सोमवार, 7 सितंबर 2020

कचना धुरवा गाथा-1

 


 छत्तीसगढ़ की धरती वीरों की धरती है। यहां पर अनेक राजाओं ने अपने शौर्य,दयालुता और बलिदान की एक छाप छोड़ी है।ऐसे ही एक पराक्रमी वीर थे कचना धुरवा जो नवागढ़ के राजा थे।मुझे कचना धुरवा की गाथा में बहुत दिनों से रूचि थी और उनके संबंध में हरसंभव जानकारी जुटाने का प्रयास मेरी ओर से जारी है।बचपन में बुजुर्गों के मुख से उनकी कहानी सुनने को मिला करती थी,तब समझ नहीं थी।अब जब समझ आई तो उनके बारे में बताने वाले नहीं रहे।थक हारकर गुगल गुरू के शरण में गया तो वहां पर भी कुछ जानकारियां और यूट्यूब में मंदिर के विडियो के अलावा कुछ भी नहीं मिला। आसपास से जानकारियां जुटाना चाहा तो बहुत से लोगो ने रुचि नहीं लिया और बहुत लोगों ने सीधे ही अनभिज्ञता जता दी।इस पडताल और झिकझिक के बाद भी मेरी मेहनत थोड़ी बहुत सफल हुई और कुछ लिखने लायक सामग्री हाथ लगी।इस वीर के बारे में अभी भी प्रमाणिक जानकारी का अभाव है।उनके वंशज भी ज्यादा जानकारी नहीं रखते हैं। सिर्फ जनश्रुति और किंवदंतियां ही वीर कचना धुरवा की गाथा का आधार है।

कचना धुरवा के बारे में ही विरोधाभास है।कुछ किस्से कहानियों में कचनाधुरवा को एक राजा माना गया है। वहीं कुछ कहानियों में कचना को रानी और धुरवा को राजा बताया गया है। हालांकि हमारे आसपास कचनाधुरवा को एक वीर राजा के रूप में ही पूजा जाता है और अंचल में स्थित उनकी मूर्तियां भी सफेद घोड़े पर सवार राजा के रूप में उत्कीर्ण है।खैर, मैं सभी जानकारियां जुटाने और अपने पाठकों को उपलब्ध कराने की कोशिश करूंगा।

जैसे कि मैंने बताया कि कचनाधुरवा महराज पर बहुत अधिक सामग्री नेट में उपलब्ध नहीं हैं।फिर भी एक महत्वपूर्ण सामग्री मुझे नेट पर मिला-श्रीराजिमलोचनमहात्म्य किताब के पृष्ठ के कुछ भाग।इस पुस्तक के लेखक हैं पं.चंद्रकांत पाठक"काव्यतीर्थ" और इसकेे मुद्रक हैं ठाकुर दलगंजन सिंह जी,जो फिंगेश्वर के जमींदार थे। संस्कृत श्लोक और हिंदी टीका सहित इस किताब को सन् 2002 में छत्तीसगढ़ शासन संस्कृति विभाग द्वारा पुनर्मुद्रित किया गया है।इस पुस्तक में फिंगेश्वर राजघराने के राजाओं का वर्णन है।इसी किताब में मुझे कचनाधुरवा की एक कहानी पढ़ने को मिली।जो कुछ इस प्रकार है-

बहुत वर्ष पहले सूर्यवंश में वेन नामक एक राजा हुए थे।जो अपने पूर्व जन्म के पापों के कारण वर्तमान में भी क्रूर और अपने प्रजा तथा मुनियों के लिए दुखदाई था।जब मुनियों ने उनको सावधान किया तो वो उल्टा उन्हीं को भला बुरा कहने लगे।जब राजा में किंचित भी परिवर्तन ना हुआ तो मुनियों ने उनका श्राप दे दिया कि जा तू अपने दोष से मर जा!!!

सिद्ध तपस्वियों और मुनियों का श्राप कभी निष्फल नहीं होता।सो कुछ समय के बाद राजा की मृत्यु हो गई। लेकिन राजा के मृत्योपरांत मुनियों ने सोचा कि बिना राजा के तो राज्य सुरक्षित नहीं रह पायेगा। इसलिए उन्होंने उस राजा के शरीर का मंथन किया।जिससे एक दिव्यपुरूष उत्पन्न हुए।बताया गया है कि इन्हीं से राजगोंड की उत्पत्ति हुई है।मंथन से निकला दिव्य पुरुष मुनियों का सम्मान करने वाला, सदाचारी और दयालु था।तब मुनियों ने उनको छत्र देकर वन का राजा बना दिया और वे अपनी साधना में चले गए।फिर इसी वंश में कोई और राजा हुए जो बिना कोई कारण के अपनी भवन आदि को छोड़कर दिल्ली के समीप देवगढ़ चले गए और वहां राज्य करने लगे।कुछ समय के बाद दिल्ली पर चौहान राजाओं का आक्रमण हुआ और उनका राज स्थापित हो गया।तब चौहान राजा की अधीन रहकर उन्होंने देवगढ़ में शासन किया।फिर परिस्थितियां बदली और दिल्ली में युद्ध छिड़ गया।तब वे दोनों राजा कहीं भागकर चले गए।

इस परिस्थिति में उनकी रानियां भी अपनी प्राणरक्षा के लिए भागकर ओडिशा राज्य में स्थित बलांगीर पटना आ गई और एक ब्राम्हण के घर में शरण लिया।उस समय दोनों रानियां गर्भवती थी।ब्राम्हण ने पुत्रीवत उन दोनो का पालन किया।समय आने पर चौहान रानी और गोंड रानी ने एक-एक पुत्रों को जन्म दिया। दोनों बालक तेजस्वी और वीर थे। चौहान राजा के पुत्र का नाम रमईदेव और गोंड राजा के संतान का नाम कचनाधुरवा रखा गया।शनै:शनै: दोनों बालक बड़े हुए।

 तब बलांगिरपटना में एक रानी का शासन था जिसके नाक से रोज रात में एक सांप निकलता था जो रानी के पति मतलब राजा को डस लेता था। इसलिए रानी की रोज शादी होती थी और हर दिन नया राजा बनता था।जब रमईदेव के राजा बनने की बारी आई तब कचनाधुरवा ने उनको आश्वस्त किया कि वो निर्भय होकर रहें।जब रमईदेव राजा बनने के पश्चात आधी रात को सांप निकलकर उसे डसने ही वाला था तभी वीर कचना धुरवा ने अपनी तलवार से उस सांप के टुकड़े टुकड़े कर दिए।तब रमईदेव ने उनको अपना सेनापति बना दिया।

दिन में कचना धुरवा रमईदेव के पास रहते थे और रात में नवागढ़ जाकर युद्ध करते थे।समय आने पर रमईदेव ने कचनाधुरवा को नवागढ़ का राजा बना दिया और वे सुखपूर्वक अपने शत्रुओं को मारकर राज करने लगे।कुछ समय के पश्चात कचनाधुरवा का विवाह हुआ और उनकी रानी ने तीन सुंदर राजकुमारों को जन्म दिया।जब राजकुमार योग्य हो गए तो उन्होंने राज्य का भार राजकुमार को सौंप दिया और वे गोलोक को चले गए। तत्पश्चात कचनाधुरवा के दूसरे पुत्र ने अपने बड़े भाई से छुरा का और तीसरे पुत्र ने फिंगेश्वर का राज्य प्राप्त किया। राजिम महात्म्य में लिखा है-

अथ: द्वितीयस्तनय प्रतापी नृपस्य


तस्याहितचित्ततापी।


छूरामिधग्रामवराधिपत्यं


लेमेऽग्रजाव्धाहरतश्वाव सत्यम् ।।४५।

  इस तरह से राजिम महात्म्य के अनुसार वीर कचना धुरवा की गाथा समाप्त हुई।लेकिन सन् 1924 में प्रकाशित रायपुर गजेटियर के अनुसार कहानी कुछ अलग है जो अगली बार बताऊंगा।तब तक राम..राम...

बोलो कचना धुरवा महराज की जय!!

दिन चारी मइहरवा में....सुरता स्व.मिथलेश सर के

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