आज दशहरे का पावन पर्व है।ये पर्व प्रतीक है अच्छाई की बुराई पर जीत का,सत्य की असत्य पर विजय का।सवेरे से मोबाइल में टेंहर्रा (नीलकंठ )के दर्शन हो रहे हैं,पर सचमुच इस दिन नीलकंठ का दर्शन मुश्किल होता है।पता नहीं दशहरे के दिन ये पक्षी कहां गायब हो जाते हैं?कहते हैं दशहरे के दिन नीलकंठ देखना शुभ होता है।ये पक्षी सामान्यतः आम दिनों में बिजली के तारों पर अक्सर बैठे दिखाई पड़ते हैं। संभवतः टेंहर्रा को भी दशहरे के दिन अपनी अहमियत का पता होता है ?तभी तो वो दशहरे के दिन आसानी से नजर नहीं आते।
संपूर्ण देश में रावण का पुतला दहन कर विजयादशमी मनाने की परंपरा है। छत्तीसगढ़ में भी रावण दहन और रामलीला प्रचलित है।पहले गणेश विसर्जन पश्चात पितृपक्ष से रामलीला का रिहर्सल गांव गांव में चला करता था,लेकिन टीवी,डीवीडी और अब मोबाइल के आगमन से ये परंपरा लगभग-लगभग विलुप्त हो गई और रामलीला का मंचन समाप्त होने के कगार पर है। बड़ी मुश्किल से रावण दहन करने के समय राम रावण का युद्ध दर्शाने के लिए कलाकार मिलते हैं।
लेकिन इसके अलावा भी हमारे अंचल में में इस पर्व का एक क्षेत्रीय पहचान भी है। हमारे क्षेत्र में नवाखानी त्योहार के रूप में सुविधानुसार क्वांर मास की अष्टमी,नवमी और दशमी तिथि को मनाई जाती है।लेकिन ज्यादातर लोग दशहरे के दिन ही नवा खाते हैं।नवाखाई से तात्पर्य है देवी-देवताओं की पूजा करने के पश्चात उनको नई फसल के अन्न का भोग अर्पित करना तत्पश्चात परिवार समेत नये अन्न का भोग प्रसादी ग्रहण करना।कुछ लोग इस अवसर पर अपने ईष्ट देवी-देवताओं को बलि आदि भी देते हैं।
इस त्योहार को ओडिशा से लगे छत्तीसगढ़ के सीमावर्ती क्षेत्रों में थोड़े अलग स्वरूप के साथ मनाया जाता है।दशहरे के एक दिन पूर्व अविवाहित कन्याएं राह में रस्सी पकड़ कर आने जाने वाले वाहन चालकों को राह में डोर पकड़ कर रोकती है और भेंटस्वरूप दशहरा चंदे का संग्रहण करती है।फिर दूसरे दिन उपवास रखकर रात्रि में महालक्ष्मी माता की पूजा कर प्रसाद का वितरण किया जाता है।रात्रि जागरण किया जाता है और नाच-गाने या भजन आदि का कार्यक्रम रखा जाता है।
पहले जब बाल विवाह का प्रचलन था तब दशहरे के दिन बेटे के साथ ब्याही गई बालिका वधू को नवा खाने के लिए लिवाकर लाते थे। बचपन में ही बच्चों की शादी कर दी जाती थी। कम उम्र में शादी करने के बाद बच्चियों को पहले उनके मायके में ही छोड़ दिया जाता था और जानने समझने लायक होने पर ही ससुराल में गवन(गौना)कराकर लाते थे।इस परंपरा को पठौनी विवाह कहते थे। सामान्यतः ये परंपरा गोंड जनजाति में अधिक प्रचलित थी।
गूगल में पठौनी विवाह का मतलब ढूंढने पर उपलब्ध अधिकतर लेख में कन्या द्वारा वर के यहां बारात लेकर आना बताया जा रहा है।वास्तव में कन्या द्वारा वर पक्ष के यहां बारात लेकर जाना और वर के घर में ही तमाम शादी की रस्में पूरी करना ठीका विवाह कहलाता है। कुछ बुजुर्गों ने ऐसा बताया है।
इस परंपरा के बारे में बुजुर्ग बताते हैं कि प्रगाढ़ संबंध वाले दो परिवारों में कोख भीतर से ही बच्चों के विवाह संबंध तय कर दिए जाते थे।तीन चार वर्ष की अवस्था में पंर्रा में बिठाकर भांवर(फेरे)भी ले लिए जाते थे और बच्चे शादी के बंधन में बंध जाया करते थे।चूंकि बच्चे छोटे होते थे इसलिए कुछ रस्मों को बचाकर रखा जाता था।बाद में पठौनी बारात आने पर कन्या की गौना (विदाई) की जाती थी।
सामान्यतः 14-15 वर्ष की आयु में गौना होता था। जिसमें वधु को विदाई के समय झांपी,झेंझरी और वस्त्र आदि कन्या को भेंट स्वरूप दिया जाता था।पहले आर्थिक रूप से लोग कमजोर थे तो आज की तरह दहेज आदि देने का चलन न था। अभावग्रस्तता थी पर उस समय का जीवन बेहद सरल और सहज हुआ करता था।
वैसे छत्तीसगढ़ के पहले फिल्म निर्माता निर्देशक मनु नायक जी ने कहि देबे संदेश के बाद 'पठौनी' नाम से एक और छत्तीसगढ़ी फिल्म बनाने की घोषणा की थी।मगर पहले फिल्म के निर्माण और प्रदर्शन के दौरान हुए परेशानियों ने उनके कदम रोक दिए और उन्होंने इस योजना को ठंडे बस्ते में डाल दिया। छत्तीसगढ़ के प्रसिद्ध गायक और छत्तीसगढ़ के किशोर कुमार की उपमा से विभूषित बैतलराम साहू ने एक हास्य नाटक "पठौनी लायके" बनाया था। बड़ी मजेदार प्रस्तुति थी।हमारे बचपन के समय में टेप कैसेट में खूब सुनी जाती थी।
बाल विवाह एक सामाजिक कुप्रथा थी जो शिक्षा के प्रसार के कारण आज समाप्त हो गया है।दो अबोध बच्चों का बचपन में ही जीवनसाथी तय कर देना कतई उचित नहीं था।इस विवाह का सबसे बड़ा नुक़सान ये था कि विवाह होने के पश्चात यदि वर का देहांत हो जाता तो वधु बाल विधवा कहलाती और उसकी शादी उसी प्रकार के किसी बाल विधुर से होती थी जबकि वधु का देहांत हो जाने पर वर के लिए ऐसा नियम नहीं था।समाज का ये दोहरा मापदंड आज भी समाज में प्रचलित है जहां लड़की की तुलना में लडके को विशेषाधिकार दिए जाते हैं। इस पर बदलाव की दिशा में पहल होनी चाहिए।आज भी एक युवा विधुर को कुंवारी लड़की शादी के लिए मिल जाता है पर एक विधवा को कोई कुंवारा लड़का जीवनसंगिनी बनाने के लिए तैयार नहीं होता।नारी का जीवन वास्तव में बहुत कठिन है।मशहूर गजलकार मुनव्वर राणा ने बेटियों के बारे में बड़ी सुंदर पंक्तियां लिखी हैं-
घर में रहते हुए भी गैरों की तरह होती हैं।
बेटियां धान के पौधों की तरह होती हैं।
उड़ के एक रोज बड़ी दूर चली जाती है।
घर की शाखों पे ये चिड़ियों की तरह होती है।
दशहरे का पर्व के नारी के सम्मान की रक्षा का पर्व है।नारी के अपमान करने का परिणाम रावण को मृत्यु के रूप मिला।आज भी हमारे आसपास अनगिनत रावण घूम रहे हैं।उनको भी दंडित किये जाने की जरूरत है।
नारी के जीवन में शादी के बाद मायके से विदाई का दृश्य अत्यंत हृदयविदारक होता है। छत्तीसगढ़ के विवाह गीतों में विदाई का गीत सबसे मार्मिक होता है।गौने के समय की मार्मिकता का चित्रण दाऊ मुरली चंद्राकर जी के एक गीत में बहुत ही खूबसूरत ढंग से हुआ है, जिसमें नारी मन की व्यथा को बखूबी पिरोया गया है।दाऊ मुरली चंद्राकर छत्तीसगढ़ के उन चुनिंदा गीतकारों में से एक है जिनके गीतों में छत्तीसगढ़ की कला संस्कृति और परंपरा के दर्शन होते हैं।ये गीत"सुरता के चंदन"नाम के आडियो कैसेट में आया था।इस गीत को छत्तीसगढ़ की स्वर कोकिला पद्मश्री ममता चंद्राकर ने बहुत ही भावपूर्ण तरीके से गाया है।दुश्यंत हरमुख का संगीत भावविभोर कर देता है।पर दुख की बात ये है कि ये गीत यूट्यूब पर उपलब्ध नहीं है।काफी खोजबीन के बाद भी मुझे ये गीत नहीं मिला।
नारी शक्ति को नमन करते हुए नवरात्र के विदाई बेला में विजयादशमी की शुभकामनाओं के साथ गीत की पंक्तियां प्रस्तुत है-
तिरिया जनम जी के काल
निठुर जोड़ी गवना लेवाए
दाई के कोख, ददा के कोरा सुसकथे
बबा के खंधैया गोहराय
निठुर जोड़ी गवना लेवाए
संग-संगवारी फुलवारी सुसक रोथे
अंचरा ल, कांटा ओरझाय
निठुर जोड़ी गवना लेवाए
घाट घठौन्दा नदी नरवा करार रोथे
पथरा के, छाती फटजाय
निठुर जोड़ी गवना लेवाए
छोर के छंदना मया के डोरी ऐसे बांधे
खोर गली, देखनी हो जाय
निठुर जोड़ी गवना लेवाए
सैया के नांव, पैया म पैरी ल पहिरे
बैरी के, घांठा पर जाय
निठुर जोड़ी गवना लेवाए