रविवार, 30 अगस्त 2020

मधुशाला


  आज एक बोर्ड लिखने के सिलसिले में एक अति व्यस्ततम मार्ग वाले रोड में जाना हुआ। उस रोड में एक नया भोजनालय खुला था उसका नाम वगैरह लिखना था। पहुंचकर मैंने अपना रंगों का पिटारा खोला और अपने काम में रम गया।कुछ देर बाद एक सज्जन आए और पूछा-आज मंदिर बंद है क्या? मैंने उसका मंतव्य समझकर हां में सर हिलाया।यही प्रश्न तीन घंटों के दरम्यान चार पांच लोगों ने पूछा और मैं सहमति में सर हिलाता रहा।
 दरअसल आज लोग जिस मंदिर के बारे में पूछ रहे थे वो कोई पूजास्थल नहीं बल्कि शराब दुकान था। आम बोलचाल की भाषा में हमारी तरफ मदिरालय को सम्मान स्वरूप मंदिर कहा जाता है।वैसे इसके अनेक नाम हैं जैसे-दारूभट्ठी, शराबखाना,ठेका और साहित्यिक नाम मधुशाला।आज मोहर्रम के कारण दारू भट्ठी बंद थी और भक्तजन भटक रहे थे।कुछ बंदे तो अन्य वैकल्पिक माध्यमों का पता भी पूछ रहे थे पर मैं इस मामले में निरा गंवार हूं तो उन लोगों को मैंने निराश करने वाला जवाब दिया और वे चले गए।
 हमारा छत्तीसगढ़ राज्य धन-धान्य और प्राकृतिक संपदा से संपन्न राज्य है और हम छत्तीसगढ़िया सबले बढ़िया!!अपनी सरलता को हम कभी कभी और कहीं कहीं घमंड के स्तर पर भी ले जाते हैं। लेकिन एक मुद्दे पर हम अपना सिर नीचा करने के लिए बाध्य होते हैं।और वो मुद्दा है मद्यपान मतलब शराबनोशी मतलब नशापान। पिछले साल तक हम देश में शराबखोरी के मामलेे में प्रथम स्थान की गरिमा बढा रहे थे जबकि हमारी कुल जनसंख्या से चौगुना जनसंख्या वाला राज्य महाराष्ट्र भी हमारे पीछे चल रहा था।
   छत्तीसगढ़ में शराब का बढ़ता चलन प्रदेश के भविष्य के लिए कुछ अच्छे संकेत नहीं हैं। हालांकि सरकार के नजर में और अर्थव्यवस्था के पोषण के लिए शराब बिक्री में इजाफा अच्छा है। लेकिन समाज पर शराबखोरी की बढ़ती प्रवृत्ति के कारण गलत प्रभाव पड़ रहा है।आज से सात आठ साल पहले मैं शराब के ठेके पर लेखन कार्य से गया था तभी एक आठ नौ साल की बच्ची झोला और पैसे लेकर आई और शराब लेकर चली गई।तब दुकान के कर्मचारी,जो शायद बिहारी था उसने मुझसे कहा था-देख लो छत्तीसगढ़ की हालत!!!इ हाल है आपके छत्तीसगढ़ का। छोटे-छोटे बच्चों को भी शराब लाने भेज रहे हैं।तब मेरा सिर शर्म से गड़ गया था और मैं निरूत्तर हो गया।
छत्तीसगढ़ राज्य ने देखते ही देखते शैशवास्था को पार कर तरूणावस्था में पहुंच गया है और राज्य के नवयुवक शराब के नशे के गिरफ्त में जकड़ते जा रहे हैं।गांव हो या शहर तकरीबन सभी जगह शराबियों की भरमार है।शाम होते ही मदिरालय जाने वाला मार्ग गुलजार होने लगता है।शहर के सभी मंदिरों को मिलाकर भी इतनी भीड़ नहीं होती जितनी भीड़ मदिरालय में देखने के लिए मिलती है।हर गांव में सडक किनारे चखना दुकानें स्वागत करती दिखाई पड़ती है जहां डिस्पोजल,नमकीन और ठंडे पानी की व्यवस्था होती है।एक नया स्टार्ट अप खुला है छत्तीसगढ़ के सभी गांव शहरों में।
 जब तक बीजेपी सत्ता में रही कांग्रेसी शराबबंदी का राग अलापते रहे और अब कांग्रेसी सत्ता में हैं तो बीजेपी शराबबंदी के लिए सरकार को आईना दिखा रही है।अभी तक के घटनाक्रम को देखकर यही लगता है कि शराब दुकानों को बंद करने का साहस कोई सरकार नहीं दिखा सकती। राजस्व प्राप्ति के एक बहुत बड़े स्त्रोत को कोई खत्म भी नहीं कर सकता।कौन जानबूझकर राज्य के अर्थव्यवस्था की सेहत खराब करेगा?
कागजी कार्रवाई और नारेबाजी में शराबबंदी की बातें अच्छी लगती है ,मगर उसको धरातल पर उतारना बहुत ही कठिन काम है।मेरे विचार से पूर्ण शराबबंदी की बात ही बेतुका है।शराब कुछ लोगों के लिए आवश्यक चीजों के अंतर्गत हैं।और जनजाति बाहुल्य राज्य होने के कारण विभिन्न पर्वों आदि पर शराब का उपयोग किया जाता है।ऐसे में इसको बंद करना थोड़ा असुविधाजनक हो सकता है।लेकिन प्रति व्यक्ति शराब वितरण को नियंत्रित किया जा सकता है।शराब के लिए भी रसोईगैस या राशनकार्ड की तरह का कोई सिस्टम होना चाहिए ताकि शराबियों का डेटा सरकार के पास रहे।
शराबबंदी समस्या का हल नहीं हैं। शराबबंदी से शराब की तस्करी और जहरीली शराब सेवन की घटनाएं बढ़ेगी।शराब की खपत को राज्य में घटाने की आवश्यकता है। दिग्भ्रमित होकर अपना स्वास्थ्य और संपत्ति बर्बाद करने वाले नवयुवकों को सही राह दिखाने की जरूरत है। युवाओं के लिए रोजगार का सृजन किया जाना चाहिए ताकि वो दिशाहीन हो भटके मत। हरिवंश राय बच्चन की मधुशाला की एक पंक्ति याद आ रही है जो युवाओं के लिए है-
मदिरालय जाने को घर से
चलता है पीनेवाला
किस पथ जाऊं मैं?असमंजस में है वो भोलाभाला
अलग-अलग पथ बतलाते सब,पर मैं ये बतलाता हूं
राह पकड़ तू एक चला चल पा जाएगा मधुशाला।।
मतलब ये है कि इधर उधर की बातों में ना आकर केवल अपने लक्ष्य के मार्ग पर चले तभी उसको मधुशाला रूपी लक्ष्य की प्राप्ति हो सकेगी!!!
आगे फिर किसी बात पर बात करेंगे।तब तक राम...राम...

मंगलवार, 25 अगस्त 2020

संवेदनहीनता

 पिछले कुछ दिनों से व्यस्तता इतनी अधिक रही की चाहकर भी कुछ नहीं लिख पाया।पर आज समाचार पत्र में छपे एक खबर ने तमाम व्यस्तता के बाद भी लिखने के लिए मजबूर कर दिया।खबर महासमुंद जिले से है जहां संसदीय सचिव की मौजूदगी में कोरोना वारियर्स का सम्मान कार्यक्रम आयोजित था और कार्यक्रम चल रहा था जबकि उसी जगह से कुछ दूरी पर एक मां अपने बच्चे की लाश को ले जाने के लिए तड़प रही थी,आंसू बहा रही थी।

समाचार पत्र के खबर मुताबिक महासमुंद जिले अंतर्गत स्थित कछारडीह नाम के गांव से एक बच्चे को जिला अस्पताल में पोस्टमार्टम के लिए लाया गया था।उस बच्चे की जान एक झोलाछाप डॉक्टर के इलाज के कारण गई थी।मां पोस्टमार्टम के लिए इंतजार कर रही थी ताकि वो अपने जिगर के टुकड़े की लाश को ले जा सके पर सरकारी आयोजन के चलते डाक्टरों ने इस पर ध्यान नहीं दिया। समाचार पत्र के खबर अनुसार पुलिस का कहना था कि पंचनामा जल्दी हो गया था जबकि डाक्टरों का कहना था कि पंचनामा में देरी की वजह से पोस्टमार्टम नहीं हो पाया।अब कौन सच्चा है और कौन झूठा ये तो  ईश्वर जानेगा।इस सच्चाई को समाचार पत्र तक लाने के लिए उस पत्रकार को मेरा नमन जो सरकारी चकाचौंध की चमक से नहीं चौंधियाया।

 छत्तीसगढ़ में स्वास्थ्य सेवा जमीनी स्तर पर बदहाल है।चाहे सरकार अपनी पीठ जितना थपथपा ले। पूर्ववर्ती सरकार और वर्तमान सरकार का प्रयास कोई विशेष सराहनीय नहीं कहा जा सकता।हम आज भी एमपी वाले दौर में जी रहे हैं। सरकारी अस्पतालों में डाक्टरों और स्टाफ की कमी बदस्तूर जारी है।कोई भी शासन खाली पदों को भरने में दिलचस्पी ही नहीं दिखाता जबकि वांछित योग्यताधारी कितने ही बेरोजगार शासन की वेकैंसी के इंतजार में उम्र की सीमा पार कर रहे हैं।

पिछले दिनों ही मैं अपने स्थानीय सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र में गया था तो उस दिन मात्र एक नर्स ड्यूटी पर थी और मरीजों की संख्या के कारण परेशान हो रही थी।पूछने पर उसने बताया कि आधे कोविड संबंधित किसी प्रशिक्षण के लिए गये हैं।कुल मिलाकर ये ज्ञात हुआ कि स्वीकृति से कम पदों में कर्मचारी कार्यरत हैं और उस पर भी अस्पताल के अलावा अन्य और कई काम!! कर्मचारी करे तो करे क्या?शासन का आदेश शिरोधार्य करना सबसे ज्यादा जरूरी है।

ज्यादातर अस्पताल रेफर सेंटर बनकर रह गए हैं। प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र से खंड स्तरीय के लिए रेफर,खंड से जिला के लिए रेफर और अंत में प्रदेश के सबसे बड़े सरकारी अस्पताल के लिए रेफर!! जहां अगर आप राजनीतिक एप्रोच या निजी पहचान रखते हैं तो आप पर ध्यान दिया जा सकता हैं, नहीं तो तकलीफों की एक अनंत यात्रा के लिए तैयार रहें।अमूमन सारे सरकारी अस्पतालों में शौचालय से लेकर बिस्तर तक में गंदगी का आलम रहता है।मच्छर तमाम एशोएराम के साथ सरकारी खर्चे पर पलते लगते हैं। जहां उनको भरपूर मात्रा मे मरीज और उनके परिजनों  से खून की खुराक मिलती है।इस व्यवस्था के लिए प्रशासन ही जिम्मेदार  नहीं है पब्लिक को भी अपनी जिम्मेदारी समझनी चाहिए। सरकारी संपत्ति अपनी संपत्ति है ये वाक्य गंदगी फैलाने के संदर्भ में नहीं है।लोगों को शासन का सहयोग करना होगा तभी अस्पतालों से गंदगी दूर हो पाएगी।

डाक्टर और नर्स चाहे छोटा हो या बड़ा मरीजों के परिजनों से ऐसा बर्ताव करते हैं मानों उन्होंने उनका सुख चैन छिन रखा है।सेवा की भावना अस्पताल स्टाफ में गधे के सींग की तरह नदारद मिलता है।कम से कम मेरा अनुभव तो यही कहता है। इसमें अस्पताल स्टाफ की भी कोई गलती नहीं है।स्टाफ की तुलना में मरीजों की संख्या इतनी ज्यादा होती है कि उनमें चिड़चिड़ापन आना स्वाभाविक लगता है।देवतुल्य डाक्टर अब लाखों में सैकड़ों ही मिलेंगे।

बड़ दुख होता है जब कोई यातना भोगता परिवार अस्पताल दर अस्पताल चक्कर काटता डाक्टरों के पास पहुंचता है तो ज्यादातर मामलों में प्रेम का मरहम नहीं बल्कि फटकार का नमक रगडा जाता है उनकी दुखी आत्मा पर।लोग आखिर इंसान को इंसान क्यों नहीं समझते?हर आदमी जानकार नहीं हो सकता,हर परिवार पढा लिखा नहीं हो सकता तो क्या वो इंसान नहीं हैं?निजी अस्पताल तो आजकल कसाईखाने साबित हो रहें हैं जिनकी निर्दयता की खबरें यदा कदा समाचार पत्रों में छपती ही रहती है। मैं स्वयं भुक्तभोगी हूं जब एक प्रतिष्ठित बच्चों के अस्पताल में मैं अपनी नवजात भांजी को अस्पताल दर अस्पताल घुमाते वहां पहुंचा तो जांच और भर्ती के नाम पर पैसे लिए गए और कुछ घंटे बाद बच्चे के लिए रूम खाली न होना बताकर हमें बच्चे को ले जाने कह दिया।उस पर उनकी होशियारी और कि उन्होंने अपने अस्पताल की फाईल भी वापस ले ली और रेफर करने वाले अस्पताल की फाईल वापस कर दी।निर्दयता की पराकाष्ठा ये रही कि उस बच्ची को दूसरे हास्पीटल में शिफ्ट करने के लिए एंबुलेंस भी नहीं दिया।जिस जांच के लिए चार हजार रू जमा कराए थे उसकी रिपोर्ट तीन दिन बाद मिलनी थी।वो पैसा भी खा गए।

छत्तीसगढ़ में स्वास्थ्य सेवा को मजबूत करने की जरूरत है।फोकट में दाल,नून,चावल की योजना से निकलने की जरूरत है।फ्री स्कीम ने लोगों को अकर्मण्य बना रखा है। गांव-गांव में घूमकर सरकार वस्तुस्थिति का पता लगाए तो पता चलेगा कि लोग चावल बेचकर दारू पीते घूम रहे हैं।सारी फालतू स्कीमें बंद की जानी चाहिए।बेवजह विज्ञापन पर पैसों की बर्बादी बंद हो।काम बोलता है।जब कोई अच्छा काम करता है तो उसे अपना प्रचार स्वयं नहीं करना पडता।लोग स्वमेव प्रचारित करते हैं।मेरी शासन से विनती है कि छत्तीसगढ़ राज्य को स्वास्थ्य सेवा के दृष्टिकोण से सिरमौर राज्य बनाने की पहल करे।आज भी हजारों लोग झोलाछाप डाक्टरों के प्रैक्टिस में प्राणों से हाथ धो रहे हैं।सरकारी अस्पतालों की उपेक्षा और निजी अस्पताल में इलाज के लिए पैसे की कमी उनको झोलाछाप डॉक्टरों का शरण लेने के लिए बाध्य करती है। गरीबों की मजबूरी को दिल से महसूस करें।

फिलहाल फोटो में बिलखती मां को देखकर मन उदास है और दिल घायल है.....

रविवार, 9 अगस्त 2020

भूलन बंद

 


हमारे आसपास में एक से बढ़कर एक चमत्कारिक घटनाओं की बातें हमेशा से होती रही है।कुछ अनोखी चीजों के बारे में सुनकर उसके बारे में जानने की उत्सुकता हमेशा रहती है। छत्तीसगढ़ के जंगलों में आयुर्वेदिक गुण वाले वनस्पतियां बहुतायत में मिलते हैं और कुछ रहस्यमयी वनस्पतियां और जीव जंतु भी।प्रकृति की कोख में अनगिनत रहस्य भरे पड़े हैं। छत्तीसगढ़ भी प्राकृतिक संपदा से भरपूर है और यहां भी कुछ अनूठे पेड़ पौधे आज भी मिलते हैं।अगर मैं कहूं कि एक जंगली पौधे के स्पर्श से आप दिग्भ्रमित हो जायेंगे तो इस पर सहसा यकीन करना मुश्किल लगता है।पर ऐसा देखने सुनने में आते ही रहता है।तोआज हम बात करेंगे छत्तीसगढ़ के ग्राम्य अंचलों के जंगलों में मिलने वाले एक रहस्यमयी और चमत्काारिक पौधे भूलन बंद के बारे में। 

छत्तीसगढ़ी में अवांछित ढंग से उगे पौधों और जंगली घास आदि को सामान्यतः बंद (खरपतवार)कहा जाता है।ऐसा ही एक चमत्कारी पौधा होता है भूलन बंद,जिस पर यदि किसी का पैर पड़ जाये तो वह मतिभ्रम का शिकार हो जाता है और रास्ता भूल जाता है।जो आदमी भूलन बंद के स्पर्श से रास्ता भूल जाता है वह उसी जगह पर ही दिनभर घूम घूमकर रह जाता है,पर उसे राह नहीं सूझता।दिनभर मैंने इसलिए कहा है क्योंकि ज्यादातर भूलन बंद वाले घटनाओं में बरदिहा(चरवाहे) लोगों ने ऐसे लोगों को रास्ता दिखाया है और वे शाम तक घर लौट जाते हैं। गांवों में चरवाहे पशुओं को जंगलों में चराने ले जाते हैं और दिनभर चराने के बाद गोधूलि बेला के पहले लौटने लगते हैं।तब लौटते समय ऐसे फंसे हुए लोगों को वही लोग लाते थे।कभी कभी तो उन लोगों को ढूंढने के लिए भी जाना पडता था।कुछ लोगों को मेरी ये बात कपोल कल्पना लग सकती है,पर है ये सोला आना सच!!मजे की बात ये है कि उस पौधे कोई भी पहचान नहीं सकता।जो आदमी भूलन बंद के कारण जिस जगह पर भटकता रहा हो,वह खुद भी नहीं बता सकता कि किस पौधे पर उसका पैर पडा था।भूलन बंद के कारण जंगल में भटकने वाले लोगों का अनुभव सुनना काफी मजेदार होता है।गांव में लोग लकड़ी आदि काटने के लिए जंगल जाते हैं और ऐसी घटनाएं यदा कदा घटती रहती है।

 भूलन बंद साहित्य सृजन का माध्यम भी बना है। छत्तीसगढ़ के साहित्यकार श्री संजीव बख्शी ने भूलन बंद(भूलन कांदा)के नाम से एक उपन्यास लिखा है जो काफी प्रसिद्ध है। छत्तीसगढ़ के फिल्मकार मनोज वर्मा ने इस कथानक पर फिल्म भी बनाई है जिसकी शूटिंग गरियाबंद अंचल में हुई है।इस फिल्म में गरियाबंद के थाने,भुंजिया जनजाति बाहुल्य ग्राम मौहाभाटा और रसेला के साप्ताहिक बाजार का फिल्मांकन किया गया है।रसेला के बाजार फिल्मांकन के समय मैं भी वहां मौजूद था।इस फिल्म की कहानी में भुंजिया जनजाति को आधार बनाकर पिरोया गया है। फिल्म के कलाकारों में छत्तीसगढ़ी सिनेमा के नामचीन कलाकार ओंकारदास मानिकपुरी,आशीष सेंदरे,हेमलाल कौशल,सेवकराम यादव,उपासना वैष्णव हैं।इस फिल्म को विभिन्न फिल्म समारोहों में पुरस्कृत भी किया गया है। बड़े पर्दे पर आज भी इस फिल्म का इंतजार है.....

बख्शीजी का उपन्यास तो अभी नहीं पढ़ पाया हूं तो कथावस्तु पर अधिक जानकारी नहीं दे पाउंगा।पर इस कहानी में गांव की सरल सामाजिक न्याय प्रणाली,सरल जीवन और गांव के आपसी प्रेम भाव का चित्रण है। उपन्यास बस्तर के एक छोटे से गांव नीचे गांव की कहानी है।गांव का नाम नीचे गांव इसलिए क्योंकि वो नीचे था।मतलब हम लोग जिस तरह बस्ती के पारा मोहल्ले को ऊपर पारा या खाल्हे(नीचे) पारा कहते हैं।इस गांव में एक बार दो ग्रामीणों भकला और बिज्जु के बीच झगड़  हो जाता है।इस झगडे के दौरान दुर्घटनावश बिज्जू की मौत हो जाती है।घटना की जानकारी तब गांव की पंचायत तक पहुंचती है।भकला के परिवार की दशा को देखते हुए पंचायत के मुखिया द्वारा गांव के एक नशेड़ी और बीमार आदमी गंजहा को इस मौत का इल्जाम अपने ऊपर लेने  के लिए तैयार किया जाता है।गंजहा को भी भकला की पत्नी में अपनी बेटी नजर आती है और वो इसके लिए तैयार हो जाता है।जेल जाने के बाद उसकी सेहत और आदतों में सुधार होने लगता है।भकला और उसकी पत्नी भी बेटी दामाद की तरह उससे नाते का निर्वहन करते हैं।फिर घटनाक्रम में मोड़ आता है और पुलिस को पता चल जाता है कि गंजहा निर्दोष है और आरोपी कोई और!फिर पूछताछ की लंबी प्रक्रिया चलती है जिसमें पूरे गांव को आरोपी बनाया जाता है।निश्छल गांववाले जेल भी खुशी खुशी जाते हैं। अंततः तमाम कानूनी पचड़े के बाद भकला को दस साल की सजा होती है और जब वो जेल से छूटता है तो पूरे गांव के लोग उसकी स्वागत में उमड़ पडते हैं।ये उपन्यास की कहानी का सार संक्षेप है।बख्शीजी के उपन्यास भूलन कांदा को पढने की इच्छा और प्रबल हो गई है,जब से मैंने इस कहानी का संक्षिप्त विवरण कहीं पर पढा है।तब तक आप सब अपने-अपने कार्य पर लगे रहें,ध्यान रहे भूलन बंद पर पैर ना पड़े मतलब आप इधर उधर की फालतू बातों में ना पड़ें।बाकि बातें अगले पोस्ट में तब तक राम...राम....



शुक्रवार, 7 अगस्त 2020

हमर छुरा

 छुरा नाम से सब परिचित होंगे। हालांकि ये नाम थोड़ा डराने वाला लगता है।जिसका शाब्दिक अर्थ होता है हजामत बनाने का औजार या बड़े फलवाला चाकू।चाकू-छुरा का सीधा संबंध खून खराबे से होता है। इसलिए छुरा को खतरनाक माना जाता है। इसका मुहावरे में प्रयोग और भी खतरनाक अर्थ देता है।छुरा घोंपना एक प्रचलित मुहावरा है जिसका प्रयोग विश्वासघात के संदर्भ में किया जाता है।खैर,हमारा छुरा ये वाला छुरा नहीं बल्कि एक छोटा सा कस्बा है,जो गरियाबंद जिले में स्थित है। छत्तीसगढ़ की प्रसिद्ध धार्मिक नगरी और तीर्थ राजिम से मात्र 45 किमी दूर।
   अब बात करते हैं इस नगर के नामकरण के बारे में। जनश्रुतियों के अनुसार ये नगर जमींदारों के जमाने में बिंद्रानवागढ जमींदारी के जमींदारों का मुख्यालय रहा है।बताया जाता है कि बिन्द्रानवागढ़ का जमींदार बूढादेव का अनन्य उपासक था।उनको बूढादेव ने उनकी उपासना से प्रसन्न होकर एक छुरी दिया था,और कहा कि इस छुरी को तुम फेंकना, जहां ये छुरी गिरेगा वहां तक तुम्हारी रियासत तक विस्तार होगा।उस समय तक नवागढ़ बिन्द्रानवागढ़ जमींदारी का केंद्र होता था।कहते हैं की उक्त छुरी जिस स्थान पर गिरा वहां तक उनकी जमींदारी का विस्तार हुआ है और छुरा नगर का नामकरण हुआ।ये मात्र एक जनश्रुति है जो बड़े बुजुर्ग बताते रहे हैं, इसकी ऐतिहासिकता और प्रमाणिकता की पुष्टि मैं नहीं करता।मुझे जो जानकारी थी, सो वो मैंने आपसे साझा किया।छुरा नगर और समूचा छुरा विकासखंड अपने आप में विशिष्ट है।छुरा नगर के पुराने महल के अवशेष अपने समय की गौरवशाली इतिहास को समेटे आज भी खड़े हैं।जन आस्था की प्रतीक शीतला माता यहां जागृत रूप में नगर के मध्य में विराजित हैं जिसके कारण यहां दुर्गोत्सव का आयोजन नहीं होता। शीतला मंदिर से कुछ ही दूरी पर मानस मंदिर है, जहां लगभग सन् 1960 से शुरू हुआ मानस यज्ञ का आयोजन अनवरत रूप से आज भी जारी है। जीर्ण-शीर्ण खड़ा महल अतीत की निशानी है।छुरा नगर में ब्रिटिशकालीन स्कूल आज भी मजबूती के साथ खड़ा है। हालांकि वक्त के साथ उसकी छत अब कवेलू वाला ना होकर पक्के सीमेंट की बना दी गई है। हालांकि इमारत की दरो दीवार और खिड़की दरवाजे आज भी पुराने वाले ही हैं।यहां थाने की स्थापना भी बहुत पहले ही हो चुकी थी।ये तो मुख्यालय की बातें हुई।अब समूचे छुरा क्षेत्र को देखें तो पांडुका का इलाका ऐतिहासिकता को समेटे हुए है। विकास खंड के अंतिम छोर पर स्थित कुटेना ग्राम में पैरी नदी के तट पर सिरकट्टी आश्रम हैं, जहां पुराने समय की सिरकटी प्रतिमाएं प्राप्त हुई हैं।पैरी नदी के तट पर अतीत में बंदरगाह होने का संकेत भी पुरातत्व विशेषज्ञों के द्वारा मिला है। संभावना जताई जा रही है कि पुराने जमाने में संभवतः नदी यातायात से व्यापार होता रहा होगा। प्रख्यात आध्यात्मिक गुरु महर्षि महेश योगी का जन्म भी पांडुका में हुआ था, जिन्होने नीदरलैंड को मुख्यालय बनाकर"राम" मुद्रा चलाई थी।उनके भावातीत ध्यान को अपनाने वाले अनेकों शिष्य देश विदेश में फैले हुए हैं। ऐसा माना जाता है कि पांडुका के समीप स्थित अतरमरा गांव में महर्षि अत्रि का आश्रम था और कुम्हरमरा ग्राम में श्रृषि कुंभज का आश्रम था।
   देवी तीर्थों के लिए भी छुरा विकास खंड प्रसिद्ध है। यहां सोरिद के समीप माता रमईपाट विराजित हैं, जहां सीताजी की एकमात्र गर्भवती स्वरूप वाली मूर्ति मिलने की बात बताई जाती है। यहां आम्र वृक्ष के जड़ से निरंतर जल धारा प्रवाहित होती है।
खोपलीपाट माता भी कुछ ही दूरी पर है, जहां प्रतिवर्ष विशाल भंडारे और मानस यज्ञ का आयोजन होता है।टेंगनही माता,जतमाई माता,घटारानी,रानी मां,जटयाई माता ख्यातिप्राप्त देवी तीर्थ है। विशेष रूप से घटारानी और जतमाई धाम मनमोहक प्राकृतिक सौंदर्य और झरने के कारण प्रदेश के पर्यटन मानचित्र पर तेजी से स्थापित हो रहा है।सल्फी के पेड़ बस्तर की पहचान है। जहां सल्फी का रस आदिवासियों का प्रिय पेड़ है। आमतौर पर ये वृक्ष छत्तीसगढ़ के अन्य क्षेत्रों में देखने को नहीं मिलता है।मगर छुरा ब्लाक के हीराबतर ग्राम में सल्फी के बहुत सारे पेड़ आप देख सकते हैं।
टोनहीडबरी ग्राम में स्थित स्वयंभू शिवलिंग भी प्रसिद्ध पर्यटन स्थल है।छुरा विकासखंड पड़ोसी राज्य ओडिशा की सीमा को स्पर्श करता है, इसलिए ओडिशा क्षेत्र वासियों का भी यहां आना-जाना लगा रहता है।छुरा के अंतिम गांव से ओडिशा की दूरी मात्र 3 किमी है। गरियाबंद जिले का एकमात्र निजी विश्वविद्यालय भी कोसमी छुरा में स्थापित है।
 छत्तीसगढ़ शासन द्वारा कमार और भुंजिया जनजाति को विशेष दर्जा दिया गया है।इनकी भी बडी संख्या विकासखंड में मौजूद है। विद्वतजन और कलाकारों की भी इस क्षेत्र में कमी नहीं है।बताते हैं कि संस्कृत महाविद्यालय रायपुर में प्रोफेसर रहे श्री सरयूकांत त्रिपाठी छुरा निवासी थे। राजनीति के क्षेत्र में यहां के राजा त्रिलोकशाह ने सन् 1967 में कांकेर लोकसभा का प्रतिनिधित्व सांसद के रूप में किया था। बिन्द्रानवागढ़ विधानसभा का प्रतिनिधित्व कुमार ओंकार शाह दो बार कर चुके हैं।गीत,संगीत और साहित्य के क्षेत्र में छुरा क्षेत्र अग्रणी रहा है। छत्तीसगढ़ के प्रख्यात लोकगायक मिथलेश साहू और साहित्यकार रामेश्वर वैष्णव,मेहतर राम साहू,नारायण लाल परमार का नाता भी छुरा के पांडुका ग्राम से रहा है।आशुकवि उधोराम झखमार को कौन भूला सकता है भला!!वे भी हमारे क्षेत्र की पहचान थे।छगपापुनि के लेखक मंडल में शामिल गजानन प्रसाद देवांगन भी छुरा से थे।कलाकारी के क्षेत्र में भी यहां के कलाकार अनेक लोककलामंचों के माध्यम से लोककलाओं के संवर्धन में लगे हैं।ग्राम कुडेरादादर निवासी पुकेश मानिकपुरी छत्तीसगढ़ के नामी लोकमंच"राग अनुराग" में संगीतकार हैं।वहीं के कामताप्रसाद छत्तीसगढ़ के मशहूर कीर्तनकार है ।पीपरहट्ठा मानस मंडली तो पूरे प्रदेश में विख्यात हो गई है। वर्तमान समय के छत्तीसगढी सिनेमा की तारिका मुस्कान साहू का संबंध भी छुरा से है,ये उनका ससुराल है।हास्य के लिए मशहूर और तेजी से उभरते यूट्यूबर अमलेश नागेश का गृहग्राम कामराज भी छुरा विकासखंड का हिस्सा है। स्वतंत्रता समर में भी इस क्षेत्र के कुछ लोगों का नाम उल्लेखनीय है जिनमें श्री लालदास, गोविंद राम,प्यारेलाल,पंचम और श्री गणेश राम जी का नाम 15अगस्त 1973 को स्थापित जय स्तंभ पर अंकित है।इस पर फिर कभी चर्चा करेंगे। वैसे देश के लिए बलिदान की परंपरा को क्षेत्र के शहीदों  ने बखूबी निभाया है।सोरिद,कोसमबुडा,भैंसामुडा और कामराज में स्थापित प्रतिमाएं उनके बलिदान की स्मृतियां हैं।कुछ अनूठे कलाकार भी छुरा में मौजूद हैं जैसे भोला सोनी। उन्होंने विश्व की सबसे छोटी लालटेन बनाई है,जो जलती है।इस उपलब्धि के लिए उनका नाम लिम्का बुक में दर्ज है।इसके अलावा छोटी तराजू और अपने ही रिकॉर्ड तोड़ने के लिए फिर से एक छोटी लालटेन का निर्माण कर रहे हैं।
और हां,एक समय में छुरा क्रिकेट प्रतियोगिता के आयोजन के लिए भी मशहूर था, जहां दूर दूर से खिलाड़ी अपने खेल का प्रदर्शन करने के लिए आते थे।अगली बार और कोई बात....
तब तक राम राम

सोमवार, 3 अगस्त 2020

रक्षाबंधन और फोमवाली राखी


समय कभी नहीं रूकता। वक्त का पंक्षी कब फुर्र से उड जाए पता ही नहीं चलता।बचपन का जमाना गुजरे 25 साल हो गए। लेकिन लगता है कि कुछ साल ही हुए हैं। उम्र और शरीर भले ही बढ़ गए लेकिन नादानी नहीं गई है।मेरी मूर्खतापूर्ण हरकतों का दौर अब भी जारी है। और ये मुझे ठीक भी लगता है।ज्यादा सयाना होना भी अच्छी बात नहीं है।
    आज रक्षाबंधन है,भाई बहन के पवित्र नाता का पर्व।बचपन में इस त्यौहार का बडी बेसब्री से इंतजार होता था।मेरे दृष्टिकोण से इसके दो कारण थे-पहला ये कि इस दिन खूब मिठाई खाने को मिलती थी और दूसरी एक से बढ़कर एक सुंदर राखियां पहनने को मिलती थी जिस पर पहनने के बाद एकमेव अधिकार होता था। रक्षाबंधन के दूसरे रोज जब स्कूल जाते थे तो खूब सारी राखियां बांधके जाते थे।अपने पास राखी कम पड़ती तो रौब जमाने के लिए घर के बड़े लोगों की राखियां भी अपनी कलाई पर बंधवा लेते थे।उस जमाने में जिसके कलाई में जितनी राखियां होती अपने हम उम्र साथियों के बीच अलग ही रौब(आज की भाषा में स्टेटस)होता था।राखी त्यौहार के तीसरे दिन हम राखियों का कत्लेआम किया करते थे।तब आज के जैसी डोर वाली राखी नहीं,बल्कि फोम और चमकीली पन्नियों वाली बड़ी बड़ी राखियां होती थी।जिसमें ओम्,स्वास्तिक,श्री,मेरे भैय्या और प्यारे भैया वाले बड़े खूबसूरत स्टीकर लगे होते थे।जरी वाली चमकीली राखियां भी होती थीं पर वो फोमवाली राखी की तुलना में हमारे लिए कम उपयोगी होती थी।
  फोमवाली राखियां हमारे लिए खजाने की तरह होती थीं। उसमें लगे फोम को निकालकर हम अपनी स्लेट साफ करते थे।चमकीली पन्नियों और स्टीकर से अपनी कापियां सजाते थे।कुछ कलाकार बंदे तो पोला के समय बैल को सजाने, गणेशोत्सव में गणेशजी की बैठक को सजाने और दशहरे के समय रामलीला की मुकुट तक इस फोम वाली राखी से बना लिया करते थे। बड़ी बड़ी फोमवाली राखियों की बात ही अलग थी। धीरे-धीरे ये चलन से बाहर होने लगी। हमारे बचपन और इन फोमवाली राखियों की बिदाई लगभग साथ साथ ही हुई।अब फोमवाली राखियों की जगह ऊन और रेशम की नग जडी राखियों ने ले ली है।पर इन राखियों में अब वो मजा नही,जो फोमवाली राखियों में हुआ करती थी।
बड़े खूबसूरत थे वो दिन
जब शकल ही नहीं,दिल भी खूबसूरत होता था।

दिन चारी मइहरवा में....सुरता स्व.मिथलेश सर के

  लोकगीतों की अपनी एक अलग मिठास होती है।बिना संगीत के भी लोकगीत मन मोह लेता है,और परंपरागत वाद्य यंत्रों की संगत हो जाए, फिर क्या कहने!! आज ...