बुधवार, 9 सितंबर 2020

कचना धुरवा गाथा-2

 समय किसी के लिए नहीं रूका है।किसी घटना या जानकारी को अगर लिपिबद्ध न किया जाए तो वह समयधारा में विलीन हो जाती है। बहुत सी घटनाएं लिपिबद्ध ना होने के कारण मात्र जनश्रुति बनकर रह जाती है जबकि उनका ऐतिहासिक आधार होता है।जैसा कि मैंने वीर कचनाधुरवा की गाथा वाली पिछले पोस्ट में बताया था कि उनके बारे में ऐतिहासिक जानकारी का अभाव है। फिर मैंने उनसे संबंधित ऐतिहासिक तथ्यों को खंगालना शुरू किया।काम आया फिर वही गुगल गुरु,जिसने कुछ विद्वानों के लेख आदि को संभालकर रखा है।
दरअसल कचना धुरवा की गाथा प्राचीन दक्षिण कौशल से जुड़ी है जब ओडिशा और महाराष्ट्र का कुछ भाग भी छत्तीसगढ़ में समाहित था।
 श्रीराजिमलोचनमहात्म्य के अनुसार जिस रमईदेव नाम के राजा का जिक्र हुआ है वो वास्तव में हुए हैं, और बलांगिरपटना नामक स्थान भी है,जो वास्तव में पटनागढ नामक रियासत था,जिसके अंतर्गत बलांगीर भी आता था।वर्तमान में बलांगीर ओडिशा का एक जिला मुख्यालय है और पटनागढ एक विधानसभा क्षेत्र है।ठीक वैसे ही जैसे कभी बिन्द्रानवागढ़ रियासत के अंतर्गत गरियाबंद की गिनती सबसे बडे गांव के रूप में होती थी जबकि वर्तमान में गरियाबंद छत्तीसगढ़ का एक जिला मुख्यालय है और बिंद्रानवागढ विधानसभा क्षेत्र है।
   पटनागढ तब अठारह गढ़ का केंद्र बिंदु हुआ करता था,जिसके अंतर्गत पटनागढ, संबलपुर,सोनेपुर,बामरा,रायखोल,गंगपुर,बोढ,आटमुलिक,फूलझर,बोनाई,रायगढ,बरगढ,सक्ति,चंद्रपुर, सारंगढ़, बिन्द्रानवागढ़,खरियार और पदमपुर आते थे।इनको अठारहगढ जात भी कहा जाता था। इनमें से फूलझर,रायगढ,सक्ति,चंद्रपुर, सारंगढ़ और बिन्द्रानवागढ़ अब छत्तीसगढ़ राज्य अंतर्गत आते हैं।पटनागढ के शासक रमईदेव चौहान वंशी थे और उन्होंने लगभग 1685-1762 तक राज्य किया।अगर कचना धुरवा उनके समकालीन थे तो उनका इतिहास भी उतना ही पुराना होना चाहिए।स्थानीय स्तर पर इतनी पुरानी जानकारी देने वाला कोई विज्ञजन बहुत तलाश करने पर भी नहीं मिल रहा है। फिर मैंने इसके संबंध में जानकारी प्राप्त करने हेतु अंतर्जाल को खंगाला तो उसमें मुझे बी.एच.मेहता द्वारा लिखित Gonds of central indian highlands नामक किताब का वेबपेज मिला। उसमें थोड़ी सी जानकारी मिली कि कचनाधुरवा गोंड जनजाति में देवता की तरह पूजे जाते हैं और उन्होंने बिन्द्रानवागढ़ जमींदारी की नींव रखी।इस किताब की प्रथम प्रति सन् 1984 में प्रकाशित हुई थी। इसमें बताया गया है कि वर्तमान से लगभग 24 पीढ़ी पहले कचना धुरवा ने सत्ता स्थापित किया था।उस हिसाब से कचना धुरवा का 1685 के आसपास शासनकाल होना संभव लगता है।उसी प्रकार सन् 1924 के रायपुर गजेटियर के अनुसार भी लगभग पचीस पीढ़ी पहले लांजीगढ से सिंघलसाय का छुरा आना बताया गया है। दोनों जानकारी में साम्यता प्रतीत होती है।अब गजेटियर के अनुसार कचना धुरवा की गाथा इस प्रकार है-लगभग पच्चीस पीढ़ी पहले लांजीगढ के राजकुमार सिंघलसाय ने छुरा को अपना निवास बनाया। लांजी गढ़ वर्तमान में कालाहांडी जिले का एक शहर है जो भवानीपटना से लगभग 58 किमी की दूरी पर स्थित है।जब सिंघलसाय ने छुरा को अपना निवास बनाया तब छुरा मरदा जमींदारी अंतर्गत आती थी जिसमें एक भुंजिया राजा चिंडा भुंजिया का शासन था। जैसे कि अक्सर राजा लोगों के इतिहास में दिखाई देता है,कि एक राजा दूसरे राजा की उपस्थिति को अपनी सत्ता के लिए खतरा समझता है।चिंडा भुंजिया को भी खतरा महसूस हुआ,तब उसने एक दिन सिंघलसाय को भोज के लिए आमंत्रित किया और छलपूर्वक उसके भोजन में जहर मिलाकर उसकी हत्या कर दी।
जब सिंघलसाय की पत्नी को अपने पति की मृत्यु और राजा के षडयंत्र का पता चला तो वह भागकर पटनागढ चली गई।उस समय रानी गर्भवती थी।उसने एक ब्राम्हण के घर में शरण लिया।जब रानी का प्रसवकाल समीप आ रहा था उसी दौरान एक दिन घुरवा(कूडादान, छत्तीसगढ़ी में घुरवा कहते हैं)मे कचरा फेंकने जा रही थी,तभी कचना धुरवा का जन्म हो गया।जन्म लेने के स्थान के नाम के आधार पर बच्चे का नाम कचराघुरवा रखा गया।
अब कचना धुरवा सही है कि कचराघुरवा इसकेे बारे में मैं ठीक ठीक कुछ बता नहीं सकता।पुराने जमाने में छत्तीसगढ़ में चलन था कि बहुत लंबे समय के बाद किसी संतानहीन दंपती को मन्नत आदि मांगने के बाद जब बड़ी मुश्किल से संतान की प्राप्ति होती थी,तो उसका नाम थोड़ा गंदा सा रखते थे।जैसे-कचरा,घुरवा,मेहत्तर आदि।मान्यता ये थी कि गंदे नाम के कारण बच्चे को किसी की नजर नहीं लगे और उस पर कोई प्राणघातक संकट ना आए।बच्चे को बड़े बड़े काजल के टीके आदि लगाए जाते थे और कौड़ी आदि की माला भी इसीलिए पहनाते थे ताकि बच्चा कुरूप दिखे और उस पर विपत्ति ना आए।हो सकता है कचना धुरवा की माता ने अपने बच्चे  की पहचान को छुपाने और शत्रुओं से रक्षा के उद्देश्य से पहले उसका नाम कचरा घुरवा ही रखा हो,जो कालांतर में कचना धुरवा हो गया हो।
खैर,आगे कहानी में कचनाधुरवा बड़े होकर अपनी बहादुरी के कारण पटनागढ के राजा का सैनिक बनता है,फिर सेनापति के पद को प्राप्त करता है। सेनापति के रूप में कचनाधुरवा की सेवा से प्रसन्न होकर पटनागढ के राजा उससे भेंट मांगने कहते हैं।तब कचनाधुरवा मरदा जमींदारी को मांगता है।राजा उसे अनुमति दे देते हैं।तब कचनाधुरवा अपने पिताजी की मृत्यु का बदला लेते हैं और चिंडा भुंजिया को मारकर नवागढ़ रियासत की नींव रखते हैं।जो बाद में बिंद्रानवागढ के नाम से प्रसिद्ध होता है।इस इलाके का नाम यहां बेंदरा(बंदर) की अत्यधिक संख्या में मिलने के कारण बेंदरानवागढ(बाद में बिंद्रानवागढ)प्रचलित हुआ। बाद में वीर कचनाधुरवा ने आसपास के इलाकों को जीतकर अपने साम्राज्य का विस्तार किया।बताते हैं कि उनकी जमींदारी अंतर्गत देवभोग से फिंगेश्वर तक का क्षेत्र आता था।जिस चिंडा भुंजिया को मारकर कचनाधुरवा ने नवागढ़ जमींदारी स्थापित किया था,उसे गरियाबंद पुलिस थाने में लिखे गरियाबंद का इतिहास बोर्ड में कोदोपाली ग्राम का निवासी बताया गया है।
ये मेरी जांच पड़ताल के बाद सामने आई कहानी है,जिसे मैंने ऐतिहासिक तथ्यों के साथ पिरोने की कोशिश की है।
इस पर प्रमाणिक जानकारी इतिहासकार ही दे पायेंगे।
आगे फिर कचना धुरवा की किसी और कहानी पर चर्चा करूंगा...तब तक राम राम
बोलो कचना धुरवा महराज की जय!!



2 टिप्‍पणियां:

दिन चारी मइहरवा में....सुरता स्व.मिथलेश सर के

  लोकगीतों की अपनी एक अलग मिठास होती है।बिना संगीत के भी लोकगीत मन मोह लेता है,और परंपरागत वाद्य यंत्रों की संगत हो जाए, फिर क्या कहने!! आज ...