मंगलवार, 29 नवंबर 2022

आस्था हर मुश्किल को आसान बना देती है

 


फोटो गूगल से साभार 

पिछले दिनों गुजरात के विश्व विख्यात द्वारिकाधीश मंदिर में महादेव देसाई नाम के एक व्यक्ति ने अपनी 25 गायों के साथ भगवान द्वारिकाधीश के मंदिर की परिक्रमा किया और प्रभु का प्रसाद भी ग्रहण किया।ये अनूठा अवसर था जब गौमाता के साथ एक भक्त की मनोकामना पूर्ण करने के लिए मंदिर प्रशासन ने अपना नियम बदला और आधी रात को भगवान द्वारिकाधीश के गर्भगृह का पट खुला।चूंकि भगवान द्वारिकाधीश स्वयं गौसेवक थे इसलिए मंदिर प्रशासन ने अपने नियमों को सरल बना दिया और एक भक्त की वांछित मनोकामना पूर्ण हुई।
इस अद्भुत घटना के पीछे ईश्वर के प्रति आस्था की बहुत सुंदर तस्वीर है।गौपालक देसाई जी के अनुसार पिछले वर्ष लंपी वायरस के प्रकोप के चलते उनकी सारी गायें बीमार पड़ गईं‌।ऐसी विषम परिस्थिति में देसाई जी ने ईश्वर की शरण लिया और मन ही मन संकल्प लिया कि अगर उनकी गाएं बीमारी के प्रकोप से बच जाती है तो वे उन गायों को लेकर भगवान द्वारिकाधीश के दर्शन को जायेंगे।उन्होंने अपनी परेशानी ईश्वर को सौंप दिया और बीमार गायों के ईलाज में लगे रहे।
कुछ समय के पश्चात बीमारी का बुरा दौर खत्म हुआ और उनकी एक भी गाय वायरस के प्रकोप से हताहत नहीं हुई।तब देसाई जी अपने कुछ साथियों को लेकर भगवान द्वारिकाधीश के दर्शन को चल पड़े।उनके निवास से द्वारिका की दूरी लगभग 450 किमी के आसपास थी। फिर भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और पैदल ही गायों को लेकर चल पड़े।70 दिन की यात्रा के पश्चात उन्हें और उनकी गायों को भगवान द्वारिकाधीश ने दर्शन दिया।
क्या ये घटना आज की भौतिकवादी युग में ईश्वरीय चमत्कार का एक उदाहरण नहीं है?जिसमें एक साधारण से व्यक्ति की आस्था ने असंभव को संभव कर दिखाया।ये घटना हर तथ्य को तर्क के कसौटी पर कसने वाली और चमत्कार को देखने के बाद प्रमाणिक मानने वाली पीढ़ी के लिए ईश्वर के प्रति आस्था व विश्वास एवं सर्वशक्तिमान ईश्वर का प्राणियों के प्रति प्रेम का एक अद्भुत उदाहरण भी है।
हालांकि लोग इसको अलग अलग नजरिए से देखकर अलग अलग तरीके से परिभाषित भी कर सकते हैं।सकल ब्रम्हांड जिनके नियंत्रण में है।उस जगत नियंता की कृपा असीम है।जरुरत है उसे महसूस करने की।जिसने सरल हृदय से ईश्वर को पुकारा ईश्वर ने उन सबको अपना साक्षात्कार कराया।चाहे वो स्वामी रामकृष्ण परमहंस हो या गोस्वामी तुलसीदास।
आस्था को परिभाषित करना मुश्किल है।ईश्वर ब्रम्हांड के कण कण में व्याप्त है।ऐसा संत महात्माओं और ज्ञानियों का कहना है।भक्ति धारा से जुड़े लोग इस बात को मानते भी हैं।बात आस्था और समर्पण की हो तो सब संभव हो जाता है।
ईश्वर को पाने के लिए हृदय की सरलता सबसे पहली आवश्यकता है।सरल बनकर देखिए ईश्वर की प्राप्ति सहज हो जायेगी।गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्रीरामचरितमानस में लिखा भी है-
निर्मल मन जन सो मोहि पावा।
मोहि छल छिद्र कपट नहीं भावा।।
हमारा देश गांवों का देश है।जब कभी आप ग्रामीण क्षेत्रों से गुजरेंगे तो आपको रास्ते पर अनेक छोटे छोटे मंदिर या देवालय मिलेंगे।हर देवालय में भगवान की सुंदर प्रतिमा नहीं मिलेंगी। कहीं कहीं पर आपको अनगढ़ पाषाण ही पूजित होते दिखेंगे।अधिकांश स्थानों पर अनगढ़ पत्थर को सिंदूर पोतकर भोले भाले ग्रामीण देव प्रतिमा के रुप में स्थापित कर देते हैं।आस्था से उसकी पूजा अर्चना करते हैं और मजेदार बात ये है कि उनकी मनोकामनाएं फलित भी होती हैं।किसी बड़े देवालय में जाने की जरूरत नहीं पड़ती। यहां बात ईश्वर के सुंदर स्वरूप के पूजन की नहीं है।केवल जनआस्था की है।
आस्था हर चीज को मुमकिन कर सकती है।आस्तिकता व्यक्ति के हृदय में सकारात्मक ऊर्जा और आत्मविश्वास का प्रसार करती है।नई स्फूर्ति और आशा का संचार करती है।किसी ने क्या खूब कहा है-
इंसानियत आदमी को इंसान बना देती है।
लगन हर मुश्किल को आसान बना देती है।।
लोग यूं ही नहीं जाते मंदिरों में पूजा करने।
आस्था ही पत्थर को भगवान बना देती है।।

रविवार, 20 नवंबर 2022

सुख कहां है?

 

जनम से लेकर मरण तक इंसान सिर्फ एक ही चीज पाने के लिए संघर्ष करता है।सोचिए क्या?....धन.. सम्मान... स्वास्थ्य....!!जी! सही समझे आप!इसका सही जवाब है सुख। इंसान सिर्फ सुख पाना चाहता है।

सुख पाने के तौर तरीके और नजरिया भिन्न भिन्न हो सकते हैं।एक ही तरीका किसी के लिए सही तो किसी के लिए गलत हो सकता है।चोर चोरी करके सुख पाता है। पुलिस चोर को पकड़ कर सुख पाता है।शेर हिरण का शिकार करके सुख पाता है तो वही हिरण शेर से अपने प्राण बचाकर सुख पाता है।
कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि सुख के अपने अपने मायने है। पिछले दिनों एक अच्छी सोच वाले व्यक्ति से मुलाकात हुई।डेली नीड्स का दुकान चलाते हैं।खाने पीने की कई प्रकार की चीजें रखते हैं। खासकर बच्चों की मनपसंद चीजें केक,चाकलेट्स, बिस्कुट आदि। चूंकि दुकानदार है इसलिए मुनाफे की बात का हमेशा ध्यान रखते हैं।लेकिन बच्चों को लेकर उनका नजरिया थोड़ा अलग है। उन्होंने बताया कि वे बच्चों को कभी भी निराश नहीं करते।चाहे उनके पास पसंद की चीजें खरीदने लायक पैसे हों या नहीं।वो बताते हैं कि कभी बच्चे शौक से केक खरीदने आते हैं जो आमतौर पर डेढ़ सौ के आसपास की कीमत की रहती है। बच्चों के हाथ में सिक्के देखकर समझ जाता हूं कि पैसे पर्याप्त नहीं है।फिर भी पूछता हूं कितने हैं। बच्चे सकुचाते हुए बताते हैं कि 90 हैं या 100 है।फिर मैं बिना गिने उनसे पैसे लेकर गल्ले में डाल देता हूं।चाहे 90 हो या 100...। उन्होंने बताया कि बच्चों को केक बेचकर खुद का 20-30 का नुक़सान हमेशा होता है। लेकिन उनके चेहरों पर केक खरीदकर जो खुशी देखता हूं उससे मुझे सुख मिलता है।उन नन्हें ग्राहकों से हुई नुकसान की भरपाई मैं किसी दूसरे ग्राहक के मुनाफे से कर लेता हूं।
एक दूसरे सज्जन बताते हैं कि वो कभी भी किसी की मदद के लिए तैयार रहते हैं। इसमें उनको सुख मिलता है।किसी किसी व्यक्ति को किसी दूसरे को सताकर भी सुख मिलता है।
मजेदार बात ये है कि सुख को इकट्ठा करके नहीं रखा जा सकता।सुख आकस्मिक निधि है।इसे चिरस्थाई रुप से नहीं रखा जा सकता।सुख पाने के यत्न किए जा सकते हैं। लेकिन आपके यत्न से सुख मिलेगा ही इसकी कोई भी गारंटी नहीं है।कुछ लोग सुविधा को सुख मानकर गलतफहमी में पड़े रहते हैं।अमीर आदमी गरीब के पास सुख की कल्पना करता है।गरीब आदमी ये समझता है कि धनवान सुखी है।अमीर आदमी के आंखों में जब नींद नहीं आती तो उसके लिए नींद ही सुख है।गरीब आदमी के पास नींद होती है तो सोने के लिए ठीकठाक व्यवस्था नहीं होती। उसके नजरिए से सोफे और गद्दे मिले तो उसे सुख मिले।भूखे के लिए भोजन में सुख है तो पाचन संबंधी समस्या झेल रहे बीमार के लिए भोजन से दूरी बनाने में सुख है।किसी को हंसाने में सुख मिलता है तो किसी को रुलाने में सुख मिलता है।कोई फटेहाल रहकर भी सुखी है तो कोई मालामाल होकर भी सुख के लिए मरा जा रहा है।मुझे लिखकर सुख मिल रहा है...आपको पढ़कर...कुल जमा मतलब ये है कि सारा दौड़ भाग केवल और केवल सुख पाने के लिए होता है। लेकिन इतना करने पर भी ज्यादातर मायूसी ही हाथ लगती है।सुख केवल स्वप्न जान पड़ता है। हालांकि ईश्वर की बनाई सारी चीजें सुखदाई है केवल उसके प्रयोग कि विधि के ऊपर निर्भर करता है कि वो चीज उपयोग कर्ता के लिए सुख का कारण बनेगा या दुख का। 
कोशिश और कामना हमेशा शुभ की होनी चाहिए। उद्देश्य पवित्र होने चाहिए। फिर सर्वत्र सुख ही सुख है।वैसे सुख की कामना मृगतृष्णा के समान है जो शायद ही किसी प्राणी की पूर्ण होती हो।किसी संत के भजन की पंक्ति क्या खूब है...
निर्धन कहे धनवान सुखी
धनवान कहे सुख राजा को भारी
राजा कहे चक्रवर्ती सुखी
चक्रवर्ती कहे सुख इंद्र को भारी
इंद्र कहे श्री राम सुखी
श्री राम कहे सुख संत को भारी
संत कहे संतोष में सुख सब
बिना संतोष के दुनिया दुखारी
मतलब संतुष्टि बढ़कर कोई सुख दुनिया में नहीं है। तृष्णा का तो कोई अंत ही नहीं है।जो है,जितना है उसी में खुश रहने की कला अगर इंसान सीख ले तो शायद दुनिया में कोई दुखी ही ना रहे। सर्वत्र सुख की मंगल कामना के साथ अंत में यही कामना करता हूं.. सर्वे भवन्तु सुखिन:

रविवार, 13 नवंबर 2022

अजब समय के पांव....

 




समय की यात्रा अनवरत जारी रहती है।समय किसी के लिए ना कभी रुका था,ना रुका है और ना ही रुकेगा।बचपन में स्कूल की किताबें अरुचिकर लगती है।संभवतः आप में से भी कोई सहमत हो।उस समय संत, कवियों के दोहे,सीख वाली कहानियां और सूक्तियां पढ़कर खिन्नता होती थी।हालांकि ये सब मूल्यवान तब भी थी,अब भी है और भविष्य में भी होगा।‌लेकिन बचपन में पढ़ी बहुत सी बातों का मर्म अब समझ में आ रहा है। स्कूली किताबों के पाठ्यक्रम में शामिल रहीम और कबीर के दोहे उस समय हमारी बालबुद्धि में समझ के बाहर थे।सोचते थे इन सबसे कब मुक्ति मिले?कब किताबों का ये जंजाल छूटे! कब बड़े हों!!!

कबीर का एक दोहा याद आ रहा है-

काल करे सो आज कर,आज करे सो अब!!

पल में परलय होएगी,बहुरि करेगा कब!!

मतलब ये है कि जो काम करना है वो तत्काल करनी चाहिए। बाद में शायद वक्त उस काम के लिए वक्त ही ना दे तो।कवि प्रदीप का लिखा एक गीत भी खूब चलता था।कभी उलटे कभी सीधे पड़ते अजब समय के पांव...कभी धूप तो कभी छांव....

सच में!कितनी गहरी बात है।समय कब बीत जायेगा या समय कब अपना मिजाज बदल ले कुछ कह नहीं सकते। हममें से ज्यादातर ने आज का काम कल पर टालने की आदत बना ली है।हर काम भविष्य के लिए अधर में लटकाकर वर्तमान में मुक्त रहना चाहते हैं।लेकिन क्या ये संभव है कि समय आपकी योजनाओं को भविष्य में कार्य रुप में परिणित करने के लिए समय देगा।ये कोई भी नहीं जानता।

हर एक के पास भविष्य के लिए ढेरों योजनाएं हैं।हर कोई वर्तमान का सुख छोडकर भविष्य में सुख पाने के लिए योजनाएं बना रहा है। मैं ऐसा करुंगा,मैं वैसा करुंगा...अमका..ढिमका वगैरह.. वगैरह..!!

वास्तव में ये सब कल्पना मात्र है। भविष्य समय के गर्भ में रहता है।मनुष्य अपने भविष्य के लिए योजनाएं तो बना सकता है, लेकिन उसका पूर्ण होना ना होना समय के हाथ में है।हम जो सोचते हैं या जो हमारी भविष्य की योजनाएं हैं उसकी पूर्णता हमारे हाथ में नहीं है।हम केवल कल्पना और परिश्रम कर सकते हैं। इससे अधिक कुछ नहीं।

कुछ दिन पूर्व ही एक विचित्र दृश्य देखा मैंने।एक शिक्षक जो कभी हृष्ट पुष्ट थे और विभिन्न प्रकार के सामाजिक संगठनों की अगुवाई करते थे। वर्तमान में पक्षाघात का शिकार होकर अपनी दिनचर्या के कार्यों के लिए दूसरे पर निर्भर है।एक दौर था जब वो अपनी मोटर सायकल में खूब घूमा करते थे।उसके पास मित्रों और समर्थकों का जमावाड़ा होता था।आज नितांत अकेले हैं।

एक अन्य व्यक्ति जो कभी बढ़िया कलाकार और नीजी स्कूल में शिक्षक रहे हैं। वर्तमान मेंअर्धविक्षिप्त जैसे इधर उधर घूमते रहते हैं।जबकि उनके परिजन आर्थिक रूप से समृद्ध है और उनको खूब शिक्षा दीक्षा भी दिलाए थे। संभवतः उन्होंने भी संबंधित के लिए अनगिनत स्वप्न देखे रहे होंगे और योजना बनाई होंगी।

एक व्यापारी थे जो कभी सिर्फ ब्रांडेड चीजें उपयोग करते थे।हर चीज में ब्रांड की बातें करते थे।स्थानीय स्तर पर उत्पादित सामग्री को लोकल कहकर तिरस्कार करते थे।आज दाने दाने के लिए मोहताज है।एक अन्य व्यापारी ने व्यापार में खूब पैसा बनाया और आलीशान बंगला बनवाया।उसकी कामना थी परिवार के साथ खूब ऐशोआराम से जिंदगी गुजारना।तभी समय ने करवट लिया और उनकी पत्नि का असामयिक निधन हो गया।अब उस बंगले में रहने के लिए कोई नहीं है।खुद बड़े से बंगले में खामोशी से बतियाते पड़े रहते थे।इन सब उदाहरणों को प्रस्तुत करने का एक ही मंतव्य है।क्या हम आज जो संपत्ति बना रहे हैं कल हमारे भविष्य को सुरक्षित कर सकती है?

मेरा नीजी विचार है नहीं कर सकती।इसलिए जो है सो वर्तमान है।वर्तमान को ही सार्थक बनाने की कोशिश होनी चाहिए। छोटी बड़ी जो सुख मिल रहे हों उसे समेटने का प्रयास होना चाहिए। सही नजरिया और सही नीयत किसी भी क्षेत्र में कामयाबी का मूलमंत्र है।इस मूलमंत्र को अपनाने वाले कभी निराश नहीं होते। हालांकि कभी कभी संघर्ष का समय कुछ अधिक लग जाता है। लेकिन जीत अंततः संघर्ष करने वाले की ही होती है। इसलिए आनंद को भविष्य के लिए जमा ना करें।हर छोटी बड़ी खुशियों का आनंद वर्तमान में लें।आपने अपने आसपास ही देखा होगा।कभी कभी गुलाब जामुन खाने का शौकीन व्यक्ति कंजूसी कर कर के बुढ़ापे में गुलाब जामुन खाने की योजना बनाता है।भरपूर गुलाब जामुन खाने लायक रुपया भी जमा कर लेता है। लेकिन तब तक सेहत जवाब दे चुका होता है।डाक्टर परहेज के बंधन में बांध देता है।शुगर लेवल से शरीर को खतरा की सूचना दे देता है।सेहत जवाब देने लगता है और परहेज करके जीना पड़ता है। अंततः सारी हसरतें धरी की धरी रह जाती है। और हाथ आता है केवल अफसोस!!पछतावा!!!उम्मीद है आप ऐसे व्यक्ति नहीं है...

रविवार, 4 सितंबर 2022

लौट आए विघ्नहर्ता..

 


साल 2020 और 2021 कोरोना महामारी की कड़वी यादों के लिए वर्तमान पीढ़ी को आजीवन याद रहेगा।इस घातक बीमारी ने कई परंपराओं और आयोजनों पर जैसे प्रतिबंध लगा रखा था। साल के बारह महीनों को तीज त्यौहार के साथ जीने वाला हमारा देश हंसना खिलखिलाना भूल गया था।कामना करते हैं ईश्वर फिर कभी वो दुर्दिन ना दिखाए।

दो सालों के बाद इस साल विघ्नहर्ता भगवान गणपति पूरे ठाठ के साथ गणेश पंडालों में दर्शन दे रहे हैं।गांव,कस्बों और शहरों की छोटी बड़ी समितियां अपने स्तर पर भव्य गणेशोत्सव मना रही है। गणेश की मूर्तियों और पंडालों की डिजाइन में आमूलचूल परिवर्तन देखने में आ रहा है।

पहले तालपत्री, कपड़ों और बांस बल्लियों से भगवान गणेश का मंडप सजता था। जिसमें स्थानीय लोग मेहनत करते थे।अब टेंट का काम करने वालों को सीधा मंडप तैयार करने का ठेका दे दिया जाता है।पैसा फेंको... तमाशा देखो...नो चिकचिक..नो झिकझिक।अब के आयोजन में समर्पण का अभाव दिखता है।

बहुत कुछ बदल भी गया है अब...ना चंदा मांगने वाले लोगों का जत्था है..ना प्रसाद लेने के लिए इस मोहल्ले से उस मोहल्ले घूमने वाले बच्चों की टोली।देशी झालरों का स्थान रंगबिरंगे चाइनीज झालरों ने ले लिया है।उषा कंपनी की छोटे छोटे बल्ब और उस समय के झालर अब नजर नहीं आते। हमारे बचपन के दिनों में थोड़ा बहुत इलेक्ट्रॉनिक का जानकार गणेशोत्सव के दिनों में किसी इंजीनियर से ज्यादा इज्जत पाता था।रोज शाम को लकड़ी का स्टूल लेकर किसी वैज्ञानिक के जैसे फ्यूज बल्ब का पता लगाना कोई मामूली काम नहीं होता था।हम उसी फ्यूज बल्ब को पता लगाने की उसकी योग्यता और झालर बल्ब के जल जाने पर तालियां बजाते थे। मनोरंजन के लिए पूरे ग्यारह दिन तक नाचा,आल्हा उदल, विडियो और पंडवानी जैसे कार्यक्रम आयोजित किया जाता था।हर्ष और उल्लास से सराबोर ग्यारह दिन कब निकल जाते थे।पता ही नहीं चलता था।अनंत चतुर्दशी के दिन जब गणेश जी को विसर्जन के लिए ले जाना होता था तब गांव में विराजित हरेक प्रतिमा गांव के चौक में एकत्रित होती थी।सब मूर्तियों को समस्त ग्रामवासी नाचते गाते विसर्जित करने जाते थे।

अब गुजरा दौर तो वापस नहीं आ सकता।पर उस दौर की मीठी यादों को भूलाया भी तो नहीं जा सकता....

सोमवार, 13 जून 2022

भूलन द मेज-समीक्षा

गुलाबी शर्ट में दीपक भाई और सफेद शर्ट में फिल्मकार मनोज वर्मा 

 कल भूलन द मेज फिल्म देखने की इच्छा पूरी हुई।बहुत सालों से ये फिल्म देखने की इच्छा थी,जो अब जाके पूरी हुई।फिल्म संपादन की लंबी प्रक्रिया एवं कोरोनाकाल के कारण संभवतःफिल्म को रिलीज होने में लंबा समय लग गया।67वें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार में इस फिल्म को श्रेष्ठ क्षेत्रीय फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त हुआ है।नि:संदेह यह उपलब्धि छत्तीसगढ़ और छत्तीसगढ़ी सिनेमा जगत के लिए गौरव की बात है।

साल 2017 में इस फिल्म की शूटिंग हमारे अंचल में हुई थी।मौहाभाठा, गरियाबंद और रसेला में इस फिल्म के महत्वपूर्ण दृश्य फिल्माए गए हैं।

फिल्म की पृष्ठभूमि ही मौहाभाठा गांव हैं। जहां सीधे सरल भुंजिया आदिवासी निवास करते हैं। गरियाबंद जिला मुख्यालय से लगभग 30 किमी की दूरी पर घने वनों के बीच बसा है यह वन्यग्राम।इस फिल्म के सूत्रधार लेखक, शिक्षक के रुप में इस गांव में आते हैं।कालखंड छत्तीसगढ़ राज्य के नवनिर्माण के समय का बताया गया है याने साल 2000।

कहानी उसी समय से आरंभ होती है।यह फिल्म संजीव बख्शी जी के उपन्यास"भूलन कांदा"पर आधारित है।इस उपन्यास को पाठकों ने सराहा था। उपन्यास के सिनेमाईकरण में उसके मूल तत्व को सुरक्षित रखा गया है। इस फिल्म के निर्देशक मनोज वर्मा उपन्यास के मूल तत्व को परदे पर दिखाने में पूरी तरह सफल हुए हैं।

कहानी की विषयवस्तु में एक ग्रामीण भकला का अन्य ग्रामीण बिरजू से जमीन के मामले में झड़प होती है, और उसी झड़प के दौरान हुए धक्का मुक्की में दुर्घटनावश बिरजू की मौत हो जाती है। ग्रामीणों को जब यह बात पता चलती है तो वे गांव के मुखिया के साथ घटनास्थल पर आते हैं और घटना का विवरण लेते हैं तत्पश्चात मुखिया पुलिस प्रशासन को इस संबंध में सूचित करता है और किसी भी ग्रामीण को इस मसले पर कुछ भी बोलने के लिए मना करते हैं।

रात में इस मामले को लेकर गांव में बैठक बुलाई जाती हैं जिसमें मुखिया और ग्रामीणों द्वारा भकला की पारिवारिक स्थिति को ध्यान में रखते हुए गांव के एक बुजुर्ग व्यक्ति गंजहा को हत्या का अपराध स्वीकार करने के लिए तैयार किया जाता है और दूसरे दिन पुलिस आकर उसको ले जाकर जेल में बंद कर देती है। फिर गंजहा की रिहाई के लिए और भकला को बचाने की जद्दोजहद पूरी फिल्म में दिखाया गया है।इस प्रक्रिया में सरकारी तंत्र की खामियों को उजागर किया गया है। बंदोबस्त रिकॉर्ड में त्रुटियां ग्रामीण क्षेत्रों में संघर्ष का बहुत बड़ा कारण बनता है।इसे अच्छे से बताया गया है।एक दृश्य में कोटवार का पात्र चुटकी लेते हुए गांव के नवपदस्थ शिक्षक को बताता है कि जिस जगह तालाब है बंदोबस्त रिकॉर्ड में वो पहाड़ है, जहां पहाड़ी है वहां खेत है, जहां खेत है वहां तालाब है।ये सत्य है,कपोल कल्पना नहीं। हजारों किसान आज भी रिकॉर्ड दुरुस्तीकरण के लिए चक्कर काट रहे हैं।आजादी के इतने वर्षों बाद भी ऐसी त्रुटियों का ग्रामीण क्षेत्रों में निवारण नहीं होना समस्याओं को जन्म देता है।न्याय प्रक्रिया में विलंब,आफिस में रिश्वतखोरी और अधिकारियों व कर्मचारियों का आम जनता के साथ रूखा व्यवहार बहुत बढ़िया ढंग से दर्शाया गया है। फिल्म संदेशपरक है।यह सरकारी तंत्र में व्याप्त विसंगतियों पर सीधा प्रहार करता है।

फिल्म में सीधे सादे ग्रामीणों का अपने गांव के आदमी के लिए आत्मीय लगाव देखते ही बनता है।कुछ जगहों पर फिल्म दर्शकों को भावुक कर देती है। खासतौर पर भकला को बड़ी सजा से बचाने के लिए एक बड़ी राशि एकत्र करने का दृश्य।ये दृश्य अति भावुक लोगों के आंखों से आंसू निकालने का सामर्थ्य रखती है।

फिल्म के स्टार कास्ट में नत्था के नाम से चर्चित ओंकारदास मानिकपुरी ने भकला की भूमिका अभिनीत किया है।उसकी पत्नी प्रेमिन की भूमिका में कई सिरियल में काम कर चुकी सीहोर की अभिनेत्री अनिमा पगारे ने बेहतरीन अभिनय किया है।उसकी भाव भंगिमा और बोलने के ढंग से एहसास नहीं होता कि वे गैरछत्तीसगढी अभिनेत्री है।सच कहूं तो इनसे भी अधिक जिस अभिनेता ने फिल्म में प्राण फूंके हैं वो है गंजहा की भूमिका अभिनीत करने वाले कलाकार सलीम अंसारी।इस फिल्म में अंसारी का अभिनय अद्वितीय है। संभवतः अभी तक उनके द्वारा निभाए गए किरदारों में मैं इसे सबसे बेस्ट मानता हूं।

हास्य कलाकारों में संजय महानंद,सेवकराम यादव,हेमलाल कौशल ने भी हास्यपक्ष का बेहतरीन निर्वहन किया है।अन्य महिला कलाकारों को कोई खास महत्व नहीं दिया गया है।उपासना वैष्णव और अनुराधा दुबे को कुछ संवाद मिले हैं।स्व.आशीष सेन्द्रे ने मुखिया की भूमिका का बढ़िया निर्वाह किया है।पुलिस की भूमिका मे पुष्पेंद्र सिंह और शिक्षक की भूमिका में अशोक मिश्रा भी जमते हैं।

जिस प्रकार भारतीय क्रिकेट टीम और तेंदुलकर के मैच मे सुधीर कुमार चौधरी का रहना अनिवार्य है उसी प्रकार छत्तीसगढी फिल्म मे डा अजय सहाय की छोटी मोटी भूमिका अनिवार्य है।इस फिल्म में उनका मात्र एक संवाद है।जज की भूमिका में योगेश अग्रवाल ने भी प्रभावी अभिनय किया है।त्रिपाठी वकील की भूमिका में कलाकार शासन और समाज के समक्ष प्रश्न रखता है कि नियम आमजन की सुविधा के लिए एसी कमरों में बैठकर अफसरों द्वारा बनाए जाते हैं। जबकि वास्तविकता में ऐसे नियम ही आम जनता की पीड़ा का कारण बनते हैं। व्यवस्था में सुधार की जरूरत की ओर शासन का ध्यान आकृष्ट कराने में फिल्मकार सफल साबित हुआ है।

कोर्टरुम ड्रामा को हिंदी सिने जगत के दो बडे कलाकार मुकेश तिवारी और राजेंद्र गुप्ता ने अविस्मरणीय बना दिया है।मुकेश तिवारी ने फिल्म चाइना गेट के मेन विलेन और राजेंद्र गुप्ता ने धारावाहिक चंद्रकांता और चिडिया घर में अपने अभिनय का लोहा मनवाया है।इस फिल्म में वे दोनों वकील के रूप में दर्शकों के सामने आते हैं।कलाकारों के चयन में निर्देशक ने पात्रानुरुप बहुत बढ़िया कलाकारों का चयन किया है।

फिल्म का बैक ग्राउंड म्यूजिक बेहतरीन है।स्थानीय बांस गीत वगैरह का बढिया प्रयोग हुआ है।गीत में मीर अली मीर की मशहूर कविता नंदा जाही का..झूमर जा पडकी और टाइटल सांग बेहतरीन बन पड़े हैं।सुनील सोनी का संगीत मधुर है। कैलाश खेर ने टाइटल गीत बहुत बढ़िया गाया है और प्रसंगानुसार इसका बेहतरीन प्रयोग हुआ है।

छायांकन भी बेहतरीन है। छत्तीसगढ़ की मडई और जंगल का दृश्यांकन मंत्रमुग्ध कर देता है। संपादन भी बहुत बढ़िया है।कुल मिलाकर फिल्म बहुत बढ़िया बनी है। लेकिन एक दो प्रेमदृश्य वाले संवाद और दृश्य थोड़ा असहज भी महसूस कराते हैं।मेरे विचार से ऐसे दृश्यों से बचा भी जा सकता था।भकला को कुछ ज्यादा ही रोमांटिक दिखा दिया गया है,जो हजम नहीं होता।कत्ल के सजा से आशंकित व्यक्ति को रोमांस कैसे सूझेगा। प्रेमीन की भूमिका में अभिनेत्री अल्हड़ युवती लगती है ना कि दो बच्चों की मां।पर उसे दो बच्चों की मां बताया गया है।साल 2000 के आसपास मोबाईल जैसे संचार साधनों की उपलब्धता ग्रामीण क्षेत्रों में अविश्वसनीय प्रतीत होता है। नवपदस्थ शिक्षक का शिक्षा कार्यालय के बजाय थाने में जाकर गांव के बारे में पता करना और थानेदार का शिक्षक को गांव तक छोड़ कर आना गले नहीं उतरता है।ये छोटी मोटी चूक नजर आती है लेकिन समग्र दृष्टिकोण से आकलन करें तो फिल्म मनोरंजक और देखने योग्य है।छत्तीसगढ़ के दर्शकों को फिल्मकार के उत्साह वर्धन के लिए जरूर देखना चाहिए।इस फिल्म को अपने मित्र दीपक साहू जो मौहाभाठा में शिक्षक रह चुके थे,उनके साथ देखने से आनंद दुगुना हो गया था। क्योंकि इस फिल्म में उनके स्कूली छात्रों ने काम किया था और उनके परिचित ग्रामीण जन भी थे। फिल्म की शूटिंग का भी मैं साक्षी रहा हूं और टाकीज में फिल्म देखने के बाद फिल्मकार मनोज वर्मा जी से भी मुलाकात हो गई।एक अच्छे फिल्म के निर्माण के लिए उनको बधाई प्रेषित कर हम लोग वापस अपने गंतव्य की ओर चल पड़े।एक बात और.. कभी कभी तकिया कलाम का उपयोग भी जी का जंजाल बन सकता है...हहो...सहीच काहत हॅंव


शनिवार, 5 मार्च 2022

गोधूलि बेला में...




शादियों का सीजन चल रहा है।रोज किसी ना किसी परिचित और पारिवारिक जन के यहां से वैवाहिक निमंत्रण के कार्ड प्राप्त हो रहे हैं।कार्ड के स्वरूप और डिजाइन में अनगिनत प्रयोग हो चुके हैं और सतत् जारी है। लेकिन एक चीज जो नहीं बदला है, वो है पाणिग्रहण का कार्ड में अंकित समय।
अक्सर आप लोग वैवाहिक कार्ड में पढ़ते होंगे, पाणिग्रहण गोधूलि बेला में।
अब ये गोधूलि बेला क्या है?और इसका क्या महत्व है? वर्तमान में अब ये महत्वपूर्ण है कि नहीं इस तथ्य को देख लेते हैं।समय के साथ क्या परिवर्तन वैवाहिक कार्यक्रम में क्या परिवर्तन हो रहा है,वो आप सब देख सुन रहे हैं।
हिंदू धर्म ग्रंथों के अनुसार शाम को जब पशु पक्षी दिनभर विचरण करके और गौ माता चारा चरने के बाद लौटती है, उस समय को गोधूलि बेला कहा जाता है।गो अर्थात गाय और धूलि अर्थात धूल।इसका तात्पर्य है कि वह समय जब गाय के चलने से धूल उड़कर अस्ताचलगामी सूर्य को ढंक लेती है।
इस समय को शास्त्रों में अत्यंत पवित्र और शुभ बताया गया है। इसलिए परिणय सूत्र में आबंधन के लिए इस समय को श्रेष्ठ माना जाता है। लगभग दसेक साल पहले तक गोधूलि बेला में ही पाणिग्रहण की रस्म पूरी की जाती थी।
लेकिन समय का चक्र सदैव गतिमान रहता है।अब गोधूलि बेला का कोई महत्व नहीं रहा। पाणिग्रहण की रस्म देर रात में संपन्न की जाती है। बारातियों और घरातियों के वैभव प्रदर्शन में ही पूरा समय निकल जाता है।
लेकिन इसका दुष्परिणाम भी समाज भुगत रहा है। मांगलिक कार्यक्रम के आयोजन में अनावश्यक खर्चे जुड़ चुके हैं और संबंध भी पहले जैसे मजबूत नहीं रहे।
जन्म जन्मांतर का संबंध कहे जाने वाले पति पत्नी के रिश्ते अब समझौते की डोरी से बांधकर बमुश्किल निभाए जाते हैं।प्रेम और समर्पण वाले दौर की विदाई हो चुकी है।

मंगलवार, 22 फ़रवरी 2022

दिव्य आयोजन -मानस यज्ञ छुरा नगर

 










 छत्तीसगढ़ में मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम के प्रति अगाध श्रद्धा है।लोकजीवन राममय है।यहां के गांवों में दिन की शुरुआत राम नाम के अभिवादन से होती है और राम भजन में शाम होता है। जहां चार सज्जन मिल जाए, वहीं राम चर्चा शुरू हो जाती है।तुलसीकृत श्रीरामचरितमानस को यहां बड़े श्रद्धा और भक्ति के साथ गाया व सुना जाता है। तुलसी दास जी कहते हैं-
रचि महेस निज मानस राखा। पाइ सुसमउ सिवा सन भाषा॥
तातें रामचरितमानस बर। धरेउ नाम हियँ हेरि हरषि हर॥
जिस श्रीरामचरित मानस को स्वयं भगवान शिव ने रचा है।वो ग्रंथ अलौकिक ही होगा। तुलसीदास जी कहते हैं छहों शास्त्र सब ग्रंथन को रस। अर्थात श्री रामचरितमानस में सभी शास्त्रों और सभी ग्रंथों का निचोड़ है। इसी अलौकिक ग्रंथ के प्रचार प्रसार के लिए सन् 1957-58 के आसपास हमारे छुरा नगर में मानस मंडली का गठन किया गया।उस समय छुरा के जमींदार श्री त्रिलोकशाह जी के नेतृत्व में उनके युवा साथियों का दल तब आसपास के गांवों में रामकथा का संदेश बांटते घूमते थे।ये वही त्रिलोकशाह जी थे,जिन्होंने सन् 1967 में कांकेर लोकसभा के अस्तित्व में आने के बाद प्रथम सांसद के रुप में क्षेत्र का प्रतिनिधित्व किया था।वरिष्ठ रामायणिक श्री कामता प्रसाद तिवारी जी बताते है कि सन् 1959 में छुरा में बिलासपुर जिले से पधारे स्वामी रोशनपुरी के मार्गदर्शन और राजपुरोहित श्री बनमाली शर्मा जी के साथ समस्त क्षेत्रवासियों के सहयोग से प्रथम बार श्रीरामचरितमानस यज्ञ का आयोजन किया,जो नगर के मध्य में लगातार तीन वर्षों तक आयोजित हुआ। तत्पश्चात राजिम में तीन वर्षों तक आयोजित हुआ।उसके बाद स्थान बदल बदलकर श्रीरामचरित मानस यज्ञ का ये आयोजन चलता रहा।सांसद बनने के बाद राजा साहब द्वारा राजनीति के क्षेत्र में व्यस्तता के कारण समय नहीं दे पाने के कारण क्षेत्रवासियों व स्थानीय ब्राम्हणों के सहयोग से यह आयोजन तब भी निर्बाध रूप से जारी रहा।उस समय भी इस आयोजन पर राजपरिवार की ओर से यथोचित सहयोग मिलता रहा।
कुछ वर्षों के बाद स्थानीय पंडितों ने मिलकर छुरा में आजीवन मानस यज्ञ का संकल्प लिया और यज्ञ संचालन कार्यकारिणी का गठन किया।तब से मानस यज्ञ स्थायी रूप से छुरा में होने लगा।सन् 1979 से छुरा में होनेवाला यह दिव्य आयोजन विगत 42 वर्षों से आज भी जारी है।बाद के वर्षों में इस यज्ञ में हुबलाल जी व्यास मिर्जापुर यूपी ,संत पवन दीवान(स्वामी अमृतानंद) ब्रम्हचर्य आश्रम राजिम,संत श्री सियाभुनेश्वरीशरण(सिरकट्टी आश्रम कुटेना), आदि संतों का जुडाव हुआ। राजपुरोहित श्री बनमाली प्रसाद शर्मा दुल्ला,श्री झुमुक लाल शर्मा मजरकटा गरियाबंद,श्री कृष्ण कुमार दीक्षित छुरा और श्री गजानंद प्रसाद देवांगन छुरा की महत्वपूर्ण भूमिका इस आयोजन में होती थी।मानस यज्ञ में संत पवन दीवान और लावणीधर महराज जी के प्रवचन सुनने के लिए तब क्षेत्रवासियों की भीड़ यज्ञ परिसर में उमड़ पड़ती थी।पैदल,सायकल और बैलगाड़ी के माध्यम से लोग इस दिव्य आयोजन में शामिल होने के लिए आते थे।
सन् 1985 के आसपास यज्ञ परिसर में श्रीराम जानकी मंदिर और यज्ञमंडप का निर्माण राजपरिवार और जनसहयोग के संयुक्त प्रयास से हुआ।यज्ञ मंडप का प्रादर्श चित्रकूट सतना से लिया गया था।
11 फरवरी 1987 को छुरा निवासी श्रीमती रंभाबाई लोन्हारे द्वारा प्रदत्त मूर्ति की मानस मंदिर में धूमधाम से प्राण प्रतिष्ठा की गई।
हमारे बचपन के दिनों में यज्ञ स्थल के बाहर चना होरा और भक्का लाडू मिला करती थी।उसका आनंद ही अनूठा था। यज्ञाचार्य श्री झुमुक महराज जी के कंठ से उच्चारित जय हो पिता कोसलेस जय हो माता जानकी।जय हो रणबांकुरे वीर हनुमान की ।।आज भी कंठस्थ है।उस समय प्रवचन स्थल पर जामुन डारा से मंडप बनाया जाता था।बाद में पक्के छत का निर्माण हो गया।
सन् 2008-09 में मंदिर का जिर्णोद्धार मानस यज्ञ समिति और स्व त्रिलोकशाह के सुपुत्र श्री ओंकारशाह जी द्वारा करवाया गया।मंदिर का स्थापत्य उत्कल शैली का है।ओडिशा के कारीगरों ने ही यज्ञ मंडप और मंदिर को नवीन स्वरूप प्रदान किया है।मानस मंदिर के यज्ञ मंडप के सम्मुख ही दक्षिणमुखी पवन पुत्र हनुमान जी और बालिपुत्र अंगद जी की मूर्ति छोटे मंदिरों में शोभायमान है।हनुमान जी की मूर्ति तो सर्वत्र विद्यमान दिखाई देता है लेकिन अंगद जी का पृथक मंदिर मेरी जानकारी में इसके अलावा अभी तक नहीं है।
मानस यज्ञ परिसर में बीते कुछ वर्षों में स्थानीय श्रद्धालुओं के द्वारा शिवमंदिर,श्री राधा कृष्ण मंदिर और भगवान जगन्नाथ जी के मंदिर का भी निर्माण करवाया गया है।दिन प्रतिदिन यहां के मंदिर की भव्यता बढ़ती ही जा रही है।यज्ञ समिति द्वारा इस वर्ष मंदिर में आकर्षक रंग रोगन कराई गई है।माघ-फाल्गुन महीने में छुरा नगर को राममय बनाने वाला ये दिव्य आयोजन वास्तव में अनूठा है।

मंगलवार, 18 जनवरी 2022

स्वागत है 2022

 


लो भाई आ गए नये साल में!! उम्मीद करते हैं ये साल सफलता,स्वस्थता और समृद्धि देकर जाए।ऐसी ही कामना तो पिछले साल जनवरी महीने में भी किया था।पर मिला क्या?

आप सब जानते हैं।बीता हुआ साल सुखद यादें कम, दुखद स्मृतियां ज्यादा देकर गया है।कोरोना की दूसरी लहर ने देश को झकझोर कर रख दिया।

जिस बीमारी पर हम जोक्स बनाये उस बीमारी ने जब मार्च अप्रैल के महीने में अपना रौद्र रूप दिखाया तो हाहाकार मच गया।शमशान मुर्दों से भर गया।कितने ही लोग अपनों का अंतिम दरसन तक ना कर सके‌।

जिस सांस को ईश्वर ने सबको मुफ्त में दिया है उसको लाखों रूपये में खरीदकर जीवन बचाने की जद्दोजहद करनी पडी। भगवान फिर कभी ऐसे दिन ना दिखाए।

हमारे कितने ही अपनों को हमने पिछले साल खो दिया।कितने ही बच्चों के सर से मां बाप का साया उठ गया।पिछले साल के नाम पर कड़वी यादें ही शेष रह गई है।हालांकि कोरोनाकाल के उस कठिन घड़ी में लोग जात धरम भूलकर सिर्फ इंसान थे, ये महत्वपूर्ण बात है।

सरकारी तंत्र ने हरसंभव प्रयास लोगों का जीवन बचाने के लिए किया।जिस चरमराती स्वास्थ्य सेवा के लिए हम लोग शासन को कोसते हैं, उसी ने आम आदमी के प्राणों की रक्षा किया।उस विपदा की घड़ी में केंद्र और राज्य सरकारों के बीच समन्वय ने लोकतंत्र की गरिमा को प्रतिष्ठित किया।तब पार्टीगत विद्वेश की भावना कहीं गुम हो गई थी।यही भावना भारत को गौरवान्वित करती है, और हम सबको हिन्दुस्तानी होने पर गर्व होता है।हालांकि कुछ लालची लोगों ने आपदा को मुनाफा कमाने का उचित अवसर समझा और अपने कुकर्मों से महामारी से त्रस्त आमजन को लूटा।इस लूटतंत्र में नीजी अस्पताल और दैनिक जीवन की सामग्री बेचने वाले व्यापारियो ने शामिल होकर खूब माल कमाया।पर ले जायेंगे कुछ नहीं। भगवान के घर में इनके लिए उबलती तेल की कड़ाही तैयार होगी।खैर,ये मजाक था।पर अच्छा उनके साथ जरूर नहीं होगा।

साल 2021 स्वास्थ्य सेवा से जुडे़ कर्मियों के योगदान के लिए जाना जायेगा।चाहे वह कोरोनाकाल में मरीजों की सेवा के लिए हो या भारत की अभावग्रस्त आबादी का टीकाकरण।उनके समर्पण और सेवा को सलाम!!!

बीता हुआ साल ईंधन की कीमतों में बढ़ोतरी के लिए भी याद कर सकते हैं।राजनैतिक उठापटक और महंगाई ने आम आदमी की कमर ढीली कर रखी है।पेट्रोल डीजल ने शतकीय पारी खेला और अभी भी नाबाद है।साल बदला है,पर हालात नहीं बदले।

ईश्वर करे 2022 सबके लिए समृद्धि और सफलता लेकर आए....

चित्र-सोशल मीडिया से साभार

दिन चारी मइहरवा में....सुरता स्व.मिथलेश सर के

  लोकगीतों की अपनी एक अलग मिठास होती है।बिना संगीत के भी लोकगीत मन मोह लेता है,और परंपरागत वाद्य यंत्रों की संगत हो जाए, फिर क्या कहने!! आज ...