मंगलवार, 25 अगस्त 2020

संवेदनहीनता

 पिछले कुछ दिनों से व्यस्तता इतनी अधिक रही की चाहकर भी कुछ नहीं लिख पाया।पर आज समाचार पत्र में छपे एक खबर ने तमाम व्यस्तता के बाद भी लिखने के लिए मजबूर कर दिया।खबर महासमुंद जिले से है जहां संसदीय सचिव की मौजूदगी में कोरोना वारियर्स का सम्मान कार्यक्रम आयोजित था और कार्यक्रम चल रहा था जबकि उसी जगह से कुछ दूरी पर एक मां अपने बच्चे की लाश को ले जाने के लिए तड़प रही थी,आंसू बहा रही थी।

समाचार पत्र के खबर मुताबिक महासमुंद जिले अंतर्गत स्थित कछारडीह नाम के गांव से एक बच्चे को जिला अस्पताल में पोस्टमार्टम के लिए लाया गया था।उस बच्चे की जान एक झोलाछाप डॉक्टर के इलाज के कारण गई थी।मां पोस्टमार्टम के लिए इंतजार कर रही थी ताकि वो अपने जिगर के टुकड़े की लाश को ले जा सके पर सरकारी आयोजन के चलते डाक्टरों ने इस पर ध्यान नहीं दिया। समाचार पत्र के खबर अनुसार पुलिस का कहना था कि पंचनामा जल्दी हो गया था जबकि डाक्टरों का कहना था कि पंचनामा में देरी की वजह से पोस्टमार्टम नहीं हो पाया।अब कौन सच्चा है और कौन झूठा ये तो  ईश्वर जानेगा।इस सच्चाई को समाचार पत्र तक लाने के लिए उस पत्रकार को मेरा नमन जो सरकारी चकाचौंध की चमक से नहीं चौंधियाया।

 छत्तीसगढ़ में स्वास्थ्य सेवा जमीनी स्तर पर बदहाल है।चाहे सरकार अपनी पीठ जितना थपथपा ले। पूर्ववर्ती सरकार और वर्तमान सरकार का प्रयास कोई विशेष सराहनीय नहीं कहा जा सकता।हम आज भी एमपी वाले दौर में जी रहे हैं। सरकारी अस्पतालों में डाक्टरों और स्टाफ की कमी बदस्तूर जारी है।कोई भी शासन खाली पदों को भरने में दिलचस्पी ही नहीं दिखाता जबकि वांछित योग्यताधारी कितने ही बेरोजगार शासन की वेकैंसी के इंतजार में उम्र की सीमा पार कर रहे हैं।

पिछले दिनों ही मैं अपने स्थानीय सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र में गया था तो उस दिन मात्र एक नर्स ड्यूटी पर थी और मरीजों की संख्या के कारण परेशान हो रही थी।पूछने पर उसने बताया कि आधे कोविड संबंधित किसी प्रशिक्षण के लिए गये हैं।कुल मिलाकर ये ज्ञात हुआ कि स्वीकृति से कम पदों में कर्मचारी कार्यरत हैं और उस पर भी अस्पताल के अलावा अन्य और कई काम!! कर्मचारी करे तो करे क्या?शासन का आदेश शिरोधार्य करना सबसे ज्यादा जरूरी है।

ज्यादातर अस्पताल रेफर सेंटर बनकर रह गए हैं। प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र से खंड स्तरीय के लिए रेफर,खंड से जिला के लिए रेफर और अंत में प्रदेश के सबसे बड़े सरकारी अस्पताल के लिए रेफर!! जहां अगर आप राजनीतिक एप्रोच या निजी पहचान रखते हैं तो आप पर ध्यान दिया जा सकता हैं, नहीं तो तकलीफों की एक अनंत यात्रा के लिए तैयार रहें।अमूमन सारे सरकारी अस्पतालों में शौचालय से लेकर बिस्तर तक में गंदगी का आलम रहता है।मच्छर तमाम एशोएराम के साथ सरकारी खर्चे पर पलते लगते हैं। जहां उनको भरपूर मात्रा मे मरीज और उनके परिजनों  से खून की खुराक मिलती है।इस व्यवस्था के लिए प्रशासन ही जिम्मेदार  नहीं है पब्लिक को भी अपनी जिम्मेदारी समझनी चाहिए। सरकारी संपत्ति अपनी संपत्ति है ये वाक्य गंदगी फैलाने के संदर्भ में नहीं है।लोगों को शासन का सहयोग करना होगा तभी अस्पतालों से गंदगी दूर हो पाएगी।

डाक्टर और नर्स चाहे छोटा हो या बड़ा मरीजों के परिजनों से ऐसा बर्ताव करते हैं मानों उन्होंने उनका सुख चैन छिन रखा है।सेवा की भावना अस्पताल स्टाफ में गधे के सींग की तरह नदारद मिलता है।कम से कम मेरा अनुभव तो यही कहता है। इसमें अस्पताल स्टाफ की भी कोई गलती नहीं है।स्टाफ की तुलना में मरीजों की संख्या इतनी ज्यादा होती है कि उनमें चिड़चिड़ापन आना स्वाभाविक लगता है।देवतुल्य डाक्टर अब लाखों में सैकड़ों ही मिलेंगे।

बड़ दुख होता है जब कोई यातना भोगता परिवार अस्पताल दर अस्पताल चक्कर काटता डाक्टरों के पास पहुंचता है तो ज्यादातर मामलों में प्रेम का मरहम नहीं बल्कि फटकार का नमक रगडा जाता है उनकी दुखी आत्मा पर।लोग आखिर इंसान को इंसान क्यों नहीं समझते?हर आदमी जानकार नहीं हो सकता,हर परिवार पढा लिखा नहीं हो सकता तो क्या वो इंसान नहीं हैं?निजी अस्पताल तो आजकल कसाईखाने साबित हो रहें हैं जिनकी निर्दयता की खबरें यदा कदा समाचार पत्रों में छपती ही रहती है। मैं स्वयं भुक्तभोगी हूं जब एक प्रतिष्ठित बच्चों के अस्पताल में मैं अपनी नवजात भांजी को अस्पताल दर अस्पताल घुमाते वहां पहुंचा तो जांच और भर्ती के नाम पर पैसे लिए गए और कुछ घंटे बाद बच्चे के लिए रूम खाली न होना बताकर हमें बच्चे को ले जाने कह दिया।उस पर उनकी होशियारी और कि उन्होंने अपने अस्पताल की फाईल भी वापस ले ली और रेफर करने वाले अस्पताल की फाईल वापस कर दी।निर्दयता की पराकाष्ठा ये रही कि उस बच्ची को दूसरे हास्पीटल में शिफ्ट करने के लिए एंबुलेंस भी नहीं दिया।जिस जांच के लिए चार हजार रू जमा कराए थे उसकी रिपोर्ट तीन दिन बाद मिलनी थी।वो पैसा भी खा गए।

छत्तीसगढ़ में स्वास्थ्य सेवा को मजबूत करने की जरूरत है।फोकट में दाल,नून,चावल की योजना से निकलने की जरूरत है।फ्री स्कीम ने लोगों को अकर्मण्य बना रखा है। गांव-गांव में घूमकर सरकार वस्तुस्थिति का पता लगाए तो पता चलेगा कि लोग चावल बेचकर दारू पीते घूम रहे हैं।सारी फालतू स्कीमें बंद की जानी चाहिए।बेवजह विज्ञापन पर पैसों की बर्बादी बंद हो।काम बोलता है।जब कोई अच्छा काम करता है तो उसे अपना प्रचार स्वयं नहीं करना पडता।लोग स्वमेव प्रचारित करते हैं।मेरी शासन से विनती है कि छत्तीसगढ़ राज्य को स्वास्थ्य सेवा के दृष्टिकोण से सिरमौर राज्य बनाने की पहल करे।आज भी हजारों लोग झोलाछाप डाक्टरों के प्रैक्टिस में प्राणों से हाथ धो रहे हैं।सरकारी अस्पतालों की उपेक्षा और निजी अस्पताल में इलाज के लिए पैसे की कमी उनको झोलाछाप डॉक्टरों का शरण लेने के लिए बाध्य करती है। गरीबों की मजबूरी को दिल से महसूस करें।

फिलहाल फोटो में बिलखती मां को देखकर मन उदास है और दिल घायल है.....

दिन चारी मइहरवा में....सुरता स्व.मिथलेश सर के

  लोकगीतों की अपनी एक अलग मिठास होती है।बिना संगीत के भी लोकगीत मन मोह लेता है,और परंपरागत वाद्य यंत्रों की संगत हो जाए, फिर क्या कहने!! आज ...