आज एक बोर्ड लिखने के सिलसिले में एक अति व्यस्ततम मार्ग वाले रोड में जाना हुआ। उस रोड में एक नया भोजनालय खुला था उसका नाम वगैरह लिखना था। पहुंचकर मैंने अपना रंगों का पिटारा खोला और अपने काम में रम गया।कुछ देर बाद एक सज्जन आए और पूछा-आज मंदिर बंद है क्या? मैंने उसका मंतव्य समझकर हां में सर हिलाया।यही प्रश्न तीन घंटों के दरम्यान चार पांच लोगों ने पूछा और मैं सहमति में सर हिलाता रहा।
रविवार, 30 अगस्त 2020
मधुशाला
आज एक बोर्ड लिखने के सिलसिले में एक अति व्यस्ततम मार्ग वाले रोड में जाना हुआ। उस रोड में एक नया भोजनालय खुला था उसका नाम वगैरह लिखना था। पहुंचकर मैंने अपना रंगों का पिटारा खोला और अपने काम में रम गया।कुछ देर बाद एक सज्जन आए और पूछा-आज मंदिर बंद है क्या? मैंने उसका मंतव्य समझकर हां में सर हिलाया।यही प्रश्न तीन घंटों के दरम्यान चार पांच लोगों ने पूछा और मैं सहमति में सर हिलाता रहा।
मंगलवार, 25 अगस्त 2020
संवेदनहीनता
समाचार पत्र के खबर मुताबिक महासमुंद जिले अंतर्गत स्थित कछारडीह नाम के गांव से एक बच्चे को जिला अस्पताल में पोस्टमार्टम के लिए लाया गया था।उस बच्चे की जान एक झोलाछाप डॉक्टर के इलाज के कारण गई थी।मां पोस्टमार्टम के लिए इंतजार कर रही थी ताकि वो अपने जिगर के टुकड़े की लाश को ले जा सके पर सरकारी आयोजन के चलते डाक्टरों ने इस पर ध्यान नहीं दिया। समाचार पत्र के खबर अनुसार पुलिस का कहना था कि पंचनामा जल्दी हो गया था जबकि डाक्टरों का कहना था कि पंचनामा में देरी की वजह से पोस्टमार्टम नहीं हो पाया।अब कौन सच्चा है और कौन झूठा ये तो ईश्वर जानेगा।इस सच्चाई को समाचार पत्र तक लाने के लिए उस पत्रकार को मेरा नमन जो सरकारी चकाचौंध की चमक से नहीं चौंधियाया।
छत्तीसगढ़ में स्वास्थ्य सेवा जमीनी स्तर पर बदहाल है।चाहे सरकार अपनी पीठ जितना थपथपा ले। पूर्ववर्ती सरकार और वर्तमान सरकार का प्रयास कोई विशेष सराहनीय नहीं कहा जा सकता।हम आज भी एमपी वाले दौर में जी रहे हैं। सरकारी अस्पतालों में डाक्टरों और स्टाफ की कमी बदस्तूर जारी है।कोई भी शासन खाली पदों को भरने में दिलचस्पी ही नहीं दिखाता जबकि वांछित योग्यताधारी कितने ही बेरोजगार शासन की वेकैंसी के इंतजार में उम्र की सीमा पार कर रहे हैं।
पिछले दिनों ही मैं अपने स्थानीय सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र में गया था तो उस दिन मात्र एक नर्स ड्यूटी पर थी और मरीजों की संख्या के कारण परेशान हो रही थी।पूछने पर उसने बताया कि आधे कोविड संबंधित किसी प्रशिक्षण के लिए गये हैं।कुल मिलाकर ये ज्ञात हुआ कि स्वीकृति से कम पदों में कर्मचारी कार्यरत हैं और उस पर भी अस्पताल के अलावा अन्य और कई काम!! कर्मचारी करे तो करे क्या?शासन का आदेश शिरोधार्य करना सबसे ज्यादा जरूरी है।
ज्यादातर अस्पताल रेफर सेंटर बनकर रह गए हैं। प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र से खंड स्तरीय के लिए रेफर,खंड से जिला के लिए रेफर और अंत में प्रदेश के सबसे बड़े सरकारी अस्पताल के लिए रेफर!! जहां अगर आप राजनीतिक एप्रोच या निजी पहचान रखते हैं तो आप पर ध्यान दिया जा सकता हैं, नहीं तो तकलीफों की एक अनंत यात्रा के लिए तैयार रहें।अमूमन सारे सरकारी अस्पतालों में शौचालय से लेकर बिस्तर तक में गंदगी का आलम रहता है।मच्छर तमाम एशोएराम के साथ सरकारी खर्चे पर पलते लगते हैं। जहां उनको भरपूर मात्रा मे मरीज और उनके परिजनों से खून की खुराक मिलती है।इस व्यवस्था के लिए प्रशासन ही जिम्मेदार नहीं है पब्लिक को भी अपनी जिम्मेदारी समझनी चाहिए। सरकारी संपत्ति अपनी संपत्ति है ये वाक्य गंदगी फैलाने के संदर्भ में नहीं है।लोगों को शासन का सहयोग करना होगा तभी अस्पतालों से गंदगी दूर हो पाएगी।
डाक्टर और नर्स चाहे छोटा हो या बड़ा मरीजों के परिजनों से ऐसा बर्ताव करते हैं मानों उन्होंने उनका सुख चैन छिन रखा है।सेवा की भावना अस्पताल स्टाफ में गधे के सींग की तरह नदारद मिलता है।कम से कम मेरा अनुभव तो यही कहता है। इसमें अस्पताल स्टाफ की भी कोई गलती नहीं है।स्टाफ की तुलना में मरीजों की संख्या इतनी ज्यादा होती है कि उनमें चिड़चिड़ापन आना स्वाभाविक लगता है।देवतुल्य डाक्टर अब लाखों में सैकड़ों ही मिलेंगे।
बड़ दुख होता है जब कोई यातना भोगता परिवार अस्पताल दर अस्पताल चक्कर काटता डाक्टरों के पास पहुंचता है तो ज्यादातर मामलों में प्रेम का मरहम नहीं बल्कि फटकार का नमक रगडा जाता है उनकी दुखी आत्मा पर।लोग आखिर इंसान को इंसान क्यों नहीं समझते?हर आदमी जानकार नहीं हो सकता,हर परिवार पढा लिखा नहीं हो सकता तो क्या वो इंसान नहीं हैं?निजी अस्पताल तो आजकल कसाईखाने साबित हो रहें हैं जिनकी निर्दयता की खबरें यदा कदा समाचार पत्रों में छपती ही रहती है। मैं स्वयं भुक्तभोगी हूं जब एक प्रतिष्ठित बच्चों के अस्पताल में मैं अपनी नवजात भांजी को अस्पताल दर अस्पताल घुमाते वहां पहुंचा तो जांच और भर्ती के नाम पर पैसे लिए गए और कुछ घंटे बाद बच्चे के लिए रूम खाली न होना बताकर हमें बच्चे को ले जाने कह दिया।उस पर उनकी होशियारी और कि उन्होंने अपने अस्पताल की फाईल भी वापस ले ली और रेफर करने वाले अस्पताल की फाईल वापस कर दी।निर्दयता की पराकाष्ठा ये रही कि उस बच्ची को दूसरे हास्पीटल में शिफ्ट करने के लिए एंबुलेंस भी नहीं दिया।जिस जांच के लिए चार हजार रू जमा कराए थे उसकी रिपोर्ट तीन दिन बाद मिलनी थी।वो पैसा भी खा गए।
छत्तीसगढ़ में स्वास्थ्य सेवा को मजबूत करने की जरूरत है।फोकट में दाल,नून,चावल की योजना से निकलने की जरूरत है।फ्री स्कीम ने लोगों को अकर्मण्य बना रखा है। गांव-गांव में घूमकर सरकार वस्तुस्थिति का पता लगाए तो पता चलेगा कि लोग चावल बेचकर दारू पीते घूम रहे हैं।सारी फालतू स्कीमें बंद की जानी चाहिए।बेवजह विज्ञापन पर पैसों की बर्बादी बंद हो।काम बोलता है।जब कोई अच्छा काम करता है तो उसे अपना प्रचार स्वयं नहीं करना पडता।लोग स्वमेव प्रचारित करते हैं।मेरी शासन से विनती है कि छत्तीसगढ़ राज्य को स्वास्थ्य सेवा के दृष्टिकोण से सिरमौर राज्य बनाने की पहल करे।आज भी हजारों लोग झोलाछाप डाक्टरों के प्रैक्टिस में प्राणों से हाथ धो रहे हैं।सरकारी अस्पतालों की उपेक्षा और निजी अस्पताल में इलाज के लिए पैसे की कमी उनको झोलाछाप डॉक्टरों का शरण लेने के लिए बाध्य करती है। गरीबों की मजबूरी को दिल से महसूस करें।
फिलहाल फोटो में बिलखती मां को देखकर मन उदास है और दिल घायल है.....
रविवार, 9 अगस्त 2020
भूलन बंद
हमारे आसपास में एक से बढ़कर एक चमत्कारिक घटनाओं की बातें हमेशा से होती रही है।कुछ अनोखी चीजों के बारे में सुनकर उसके बारे में जानने की उत्सुकता हमेशा रहती है। छत्तीसगढ़ के जंगलों में आयुर्वेदिक गुण वाले वनस्पतियां बहुतायत में मिलते हैं और कुछ रहस्यमयी वनस्पतियां और जीव जंतु भी।प्रकृति की कोख में अनगिनत रहस्य भरे पड़े हैं। छत्तीसगढ़ भी प्राकृतिक संपदा से भरपूर है और यहां भी कुछ अनूठे पेड़ पौधे आज भी मिलते हैं।अगर मैं कहूं कि एक जंगली पौधे के स्पर्श से आप दिग्भ्रमित हो जायेंगे तो इस पर सहसा यकीन करना मुश्किल लगता है।पर ऐसा देखने सुनने में आते ही रहता है।तोआज हम बात करेंगे छत्तीसगढ़ के ग्राम्य अंचलों के जंगलों में मिलने वाले एक रहस्यमयी और चमत्काारिक पौधे भूलन बंद के बारे में।
छत्तीसगढ़ी में अवांछित ढंग से उगे पौधों और जंगली घास आदि को सामान्यतः बंद (खरपतवार)कहा जाता है।ऐसा ही एक चमत्कारी पौधा होता है भूलन बंद,जिस पर यदि किसी का पैर पड़ जाये तो वह मतिभ्रम का शिकार हो जाता है और रास्ता भूल जाता है।जो आदमी भूलन बंद के स्पर्श से रास्ता भूल जाता है वह उसी जगह पर ही दिनभर घूम घूमकर रह जाता है,पर उसे राह नहीं सूझता।दिनभर मैंने इसलिए कहा है क्योंकि ज्यादातर भूलन बंद वाले घटनाओं में बरदिहा(चरवाहे) लोगों ने ऐसे लोगों को रास्ता दिखाया है और वे शाम तक घर लौट जाते हैं। गांवों में चरवाहे पशुओं को जंगलों में चराने ले जाते हैं और दिनभर चराने के बाद गोधूलि बेला के पहले लौटने लगते हैं।तब लौटते समय ऐसे फंसे हुए लोगों को वही लोग लाते थे।कभी कभी तो उन लोगों को ढूंढने के लिए भी जाना पडता था।कुछ लोगों को मेरी ये बात कपोल कल्पना लग सकती है,पर है ये सोला आना सच!!मजे की बात ये है कि उस पौधे कोई भी पहचान नहीं सकता।जो आदमी भूलन बंद के कारण जिस जगह पर भटकता रहा हो,वह खुद भी नहीं बता सकता कि किस पौधे पर उसका पैर पडा था।भूलन बंद के कारण जंगल में भटकने वाले लोगों का अनुभव सुनना काफी मजेदार होता है।गांव में लोग लकड़ी आदि काटने के लिए जंगल जाते हैं और ऐसी घटनाएं यदा कदा घटती रहती है।
भूलन बंद साहित्य सृजन का माध्यम भी बना है। छत्तीसगढ़ के साहित्यकार श्री संजीव बख्शी ने भूलन बंद(भूलन कांदा)के नाम से एक उपन्यास लिखा है जो काफी प्रसिद्ध है। छत्तीसगढ़ के फिल्मकार मनोज वर्मा ने इस कथानक पर फिल्म भी बनाई है जिसकी शूटिंग गरियाबंद अंचल में हुई है।इस फिल्म में गरियाबंद के थाने,भुंजिया जनजाति बाहुल्य ग्राम मौहाभाटा और रसेला के साप्ताहिक बाजार का फिल्मांकन किया गया है।रसेला के बाजार फिल्मांकन के समय मैं भी वहां मौजूद था।इस फिल्म की कहानी में भुंजिया जनजाति को आधार बनाकर पिरोया गया है। फिल्म के कलाकारों में छत्तीसगढ़ी सिनेमा के नामचीन कलाकार ओंकारदास मानिकपुरी,आशीष सेंदरे,हेमलाल कौशल,सेवकराम यादव,उपासना वैष्णव हैं।इस फिल्म को विभिन्न फिल्म समारोहों में पुरस्कृत भी किया गया है। बड़े पर्दे पर आज भी इस फिल्म का इंतजार है.....
बख्शीजी का उपन्यास तो अभी नहीं पढ़ पाया हूं तो कथावस्तु पर अधिक जानकारी नहीं दे पाउंगा।पर इस कहानी में गांव की सरल सामाजिक न्याय प्रणाली,सरल जीवन और गांव के आपसी प्रेम भाव का चित्रण है। उपन्यास बस्तर के एक छोटे से गांव नीचे गांव की कहानी है।गांव का नाम नीचे गांव इसलिए क्योंकि वो नीचे था।मतलब हम लोग जिस तरह बस्ती के पारा मोहल्ले को ऊपर पारा या खाल्हे(नीचे) पारा कहते हैं।इस गांव में एक बार दो ग्रामीणों भकला और बिज्जु के बीच झगड़ हो जाता है।इस झगडे के दौरान दुर्घटनावश बिज्जू की मौत हो जाती है।घटना की जानकारी तब गांव की पंचायत तक पहुंचती है।भकला के परिवार की दशा को देखते हुए पंचायत के मुखिया द्वारा गांव के एक नशेड़ी और बीमार आदमी गंजहा को इस मौत का इल्जाम अपने ऊपर लेने के लिए तैयार किया जाता है।गंजहा को भी भकला की पत्नी में अपनी बेटी नजर आती है और वो इसके लिए तैयार हो जाता है।जेल जाने के बाद उसकी सेहत और आदतों में सुधार होने लगता है।भकला और उसकी पत्नी भी बेटी दामाद की तरह उससे नाते का निर्वहन करते हैं।फिर घटनाक्रम में मोड़ आता है और पुलिस को पता चल जाता है कि गंजहा निर्दोष है और आरोपी कोई और!फिर पूछताछ की लंबी प्रक्रिया चलती है जिसमें पूरे गांव को आरोपी बनाया जाता है।निश्छल गांववाले जेल भी खुशी खुशी जाते हैं। अंततः तमाम कानूनी पचड़े के बाद भकला को दस साल की सजा होती है और जब वो जेल से छूटता है तो पूरे गांव के लोग उसकी स्वागत में उमड़ पडते हैं।ये उपन्यास की कहानी का सार संक्षेप है।बख्शीजी के उपन्यास भूलन कांदा को पढने की इच्छा और प्रबल हो गई है,जब से मैंने इस कहानी का संक्षिप्त विवरण कहीं पर पढा है।तब तक आप सब अपने-अपने कार्य पर लगे रहें,ध्यान रहे भूलन बंद पर पैर ना पड़े मतलब आप इधर उधर की फालतू बातों में ना पड़ें।बाकि बातें अगले पोस्ट में तब तक राम...राम....
शुक्रवार, 7 अगस्त 2020
हमर छुरा
सोमवार, 3 अगस्त 2020
रक्षाबंधन और फोमवाली राखी
समय कभी नहीं रूकता। वक्त का पंक्षी कब फुर्र से उड जाए पता ही नहीं चलता।बचपन का जमाना गुजरे 25 साल हो गए। लेकिन लगता है कि कुछ साल ही हुए हैं। उम्र और शरीर भले ही बढ़ गए लेकिन नादानी नहीं गई है।मेरी मूर्खतापूर्ण हरकतों का दौर अब भी जारी है। और ये मुझे ठीक भी लगता है।ज्यादा सयाना होना भी अच्छी बात नहीं है।
आज रक्षाबंधन है,भाई बहन के पवित्र नाता का पर्व।बचपन में इस त्यौहार का बडी बेसब्री से इंतजार होता था।मेरे दृष्टिकोण से इसके दो कारण थे-पहला ये कि इस दिन खूब मिठाई खाने को मिलती थी और दूसरी एक से बढ़कर एक सुंदर राखियां पहनने को मिलती थी जिस पर पहनने के बाद एकमेव अधिकार होता था। रक्षाबंधन के दूसरे रोज जब स्कूल जाते थे तो खूब सारी राखियां बांधके जाते थे।अपने पास राखी कम पड़ती तो रौब जमाने के लिए घर के बड़े लोगों की राखियां भी अपनी कलाई पर बंधवा लेते थे।उस जमाने में जिसके कलाई में जितनी राखियां होती अपने हम उम्र साथियों के बीच अलग ही रौब(आज की भाषा में स्टेटस)होता था।राखी त्यौहार के तीसरे दिन हम राखियों का कत्लेआम किया करते थे।तब आज के जैसी डोर वाली राखी नहीं,बल्कि फोम और चमकीली पन्नियों वाली बड़ी बड़ी राखियां होती थी।जिसमें ओम्,स्वास्तिक,श्री,मेरे भैय्या और प्यारे भैया वाले बड़े खूबसूरत स्टीकर लगे होते थे।जरी वाली चमकीली राखियां भी होती थीं पर वो फोमवाली राखी की तुलना में हमारे लिए कम उपयोगी होती थी।
फोमवाली राखियां हमारे लिए खजाने की तरह होती थीं। उसमें लगे फोम को निकालकर हम अपनी स्लेट साफ करते थे।चमकीली पन्नियों और स्टीकर से अपनी कापियां सजाते थे।कुछ कलाकार बंदे तो पोला के समय बैल को सजाने, गणेशोत्सव में गणेशजी की बैठक को सजाने और दशहरे के समय रामलीला की मुकुट तक इस फोम वाली राखी से बना लिया करते थे। बड़ी बड़ी फोमवाली राखियों की बात ही अलग थी। धीरे-धीरे ये चलन से बाहर होने लगी। हमारे बचपन और इन फोमवाली राखियों की बिदाई लगभग साथ साथ ही हुई।अब फोमवाली राखियों की जगह ऊन और रेशम की नग जडी राखियों ने ले ली है।पर इन राखियों में अब वो मजा नही,जो फोमवाली राखियों में हुआ करती थी।
बड़े खूबसूरत थे वो दिन
जब शकल ही नहीं,दिल भी खूबसूरत होता था।
दिन चारी मइहरवा में....सुरता स्व.मिथलेश सर के
लोकगीतों की अपनी एक अलग मिठास होती है।बिना संगीत के भी लोकगीत मन मोह लेता है,और परंपरागत वाद्य यंत्रों की संगत हो जाए, फिर क्या कहने!! आज ...

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जैसा कि मैंने पिछले पोस्ट में बताया था कि छत्तीसगढ़ से निकलते निकलते ही शाम ढलने लगा था। लगभग सवा 7 बजे के आसपास हम लोग खरियार रोड पहुंचे।ख...
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जय जगन्नाथ!!! कल विश्व पर्यटन दिवस था।ये पोस्ट मैं कल ही डालने वाला था लेकिन कुछ कारण से नहीं हो पाया। पर्यटन का मतलब होता है घूमना।नये नये...
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कल सवेरे एक मित्र के वाट्सएप स्टेटस में एक खबर देखकर बहुत खुशी हुई।खबर थी हमारे क्षेत्र के 2 नौनिहालों के एमबीबीएस के लिए चयनित होने का।खबर...