मेरे खयाल से ये वीर कचनाधुरवा कड़ी का पांचवां और अंतिम भाग होना चाहिए,पर आगे कोई और नई जानकारी प्राप्त हुई तो इस गाथा की और अगली कड़ी आने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता।इस गाथा के लिए नई जानकारी जुटाने के लिए मैंने गूगल को इतनी बार खंगाला है कि अब जैसे ही मैं कचनाधुरवा टाईप करता हूं।बारीक से बारीक जानकारी गूगल बाबा मुझे सौंप देता है और कहता है ले मेरे बाप!!मेरे पास जो है वो देख ले,और अपने मतलब की चीज ले ले।ऐसा हाल हो गया है।इसी खोजबीन के दौरान मुझे ब्रिटिश मानवशास्त्री वैरियर एल्विन लिखित किताब का एक वेब पेज मिला। इसमें मुझे फिर से एक नई कहानी मिली।किताब का नाम है"जनजातीय मिथक-उडिया आदिवासियों की कहानियां"।
इस किताब के अंश में कमार कहानी अंतर्गत धुरवा राजा का जिक्र आया है।धुरवा राजा मतलब कचना धुरवा। इसमें उन्होंने इतिहासज्ञ रसेल और हीरालाल के हवाले से बताया है कि कमार गोंड जनजाति की ही एक उपजाति है और वीर कचनाधुरवा भी उसी वंश से थे।इस संबंध में एक कहानी है कि किसी समय बहुत से कमारों ने मिलकर एक बार भीमराज नामक पक्षी को मार दिया।वह पक्षी दिल्ली से आए किसी विदेशी नागरिक का था।उस विदेशी ने कमारों से उसकी पक्षी को मारने के कारण मुआवजे की मांग की।उसकी मांग को कमारों ने मानने से इंकार कर दिया।तब वह विदेशी दिल्ली गया और वहां से बहुत सारे नरभक्षी सैनिकों को ले आया।उन नरभक्षी सैनिकों ने एक कमार गर्भवती स्त्री को छोड़कर शेष सारे कमारों का भक्षण कर लिया।तब वह स्त्री भागकर पटना चली गई। जहां उसने एक बालक को जन्म दिया।उस बालक में अद्भुत दैवीय शक्तियां थी।एक बार उसने लोहे से बने बकरे का सिर डंडे से काट डाला था।उस वीर बालक का नाम कचनाधुरवा था।उसने अपने आदिवासी जनों को इकट्ठा किया और नरभक्षी सैनिकों को मारकर अपना राज्य स्थापित किया।
है ना अनूठी कहानी!!अभी तक कचनाधुरवा को हम गोंड राजा मानते आए हैं जबकि यहां उसे कमार जनजाति का बताया गया है। जनजातीय कहानियां लिखित तो होती नहीं,ये वाचिक हुआ करती है।एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक इन कहानियों के संप्रेषण के दौरान उसमें बहुत से बदलाव हो जाते हैं।कई मूल बातें छूट जाती है तो कई नवीन तथ्य जुड़ जाते हैं।मुझे ये सिर्फ एक जनश्रुति लगती है जिसकी प्रामाणिकता पर संदेह है। दिल्ली से नरभक्षी सैनिकों को बुलाने वाली बात गले नहीं उतरती है। वैसे ये कहानी इस किताब के पृष्ठ क्रमांक 27 में अंकित है।मेरा मनगढ़ंत या बनाया हुआ नहीं है।
अब बात करते हैं इस किताब के लेखक वैरियर एल्विन की जो एक मानवशास्त्री था।उनका पूरा नाम हैरी वैरियर हालमन एल्विन था।वह एक ब्रिटिश मिशनरी के रूप में सन् 1927 में भारत आया और पुणे के क्रिश्चियन सोसायटी से जुड़ गया।वह इसाई धर्म के प्रचार के उद्देश्य से भारत आया था मगर गांधीजी और टैगोर के विचारों ने उसका नजरिया बदल दिया।वह अपना मिशन भूलकर मध्य भारत के आदिवासियों के बीच रहकर उनके जीवन-शैली का अध्ययन करने लगा और इसमें अपना पूरा जीवन लगा दिया।बस्तर के ऊपर भी उसने बहुत सी किताबें लिखी हैं।सन् 1961 में उनको भारत सरकार द्वारा पद्मभूषण से सम्मानित किया गया था।उसने एक आदिवासी महिला से विवाह भी किया था।
खैर,इस विषय पर मेरे एक मार्गदर्शक बड़े भैय्या ने उपन्यास लिखने का सलाह दिया है और कुछ अभिन्न मित्रों ने भी ऐसा ही कहा है।मां शारदे की कृपा,वीर कचना धुरवा का आशीष और आप लोगों का सहयोग रहा तो भविष्य में ये भी संभव हो सकता है।
मिलेंगे फिर अगले पोस्ट में तब तक घर पर रहें,सुरक्षित रहे,स्वस्थ रहें
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