पिछले दिनों हिंदी फिल्म जगत के पोस्टर डिजाइन करने वाले महान कलाकार दिवाकर करकरे जी का निधन हो गया।एक ऐसे कलाकार जिसकी कूची ने अमिताभ को एंग्रीयंगमैन के रूप में पोस्टर के द्वारा प्रतिष्ठित किया।जिनके रंग संयोजन में उनकी भावनाओं को स्पष्टतया समझा जा सकता था।
फिल्मों के लिए पोस्टर बनाने की शुरुआत तो भारतीय सिनेमा के जनक दादासाहेब फाल्के ने ही करी थी। उन्होंने अपनी पहली फिल्म"राजा हरिश्चंद्र" के पोस्टर भी स्वयं बनाये थे और कलाकारों के नाम को अपने हाथों से लिखा था।बाद में बाबूराव पेंटर जैसे कलाकारों ने पोस्टर कला को ऊंचाईयां प्रदान की। पश्चिम के देशों की तरह हमारे यहां चीजें संग्रहित करने की परंपरा में विशेष रुचि ना होने के कारण पोस्टर संग्रह का काम सिनेमा के शुरुआती दिनों में नहीं हुआ।बाद के वर्षों में लोगों ने पोस्टर संग्रहण शुरू किया और नोट छापे।बताया जाता है कि शाहरुख खान ने फिल्म मुगल-ए-आजम के हस्तनिर्मित पोस्टर को अच्छा खासा दाम देकर खरीदा था।
मशहूर चित्रकार एमएफ हुसैन साहब ने भी हिंदी फिल्मों के पोस्टर डिजाइन किए थे।इसके अलावा अपने अलग डायलॉग डिलीवरी के लिए मशहूर अभिनेता नाना पाटेकर ने भी फिल्म पोस्टर बनाने का काम किया है।वे मुंबई के मशहूर जेजे स्कूल आफ आर्ट के छात्र रह चुके हैं।
फिल्म पोस्टर पहले हस्तनिर्मित होते थे। सिद्धहस्त चित्रकार अपनी कल्पना से फिल्म के किरदारों को जीवंत रूप में पोस्टर पर चित्रित करते थे।
ये बहुत से कलाकारों के लिए आय का स्त्रोत भी था।पहले हस्तनिर्मित पोस्टर कागज पर बनाये जाते थे।बाद के वर्षों में प्रिंटिंग मशीनों का आगमन हुआ और हस्तनिर्मित उन पोस्टरों की सैकड़ों हूबहू कापियां निकाल ली जाती थी।फिर जब कैमरे से फोटो लिए जाने लागे तो पोस्टर को मशीन से ही डिज़ायनिंग की जाने लगी।लेकिन उनमें वो बात नहीं थी जो कलाकारों के ब्रश स्ट्रोक्स से बने पोस्टरों में हुआ करती थी।
साल 2000 के बाद हस्तनिर्मित पोस्टर बनने पूर्ण रूपेण बंद हो गये।अब फ्लैक्स बनते हैं जो कम्यूटर के माध्यम से डिजाइन की जाती हैं।
पुराने जमाने के पोस्टरों की बात ही निराली होती थी। फिल्म की कहानी के विशेष दृश्यों को पोस्टरों में स्थान मिलता था। पोस्टर फिल्म देखने के लिए आए दर्शको के मन में कौतूहल पैदा करती थी और फिल्म देखने के लिए प्रेरित भी करती थी।
पोस्टर ब्वाय तड़के सवेरे पान के खोमचों,चौक चौराहों,बसों के पिछले हिस्से, ट्रेन में पोस्टर चिपकाने का काम करते थे।पोस्टर में जादू ही ऐसा होता था कि दर्शक टाकीजों तक खिंचे चले आते थे।मुझे याद आता है जब टाकीज के पोस्टर ब्वाय और एनाउंसर साइकिल रिक्शा पर माइक लेकर पोस्टर चिपकाते घूमा करते थे और उनका अंदाज होता था....कदरदान, मेहरबान, दोस्तों...आपके शहर में पहली मर्तबा...पहली बार... सुपरस्टार अमिताभ बच्चन... शहंशाह के रूप में....चले आइए अपने परिवार के साथ...फलाने टाकिज पर रोजाना चार खेलों के साथ....
चित्र-इंटरनेट से साभार
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