आती थी और फ़िल्म देखने का शौक पूरा होता था। हालांकि तब भी नई रिलीज फ़िल्में देखने को नहीं मिलती थी। पुरानी फिल्मों को देखकर ही फिल्मों के ग्रामीण और कस्बाई दर्शक खुश हो लेते थे।
 नए जमाने के बच्चों के लिए टूरिंग टाकीज की कल्पना आश्चर्यजनक हो सकती है क्योंकि वे आजकल महंगे माल और सर्व सुविधायुक्त वातानुकूलित थियेटर में डिजिटल प्रिंट और हाई फाई साउंड क्वालिटी के साथ पापकार्न खाते हुए फिल्म देखते हैं।उनके लिए खुले आसमान के नीचे जमीन पर बैठकर फिल्म देखने की बातें अचरजभरी हो सकती है, लेकिन ये वास्तव में होता था।टूरिंग टॉकिज जैसे कि नाम से ही स्पष्ट है टूर करने वाला टाकीज मतलब एक जगह से दूसरी जगह घूम घूमकर फिल्म दिखाने वाली टाकीज।ये टाकीज अमूमन मेले आदि के अवसर पर ग्रामीण और कस्बाई इलाकों में आते थे और हिंदी सिनेमा के प्रदर्शन का माध्यम हुआ करते थे।इन टाकीजों को किसी बड़े से मैदान पर बांस,टाट की चटाई,लोहे के चादरों और कपड़ों का घेरा डालकर अस्थायी रूप से स्थापित किया जाता था जहां मैदान के एक छोर पर खुले आसमान के नीचे कपड़े का बड़ा सा पर्दा लगाया जाता था और उसके ठीक सामने होता था प्रोजेक्शन रूम जहां से फिल्में पर्दे पर प्रसारित होती थी और साउंड के लिए आजू बाजू हार्न लगा होता था,जिसे हम पोंगा कहते थे। इनमें प्रसारित होनेवाली फिल्मों की पेटियां या रीलें अमूमन टूरिंग टाकीज के मालिक निकटतम सिनेमाघरों से किराए पर लाया करते थे।इन रीलों को फिल्म प्रर्दशन के बाद फिर से चकरी के माध्यम से रिवर्स किया जाता था आगामी प्रदर्शन के लिए।ठीक वैसे ही जैसे हम एक जमाने में टेप कैसेटों को रिवर्स किया करते थे।ज्यादातर टूरिंग टाकीज में अमिताभ और मिथुन जैसे प्रसिद्ध हीरों की पारिवारिक फिल्में या धार्मिक फिल्में ही दिखाई जाती थीं जिनके प्रदर्शन पर दर्शकों की तालियां और सीटियां बजा करती थी।इन फिल्मों के शुरू होने के पहली आरती बजाई जाती थी..ओम जय जगदीश हरे।और  फिल्म के चालू होने तक एनाउंसर फिल्म का गुणगान करते हुए बड़े ही स्टाइलिश अंदाज में लोगों को फिल्म का टिकट लेने पर मजबूर कर दिया करते थे।जहां तक मुझे याद है कुछ ऐसा लहजा हुआ करता था....मेहरबान,कदरदान आइए...आइए सुपरहिट कलाकारों और सुपरहिट गीत संगीत से सजी फिल्म देखिए...पहली बार पहली मर्तबा आपके गांव..आपके शहर में।और टिकट खिड़की पर भीड़ टूट पड़ती थी।मै जब छोटा था तब इन टूरिंग टाकीज में टिकट दर तीन रूपए के आसपास हुआ करती थी।टूरिंग टॉकिज में बैठने के लिए खुली जमीन ही होती थी कुछ पैसे वाले लोगों के लिए कुर्सी की सुविधा भी उपलब्ध कराई जाती थी।इन टाकीजों में स्थानीय छुटभैय्ये नेताओं और अधिकारियों को सपरिवार फ्री में फिल्म देखने की छूट हुआ करती थी ताकि टाकीज मालिक को स्थानीय स्तर पर किसी परेशानी का सामना ना करना पड़े।ऐसे टाकीज महाराष्ट्र में बहुत चलते थे जिनमें ज्यादातर क्षेत्रीय फिल्मों का ही प्रसारण होता था।छत्तीसगढ़ में भी मेले मडाई में टूरिंग टाकीज आया करती थी। हमारे क्षेत्र के खड़मा,पांड़का अऔर छुरा मड़ई में ये टूरिंग टॉकिज आकर्षण का केन्द्र होती थीं।
मुझे कल सुखद आश्चर्य हुआ जब डा गुप्ता भैय्या ने 80 के दशक का एक टाकीज टिकट वाट्सएप ग्रुप में शेयर किया। मेरे लिए आश्चर्य की बात थी कि अपने छुरा में भी कभी टूरिंग टॉकिज हुआ करती थी।नाम था श्री कृष्णा टाकीज। भैय्या बताते हैं कि उस दौर में रात को 2 शो होता था। मात्र 25 पैसे में बड़े पर्दे पर सिनेमा का मजा!!!उस पर भी बच्चों के लिए टोटल फ्री!!! वैसे भैय्या धन्यवाद के पात्र हैं जो अब तक उन्होंने स्मृतियों को संभाल रखा है।आप सबके पास भी अपना अपना कोई किस्सा जरूर होगा।
मैने सबसे पहिली बार बड़े पर्दे पर फिल्म टूरिंग टाकीज में ही देखी थी। फिल्म का नाम था नागिन...।हां वही रीना राय और जितेंद्र वाली.. मल्टीस्टारर।जिसके तेरे संग प्यार मैं वाली गीत आज भी फेमस है।आप भी याद करें अपनी भूली बिसरी यादों को मेरे संग...
इसका बहुत सारा हिस्सा और है जो अगले लेख में आप सबसे साझा करूंगा।तब तक राम राम...




2 टिप्‍पणियां:

तरुण कुमार ने कहा…

मुझे इसका अनुभव बसना (महासमुंद) के पास के गांव भंवरपुर में मिला जहां मेले के अवसर पर छत्तीसगढ़ी फिल्म "कारी" इसी प्रकार खुले में शामियना तान कर बनाए गए अस्थाई थियेटर में दिखाई जा रही थी । मेरे लिए यह किसी आश्चर्य से कम नहीं था ।

झांपी-यादों का पिटारा ने कहा…

वाह!!

दिन चारी मइहरवा में....सुरता स्व.मिथलेश सर के

  लोकगीतों की अपनी एक अलग मिठास होती है।बिना संगीत के भी लोकगीत मन मोह लेता है,और परंपरागत वाद्य यंत्रों की संगत हो जाए, फिर क्या कहने!! आज ...