गुरुवार, 24 सितंबर 2020

दईहान...एक लुप्त होती परंपरा

 

छत्तीसगढ़ में गौ-पालन की समृद्ध परंपरा रही है।पहले गांवों में प्राय:प्राय: हर घर में गाय रखी जाती थी और घर में अनिवार्यतः कोठा(गौशाला)भी हुआ करती थी।अब घर से गौशाला गायब है और गौशाला के स्थान पर गाड़ी रखने का शेड बना मिलता है; जहां गाय की जगह मोटरसाइकिल या कार खड़ी होती है।

   गांवों में पशुओं को चराने के लिए बरदिहा(चरवाहा या ग्वाला)रखा जाता है।गांव वाले उनको सालभर के लिए इस कार्य के लिए नियुक्त करते हैं और पशुओं की संख्या के आधार पर मेहनताना अनाज के रूप में देते है। छत्तीसगढ़ धान का कटोरा कहा जाता है तो पहले भी उनको धान दिया जाता था और आज भी धान ही दिया जाता है।

गांवों में पशु चराने का कार्य प्राय: यदुवंशी ही करते हैैं।जो बड़े सवेरे हांक पारकर(उंची आवाज लगाकर) पशुओं को चराने के लिए गौशाला से खोलने का संदेश देते हैं।फिर गली से गौठान तक पशुओं को पहुंचाने का क्रम चल पड़ता है।कुछ अनूठे नियम भी देखने को मिलता है गांवों में।जैसे गांवों में दूध दुहने के लिए लगे चरवाहे(ग्वाले) को हर तीन या चार दिन के बाद पूरा दूध ले जाने का अधिकार होता है।इसे बरवाही कहा जाता है। सामान्यतः गाय का बरवाही हर तीन बाद और भैंस का बरवाही चौथे दिवस होता है।बरवाही के दिन के दूध को बरदिहा स्वयं उपयोग करने या पशु मालिक या अन्य किसी को बेचने के लिए स्वतंत्र होता है।प्रात:काल पहट में जब बरदिहा (चरवाहा) गले में नोई(गाय के पूंछ के बाल से बनी रस्सी)को लटकाकर गली में निकलता है तो उसका ठाठ ही अलग होता है।भोर(पहट) से ही उसका कार्य आरंभ हो जाता है, इसलिए बरदिहा को पहटिया भी कहा जाता है। छत्तीसगढ़ के लोकप्रिय कवि मीर अली मीर ने पहटिया का बड़ा सुंदर चित्रण अपनी कविता में किया है-

होत बिहनिया पथरा के आगी

टेडगा हे चोंगी,टेडगा हे पागी

नोई धरे जस,गर कस माला

धरे कसेली,दउंडत हे ग्वाला।

 तो ऐसी सुंदर परंपरा छत्तीसगढ़ के गांवों में पहले भी रही है और आज भी जारी है।ये तो हुई छोटे किसानों और उनके पशुधन की बात!! लेकिन, गांवों में कुछ बड़े किसान जिन्हें गांवों में सामान्यतः दाऊ या गउंटिया की संज्ञा दी जाती है।उनके पास पशुधन कुछ ज्यादा ही संख्या में हुआ करती थी जिनको गांव के चरवाहे गांव के अन्य पशुओं के साथ चराने में असमर्थ होते थे क्यूंकि गांवों के आसपास मैदानी इलाकों में पर्याप्त चारागाह नहीं होते थे।तब मैदानी इलाके के ऐसे बड़े किसान या दाऊ अपना अलग चरवाहा लगाकर अपने पशुओं को जंगली क्षेत्रों में चराने के लिए भेज देते थे।जहां उनके द्वारा नियुक्त चरवाहा सालभर तक पशुओं की देखभाल किया करता था।

इन लोगों को उनका मेहनताना अनाज के रूप में मिलता था। बरसात के पूर्व आषाढ़ के महीने से जंगली या पहाड़ी क्षेत्रों में अस्थायी निवास बनाकर ये चरवाहे पशु चारण का कार्य करते थे।अमूमन दईहान बसाहट के आसपास ही रखी जाती थी ताकि दैनिक जरूरतों की सामग्री मिल सके और किसी विपरीत परिस्थिति में सहायता मिल सके। लेकिन ये बस्ती के एकदम आसपास नहीं होते थे।साथ ही इनका निवास बदलते रहता था ताकि पशुओं को चारा मिलता रहे। इस प्रकार के पशु चारण और देखभाल की प्रक्रिया को दईहान कहा जाता था।इस दौरान पशुओं से प्राप्त उत्पाद का मालिक वह स्वयं होता था जबकि पशु मालिक को प्रति पशुसंख्या के आधार पर एक काठा घी सालाना देने की परंपरा थी।ये उस दौर की बातें हैं जब आवागमन और रोशनी के साधन नहीं होते थे। मनोरंजन के लिए भगवान कृष्ण की सहचरी रही बांसुरी का ही सहारा होता था।अगर दईहान चराने वाले समूह में से कोई बांस(एक प्रकार बांसुरी जैसा लंबा वाद्ययंत्र) बजा लेता तो लोककथा के साथ बांसगीत  गाकर अपना मनोरंजन कर लेते थे।कुल जमा दईहान का मतलब होता था न्यूनतम आवश्यकता के साथ जीना।

जंगल में खूंखार वन्य प्राणियों के बीच रहकर स्वयं और अपने पशुधन की सुरक्षा मामूली काम नहीं था।तेंदू की लाठी,टंगिया,हंसिया और मशाल ही उनके सुरक्षा के हथियार थे। मिट्टी तेल की ढिबरी का ऊजाला और अंगेठा(अलाव)का ही सहारा होता था।जंगल में प्राप्त उत्पाद का कोई क्रेता भी नहीं होता था इसलिए दईहान में रहने वाले व्यक्ति के परिजन या दईहान का कोई व्यक्ति ही हफ्ते या पंद्रह दिनों के अंतर में दही और घी को लेकर आता था।दईहान में अकेला व्यक्ति नहीं होता था बल्कि तीन से पांच लोग रहते थे।दूध और दहीको लंबे समय तक सुरक्षित नहीं रखा जा सकता था, इसलिए घी बनाना ही ज्यादा श्रेयस्कर होता था।मेरे कुछ परिजन दईहान में रह चुके हैं।तो उनके मुंह से दईहान की बातें सुनना रोचक होता था।

वे बताते है कि घी को मिट्टी के हंडियों में महिलाएं सिर में ढोकर या पुरूष कांवड़ में लेकर पैदल ही दईहान से निवास तक की दूरी तय करते थे।ढलान वाली पहाड़ी से मिट्टी के बर्तनों में घी लेकर उतरना बहुत जोखिम भरा काम होता था।ढलान पर गति नियंत्रित करना मुश्किल होता था और उस पर मिट्टी के बर्तनों में भरे घी को चट्टानों या पेड़ों की टकराहट से बचाकर सुरक्षित लाना बहुत कठिन काम होता था।जरा सा चूके नहीं कि हफ्ते महीने भर  की मेहनत मिट्टी में मिल जाती थी।

दईहान का मातर पर्व बडा प्रसिद्ध होता था।इस दिन पशु मालिक अपने चरवाहे के लिए भेंट सामग्री और मातर मनाने के लिए आवश्यक चीजें लेकर जाता था और उस दिन पशुधन को खीचडी खिलाई जाती थी और मातर का पर्व धूम-धाम से मनाया जाता था।दफड़ा और मोहरी के बाजा के साथ दोहा पारता चरवाहे के मुख से निकल पड़ता-

भंइस कहंव भूरी रे भइया,खूंदे खांदे नइ खाय।

बघवा चितवा के माड़ा मा,सींग अड़ावत जाय।।

मातर देखने के लिए आसपास के ग्रामीण उमड़ पड़ते थे और उनको प्रसाद स्वरूप दूध,दही और छाछ पीने के लिए दिया जाता था।

दईहान में किसी हिंसक प्राणी के द्वारा पशुधन की हानि होने पर मालिकों से डांट पड़ती थी सो अलग। लेकिन पेट की भूख आदमी को सब बर्दाश्त करना सीखा देती है। अपने बाल बच्चों और परिवार से दूर रहने की पीड़ा अलग।मेरे दादा एक किस्सा बताते थे कि उनके दादाजी फिंगेश्वर के राजा के पशुओं को दईहान में चराते थे।वे चार भाई थे।एक बार वे रानी को बताने गए कि दईहान में इतने पशुओं को हिंसक जानवर खा गए।तब रानी ने उनको तुनकते हुए ताना मारा-हमारे बहुत सारे पशु मर गए और तुम चार के चार जस के तस हो,कोई नहीं मरा!!ये बात उनको चुभ गई और उन्होंने वहीं आत्महत्या कर ली। स्वाभिमानी लोगों के साथ यही होता है।ये मैंने बचपन में अपने दादा के मुख से सुना था।

वैसे दईहान की पृष्ठभूमि पर छत्तीसगढ़ के मशहूर निर्माता-निर्देशक भूपेंद्र साहू ने एक फिल्म भी बनाई है-दईहान।दईहान को केंद्र बिंदु बनाकर एक प्रेमकथा को बुना गया है शायद।फिल्म में छत्तीसगढ़ी संस्कृति की झलक फिल्म के गीतों मे दिखाई देती है।ये फिल्म फरवरी2020 में प्रदर्शित हुई थी। मैंने अभी तक ये फिल्म देखी नहीं है,पर इनके गीत यूट्यूब पर देखा है।सभी गीत बेहतरीन और कर्णप्रिय है।जरूर देखें ...लिंक ये रहा

https://youtu.be/1cmtLY88T1Y

मिलेंगे फिर किसी नई जानकारी के साथ अगले पोस्ट में...तब तक राम राम

बुधवार, 23 सितंबर 2020

कचनाधुरवा गाथा-5


 मेरे खयाल से ये वीर कचनाधुरवा कड़ी का पांचवां और अंतिम भाग होना चाहिए,पर आगे कोई और नई जानकारी प्राप्त हुई तो इस गाथा की और अगली कड़ी आने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता।इस गाथा के लिए नई  जानकारी जुटाने के लिए मैंने गूगल को इतनी बार खंगाला है कि अब जैसे ही मैं कचनाधुरवा टाईप करता हूं।बारीक से बारीक जानकारी गूगल बाबा मुझे सौंप देता है और कहता है ले मेरे बाप!!मेरे पास जो है वो देख ले,और अपने मतलब की चीज ले ले।ऐसा हाल हो गया है।इसी खोजबीन के दौरान मुझे ब्रिटिश मानवशास्त्री वैरियर एल्विन लिखित किताब का एक वेब पेज मिला। इसमें मुझे फिर से एक नई कहानी मिली।किताब का नाम है"जनजातीय मिथक-उडिया आदिवासियों की कहानियां"।

इस किताब के अंश में कमार कहानी अंतर्गत धुरवा राजा का जिक्र आया है।धुरवा राजा मतलब कचना धुरवा। इसमें उन्होंने इतिहासज्ञ रसेल और हीरालाल के हवाले से बताया है कि कमार गोंड जनजाति की ही एक उपजाति है और वीर कचनाधुरवा भी उसी वंश से थे।इस संबंध में एक कहानी है कि किसी समय बहुत से कमारों ने मिलकर एक बार भीमराज नामक पक्षी को मार दिया।वह पक्षी दिल्ली से आए किसी विदेशी नागरिक का था।उस विदेशी ने कमारों से उसकी पक्षी को मारने के कारण मुआवजे की मांग की।उसकी मांग को कमारों ने मानने से इंकार कर दिया।तब वह विदेशी दिल्ली गया और वहां से बहुत सारे नरभक्षी सैनिकों को ले आया।उन नरभक्षी सैनिकों ने एक कमार गर्भवती स्त्री को छोड़कर शेष सारे कमारों का भक्षण कर लिया।तब वह स्त्री भागकर पटना चली गई। जहां उसने एक बालक को जन्म दिया।उस बालक में अद्भुत दैवीय शक्तियां थी।एक बार उसने लोहे से बने बकरे का सिर डंडे से काट डाला था।उस वीर बालक का नाम कचनाधुरवा था।उसने अपने आदिवासी जनों को इकट्ठा किया और नरभक्षी सैनिकों को मारकर अपना राज्य स्थापित किया।

है ना अनूठी कहानी!!अभी तक कचनाधुरवा को हम गोंड राजा मानते आए हैं जबकि यहां उसे कमार जनजाति का बताया गया है। जनजातीय कहानियां लिखित तो होती नहीं,ये वाचिक हुआ करती है।एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक इन कहानियों के संप्रेषण के दौरान उसमें बहुत से बदलाव हो जाते हैं।कई मूल बातें छूट जाती है तो कई नवीन तथ्य जुड़ जाते हैं।मुझे ये सिर्फ एक जनश्रुति लगती है जिसकी प्रामाणिकता पर संदेह है। दिल्ली से नरभक्षी सैनिकों को बुलाने वाली बात गले नहीं उतरती है। वैसे ये कहानी इस किताब के पृष्ठ क्रमांक 27 में अंकित है।मेरा मनगढ़ंत या बनाया हुआ नहीं है।

 अब बात करते हैं इस किताब के लेखक वैरियर एल्विन की जो एक मानवशास्त्री था।उनका पूरा नाम हैरी वैरियर हालमन एल्विन था।वह एक ब्रिटिश मिशनरी के रूप में सन् 1927 में भारत आया और पुणे के क्रिश्चियन सोसायटी से जुड़ गया।वह इसाई धर्म के प्रचार के उद्देश्य से भारत आया था मगर गांधीजी और टैगोर के विचारों ने उसका नजरिया बदल दिया।वह अपना मिशन भूलकर मध्य भारत के आदिवासियों के बीच रहकर उनके जीवन-शैली का अध्ययन करने लगा और इसमें अपना पूरा जीवन लगा दिया।बस्तर के ऊपर भी उसने बहुत सी किताबें लिखी हैं।सन् 1961 में उनको भारत सरकार द्वारा पद्मभूषण से सम्मानित किया गया था।उसने एक आदिवासी महिला से विवाह भी किया था।

खैर,इस विषय पर मेरे एक मार्गदर्शक बड़े भैय्या ने उपन्यास लिखने का सलाह दिया है और कुछ अभिन्न मित्रों ने भी ऐसा ही कहा है।मां शारदे की कृपा,वीर कचना धुरवा का आशीष और आप लोगों का सहयोग रहा तो भविष्य में ये भी संभव हो सकता है।

मिलेंगे फिर अगले पोस्ट में तब तक घर पर रहें,सुरक्षित रहे,स्वस्थ रहें

मंगलवार, 22 सितंबर 2020

इतिहास यात्रा...बिंद्रानवागढ जमींदारी

बीता हुआ समय मतलब इतिहास!!! जिसमें छुपा होता है ढेरों रहस्यमय कहानियां,किस्से,अतीत का वैभव और जानकारियां।मेरा मानना है कि इतिहास भविष्य के लिए धरोहर होता है,जो सदैव मार्गदर्शन और सीख देती है। इतिहास और कला संस्कृति की बातें मुझे सदैव आकृष्ट करती रही है। वर्तमान के साथ साथ मुझे पुरानी यादों के गलियारों में घूमना कुछ ज्यादा ही पसंद है।लाकडाउन के इस समय ने मुझे पर्याप्त समय दिया है इतिहास में विचरण करने का;और मैं अकेला कहां घूम रहा हूं??संग संग आप सबको भी तो घुमा रहा हूं। बचपन में मैंने स्कूली किताबों में भारतीय इतिहास को कभी शौक से,कभी अनमने ढंग से तो कभी सिर्फ परीक्षा पास करने के उद्देश्य से पढ़ा है।अब जबकि जिंदगी का आधा हिस्सा गुजर चुका है,अपने स्थानीय इतिहास के बारे में भी जानने की ललक बढ़ गई है।पर अफसोस!जो जानकार थे वो रहे नहीं,जिनसे जानकारी की उम्मीद रखो वो रूचि नहीं लेते और एक बड़ी संख्या तो एक लाईन में कुछ भी चर्चा से मना करने वालों की है।लेकिन कहते हैं ना कि सच्चे मन से किया गया प्रयास कभी निष्फल नहीं होता,सो कोशिश रंग लाती है और कामयाबी कदम चूमती है, बशर्ते आप थके नहीं।आप प्रयास का एक कदम रखेंगे तो आगे कहीं ना कहीं आगे का रास्ता अपने आप सूझने लगता है। फिल्म ओम् शांति ओम् के डायलॉग की तरह..."जब आप किसी चीज को शिद्दत से चाहो तो पूरी कायनात उससे आपको मिलाने में लग जाती है।"

  मैं अभी वीर कचनाधुरवा के बारे में जानकारी संग्रहण में लगा हूं तो बार-बार नवागढ़ जमींदारी का जिक्र आता है।इस जमींदारी के उल्लेख बिना किसी भी कहानी का अंत ही नहीं होता।तो सोचा कि चलो आपको इस जमींदारी के बारे में ही जानकारी दे दूं।तो चलें.... इतिहास के सफर पर..

    बिंद्रानवागढ जमींदारी का इतिहास शुरु होता है लांजीगढ के राजकुमार सिंघलशाह के छुरा में आकर बसने से।तब यहां भुंजिया जाति के एक राजा चिंडा भुंजिया का शासन था। यहां की जमींदारी मरदा जमींदारी कहलाती थी। राजकुमार सिंघलशाह चूंकि एक राजपुत्र था इसलिए उसके छुरा में आकर बसने से चिंडा भुंजिया को अपना साम्राज्य छिन जाने का भय हुआ इसलिए उसने युक्तिपूर्वक एक दिन राजकुमार को भोजन के लिए आमंत्रित किया और उसको धोखे से विष दे दिया। राजकुमार सिंघलशाह की मृत्यु हो गई।जब इस घटना की जानकारी उसकी पत्नी को हुई तो वह अपने गर्भस्थ शिशु की प्राण रक्षा के लिए ओडिशा के पटनागढ राज्य में चली गई। वहां एक ब्राम्हण के यहां आश्रय लिया और अपनी पहचान छुपाकर रहने लगी।ब्राम्हण ने रानी को असहाय गर्भवती नारी समझकर उसको पुत्रीवत् स्नेह दिया और उसका लालन पालन करने लगा।समय आने पर रानी ने एक परम तेजस्वी बालक को जन्म दिया।जिसका नाम रखा गया-कचना धुरवा।तब पटनागढ में राजा रमई देव का शासन था।शनै:शनै:बालक बढता गया और उसने अपने अप्रतीम शौर्य और वीरता के कारण राजा की सेना में पहले एक सैनिक और बाद में सेनापति का पद प्राप्त किया।

 इस दौरान उसकी माता कचनाधुरवा को उनके अतीत के बारे में जानकारी देती रही।कचना धुरवा राजा का विश्वास जीतता रहा और राजा का प्रिय बनता गया।राजा उसकी बहादुरी पर मुग्ध था।उसके सेवा के बदले में वह कचनाधुरवा को कोई बड़ा ईनाम देना चाहता था।तब समय पाकर कचना धुरवा ने राजा से मरदा की जमींदारी मांगी।राजा ने उसकी बात मान ली और उसको मरदा की जमींदारी दे दी।

 फिर कचना धुरवा मरदा आया और चिंडा भुंजिया को मारकर अपनी पिता की मृत्यु का बदला लिया।साथ ही एक नये जमींदारी की नींव रखी-नवागढ जमींदारी।चूंकि ये जमींदारी वनबाहुल्य क्षेत्र में स्थित था और बंदरों से प्रभावित था इसलिए कालांतर में इसका नाम नवागढ़ से बेंदरानवागढ(बिन्द्रानवागढ़)प्रचलित हो गया।बिंद्रानवागढ वैसे एक गांव का नाम है जो आज भी मौजूद है।इसी के नाम पर राज्य का विधानसभा क्षेत्र भी है।जैसे बस्तर नाम के एक छोटे से गांव के नाम पर बस्तर जिला है वैसे ही बिन्द्रानवागढ़ के नाम पर एक विशाल विधानसभा क्षेत्र है। 

रायपुर गजेटियर के अनुसार इस जमींदारी के अंतर्गत कुल 446 गांव आते थे और यह 1559 वर्गमील तक फैला था।सन् 1901 में यहां की कुल जनसंख्या 61174 थी और गरियाबंद इस जमींदारी का सबसे बड़ा गांव था।इस जमींदारी में ज्यादातर गोंड और कमार जनजाति के लोग ही निवासी थे। अन्य जाति वर्ग के लोग काफी बाद में आए। कमार जनजाति के लोग बीहड़ वनों में रहना अधिक पसंद करते थे।इस जमींदारी के लगभग 970 वर्गमील में घना जंगल हुआ करता था, जिसमें सरई और सागौन के वृक्ष बहुतायत में मिलते थे।

इस जमींदारी का संबंध भारत के स्वतंत्रता संग्राम से भी रहा है।उसका भी किस्सा सुन लें..सन् 1857 में देश में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का आरंभ हुआ।इसके ठीक पहले सन् 1856 में छत्तीसगढ़ के सोनाखान क्षेत्र में भीषण अकाल पड़ा,तब वहां के राजा वीरनारायण सिंह ने अपनी प्रजा के लिए कसडोल के एक व्यापारी से अनाज मांगा।जब बार बार अनुनय-विनय करने पर भी व्यापारी नहीं माना तो उसने उसके गोदाम को लूट लिया और अनाज गरीब जनता में बांट दिया।इसकी शिकायत उस व्यापारी ने अंग्रेजों से कर दी।तब अंग्रेज उसकी गिरफ्तारी के लिए आए।वीर नारायण सिंह ने विद्रोह कर दिया और अंग्रेजों का दुश्मन बन गया।तब अंग्रेज अधिकारियों ने वीर नारायण सिंह को पकड़ने के लिए सैनिक टुकड़ी भेजी।सोनाखान को उजाडकर आग लगा दी गई।

 इस लड़ाई में दुर्भाग्य ये रहा कि इसमें में देवरी, भटगांव ,बिलाईगढ और कटगी के जमींदारों ने वीर नारायण सिंह को सहयोग देने के बजाय अंग्रेजों का सहयोग दिया। एकमात्र संबलपुर के जमींदार सुरेंद्र साय ने अंग्रेजों का सहयोग नहीं किया।अपनी प्रजा के ऊपर अंग्रेजों के अत्याचार को देखकर  नारायण सिंह ने विवश होकर अंततः आत्मसमर्पण को उचित समझा और रायपुर आकर आत्मसमर्पण कर दिया।इस लडाई में देवरी के  जमींदार महराजसाय की अहम भूमिका थी। वह रिश्ते में वीरनारायण सिंह का चाचा था मगर अपनी निजी शत्रुता निभाने के लिए उसने अंग्रेजों का सहयोग किया और लडाई में उनका मार्गदर्शन करता रहा।इतिहास गवाह है कि मीरजाफर और जयचंद जैसे गद्दार हर युग और काल में हुए हैं। इस लड़ाई के लिए वीर नारायण सिंह को अपराधी मानते हुए ब्रिटिश सरकार ने 10 दिसंबर 1857 को रायपुर के जयस्तंभ चौक पर उसको सरेआम तोप से उड़ा दिया।मां भारती का सच्चा सपूत अपने ही माटी के गद्दारों के कारण वीरगति को प्राप्त हुआ।

   इस घटना ने संबलपुर के राजा सुरेंद्र साय को व्यथित कर दिया।वीर नारायण सिंह के साथ उनके अच्छे संबंध थे।वह भी अंग्रेजों का दुश्मन था और अंग्रेजी सरकार के नाक में उसने दम कर रखा था।वीर नारायण सिंह के पुत्र गोविंदसिंह को उसने अपनी सैन्य सहायता दी और उसके मार्गदर्शन में गोविंदसिंह ने महराजसाय की गर्दन काटकर अपनी पिता की मृत्यु का बदला ले लिया। आजादी की जिस खुली फिज़ा में हम सांस ले रहे हैं वह हमें असंख्य वीरों की बलिदान के एवज में मिला सौगात है। हालांकि हम अब उन वीरों को भूलते जा रहे हैं और धीरे-धीरे कृतघ्न होते जा रहे हैं। वर्तमान हालात पर मुझे श्री कृष्ण सरल की काव्य पंक्तियां याद आ रही है..

यह सच है याद शहीदों की

हम लोगों ने दफनाई है

यह सच है उनकी लाशों पर

चलकर आजादी आई है


 आजादी की गाथा बलिदान और बलिदानियों की अमर गाथा है।खैर, इस घटना के बाद वीर सुरेंद्रसाय का अंग्रेज़ों के साथ गोरिल्ला युद्ध चलता ही रहा। सन् 1860 में जब वीर सुरेन्द्र साय को मानिकगढ से भगा दिया गया तब बिन्द्रानवागढ़ के राजा उमरशाह ने उसको अपने राज्य में शरण दिया।उनके लिए रसद आदि की व्यवस्था की।राजा उमरशाह अंग्रेजी शासन के विरोधी थे।वो अंग्रेजी शासन को टैक्स देने के भी खिलाफ थे।जब इस पर अंग्रेजी शासन ने उनको 1 जनवरी 1861 को जवाब मांगा तो उन्होंने उसका प्रत्युत्तर चार महीने बाद भी नहीं दिया।जिसके कारण ब्रिटिश सरकार ने उन पर 1000 रू का जुर्माना ठोका था।खरियार और बिंद्रानवागढ के जमींदार ब्रिटिश सरकार के घोर विरोधी थे।वीर सुरेन्द्र साय कभी अंग्रेजों के हाथ में नहीं आया था,सन् 1862 में बदलती राजनीतिक परिस्थितियों में उसने आत्मसमर्पण कर दिया और एक कैदी के रूप में असीरगढ़ के किले में सन् 1884 में उनकी मृत्यु हो गई। संभवतः गरियाबंद क्षेत्र से जुडाव के कारण ही गरियाबंद के शासकीय कालेज का नामकरण अमर शहीद सुरेंद्र साय के नाम पर किया गया है।ठीक उसी प्रकार अंचल में देवता के रूप में पूजित वीर कचनाधुरवा के नाम पर छुरा के शासकीय कालेज का नामकरण किया गया है।एक मजेदार बात और है कि शासकीय कालेज के साथ ही छुरा में संचालित निजी कालेज का नाम भी वही है।

 सन् 1880 में इस जमींदारी को जमींदार के नाबालिग होने के कारण कोरट कर ली गई थी। तत्कालीन जमींदार केवलशाह की कम आयु में ही मृत्यु हो गई।तब उसकी विधवा को इस जमींदारी का अधिकार दिया गया।सन् 1902 में उसकी भी मृत्यु हो गई।तब केवलशाह के भतीजे छत्रशाह को बिन्द्रानवागढ़ जमींदारी की जायदाद मिली।जब जमींदारी कोरट अधीन थी तब मुख्यालय गरियाबंद को बनाया गया था।उस दौरान कोर्ट के द्वारा तीन लाख के खर्च में महल और सडक बनवाई गई थी।सन् 1924 के आसपास इस जमींदारी अंतर्गत कुल 6 मदरसे,7डाकखाने और 4 थाने क्रमशः देवभोग, नवागढ़, गरियाबंद और छुरा में थे।

  बताया जाता है कि छुरा का भव्य महल राजा छत्रशाह के द्वारा ही बनवाया गया है।महल की वास्तुकला देखने लायक है।महल में अंकित फूलों और बेलबूटों का अंकन मन मोह लेता है।महल की बाहरी दीवार अत्यंत कलात्मक हैं। शीर्ष पर शेर की आकृति बनी हुई है।सामने की ओर जगह-जगह पर आले बने हुए हैं। संभवतः तब शायद बिजली की सुविधा नहीं रही हो,और इन आलों पर दीपक जलाकर रौशनी की जाती रही हो। कुछ बुजुर्ग बताते हैं कि महल को बनाने के लिए बेल गूदा,गोंटा का चूर्ण, गुड़ आदि का प्रयोग हुआ था।छत पर सर ई पेड़ के म्यार और लोहे की बड़ी बड़ी प्लेट लगी है। दरवाजे लकड़ियों से बनी हुई है और उसमें रंगीन शीशे लगे हुए हैं।अपने दौर में महल की भव्यता देखने लायक रही होगी।







बताते हैं कि इस महल में सात दरवाजे थे।राजा के पास पारस पत्थर होने और महल निर्माण करनेवाले कारीगरों के हाथ कटवा देने की कहानियां भी क्षेत्र में प्रचलित है।अब इसकी सत्यता तो भगवान ही जाने।पर महल है शानदार!!! जीर्ण-शीर्ण होने के बाद भी उसकी भव्यता देखते ही बनती है।बताते हैं कि पहले यहां का दशहरा दूर-दूर तक प्रसिद्ध था। मीलों दूर से लोग देखने आते थे।राजा द्वारा बनाई गई रावण की मूर्ति आज भी अच्छी हालत में है।कुछ समय पूर्व ही उनके वंशजों द्वारा इसकी मरम्मत करवाई गई है।सात आठ साल पूर्व पुनः यहां के राजशाही दशहरे को पुराना स्वरूप और भव्यता प्रदान करने का प्रयास किया गया था।मगर गुजरा दौर भला कब लौट के आता है....

 छुरा नगर के मध्य स्थित माता शीतला मंदिर अतिप्राचीन तो नहीं है,पर मूर्ति प्राचीन है।जिसकी शोभा देखते ही बनती है। भगवान राम का मंदिर भी यहां के जमींदारों ने बनाया है।जो मानस मंदिर के नाम से विख्यात है। यहां प्रतिवर्ष मानस यज्ञ का भव्य आयोजन होता है।मेरे पास जो जानकारियां थीं वो मैंने बांट दिया....अगर आप भी मुझे कुछ जानकारियां देना चाहें तो स्वागत है... सूचित करेंगे तो मैं दौड़ा चला आऊंगा।

सोमवार, 21 सितंबर 2020

कचनाधुरवा...एक अमर प्रेमगाथा-4


नमस्कार मित्रों!कुछ दिनों पहले मैंने नवागढ के राजा और अंचल के प्रसिद्ध देव वीर कचनाधुरवा पर तीन पोस्ट में कहानी लिखी थी। जिसमें पहले पोस्ट के बाद बाकि पोस्ट में पाठकों के रूचि मुझे कम नजर आई इसलिए मैंने उस गाथा के क्रम को और आगे बढ़ने पर रोक लगा दी। लेकिन कुछ पाठक मित्रों ने वाट्सएप के माध्यम से बताया कि वो वीर कचनाधुरवा की प्रेमगाथा के बारे में भी जानने के लिए इच्छुक हैं। इसलिए उस क्रम को फिर से जारी करना पड़ा।इस प्रेमगाथा की सत्यता पर मुझे व्यक्तिगत रूप से संदेह है क्योंकि मैं कचनाधुरवा को एक संपूर्ण व्यक्तित्व मानता हूं क्योंकि लोकमान्यताएं और अंचल में स्थापित कचना धुरवा की प्रतिमाएं इसकी पुष्टि करते हैं।
लेकिन कुछ लोगों का ये मानना है कि धुरवा नवागढ़ के राजा थे और कचना जिसे कहीं कहीं कचनार भी उल्लेखित करते हैं वह धर्मतराई(वर्तमान धमतरी)नरेश की पुत्री थी।इन दोनों के बीच प्रेम का प्रस्फुटन ही कहानी का आधार है।
प्रेम कहानी की भरमार है हमारे देश में;और देश में ही क्यों पूरी दुनिया में प्रेमियों और प्रेम कहानियों की भरमार है।रोमियो जूलियट, लैला-मजनूं,शीरी-फरहाद,हीर-रांझा,सोहनी-महिवाल,लोरिक-चंदा और इसी क्रम में कचना-धुरवा।
  हमारे आराध्य श्री राधा-कृष्ण की प्रेमगाथा तो जगत विख्यात है ही।वैसे प्रेम ने दुनिया को नाच नचाया है और कभी दुनिया दो प्रेमियों के प्रेम के आगे झुकती नजर आई तो कभी प्रेमियों को दुनिया के सामने नतमस्तक होना पड़ा।कबीर ने तो प्रेम को ही सर्वोपरि माना है।उनका कहना था पोथी पढ़-पढ़ जगमुआ पंडित भया ना कोय,ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय।पर इसके ठीक उलट देखने सुनने में आता है कि ज्यादातर प्रेमगाथाओं का दुखद और त्रासदीपूर्ण समापन होता है। प्रेमियों को मुसीबतों और कठिनाई का सामना करना ही पडता है चाहे वो मीरा का कृष्ण से दिव्य प्रेम हो या पृथ्वीराज और संयोगिता का सांसारिक प्रेम।
एक मिनिट.. इस क्रम में एक और नाम है चंद्रकांता का।चंद्रकांता कौन?अरे!वही सीरियल वाली प्रेम-कहानी जिसने लोगों को टीवी सैट खरीदने के लिए मजबूर कर दिया था।जो बाबू देवकीनंदन खत्री लिखित उपन्यास पर आधारित थी। उसमें का क्रुरसिंह होने को तो क्रूर था लेकिन था बड़ा प्यारा...यक्क् पिताजी!यक्कू!!!वाला उसका डायलॉग हमारा फेवरेट था।इसका टाइटल सांग भी बड़ा प्यारा था-
नौगढ,विजयगढ में थी तकरार
नौगढ का था जो राजकुमार
चंद्रकांता से करता था प्यार....
विनोद राठौड़ के दमदार आवाज वाली गीत आज भी याद है।वैसे नौगढ़ और नवागढ़ में अंतर भी क्या है? सिर्फ राजा बस अलग है और प्रेम कहानी तो लगभग वही है।
तो चलिए कहानी का आगाज करते हैं-ये गाथा है एक वीर योद्धा की जो शौर्य और साहस का पर्याय था।वीरता और प्रेम जिसके नस-नस में भरी थी।वीर धुरवा का जन्म राजपुत्र होने के बाद भी बड़ी कठिन परिस्थितियों में हुआ था।उसके पिताजी को शत्रुओं ने विष देकर धोखे से मार दिया था।मां ने एक ब्राम्हण के आश्रय में धुरवा का लालन-पालन किया। युवावस्था में आने के बाद अपने पराक्रम से धुरवा ने नवागढ़ राज्य की नींव रखी और अपने क्षेत्र का विस्तार करने लगा।
युवा राजा धुरवा एक दिन आखेट के लिए धर्मतराई और नवागढ़ के संगमक्षेत्र के जंगल में गया तो एक राजकुमारी के सौंदर्य पर मोहित हो गया जो धर्मतराई नरेश की पुत्री कचना थी।अपनी सखियों के संग वन विहार के लिए आई कचना भी उस सजीले नौजवान को देखकर मुग्ध हो गई।क्योंकि वो स्वप्न में एक सफेद घोड़े पर सवार राजकुमार को रोज देखती थी,जिसका चेहरा अस्पष्ट सा जान पड़ता था।धुरवा को देखते ही वो अस्पष्ट स्वरूप साकार हो उठा। फिर क्या था एक अनूठी प्रेमगाथा का आरंभ हो गया।
अब तो दोनों के बीच प्रेम का बीज अंकुरित हो चुका था सो वे वन्यक्षेत्र में बहुधा मिला करते थे। लेकिन वो कहते हैं ना कि इश्क और मुश्क छुपाए नहीं छुपती सो धीरे-धीरे इस बात की खबर धर्मतराई नरेश को हुई तो उसने कचना को ये संबंध समाप्त करने की चेतावनी दी और धुरवा को भूल जाने का आदेश दिया। लेकिन प्रेमियों पर किसी की बातों का भला क्या असर??उनकी मुलाकातें होती रही और प्रेम परवान चढ़ता रहा। तब राजा ने धुरवा को मरवाने का कई बार प्रयास किया,पर असफल रहे।धुरवा को दैवीय शक्तियां प्राप्त थी इसलिए शत्रु उसका बाल भी बांका नहीं कर पाते थे।राजा ने जब इसके संबंध में जानकारी पता लगाने गुप्तचरों को भेजा तो उन्होंने राजा को बताया कि राजा की मृत्यु का रहस्य अज्ञात है।वीर धुरवा का कोई करीबी ही उसकी मृत्यु का रहस्य जान सकता है।तब राजा ने एक महिला के माध्यम से नशे की स्थिति में धुरवा से उसकी मृत्यु के भेद का पता लगा लिया तो ज्ञात हुआ कि धुरवा की मृत्यु तभी हो सकती है जब उसका सिर तलवार से कटने के उपरांत भूमि पर और धड़ पानी में गिरे।तब राजा ने धुरवा को विवाह प्रस्ताव के बहाने धर्मतराई और नवागढ़ राज्य के बीच बहनेवाली पैरी नदी  के पास बुलाया और छलपूर्वक उसकी हत्या कर दी।कुछ जानकारों का मानना है कि ये स्थान कुटेना के पास स्थित सिरकट्टी नामक स्थान है और कुछ लोगों का मानना है कि ये स्थान धमतरी जिला अंतर्गत स्थित डाभा करेली गांव के पास है।खैर,इस बात की तस्दीक इतिहास कार सही सही कर पायेंगे। तलवार के वार से वीर धुरवा का सिर जमीन पर गिर गया और धड़ पानी में गिरा।जब कचना ने धुरवा की हत्या की खबर सुनी तो उसने भी जहर खाकर अपनी जान दे दी।इस प्रकार से दो अद्भुत प्रेमियों की प्रेमगाथा का अंत हो गया। मृत्यु के बाद कचनाधुरवा का नाम एक हो गया और वे जनसामान्य में देवता के रूप में पूजित हो गए।अनेक गांवों में जागृत देव के रूप में उनकी पूजा होती है। कहते हैं चिंगरापगार की वादियों और पैरी नदी के आसपास के जंगलों में आज भी उनकी प्रेमगाथा गुंजित हुआ करती है। बताते हैं कि जब धुरवा का सिर कटकर अलग हो गया तो दुश्मन उसे वहीं छोड़ कर चले गए उसी दौरान एक बुढ़िया गोबर आदि इकट्ठा करने के लिए आई तो धुरवा के शीश ने उसको अपनी राजधानी नवागढ़ तक ले जाने का आग्रह किया तब उस बुढ़िया ने धुरवा राजा के सिर को अपनी टोकरी में रखा और नवागढ़ के लिए चल पड़ी। मान्यता़ है कि  नवागढ़ की लंबी यात्रा के दौरान जिस जिस स्थान पर उस बुढ़िया ने अपनी टोकरी रखी वहां वहां वीर धुरवा राजा की स्थापना है। जिसमें बारूका ग्राम के पास स्थित पहाड़ी,झालखम्हार के पास स्थित स्थान प्रमुख है। यात्रा के अंतिम स्थल नवागढ की पहाड़ी में राजा के शीश को स्थापित कर दिया गया।कचना धुरवा अमर है,उसकी गाथा अमर है।अंचल में गाए जानेवाले कुछ देवी जस गीतों में उनका वर्णन होता है।सफेद घोड़े पर सवार उनकी प्रतिमा देखकर एक गीत बरबस याद आ जाता है....
एक घोड़ा कुदाये खदबद खदबद हो.....
बोलो कचना धुरवा महराज की जय!!!
एक बात और...कहानी अभी बाकि है दोस्त....इस गाथा के पांचवें पड़ाव मे फिर मिलेंगे।तब तक स्वस्थ रहें...मस्त रहें

रविवार, 20 सितंबर 2020

आनलाईन पढाई

 मार्च के महीने से स्कूल कालेज बंद हैं।ऐन परीक्षा के समय कलमुही कोरोना आई और बच्चों के पढ़ाई पर पानी फेर गई। खुशकिस्मती से प्राय:प्राय: बोर्ड एग्जाम का समापन हो गया था।कुछेक परीक्षाएं जो बाकी रह गई थी उनको निरस्त करना पड़ा।लोकल परीक्षाओं को स्थगित करते हुए सीधे कक्षोन्नति दे दी गई।इस प्रकार से सत्र का समापन हुआ।

 इसके बाद बच्चों को अध्ययन से जोड़े रखने के लिए अनेक जतन किए जाने लगे।चूंकि आज तकनीक का जमाना है इसलिए अध्ययन अध्यापन के कार्यक्रम को सुचारू रूप से जारी रखने के लिए आधुनिक तकनीक का सहारा लेते हुए आनलाईन कक्षा आयोजित करने की शुरुआत हुई। जिसमें लैपटाप, कंम्प्यूटर और स्मार्ट फोन जैसे माध्यमों से पढ़ाई-लिखाई जारी रखने की कवायद शुरू हुई। बच्चों और शिक्षकों का मोबाइल नंबर आदि का संग्रहण किया गया और उनको आनलाइन गतिविधि से जोड़ने का प्रयास प्रारंभ हुआ। शिक्षकों को सर्वप्रथम जूम नामक विडियो कान्फ्रेसिंग एप डाउनलोड करने के लिए आदेशित किया गया। धड़ाधड़ आदेश की तामीली कराई गई।ये प्रक्रिया चल ही रही थी कि अखबारों में जूम एप के ख़तरें सुर्खियां बनने लगे।इस एप के बारे में बताया गया कि ये यूजर की निजी जानकारियां चुराता है।सुरक्षा एजेंसियों की ओर से भी इस एप के इस्तेमाल पर आपत्ति जताई गई।जिस तेजी से एप डाउनलोड करवाया गया उसी तेजी से तत्काल प्रभाव से इस एप का उपयोग नहीं करने का आदेश प्रसारित हुआ।

 फिर एक नये एप को डाउनलोड करवाया गया और राज्य स्तरीय आनलाइन क्लास की शुरुआत की गई। छत्तीसगढ़ में इस आनलाईन अध्यापन कार्यक्रम को नाम दिया गया-"पढाई तुंहर द्वार योजना"।शहरी बसाहट के आसपास के क्षेत्रों में इसके उत्साहजनक परिणाम भी मिले लेकिन बहुसंख्यक छात्र वाले दूरस्थ अंचलों में इसका लाभ अपेक्षानुरूप बच्चों को नहीं मिल पाया।जिसके बहुत से कारण है।

सबसे बड़ा कारण है ग्रामीण अंचल के पालकों के पास स्मार्टफोन जैसे साधन की अनुपलब्धता। छत्तीसगढ़ के कुछ क्षेत्रों में अनेक लोग वनोपज संग्रहण करके और थोड़ी बहुत खेती-बाड़ी से जीवन यापन करते हैं।उनके लिए सात आठ हजार के महंगे फोन खरीद पाना अभी भी मुश्किल काम है। हालांकि पूर्ववर्ती सरकार द्वारा स्मार्ट फोन का वितरण किया गया था , लेकिन उसकी गुणवत्ता कैसी थी और उनका क्या हश्र हुआ ये उपयोगकर्ता ही बता पायेंगे।बहुत से क्षेत्रों में तो सरकार बदल जाने के कारण इस योजना का श्रीगणेश ही नहीं हो पाया।खैर,अगर कुछ लोग अपना पेट काटकर अपने बच्चों के हित के लिए ये स्मार्टफोन खरीद भी लें तो उनके डेटा का खर्च कौन उठायेगा??

इन सब परेशानी को दूर कर भी लें तो सबसे बड़ी समस्या है नेटवर्क की।आज भी बहुतेरे स्थानों पर मोबाइल कनेक्टिविटी नहीं है।अब ऐसे में कोई पालक क्या करेगा? आनलाईन क्लास में जुडने का शौक रखने वाले बच्चे चाहकर भी इसी कारण से इस आनलाइन क्लास में नहीं जुड़ पाते हैं।खराब नेटवर्क के कारण आवाज और विडियो में तकनीकी समस्या आना आम बात होती है।

 इस तरह से पढना मेरे विचार से ज्यादा प्रभावी नहीं हो पाता।ये आनलाईन पढ़ाई का कांसेप्ट दसवीं कक्षा से उस पार के बच्चों के लिए अत्यधिक उपयोगी सिद्ध हो सकता है लेकिन छोटे-छोटे बच्चों के लिए विशेष प्रभावकारी नहीं है।बालमन चंचल होता है।पल पल में उनका ध्यान भटकता है।सम्मुख बैठा शिक्षक ही बच्चों को प्रभावकारी शिक्षा दे सकता है।क्योंकि शिक्षक बच्चों की रूचि अनुरूप कक्षा संचालित करता है जिसमें बच्चों को वो पढ़ाई की बोझिलता से बचने के लिए चुटकुले, कहानियां,गीत और कविता आदि का सहारा लेता है। आनलाइन क्लास में ये सब नहीं हो पाता। इसलिए बच्चे थोड़ी देर में ही आनलाइन क्लास से गायब हो जाते हैं।

आनलाइन क्लास लेनेवाले कुछ शिक्षकों की मेहनत को भी सलाम करता हूं,जो समर्पित भाव से लगे हुए हैं और बच्चों का ज्ञानवर्धन के प्रयास में लीन हैं।निजी स्कूल भी आनलाइन क्लास चला रहे हैं लेकिन फीस को लेकर स्कूल प्रबंधन समिति के साथ खटपट की खबरें अभी समाचार पत्रों में स्थान पा रहे हैं।

 कोरोना के बढ़ते संक्रमण को देखते हुए नहीं लगता कि अभी स्कूल खुल पायेंगे। इसलिए पालकों को ही थोड़ा परिश्रम अपने बच्चों की पढ़ाई जारी रखने के लिए करना होगा।मेरे विचार से आनलाइन क्लास के स्थान पर दूरदर्शन के माध्यम से बच्चों को पढ़ाने का प्रयास ज्यादा असरदार होगा।टीवी की पहुंच आज घर घर में है। डीटीएच में प्राय:प्राय:सभी राज्यों का चैनल है। क्षेत्रीय चैनलों में बच्चों के अध्ययन अनुरूप सामग्री तैयार करवाकर प्रसारण करवाया जा सकता है।

एक उपाय जो रायपुर के मेयर ने सुझाया था वो भी ठीक हैं।उनका सुझाव था कि पूर्ववर्ती सरकार द्वारा जो मोबाइल खरीदी गई है,और वितरण न हो पाने के कारण डंप पड़ी है उनको बच्चों के पढाई अनुरूप साफ्टवेयर डलवाकर पालकों को नि: शुल्क वितरित कर दिया जाये।

आनलाइन क्लास में साधन की उपलब्धता और अनुपलब्धता का बच्चों के कोमल मन पर दुष्प्रभाव ना पड़े इसके लिए कोर्ट ने सरकारी और निजी शिक्षण संस्थानों को बच्चों के आनलाइन शिक्षण हेतु साधन की समुचित व्यवस्था का भी आदेश दिया है।इस पर भी ध्यान दिये जाने की जरूरत है....

शनिवार, 19 सितंबर 2020

दहशत

 कोरोना के बारे में पहला समाचार मैंने दिसंबर माह में टीवी न्यूज में देखा था। जिसमें बताया जा रहा था कि कोई नये किस्म का वायरस चीन के वुहान शहर में तबाही मचा रही है।जिसके कारण से वहां वायुयान सेवा बंद की जा रही थी।तब बिल्कुल भी ये अंदेशा नहीं था कि वुहान शहर से निकली ये चिंगारी दावानल में बदलकर समूचे विश्व को राख करने के लिए चल पड़ेगी।जिसकी आंच अब हमको अपने आसपास भी महसूस हो रही है।

मार्च महीने में जब ऐतिहातन स्कूलों को बंद किया गया तब महसूस हुआ कि ये बीमारी महानगरों तक तबाही मचायेगी।फिर देश में लाकडाऊन लगाने का क्रम चला तब तक देश के बड़े महानगर चपेट में आ चुके थे।फिर भी लगा कि हम सुरक्षित हैं। फिलहाल हमारे राज्य में कोई केस नहीं है।अप्रेल के आते-आते हमारा ये भ्रम भी जाता रहा।तब इक्के दुक्के केस आने लगे थे।लेकिन जैसे ही लाकडाऊन के कारण अन्य राज्यों में फंसे मजदूरों को और विदेश तथा देश के अन्य हिस्सों में फंसे विद्यार्थियों को घर लाने का कार्य शुरू हुआ।मानो कोरोना का कहर शुरू हो गया।अपने घरों में सुरक्षित बैठकर चाय की चुस्कियां लेकर समाचार देखने वाले लोग मजदूरों को कोरोना का वाहक समझकर कोसने लगे थे।घर वापसी के अभियान में कितने ही मजदूरों को प्राण देने पड़े और अनगिनत लोग नरकतुल्य कष्टों को झेलकर अपने घर तक पहुंचने में कामयाब भी हुए। इस दौरान देश की अर्थव्यवस्था चरमराने लगी थी। जब तक राज्य सरकारें केंद्र सरकार के आदेश को मानने के लिए बाध्य थी तब तक कोरोना पर कुछ-कुछ अंकुश लगा रहा। लेकिन जैसे ही राज्यों को अपने स्थानीय प्रशासन को अपने राज्य की परिस्थितिनुकुल चलाने की छूट मिली।प्रशासन ने अर्थव्यवस्था को संभालने के लिए ढील देने की शुरुआत की परिणामत: कोरोना का फैलाव बढ़ने लगा।पहले दारू भट्ठियां खुली, दुकान खुले,फिर बाजार खुले और धीरे-धीरे अनलाक सिस्टम आते तक सब कुछ बेरोकटोक हो गया।लोग भूल गए कि कोरोना के जद में वो अब भी हैं। सामाजिक दूरी रखने के नियम की धज्जियां उड़ाई गई।मास्क लगाने को लोग हल्के में लेने लगे।कुछ बड़े कार्यक्रम भी इस दौरान हुए जो सोशल डिस्टेसिंग के खिलाफ थी लेकिन सरकारी संरक्षण में सब जायज हो जाता है।आम आदमी नियमों के जंजीर से बंधे होने के लिए बाध्य होते हैं,नेता लोग नियमों को अपने हिसाब से एडजस्ट कर लेते हैं।अप्रेल महीने में मैंने कोरोना के ऊपर पहले भी एक पोस्ट लिखी थी जिसमें मैंने छत्तीसगढ़ की जागरूकता का विशेष उल्लेख किया था। लेकिन अब वो जागरूकता खतम हो गई है और छत्तीसगढ़ के बड़े-बड़े शहर बड़ी संख्या में संक्रमित है। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर की तो बुरी गत हो गई है।कोरोना अब गांव-गांव में फैल चुका है।कुछ जिला के कलेक्टर कोरोना संक्रमण की बढती रफ्तार को रोकने के लिए लाकडाऊन करवा रहे हैं। 

 अब सोशल डिस्टेंसिंग की बातें मोबाइल के डायलर टोन तक रह गई। लेकिन अब कोरोना का भयावह रूप नजर आने लगा है।अब कोरोना सिर्फ महानगरों तक ही नहीं बल्कि हमारे पड़ोस तक आ पहुंचा है। अस्पताल में मरीजों को रखने के लिए जगह नहीं है। मृतकों के शव की अंतिम संस्कार के लिए प्रतीक्षा करने की नौबत आ गई है।अब हम सबको संभलने और सचेत रहने की ज्यादा जरूरत है।कोरोना की वैक्सीन बनने की खबरें आती रहती है।रूस ने कामयाबी पा ली है और हमारे वैज्ञानिक भी इस अभियान में जुटे हुए हैं।चीन में कोरोना की थमी रफ्तार को देखकर लगता है कि जरूर उसने भी वैक्सीन बना ली होगी मगर फिलहाल खामोश है।चीन ने कोरोना मामले को लेकर रहस्य का आवरण ओढ़ रखा है।उनकी सारे जानकारियां गोपनीय है।हां,ये अलग बात है कि दूसरे देशों की जानकारी इकट्ठा करने और जासूसी में उसको खासा दिलचस्पी है।

अभी का दौर मुश्किलों भरा है,मगर उम्मीद है खुशियों का सवेरा जल्दी ही लौटेगा...

तब तक घर पर रहें, सुरक्षित रहें अपनों को सुरक्षित रखें...

रविवार, 13 सितंबर 2020

हालात कुछ ऐसे हैं...

 पिछले तीन पोस्ट वीर कचनाधुरवा पर आधारित थे। इसमें मिली जुली प्रतिक्रिया मिली।लेकिन पाठक संख्या के हिसाब से इतना तो समझ आ गया कि लोगों को अपने गौरवशाली इतिहास में कोई विशेष रूचि नहीं है। इसलिए उस वीरगाथा पर विराम लगाता हूं। लोगों की पुरानी बातों में अरूचि देखकर लगता है कि इतिहास एक विषय के रूप में स्कूल और कालेज की किताब तक ही ठीक है।वैसे लोगों की रूचि तो वर्तमान की ज्वलंत समस्याओं पर भी नहीं हैं।लोगों में संवेदना खतम होती जा रही है।आज के जमाने में तो यही देखने में आता है कि कोई बाजू में भूखा मरता रहे, उससे कोई मतलब मत रखो।आपके पास सामर्थ्य है,पैसा है तो लात मारो दुनिया को और ऐश करो।किसी की मदद के नाम पर लोग ऐसे बिदकते हैं जैसे फिलहाल किसी कोरोना पाजेटीव आदमी को देखकर बिदकते हैं।वैसे इस कोरोना नामक दुश्मन ने गरीबों का जीना हराम कर रखा है।ऊपर से महंगाई की मार अलग। दिनभर में सौ डेढ़ सौ की दिहाड़ी कमाने वाला मजदूर अस्सी रू किलो टमाटर और सवा सौ रुपए किलो की दाल खाने की हिम्मत कैसे करेगा?ऊपर से ऐसे हालात के मारे लोग बुरी संगत का शिकार होकर नशे की लत में बर्बाद होते हैं सो अलग।

कोरोनाकाल की विषम परिस्थितियों में आज छोटे व्यवसायी और मजदूरों का बुरा हाल है।अनेक लोगों की रोजी-रोटी कमाने का माध्यम छिन गया है। खासतौर से जो ठेले आदि लगाकर खाद्य सामग्री बेचते थे या कोई छोटा मोटा काम धंधे करते थे और जो रिपेयरिंग आदि के काम से जुड़े थे,उनके सामने जीवन यापन की विकराल समस्या खड़ी है।कोरोना की दहशत और लाकडाउन के कारण आज कितने ही लोग भटकने के लिए मजबूर हैं।मेरे आस-पास रहने वाले बहुत से ऐसे लोगों से मेरी रोज मुलाकात होती है जो अपनी बेबसी का किस्सा सुनाते हैं।ऐसा ही हाल कला से जुड़े कलाकारों का भी है।लोकमंच और अन्य संगीतमय कार्यक्रम पर अभी अघोषित रोक लगी है।इस माध्यम से जुड़े लोग भी हलाकान परेशान हैं।मेरे परिचित कुछ कलाकार मित्र मां शारदा के कृपा पात्र है।उनकी उंगलियां के जादू पर स्वरलहरियां मंत्रमुग्ध कर देती हैं।पर अभी हालात के मारे बेचारे जीवन यापन हेतु अन्य काम करने पर मजबूर हैं।आदमी अपने हिस्से का मेहनत करने के लिए तैयार है, लेकिन जब परिस्थितयां ही विपरीत हों,तो आदमी क्या करे???

 बहुत से लोग एक भीषण तनाव के दौर से गुजर रहे हैं,और अपने आसपास सहायता मिलने की थाह लगा रहे हैं।शासन की ओर भी एकटक देख रहे हैं,शायद कुछ रहमत की बारिश हो जाए?

  लोकतंत्र के चौथे स्तंभ होने का दंभ भरने वाली मीडिया को एक अभिनेता के आत्महत्या प्रकरण और रोज नए मसालेदार खुलासे से फुर्सत नहीं है।ज्यादातर सरकारी कार्यालयों के दरवाजे कोरोना संक्रमण से बचाव के नाम पर वैसे ही बंद हैं,कोरोना के कहर को देखकर राजनीतिक हस्तियां आम लोगों से मिलने-जुलने में परहेज करने लगी है।आखिर ये दुखियारे जाएं तो जाएं कहां?किनको अपना दुखड़ा सुनाए। संयोगवश इस पोस्ट को लिखते लिखते ही भगवत रावत साहब की एक कविता हाथ लगी।जो वर्तमान पर सटीक बैठती है

हमने चलती चक्की देखी

हमने सब कुछ पिसते देखा

हमने चूल्हे बुझते देखे

हमने सब कुछ जलते देखा

हमने देखी पीर पराई

हमने देखी फटी बिवाई

हमने सब कुछ रखा ताक पर

हमने ली लम्बी जमुहाई 

हमने देखीं सूखी आंखें

हमने सब कुछ बहते देखा

कोरे हड्डी के ढांचों से

हमने तेल निकलते देखा

इस पोस्ट को मैंने सितंबर में पोस्ट किया था। लेकिन आज अचानक कलाकारों की पीड़ा को बयां करती मलयज साहू द्वारा निर्मित आरंभ फिल्म्स का ये शार्ट विडियो दिखा।अत्यंत मार्मिक चित्रण है।कोरोनाकाल में कलाकारों की व्यथाकथा का....

https://youtu.be/oCvAy2kC6HE

गुरुवार, 10 सितंबर 2020

कचना धुरवा गाथा-3


 वीर कचना धुरवा गाथा की ये तीसरी कड़ी है जो जनश्रुति पर आधारित है।इस क्रम की पिछले दोनों पोस्ट को मेरे पाठक मित्रों ने सराहा है।मुझे खुशी इस बात की ज्यादा है कि आडियो वीडियो के इस दौर में मैं कुछ लोगों को पढ़ने के लिए प्रेरित कर पा रहा हूं।किसी जननायक को देवता की उपाधि तब मिलती है,जब वह अपना सर्वस्व जनकल्याण के लिए न्यौछावर कर देता है।जरूर वीर कचनाधुरवा में बुद्धि,बल औल त्याग का गुण कूट-कूट कर भरा रहा होगा।

 जनश्रुतियां वाचिक हुआ करती है,इसका ऐतिहासिक संदर्भ के साथ तालमेल बिठा पाना संभव प्रतीत नहीं होता है।प्रस्तुत कहानी में वीर कचना धुरवा को प्राप्त अलौकिक शक्ति और उसके बुद्धि बल का परिचय मिलता है।

बताते हैं कि जब कचना धुरवा राजा नहीं बना था और एक सामान्य युवक था तब वह कृषि आदि का काम भी करता था।एक दिन जब वह हल जोत रहा था तब उसकी मां उसके लिए खाना लेकर गई।कचना धुरवा जब भोजन करने के लिए एक बांस पेड़ के नीचे बैठा तभी बांस पेड़ में लगे बांदा(अमरबेल की तरह परजीवी पौधा)से थोड़ा सा रस कचना धुरवा के लिए लाए सब्जी पर गिरा।उस दिन उसकी मां उसके लिए मछली पकाकर लाई थी।उस सब्जी में रस गिरने से सब्जी बनाई गई मछली जीवित हो गई।जब कचना धुरवा ने भोजन करने के लिए सब्जी खानी चाही तो सब्जी में जीवित मछली देखकर चौंक गए।फिर अपनी मां के ऊपर गुस्सा करने लगे कि उसने ध्यान से सब्जी नहीं बनाई।उसकी मां भी इस घटना से हतप्रभ थी।बांसबांदा के रस गिरने वाली घटना से दोनों अनभिज्ञ थे।

  कचनाधुरवा माता जगदम्बे का उपासक था।रात में माता कचना धुरवा के स्वप्न में आकर उसको मछली के जीवित होने के कारण के बारे में बताया कि उस बांस बांदा में अमृत रस भरा है जिसके कारण मछली जीवित हो गई थी।अगर तुम उस अमृत रस भरे बांदा का सेवन कर लोगे तो तुम्हारी मृत्यु लगभग असंभव होगी चाहे कोई तुम्हारे शरीर के टुकड़े टुकड़े ही क्यों ना कर दे, सिर्फ़ एक विशेष परिस्थिति में ही तुम्हारी मृत्यु होगी।उस रहस्य के बारे में मैं तुम्हें कल बताउंगी।पर तुम उस रस का सेवन तभी कर पाओगे जब तुम अपनी मां की बलि दोगे।

कचना धुरवा के लिए स्वप्न की बात विस्मयकारी थी।फिर भी उसने माता जगदम्बे की बात पर पूर्ण विश्वास किया और मन में कुछ निश्चय करके अगली सुबह अपने माता की बलि दे दी।फिर वह उस बांस बांदा को ले आया और उसके अमृत रस से सर्वप्रथम अपनी मां को पुनर्जीवित किया तत्पश्चात उसने स्वयं रस का पान किया।रात को माता उसके स्वप्न में आई और उसकी बुद्धि बल की बहुत प्रशंसा की।माता ने बताया कि अपनी मां की बलि देना एक परीक्षा थी। जिसमें तुम शत प्रतिशत सफल हुए।साथ ही कचना धुरवा को उसके मृत्यु का रहस्य भी बताया।

 समय का चक्र चलता रहा और एक साधारण युवक से कचना धुरवा नवागढ का राजा बन गया।उसने अपने अपार बुद्धि बल, पराक्रम और शौर्य से अपनी रियासत का विस्तार किया और प्रजा के बीच अपार ख्याति प्राप्त करने के साथ ही अपने राज्य को सुख समृद्धि से भर दिया।उसकी अपार ऐश्र्वर्य और ख्याति से कुछ दुष्ट राजाओं को जलन होती थी। उन्होंने कचना धुरवा के ऊपर बार बार हमला किया पर वो कचना धुरवा को मार नहीं पाए।उसके शरीर के टुकड़े टुकड़े कर देने पर भी वह पुनः जुड़ कर पूर्ववत हो जाती थी।तब उसके मृत्यु का उपाय ढूंढने के लिए उन्होंने मदिरा बनाने वाली एक महिला से संपर्क किया।यदा-कदा कचना धुरवा उस महिला के पास मदिरापान के लिए जाते थे। धनराशि का लालच देकर दुष्ट राजाओं ने उस महिला को कचनाधुरवा के मृत्यु का रहस्य पता लगाने का कार्य सौंपा।कुछ दिन पश्चात मदिरापान करने के लिए वीर कचनाधुरवा उस महिला के पास आया। बातों ही बातों में मदिरा के नशे में चूर कचनाधुरवा को शब्द जाल में फंसा लिया।मदिरा बड़े से बड़े विद्वान की मतिभ्रष्ट कर देती है। मदिरापान पश्चात आदमी को उचित-अनुचित का बोध नहीं होता।वीर कचना धुरवा मदिरापान के बाद बहक गए और अपनी मृत्यु का रहस्योद्घाटन करते हुए महिला को बताया कि उसकी मृत्यु तभी होगी जब उसके शरीर के नौ छिद्रों में दामा(बांस से निर्मित कील)ठोंक दी जाए,अन्यथा वो शरीर के हजार टुकड़े होने पर भी जी उठेंगे।

महिला ने वीर कचनाधुरवा की मृत्यु का रहस्य दुष्ट राजाओं को बता दिया।तब उन राजाओं ने पैरी नदी सिरकट्टी के पास वीर कचना धुरवा को घेरकर मार डाला और उसके सिर को काट डाला।फिर उसके बताए रहस्य अनुसार उसके शरीर के नौ छिद्र में दामा ठोंक दिया।बताते हैं कि ये घटना सिरकट्टी कुटेना के पास घटी थी।कचना धुरवा का सिर उस जगह पर कटने के कारण सिरकट्टी प्रचलित हो गया।इस प्रकार से एक पराक्रमी राजा दुष्टों के छल के कारण धोखे से मृत्यु को प्राप्त हुआ।

ये कहानी कपोल कल्पना भी हो सकती है और सत्य भी। इसलिए इस की सच्चाई या कल्पना के संबंध में मैं किसी भी प्रकार का दावा नहीं करता। फिलहाल मैं वीर कचना धुरवा की गाथा संकलन के सफर पर निकला हूं तो मेरे पास जो कहानी हाथ लगेगी,वो अपने ब्लाग पर डालता रहूंगा।किसी की भावना को जाने अनजाने ठेस पहुंचती होगी तो क्षमाप्रार्थी रहूंगा।अगर आपके आसपास इनके संबंध में कोई जानकारी हो तो मुझे जरूर अवगत कराएं।

अगली बार वीर कचनाधुरवा की नहीं बल्कि एक विलक्षण प्रेमगाथा की नायिका कचना और नायक धुरवा पर चर्चा करेंगे।

तब तक राम...राम...

बोलो कचना धुरवा महराज की जय!!!



बुधवार, 9 सितंबर 2020

कचना धुरवा गाथा-2

 समय किसी के लिए नहीं रूका है।किसी घटना या जानकारी को अगर लिपिबद्ध न किया जाए तो वह समयधारा में विलीन हो जाती है। बहुत सी घटनाएं लिपिबद्ध ना होने के कारण मात्र जनश्रुति बनकर रह जाती है जबकि उनका ऐतिहासिक आधार होता है।जैसा कि मैंने वीर कचनाधुरवा की गाथा वाली पिछले पोस्ट में बताया था कि उनके बारे में ऐतिहासिक जानकारी का अभाव है। फिर मैंने उनसे संबंधित ऐतिहासिक तथ्यों को खंगालना शुरू किया।काम आया फिर वही गुगल गुरु,जिसने कुछ विद्वानों के लेख आदि को संभालकर रखा है।
दरअसल कचना धुरवा की गाथा प्राचीन दक्षिण कौशल से जुड़ी है जब ओडिशा और महाराष्ट्र का कुछ भाग भी छत्तीसगढ़ में समाहित था।
 श्रीराजिमलोचनमहात्म्य के अनुसार जिस रमईदेव नाम के राजा का जिक्र हुआ है वो वास्तव में हुए हैं, और बलांगिरपटना नामक स्थान भी है,जो वास्तव में पटनागढ नामक रियासत था,जिसके अंतर्गत बलांगीर भी आता था।वर्तमान में बलांगीर ओडिशा का एक जिला मुख्यालय है और पटनागढ एक विधानसभा क्षेत्र है।ठीक वैसे ही जैसे कभी बिन्द्रानवागढ़ रियासत के अंतर्गत गरियाबंद की गिनती सबसे बडे गांव के रूप में होती थी जबकि वर्तमान में गरियाबंद छत्तीसगढ़ का एक जिला मुख्यालय है और बिंद्रानवागढ विधानसभा क्षेत्र है।
   पटनागढ तब अठारह गढ़ का केंद्र बिंदु हुआ करता था,जिसके अंतर्गत पटनागढ, संबलपुर,सोनेपुर,बामरा,रायखोल,गंगपुर,बोढ,आटमुलिक,फूलझर,बोनाई,रायगढ,बरगढ,सक्ति,चंद्रपुर, सारंगढ़, बिन्द्रानवागढ़,खरियार और पदमपुर आते थे।इनको अठारहगढ जात भी कहा जाता था। इनमें से फूलझर,रायगढ,सक्ति,चंद्रपुर, सारंगढ़ और बिन्द्रानवागढ़ अब छत्तीसगढ़ राज्य अंतर्गत आते हैं।पटनागढ के शासक रमईदेव चौहान वंशी थे और उन्होंने लगभग 1685-1762 तक राज्य किया।अगर कचना धुरवा उनके समकालीन थे तो उनका इतिहास भी उतना ही पुराना होना चाहिए।स्थानीय स्तर पर इतनी पुरानी जानकारी देने वाला कोई विज्ञजन बहुत तलाश करने पर भी नहीं मिल रहा है। फिर मैंने इसके संबंध में जानकारी प्राप्त करने हेतु अंतर्जाल को खंगाला तो उसमें मुझे बी.एच.मेहता द्वारा लिखित Gonds of central indian highlands नामक किताब का वेबपेज मिला। उसमें थोड़ी सी जानकारी मिली कि कचनाधुरवा गोंड जनजाति में देवता की तरह पूजे जाते हैं और उन्होंने बिन्द्रानवागढ़ जमींदारी की नींव रखी।इस किताब की प्रथम प्रति सन् 1984 में प्रकाशित हुई थी। इसमें बताया गया है कि वर्तमान से लगभग 24 पीढ़ी पहले कचना धुरवा ने सत्ता स्थापित किया था।उस हिसाब से कचना धुरवा का 1685 के आसपास शासनकाल होना संभव लगता है।उसी प्रकार सन् 1924 के रायपुर गजेटियर के अनुसार भी लगभग पचीस पीढ़ी पहले लांजीगढ से सिंघलसाय का छुरा आना बताया गया है। दोनों जानकारी में साम्यता प्रतीत होती है।अब गजेटियर के अनुसार कचना धुरवा की गाथा इस प्रकार है-लगभग पच्चीस पीढ़ी पहले लांजीगढ के राजकुमार सिंघलसाय ने छुरा को अपना निवास बनाया। लांजी गढ़ वर्तमान में कालाहांडी जिले का एक शहर है जो भवानीपटना से लगभग 58 किमी की दूरी पर स्थित है।जब सिंघलसाय ने छुरा को अपना निवास बनाया तब छुरा मरदा जमींदारी अंतर्गत आती थी जिसमें एक भुंजिया राजा चिंडा भुंजिया का शासन था। जैसे कि अक्सर राजा लोगों के इतिहास में दिखाई देता है,कि एक राजा दूसरे राजा की उपस्थिति को अपनी सत्ता के लिए खतरा समझता है।चिंडा भुंजिया को भी खतरा महसूस हुआ,तब उसने एक दिन सिंघलसाय को भोज के लिए आमंत्रित किया और छलपूर्वक उसके भोजन में जहर मिलाकर उसकी हत्या कर दी।
जब सिंघलसाय की पत्नी को अपने पति की मृत्यु और राजा के षडयंत्र का पता चला तो वह भागकर पटनागढ चली गई।उस समय रानी गर्भवती थी।उसने एक ब्राम्हण के घर में शरण लिया।जब रानी का प्रसवकाल समीप आ रहा था उसी दौरान एक दिन घुरवा(कूडादान, छत्तीसगढ़ी में घुरवा कहते हैं)मे कचरा फेंकने जा रही थी,तभी कचना धुरवा का जन्म हो गया।जन्म लेने के स्थान के नाम के आधार पर बच्चे का नाम कचराघुरवा रखा गया।
अब कचना धुरवा सही है कि कचराघुरवा इसकेे बारे में मैं ठीक ठीक कुछ बता नहीं सकता।पुराने जमाने में छत्तीसगढ़ में चलन था कि बहुत लंबे समय के बाद किसी संतानहीन दंपती को मन्नत आदि मांगने के बाद जब बड़ी मुश्किल से संतान की प्राप्ति होती थी,तो उसका नाम थोड़ा गंदा सा रखते थे।जैसे-कचरा,घुरवा,मेहत्तर आदि।मान्यता ये थी कि गंदे नाम के कारण बच्चे को किसी की नजर नहीं लगे और उस पर कोई प्राणघातक संकट ना आए।बच्चे को बड़े बड़े काजल के टीके आदि लगाए जाते थे और कौड़ी आदि की माला भी इसीलिए पहनाते थे ताकि बच्चा कुरूप दिखे और उस पर विपत्ति ना आए।हो सकता है कचना धुरवा की माता ने अपने बच्चे  की पहचान को छुपाने और शत्रुओं से रक्षा के उद्देश्य से पहले उसका नाम कचरा घुरवा ही रखा हो,जो कालांतर में कचना धुरवा हो गया हो।
खैर,आगे कहानी में कचनाधुरवा बड़े होकर अपनी बहादुरी के कारण पटनागढ के राजा का सैनिक बनता है,फिर सेनापति के पद को प्राप्त करता है। सेनापति के रूप में कचनाधुरवा की सेवा से प्रसन्न होकर पटनागढ के राजा उससे भेंट मांगने कहते हैं।तब कचनाधुरवा मरदा जमींदारी को मांगता है।राजा उसे अनुमति दे देते हैं।तब कचनाधुरवा अपने पिताजी की मृत्यु का बदला लेते हैं और चिंडा भुंजिया को मारकर नवागढ़ रियासत की नींव रखते हैं।जो बाद में बिंद्रानवागढ के नाम से प्रसिद्ध होता है।इस इलाके का नाम यहां बेंदरा(बंदर) की अत्यधिक संख्या में मिलने के कारण बेंदरानवागढ(बाद में बिंद्रानवागढ)प्रचलित हुआ। बाद में वीर कचनाधुरवा ने आसपास के इलाकों को जीतकर अपने साम्राज्य का विस्तार किया।बताते हैं कि उनकी जमींदारी अंतर्गत देवभोग से फिंगेश्वर तक का क्षेत्र आता था।जिस चिंडा भुंजिया को मारकर कचनाधुरवा ने नवागढ़ जमींदारी स्थापित किया था,उसे गरियाबंद पुलिस थाने में लिखे गरियाबंद का इतिहास बोर्ड में कोदोपाली ग्राम का निवासी बताया गया है।
ये मेरी जांच पड़ताल के बाद सामने आई कहानी है,जिसे मैंने ऐतिहासिक तथ्यों के साथ पिरोने की कोशिश की है।
इस पर प्रमाणिक जानकारी इतिहासकार ही दे पायेंगे।
आगे फिर कचना धुरवा की किसी और कहानी पर चर्चा करूंगा...तब तक राम राम
बोलो कचना धुरवा महराज की जय!!



सोमवार, 7 सितंबर 2020

कचना धुरवा गाथा-1

 


 छत्तीसगढ़ की धरती वीरों की धरती है। यहां पर अनेक राजाओं ने अपने शौर्य,दयालुता और बलिदान की एक छाप छोड़ी है।ऐसे ही एक पराक्रमी वीर थे कचना धुरवा जो नवागढ़ के राजा थे।मुझे कचना धुरवा की गाथा में बहुत दिनों से रूचि थी और उनके संबंध में हरसंभव जानकारी जुटाने का प्रयास मेरी ओर से जारी है।बचपन में बुजुर्गों के मुख से उनकी कहानी सुनने को मिला करती थी,तब समझ नहीं थी।अब जब समझ आई तो उनके बारे में बताने वाले नहीं रहे।थक हारकर गुगल गुरू के शरण में गया तो वहां पर भी कुछ जानकारियां और यूट्यूब में मंदिर के विडियो के अलावा कुछ भी नहीं मिला। आसपास से जानकारियां जुटाना चाहा तो बहुत से लोगो ने रुचि नहीं लिया और बहुत लोगों ने सीधे ही अनभिज्ञता जता दी।इस पडताल और झिकझिक के बाद भी मेरी मेहनत थोड़ी बहुत सफल हुई और कुछ लिखने लायक सामग्री हाथ लगी।इस वीर के बारे में अभी भी प्रमाणिक जानकारी का अभाव है।उनके वंशज भी ज्यादा जानकारी नहीं रखते हैं। सिर्फ जनश्रुति और किंवदंतियां ही वीर कचना धुरवा की गाथा का आधार है।

कचना धुरवा के बारे में ही विरोधाभास है।कुछ किस्से कहानियों में कचनाधुरवा को एक राजा माना गया है। वहीं कुछ कहानियों में कचना को रानी और धुरवा को राजा बताया गया है। हालांकि हमारे आसपास कचनाधुरवा को एक वीर राजा के रूप में ही पूजा जाता है और अंचल में स्थित उनकी मूर्तियां भी सफेद घोड़े पर सवार राजा के रूप में उत्कीर्ण है।खैर, मैं सभी जानकारियां जुटाने और अपने पाठकों को उपलब्ध कराने की कोशिश करूंगा।

जैसे कि मैंने बताया कि कचनाधुरवा महराज पर बहुत अधिक सामग्री नेट में उपलब्ध नहीं हैं।फिर भी एक महत्वपूर्ण सामग्री मुझे नेट पर मिला-श्रीराजिमलोचनमहात्म्य किताब के पृष्ठ के कुछ भाग।इस पुस्तक के लेखक हैं पं.चंद्रकांत पाठक"काव्यतीर्थ" और इसकेे मुद्रक हैं ठाकुर दलगंजन सिंह जी,जो फिंगेश्वर के जमींदार थे। संस्कृत श्लोक और हिंदी टीका सहित इस किताब को सन् 2002 में छत्तीसगढ़ शासन संस्कृति विभाग द्वारा पुनर्मुद्रित किया गया है।इस पुस्तक में फिंगेश्वर राजघराने के राजाओं का वर्णन है।इसी किताब में मुझे कचनाधुरवा की एक कहानी पढ़ने को मिली।जो कुछ इस प्रकार है-

बहुत वर्ष पहले सूर्यवंश में वेन नामक एक राजा हुए थे।जो अपने पूर्व जन्म के पापों के कारण वर्तमान में भी क्रूर और अपने प्रजा तथा मुनियों के लिए दुखदाई था।जब मुनियों ने उनको सावधान किया तो वो उल्टा उन्हीं को भला बुरा कहने लगे।जब राजा में किंचित भी परिवर्तन ना हुआ तो मुनियों ने उनका श्राप दे दिया कि जा तू अपने दोष से मर जा!!!

सिद्ध तपस्वियों और मुनियों का श्राप कभी निष्फल नहीं होता।सो कुछ समय के बाद राजा की मृत्यु हो गई। लेकिन राजा के मृत्योपरांत मुनियों ने सोचा कि बिना राजा के तो राज्य सुरक्षित नहीं रह पायेगा। इसलिए उन्होंने उस राजा के शरीर का मंथन किया।जिससे एक दिव्यपुरूष उत्पन्न हुए।बताया गया है कि इन्हीं से राजगोंड की उत्पत्ति हुई है।मंथन से निकला दिव्य पुरुष मुनियों का सम्मान करने वाला, सदाचारी और दयालु था।तब मुनियों ने उनको छत्र देकर वन का राजा बना दिया और वे अपनी साधना में चले गए।फिर इसी वंश में कोई और राजा हुए जो बिना कोई कारण के अपनी भवन आदि को छोड़कर दिल्ली के समीप देवगढ़ चले गए और वहां राज्य करने लगे।कुछ समय के बाद दिल्ली पर चौहान राजाओं का आक्रमण हुआ और उनका राज स्थापित हो गया।तब चौहान राजा की अधीन रहकर उन्होंने देवगढ़ में शासन किया।फिर परिस्थितियां बदली और दिल्ली में युद्ध छिड़ गया।तब वे दोनों राजा कहीं भागकर चले गए।

इस परिस्थिति में उनकी रानियां भी अपनी प्राणरक्षा के लिए भागकर ओडिशा राज्य में स्थित बलांगीर पटना आ गई और एक ब्राम्हण के घर में शरण लिया।उस समय दोनों रानियां गर्भवती थी।ब्राम्हण ने पुत्रीवत उन दोनो का पालन किया।समय आने पर चौहान रानी और गोंड रानी ने एक-एक पुत्रों को जन्म दिया। दोनों बालक तेजस्वी और वीर थे। चौहान राजा के पुत्र का नाम रमईदेव और गोंड राजा के संतान का नाम कचनाधुरवा रखा गया।शनै:शनै: दोनों बालक बड़े हुए।

 तब बलांगिरपटना में एक रानी का शासन था जिसके नाक से रोज रात में एक सांप निकलता था जो रानी के पति मतलब राजा को डस लेता था। इसलिए रानी की रोज शादी होती थी और हर दिन नया राजा बनता था।जब रमईदेव के राजा बनने की बारी आई तब कचनाधुरवा ने उनको आश्वस्त किया कि वो निर्भय होकर रहें।जब रमईदेव राजा बनने के पश्चात आधी रात को सांप निकलकर उसे डसने ही वाला था तभी वीर कचना धुरवा ने अपनी तलवार से उस सांप के टुकड़े टुकड़े कर दिए।तब रमईदेव ने उनको अपना सेनापति बना दिया।

दिन में कचना धुरवा रमईदेव के पास रहते थे और रात में नवागढ़ जाकर युद्ध करते थे।समय आने पर रमईदेव ने कचनाधुरवा को नवागढ़ का राजा बना दिया और वे सुखपूर्वक अपने शत्रुओं को मारकर राज करने लगे।कुछ समय के पश्चात कचनाधुरवा का विवाह हुआ और उनकी रानी ने तीन सुंदर राजकुमारों को जन्म दिया।जब राजकुमार योग्य हो गए तो उन्होंने राज्य का भार राजकुमार को सौंप दिया और वे गोलोक को चले गए। तत्पश्चात कचनाधुरवा के दूसरे पुत्र ने अपने बड़े भाई से छुरा का और तीसरे पुत्र ने फिंगेश्वर का राज्य प्राप्त किया। राजिम महात्म्य में लिखा है-

अथ: द्वितीयस्तनय प्रतापी नृपस्य


तस्याहितचित्ततापी।


छूरामिधग्रामवराधिपत्यं


लेमेऽग्रजाव्धाहरतश्वाव सत्यम् ।।४५।

  इस तरह से राजिम महात्म्य के अनुसार वीर कचना धुरवा की गाथा समाप्त हुई।लेकिन सन् 1924 में प्रकाशित रायपुर गजेटियर के अनुसार कहानी कुछ अलग है जो अगली बार बताऊंगा।तब तक राम..राम...

बोलो कचना धुरवा महराज की जय!!

शुक्रवार, 4 सितंबर 2020

किस्सा मेरे गांव का

 

 

भारत गांवों का देश कहा जाता है।देश की कुल आबादी का तिहाई हिस्सा गांवों में ही निवास करता है।देश की कला, संस्कृति और परम्पराओं का जतन भी गांव में ही होता है।गांव हैं तो खेत है, कुआं है,तालाब हैं,किसान हैं और किस्से कहानियां भी है। छत्तीसगढ़ अंचल के ओनहा कोनहा(सभी हिस्सों) में लोककथा की भरमार है।जरूरत है अपने आनेवाली पीढ़ियों के लिए उसको सहेज कर रखने कि ताकि उन्हें अपने इतिहास का स्मरण रहे और ये किस्से कहानियां जीवनपथ पर उनका मार्गदर्शन करता रहे।बहुत दिनों से मैं अपने क्षेत्र के वीर कचनाधुरवा महराज के किस्से कहानियां इकट्ठा करने के प्रयास में हूं।कुछ सफलता भी मिली है,पर अभी और खोज जारी है।
    फिलहाल मैं अपने गांव के नामकरण से संबंधित जनश्रुति और ग्राम की आराध्य देवी टेंगनही माता के चमत्कार के बारे में बताउंगा,जो मुझे ग्राम के कुछ वरिष्ठ जनों के मुख से सुनकर ज्ञात हुआ है। दरअसल मेरे गांव का नाम माता टेंगनही के नाम से जुडकर बना है। हमारे गांव से लगभग चार किलोमीटर की दूरी पर स्थित पहाड़ी में माता टेंगनही का दरबार है।इस माता के चमत्कार की घटनाएं आस-पास के गांव में सुनने को मिल सकता है।बताते हैं कि किसी समय नवागढ़ के राजा ने माता टेंगनही से अपने राज्य विस्तार की इच्छा से मनौती मांगी थी तब माता ने उनको तीन सिंगवाले बकरे की बलि मांगी थी।राजा को बहुत प्रयास करने पर भी कहीं तीन सिंगवाला बकरा नहीं मिला तो उन्होंने माता से विनती किया तब माता ने उनको स्वप्न में आकर आदेश दिया कि मेरे निवास से कुछ दूर पर स्थित सरार(सरोवर)से तीन सिंग वाले टेंगनामछरी को लाकर बलि दो।माता की आज्ञानुसार राजा ने बलि दिया।तब से प्रतिकात्मक रूप से माता टेंगनहीं को टेंगना मछली की स्वर्ण प्रतिकृति मनौती पूर्ण होने  पर चढ़ाई जाती है।टेंगनहीं माता का नामकरण भी इसी कारण टेंगनहीं हुआ।
जिस सरार से टेंगनहीं माता को टेंगनामछली की बलि दी गई वो सरार आज भी हमारे गांव में विद्यमान है जहां आज भी प्रचुर मात्रा में टेंगना मछली मिलता है। जनश्रुति है कि माता टेंगनहीं उसी सरार में स्नान के लिए आया करती थी और कुछ समय के लिए वास भी करती थी,जिसके कारण ग्राम का नाम टेंगनाबासा पड़ा।हो सकता है टेंगनहीवासा ना बोलकर सहूलियत के लिए टेंगनाबासा ज्यादा उचित लगा हो लोगों को।
 ये तो नामकरण का किस्सा हुआ।एक और अचरज भरी बात है इस गांव की। यहां कोई तेली(जाति)का परिवार निवास नहीं कर सकता।मान्यता है कि तेली जाति के लोगों का वंश यहां नहीं फल फूल सकता है।इसके पीछे फिर माता की कहानी है।बताते हैं कि किसी समय में कोई तेली परिवार इस ग्राम में व्यवसाय के लिए आया था और यहीं निवासरत हो गया।एक दिन उस व्यापारी ने माता टेंगनहीं को सरार में स्नानरत देखकर उसको साधारण युवती समझकर छेड़छाड़ करने की कोशिश की तब माता ने उसको श्राप दिया कि तुम्हारी जाति के लोग इस गांव में कभी अपना वंश आगे नहीं बढ़ा पायेंगे।तब से इस लोकमान्यता का असर दिखाई देता है।आज भी हमारे गांव में तेली जाति का कोई व्यक्ति निवास नहीं करता।है ना अचरज की बात!!!जबकि हमारा पड़ोसी ग्राम रावनाभाठा तेली बाहुल्य है।
गांव पर माता की असीम कृपा है।इस गांव को आशीष मिला है कि यहां कभी भी माता का प्रकोप(चेचक जैसी संक्रामक बिमारी) नहीं होगा।दूसरी जगह से भले ही पहुनास्वरूप आ सकती है लेकिन यहां कभी पैदा नहीं हो सकती।गांववाले इस बात की पुष्टि करते हैं।माता के प्रति अगाध आस्था के कारण किसी भी शुभ कार्य को प्रारंभ करने से पहले माता को नेवता अवश्य दिया जाता है।गांव की रामायण मंडली से लेकर स्वयं सहायता समूह का नाम भी माता पर आधारित है।
 कुछ और भी विशिष्टता है।जैसे कि इस ग्राम पर माता सरस्वती और लक्ष्मी की विशेष कृपा है।गांव धन-धान्य से संपन्न और शिल्प कारों का गांव है।यहां राजमिस्त्री,बढई,पेंटर आदि कामों के जानकार घर घर है।दूसरी बात अजीब बात है कि ये ग्राम विवाहित बेटी और दमांदो को खूब फलता है।गांव की आधी से ज्यादा आबादी उन्हीं की है।
 एक बात सबसे अच्छी है कि गांव में एकता है।जब बस्ती महज अस्सी नब्बे घर की थी तब भी एक ही स्थान पर कमरछठ पूजा,गौरी गौरा स्थापना और माता दुर्गा की स्थापना होती थी और आज जबकि घरों की संख्या बढ़कर एक सौ पचास के पार चली गई है तब भी स्थिति जस की तस है।आज जब एक परिवार में संख्या बढने पर कोई आयोजन अलग-अलग होने लगता है उस स्थिति में एक बड़े गांव का एक रहना अपने आप में बेमिसाल है।
अभी के लिए बस इतना.....

दिन चारी मइहरवा में....सुरता स्व.मिथलेश सर के

  लोकगीतों की अपनी एक अलग मिठास होती है।बिना संगीत के भी लोकगीत मन मोह लेता है,और परंपरागत वाद्य यंत्रों की संगत हो जाए, फिर क्या कहने!! आज ...