सोमवार, 26 अक्टूबर 2020

तिरिया जनम जी के काल....

 



आज दशहरे का पावन पर्व है।ये पर्व प्रतीक है अच्छाई की बुराई पर जीत का,सत्य की असत्य पर विजय का।सवेरे से मोबाइल में टेंहर्रा (नीलकंठ )के दर्शन हो रहे हैं,पर सचमुच इस दिन नीलकंठ का दर्शन मुश्किल होता है।पता नहीं दशहरे के दिन ये पक्षी कहां गायब हो जाते हैं?कहते हैं दशहरे के दिन नीलकंठ देखना शुभ होता है।ये पक्षी सामान्यतः आम दिनों में बिजली के तारों पर अक्सर बैठे दिखाई पड़ते हैं। संभवतः टेंहर्रा को भी दशहरे के दिन अपनी अहमियत का पता होता है ?तभी तो वो दशहरे के दिन आसानी से नजर नहीं आते।

संपूर्ण देश में रावण का पुतला दहन कर विजयादशमी मनाने की परंपरा है। छत्तीसगढ़ में भी रावण दहन और रामलीला प्रचलित है।पहले गणेश विसर्जन पश्चात पितृपक्ष से रामलीला का रिहर्सल गांव गांव में चला करता था,लेकिन टीवी,डीवीडी और अब मोबाइल के आगमन से ये परंपरा लगभग-लगभग विलुप्त हो गई और रामलीला का मंचन समाप्त होने के कगार पर है। बड़ी मुश्किल से रावण दहन करने के समय राम रावण का युद्ध दर्शाने के लिए कलाकार मिलते हैं।

     लेकिन इसके अलावा भी हमारे अंचल में में इस पर्व का एक क्षेत्रीय पहचान भी है। हमारे क्षेत्र में नवाखानी त्योहार के रूप में सुविधानुसार क्वांर मास की अष्टमी,नवमी और दशमी तिथि को मनाई जाती है।लेकिन ज्यादातर लोग दशहरे के दिन ही नवा खाते हैं।नवाखाई से तात्पर्य है देवी-देवताओं की पूजा करने के पश्चात उनको नई फसल के अन्न का भोग अर्पित करना तत्पश्चात परिवार समेत नये अन्न का भोग प्रसादी ग्रहण करना।कुछ लोग इस अवसर पर अपने ईष्ट देवी-देवताओं को बलि आदि भी देते हैं।

इस त्योहार को ओडिशा से लगे छत्तीसगढ़ के सीमावर्ती क्षेत्रों में थोड़े अलग स्वरूप के साथ मनाया जाता है।दशहरे के एक दिन पूर्व अविवाहित कन्याएं राह में रस्सी पकड़ कर आने जाने वाले वाहन चालकों को राह में डोर पकड़ कर रोकती है और भेंटस्वरूप दशहरा चंदे का संग्रहण करती है।फिर दूसरे दिन उपवास रखकर रात्रि में महालक्ष्मी माता की पूजा कर प्रसाद का वितरण किया जाता है।रात्रि जागरण किया जाता है और नाच-गाने या भजन आदि का कार्यक्रम रखा जाता है।

           पहले जब बाल विवाह का प्रचलन था तब दशहरे के दिन बेटे के साथ ब्याही गई बालिका वधू को नवा खाने के लिए लिवाकर लाते थे। बचपन में ही बच्चों की शादी कर दी जाती थी।  कम उम्र में शादी करने के बाद बच्चियों को पहले उनके मायके में ही छोड़ दिया जाता था और जानने समझने लायक होने पर ही ससुराल में गवन(गौना)कराकर लाते थे।इस परंपरा को पठौनी विवाह कहते थे। सामान्यतः ये परंपरा गोंड जनजाति में अधिक प्रचलित थी।          

गूगल में पठौनी विवाह का मतलब ढूंढने पर उपलब्ध अधिकतर लेख में कन्या द्वारा वर के यहां बारात लेकर आना बताया जा रहा है।वास्तव में कन्या द्वारा वर पक्ष के यहां बारात लेकर जाना और वर के घर में ही तमाम शादी की रस्में पूरी करना ठीका विवाह कहलाता है। कुछ बुजुर्गों ने ऐसा बताया है।

इस परंपरा के बारे में बुजुर्ग बताते हैं कि प्रगाढ़ संबंध वाले दो परिवारों में कोख भीतर से ही बच्चों के विवाह संबंध तय कर दिए जाते थे।तीन चार वर्ष की अवस्था में पंर्रा में बिठाकर भांवर(फेरे)भी ले लिए जाते थे और बच्चे शादी के बंधन में बंध जाया करते थे।चूंकि बच्चे छोटे होते थे इसलिए कुछ रस्मों को बचाकर रखा जाता था।बाद में पठौनी बारात आने पर कन्या की गौना (विदाई) की जाती थी।

सामान्यतः 14-15 वर्ष की आयु में गौना होता था। जिसमें वधु को विदाई के समय झांपी,झेंझरी और वस्त्र आदि कन्या को भेंट स्वरूप दिया जाता था।पहले आर्थिक रूप से लोग कमजोर थे तो आज की तरह दहेज आदि देने का चलन न था। अभावग्रस्तता थी पर उस समय का जीवन बेहद सरल और सहज हुआ करता था। 

वैसे छत्तीसगढ़ के पहले फिल्म निर्माता निर्देशक मनु नायक जी ने कहि देबे संदेश के बाद 'पठौनी' नाम से एक और छत्तीसगढ़ी फिल्म बनाने की घोषणा की थी।मगर पहले फिल्म के निर्माण और प्रदर्शन के दौरान हुए परेशानियों ने उनके कदम रोक दिए और उन्होंने इस योजना को ठंडे बस्ते में डाल दिया। छत्तीसगढ़ के प्रसिद्ध गायक और छत्तीसगढ़ के किशोर कुमार की उपमा से विभूषित बैतलराम साहू ने एक हास्य नाटक "पठौनी लायके" बनाया था। बड़ी मजेदार प्रस्तुति थी।हमारे बचपन के समय में टेप कैसेट में खूब सुनी जाती थी।

   बाल विवाह एक सामाजिक कुप्रथा थी जो शिक्षा के प्रसार के कारण आज समाप्त हो गया है।दो अबोध बच्चों का बचपन में ही जीवनसाथी तय कर देना कतई उचित नहीं था।इस विवाह का सबसे बड़ा नुक़सान ये था कि विवाह होने के पश्चात यदि वर का देहांत हो जाता तो वधु बाल विधवा कहलाती और उसकी शादी उसी प्रकार के किसी बाल विधुर से होती थी जबकि वधु का देहांत हो जाने पर वर के लिए ऐसा नियम नहीं था।समाज का ये दोहरा मापदंड आज भी समाज में प्रचलित है जहां लड़की की तुलना में लडके को विशेषाधिकार दिए जाते हैं। इस पर बदलाव की दिशा में पहल होनी चाहिए।आज भी एक युवा विधुर को कुंवारी लड़की शादी के लिए मिल जाता है पर एक विधवा को कोई कुंवारा लड़का जीवनसंगिनी बनाने के लिए तैयार नहीं होता।नारी का जीवन वास्तव में बहुत कठिन है।मशहूर गजलकार मुनव्वर राणा ने बेटियों के बारे में बड़ी सुंदर पंक्तियां लिखी हैं-


घर में रहते हुए भी गैरों की तरह होती हैं।

बेटियां धान के पौधों की तरह होती हैं।

उड़ के एक रोज बड़ी दूर चली जाती है।

घर की शाखों पे ये चिड़ियों की तरह होती है।


 दशहरे का पर्व के नारी के सम्मान की रक्षा का पर्व है।नारी के अपमान करने का परिणाम रावण को मृत्यु के रूप मिला।आज भी हमारे आसपास अनगिनत रावण घूम रहे हैं।उनको भी दंडित किये जाने की जरूरत है।

 नारी के जीवन में शादी के बाद मायके से विदाई का दृश्य अत्यंत हृदयविदारक होता है। छत्तीसगढ़ के विवाह गीतों में विदाई का गीत सबसे मार्मिक होता है।गौने के समय की मार्मिकता का चित्रण दाऊ मुरली चंद्राकर जी के एक गीत में बहुत ही खूबसूरत ढंग से हुआ है, जिसमें नारी मन की व्यथा को बखूबी पिरोया गया है।दाऊ मुरली चंद्राकर छत्तीसगढ़ के उन चुनिंदा गीतकारों में से एक है जिनके गीतों में छत्तीसगढ़ की कला संस्कृति और परंपरा के दर्शन होते हैं।ये गीत"सुरता के चंदन"नाम के आडियो कैसेट में आया था।इस गीत को छत्तीसगढ़ की स्वर कोकिला पद्मश्री ममता चंद्राकर ने बहुत ही भावपूर्ण तरीके से गाया है।दुश्यंत हरमुख का संगीत भावविभोर कर देता है।पर दुख की बात ये है कि ये गीत यूट्यूब पर उपलब्ध नहीं है।काफी खोजबीन के बाद भी मुझे ये गीत नहीं मिला।

नारी शक्ति को नमन करते हुए नवरात्र के विदाई बेला में विजयादशमी की शुभकामनाओं के साथ गीत की पंक्तियां प्रस्तुत है-


तिरिया जनम जी के काल

निठुर जोड़ी गवना लेवाए


दाई के कोख, ददा के कोरा सुसकथे

बबा के खंधैया गोहराय

निठुर जोड़ी गवना लेवाए


संग-संगवारी फुलवारी सुसक रोथे

अंचरा ल, कांटा ओरझाय

निठुर जोड़ी गवना लेवाए


घाट घठौन्दा नदी नरवा करार रोथे

पथरा के, छाती फटजाय

निठुर जोड़ी गवना लेवाए


छोर के छंदना मया के डोरी ऐसे बांधे

खोर गली, देखनी हो जाय

निठुर जोड़ी गवना लेवाए


सैया के नांव, पैया म पैरी ल पहिरे

बैरी के, घांठा पर जाय

निठुर जोड़ी गवना लेवाए




गुरुवार, 22 अक्टूबर 2020

ब्रम्हचारिणी स्वरूपा मां जटियाई

 जैसा कि मैंने पिछले पोस्ट में बताया था कि मां जटियाई की महिमा के बारे में कुछ भी जानकारी प्राप्त होगी साझा करूंगा ।सो जानकारी प्रस्तुत है।

 माता जगदंबे की महिमा निराली है।वह अपने भक्तों की पीड़ा हरने के लिए अनगिनत रूप में स्थान स्थान पर विराजित हैं। छत्तीसगढ़ अंचल में अनेक ग्राम्य देवी-देवताओं की उपासना की जाती है। मातृशक्ति की उपासक इस धान के कटोरा का एक छोटा सा विकास खंड मुख्यालय है छुरा,जो गरियाबंद जिले में अवस्थित है।छुरा से लगभग 9 किमी की दूरी पर स्थित है जटियातोरा ग्राम।इसी गांव से लगा हुआ जटियाई पहाड़ी जिसमें माता जटियाई विराजमान है।धरातल से लगभग-लगभग 400 फीट ऊंची पहाड़ी पर माता का मंदिर स्थित है।ऊपर पहाड़ी तक जाने के लिए किसी भी प्रकार की सीढ़ी आदि का निर्माण नहीं हुआ है।कुछ दूरी तक मुरूम का रास्ता है, लेकिन ज्यादा रास्ता पथरीला है। पहाड़ी पर चढ़ाई आसान नहीं है। चट्टानों के बीच टेढ़े-मेढ़े पगडंडियों से होकर पहाड़ी की खड़ी चढ़ाई चढ़नी पडती है। जैसे-जैसे हम ऊपर जाते हैं सांस फूलने लगती है।किसी को सांस संबंधी कोई परेशानी हो तो पहाड़ी पर चढ़ने का प्रयास बिल्कुल ना करे। महिलाओं, बुजुर्गों और बच्चों के लिए पहाड़ी की चढ़ाई वर्तमान में सुगम नहीं है।दूसरी खास बात ये है कि शारदीय नवरात्र पर्व के अलावा वर्ष के अन्य महीनों में पहाड़ी निर्जन होता है,साथ ही हिंसक जंगली जानवरों का भय भी रहता है तो उस समय भी आना उचित नहीं होगा।

माता का मंदिर विशाल चट्टान के नीचे बनाया गया है। मंदिर आकार में छोटा है, जहां माता की सुंदरमुखाकृति वाली मूर्ति स्थापित है।खास बात ये है कि माता की यहां श्वेत पूजा होती है।किसी भी प्रकार की पशु बलि आदि यहां पूर्णतः निषिद्ध है।माता की पूजा श्वेत पुष्प से होती है और माता को श्वेत सिंगार सामग्री चढ़ाई जाती है।बताया जाता है कि माता यहां साध्वी(ब्रम्हचारिणी) स्वरूप में विद्यमान है।हालांकि माता के जटियाई नामकरण के पीछे किसी प्रकार की कोई किंवदंती नहीं है।पर ऐसा प्रतीत होता है कि सामान्यतः साधुगण जटाजूट धारी होते हैं और साध्वी के केश भी लट बंधाके जटा के रूप में बदल जाती है। संभवतः इसके कारण ही जटियाई(जटा वाली)नाम प्रचलित हुआ हो।

माता आदिकाल से इस पहाड़ी पर विराजमान है ऐसी मान्यता क्षेत्र में प्रचलित है।इसके संबंध में एक कहानी का उल्लेख करते हुए सेंदबाहरा निवासी गोपीराम ठाकुर ने बताया कि माता के साक्षात्कार की बहुत सी कहानियां बुजुर्ग बताते रहे हैं।ऐसा माना जाता है कि माता भिन्न भिन्न रूप में पहाड़ी के आस-पास भटकने वाले लोगों का मार्गदर्शन करती थी और भोजन आदि की व्यवस्था भी करती थी।

किसी समय हरिराम नाम का एक माता का भक्त जटियातोरा गांव में रहा करता था।माता जटियाई की उस पर अगाध आस्था थी और पहाड़ी के नीचे ही उसका खेत था। प्रतिदिन वह अपने कृषि कार्य से खेत जाता था,परंतु उसकी पत्नी को उसके लिए भोजन लाने में विलंब हो जाया करता था।माता भला अपने भक्त को भूखा कैसे रखती।तब माता जटियाई उसके लिए एक ग्रामीण महिला का वेष बनाकर उसको भोजन करा देती।तत्पश्चात उसकी पत्नी भोजन लेकर जाती तो वह पेट भरा है कहकर भोजन करने से इंकार कर देता।

इस बात से उसकी पत्नी के मन में शंका उत्पन्न हुई और वह सत्यता जानने के लिए एक खेत के मेड़ की ओट में छुपकर देखने लगी।दोपहर का वक्त हुआ और खाना खाने का समय हुआ तो एक ग्रामीण स्त्री हरिराम के लिए बटकी(एक प्रकार का गहराई वाला पात्र,बासी खाने के लिए प्रयोग होता है) में बासी लेकर आई और उसको भोजन कराया।जब हरिराम की पत्नी ने ये सब देखा तो उसके क्रोध का पारावार न रहा। ग्रामीण वेषधारी माता से उसने झूमा झटकी करना शुरू कर दिया।इस दौरान माता के हाथ में जो बटकी थी उसने उसे दूर तक फैंकते हुए कहा कि तुमने मुझ पर शंका किया है, इसलिए अब मैं यहां नीचे नहीं आउंगी, पहाड़ी पर ही रहूंगी। कहकर अंतर्ध्यान हो गई।तब दोनों पति-पत्नी  माता से क्षमा याचना करने लगे और माता सौम्य रूप में  पहाड़ी पर विराजमान हो गई।जिस स्थान पर माता ने बटकी फैंकी थी,वो आज भी बटकी बाहरा के नाम से जाना जाता है।

एक अन्य कहानीनुसार एक बार समीपस्थ ग्राम हीराबतर का गडहाराम नाम का आदमी छुरा बाजार से अपनी साइकिल में जरी खेंडहा की सब्जी लिए वापिस घर लौट रहा था।सेंदबाहरा पार करने के बाद पहाड़ी के समीप पहुंचने पर उसे लघुशंका करने की जरूरत महसूस हुई।उसने अपना साइकिल वहीं सडक किनारे खड़ी किया और सडक के नीचे लघुशंका के उद्देश्य से उतरने लगा।तभी उसको ऐसा महसूस हुआ कि शायद आसपास महिलाएं हैं।ऐसा सोचते सोचते वह थोड़ी दूर निकल आया।तभी कुछ दूरी पर उसको एक महलनुमा सुंदर मकान दिखाई दिया।जिज्ञासावश वह वहां चला गया। वहां माता जटियाई मोहक मुस्कान के साथ बैठी थी। उसने माता को प्रणाम किया तो माता ने कहा कि भोजन करके चले जाना।गडहाराम को वहां छप्पन भोग खाने को मिला।उसने जीवन भर में ऐसा भोजन नहीं खाया था।

इधर गडहाराम के रात तक घर ना आने पर उसके परिजन उसको ढूंढने निकल पड़े।सप्ताह बीत गया गडहाराम की खोज में,पर उसके संबंध में कोई जानकारी प्राप्त नहीं हुआ।इधर गडहाराम माता के सान्निध्य में था तो उसे कुछ पता नहीं था।भोजन के बाद गडहाराम ने माता से जाने की आज्ञा मांगी तो माता ने उसको जाने का मार्ग बता दिया। वहां से गडहाराम अपनी साइकिल पकड़ कर घर आया।उसके साइकिल में जरी खेडहा की सब्जी जस के तस हरी के हरी थी।घर वालों ने बताया कि उसके लौटने तक सात दिन बीत चुके हैं।गडहाराम मानने को तैयार ही नहीं था।वह उन लोगों को ये कहता था कि अगर इतने दिन बीत गए हैं तो सब्जी मुरझाया या खराब क्यों नहीं हुआ।इधर खोजबीन के दौरान लोगों को और रास्ते से गुजरने वाले लोगों को भी दैवीय कृपा से वह साइकिल नजर नहीं आती थी।गडहाराम घरवालों को बताता था कि माता ने उसको छप्पन भोग खिलाया था और वह भोजन उपरांत तुरंत लौटा है।जबकि वास्तविकता में बाहरी दुनिया में एक सप्ताह गुजर चुका था।तो ऐसी है माता की लीला और चमत्कार!!!

पहाड़ी पर पहुंचने के बाद आप देखेंगे कि


माता मंदिर के सामने ही ज्योतिकक्ष का निर्माण किया गया है। हनुमानजी जी की सीमेंट से निर्मित मूर्ति भी पहाड़ी पर खुले में स्थापित है।उसी प्रकार माता काली और शिवजी के स्वरूप का अंकन भी पहाड़ी पर किया गया है। पूर्णतः नैसर्गिक वातावरण है,जो मन को भाव विभोर कर देता है। आसपास के 27 गांव मिलाकर जटियाई सेवा समिति का गठन किया गया है,जिनके मार्गदर्शन में प्रतिवर्ष शारदीय नवरात्र का आयोजन हर्षोल्लास से किया जाता है।सन् 2000 से यहां पर मनोकामना ज्योति प्रज्ज्वलित की जा रही है। पहाड की चढ़ाई वर्तमान में थोडा कष्टसाध्य है। यहां सीढ़ी आदि का निर्माण हो जाए तो भक्तों को पहुंचने में सुगमता हो सकती है।
पहाड़ी की चढ़ाई कठिन होने पर भी यहां स्थानीय श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है।मन में माता की छवि लिए इस भाव के साथ...
 सेत सेत तोर ककनी बनुरिया

सेते पटा तुम्हारे हो मां

सेत हवय तोर गर के सुतिया

गज मोतियन के हारे...


बोलो जटियाई महारानी की जय!!

पोस्ट के आखिर में बताना चाहूंगा कि माता के संबंध में जानकारी देनेवाले श्री गोपी ठाकुर जी एक कुशल चित्रकार और जसगीत गायक है।वर्तमान में माता जटियाई की गाथा को लिपिबद्ध करने का स्तुत्य प्रयास कर रहे हैं।माता जटियाई की कृपादृष्टि सब पर बनी रहे। 



बुधवार, 21 अक्टूबर 2020

केरापानी की रानी मां

जगत जननी मां जगदम्बे की आराधना का महापर्व चल रहा है।कोरोना जैसी वैश्विक महामारी के तांडव के बाद भी आस्था डगमगाई नहीं है,बस स्वरूप बदल गया है। बड़े बड़े पंडालों में देवी मूर्ति स्थापित करने की परंपरा में एक रूकावट सी आ गई। भीड़ इकट्ठी न हो, इसके लिए शासन ने कड़े निर्देश जारी किए हैं इस कारण अपेक्षाकृत धूमधाम कम दिखाई दे रही है। मंदिरों में माता के भजन आदि भी नहीं चल रहे है।अत्यंत सादगीपूर्ण कार्यक्रम आयोजित करने के लिए साल 2020 इतिहास में सदैव याद रखा जायेगा। साल 2015 में आज ही के दिन यानि पंचमी तिथि को माता रानी माई के दर्शन लाभ का संयोग बना था।मुढीपानी के शिक्षकों के सान्निध्य में ये अवसर प्राप्त हुआ था।उसकी यादें आज भी मानस पटल पर अंकित है।

रानी माता का दरबार ओडिशा और छत्तीसगढ़ के बीच गौरागढ पहाड़ी श्रृंखला पर अवस्थित है। स्थानीय लोग इसे मलेवा डोंगरी कहते है।ये पहाड़ी ओडिशा की सीमा रेखा तय करती है और छत्तीसगढ़ को स्पर्श करती है।कभी ये क्षेत्र प्राचीन दक्षिण कौशल का अभिन्न हिस्सा था।इसी पहाड़ी पर सोनाबेडा नामक स्थान हैं जो भव्य दशहरे के लिए विख्यात है।साथ ही इस सोनाबेडा का संबंध भुंजिया जनजाति की उत्पत्ति की दंतकथा से भी है।

छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से लगभग 100 किमी की दूरी पर  गरियाबंद जिलांतर्गत है छुरा,और छुरा से लगभग 17 किमी की दूरी पर है रसेला गांव, जहां से पड़ोसी राज्य ओडिशा की सीमा मात्र दस बारह किमी की दूरी पर है। सीमावर्ती क्षेत्र होने के कारण रसेला के आसपास के गांवों में उत्कल प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है।

रसेला से लगभग-लगभग 7 किमी की दूरी पर मुढीपानी गांव है जहां से रानी माता स्थल तक जाने का मार्ग बना है। जनजातीय बाहुल्य इस मुढीपानी ग्राम पंचायत में कमार,भुंजिया,कंवर और गोंड जनजाति वर्ग के लोगों की बड़ी संख्या निवास करती है।

रानी माता के दरबार तक पहुंचने का रास्ता अत्यंत दुर्गम है। बीहड़ वन और चट्टानों को पार करके जाना पड़ता है।जंगली जानवरों का भी भय बना रहता है। संभवतः इसी कारण ज्यादातर लोग समूह में जाते हैं।ऊपर पहाड़ी पर माता के स्वरूप का अंकन एक शीला पर किया गया है,साल 2015 में मंदिर आदि का निर्माण नहीं हुआ था,ज्योति कक्ष का निर्माण कार्य आरंभिक अवस्था में था।सुना हूं कि वर्तमान में निर्माण पूर्ण हो गया है।जब ज्योतिकक्ष नहीं बना था तब पालीथीन और तिरपाल आदि की मदद से अस्थायी ज्योतिकक्ष का निर्माण किया जाता था।

जिस प्रकार रमईपाट सोरिद में आम वृक्ष के नीचे से प्राकृतिक जलधारा निकलती ठीक वैसी ही जलधारा यहां जंगली कदली(केले)के पेड़ से निकलती है।इसी कारण रानी माता का ये प्राकट्य स्थल केरापानी के नाम से जाना जाता है।इस पहाड़ी पर भालू,बाघ,चीते, वनभैंसे जैसे जानवर बड़ी संख्या में मौजूद रहते हैं और विभिन्न प्रकार की वनस्पतियां भी यहां मिलती है।जानकार लोग बताते हैं कि यहां बहुत सी आयुर्वेद में काम आने वाली जड़ी बूटियां मिलती है।

साल 1996-97 के आसपास यहां पहली बार ज्योतिकलश स्थापित किया गया था। आसपास की 7 ग्राम पंचायत क्षेत्र के निवासी रानी माता समिति के सदस्य हैं।जिनके कुशल मार्गदर्शन में समस्त कार्य संपादित होते हैं।इस विधानसभा क्षेत्र (बिन्द्रानवागढ़) के भूतपूर्व विधायक श्री ओंकार शाह ने इस स्थल के विकास के लिए विशेष प्रयास किया था।उनके द्वारा पहाड़ी के रास्ते पर श्री हनुमानजी की विशाल मूर्ति स्थापित किया गया है।

माता के प्राकट्य संबंधित कथा है कि किसी समय गांव मुढीपानी के एक कमार जनजाति के व्यक्ति को रानी मां ने स्वप्न में आकर अपने केरापानी स्थल में स्थित होने की बात बताई।तत्पश्चात उस व्यक्ति ने गांव के वरिष्ठ जनों के समक्ष स्वप्न की बात रखी।सभी लोगों ने मां की कृपा को स्वीकारा और रानी माता की पूजा-अर्चना की शुरुआत हुई।एक विशेष बात ये है कि नवरात्र में पंडा(प्रधान पुजारी)का कार्य हमेशा कमार जनजाति के व्यक्ति द्वारा किया जाता है।

हम पंचमी की विशेष पूजा के दिन पहुंचे थे इसलिए माता का भोग प्रसादी प्राप्त करके ही लौटे।मुढीपानी स्कूल के शिक्षक श्री तरूण वर्मा जी को फोटोग्राफी में विशेष रूचि है।सारे फोटोग्राफ्स उन्हीं की सौजन्य से है!

बोलो रानी माई की जय!!






मंगलवार, 20 अक्टूबर 2020

जटियाई डोंगर में....

 








   इस नवरात्रि के तीसरे दिवस मां जटियाई धाम जाने का प्रोग्राम बनाया।फिर जाने के लिए अपनी मित्र मंडली के ठेलहा(फुरसतिये)लोगों को अपनी मेमोरी में सर्च किया।तब याद आया कि अभी डी कमल उपलब्ध है,उसी को पूछा जाये।फिर दोपहर एक बजे के करीब मैंने अपने चलित दूरभाष यंत्र से कमल को टुनटुनाया।उसकी ओर से आदरणीय अमिताभ बच्चन जी का कोरोना संदेश प्राप्त हो रहा था। संदेश समाप्ति के कगार पे था तभी कमल ने फोन उठाया और बताया कि वो बिल्कुल फ्री है,लेकिन खाना खाके बताता हूं,बोलके फोन रख दिया।दोपहर के लगभग दो बज गये उसका वापसी काल नहीं आया।शायद भाई साहब खा पीके निद्रादेवी के आगोश में चले गए हों।मेरा प्रोग्राम अब फेल होने के करीब था।अकेले जाने में रिस्क था।इस साल कोरोना के कारण देवी तीर्थ स्थलों में नवरात्र पर्व को स्थगित किया गया है।ज्योति प्रज्वलन और जंवारा का कार्यक्रम भी नहीं है। कहीं मंदिर में जाने पर कोई नहीं मिला तो??ये आशंका थी।तब सेंदबाहरा के एक शिक्षक से फोन पर जानकारी लिया तो उन्होंने बताया कि एक ही ज्योति जल रही है।दिन में लोग रूकते हैं शाम तक लौट जाते हैं।

इतनी जानकारी साहस दिलाने के लिए पर्याप्त थी।दोपहर भोजन करने की तैयारी थी तभी जय का फोन आया। उसने बताया कि वो आज फुरसत में है।तुरंत मैंने उसको प्रोग्राम के बारे में बताया तो वो जाने के लिए तैयार हो गया।इसको कहते हैं संयोग!!!

माता के दरबार में जाने की इच्छा प्रबल हो तो संयोग बन जाता है।ये सिद्ध हो गया। थोड़ी देर के बाद जय आया तो दोनों मेरी मोटर साइकिल में जटियाई माता के दर्शन के लिए चल पड़े।

जटियाई माता छुरा से लगभग 7 किमी की दूरी पर जटियातोरा और सेंदबाहरा ग्राम के मध्य स्थित पहाड़ी पर विराजित हैं।छुरा से निकलने के बाद मेरे गांव से ही माता की पहाड़ी धनुषाकार आकृति में दूर से ही नजर आने लगती है।

जाते वक्त जय बोला कि माता के दरबार में दर्शन के लिए जा रहे हैं तो श्रीफल मतलब नारियल रख लेते हैं। मैंने उसकी हां में हां मिलाया और सेम्हरा के सडक किनारे के दुकान से नारियल ले लिया।वैसे मेरी सोच देवस्थल में जाने पर अलग है। मैं कोई भी देवस्थल में किसी भी प्रकार का भेंट आदि चढ़ाने के लिए नहीं लेके जाता।मेरा मानना है कि जिसने संसार को सब कुछ दिया है उसको कुछ देने की मेरी क्या औकात??

हालांकि हमारे धर्म ग्रंथ कहते हैं कि देवता,मित्र और गुरू के पास जाते समय खाली हाथ नहीं जाना चाहिए।कुछ न कुछ भेंट अवश्य ले जाना चाहिए। मंदिर में देवता को द्रव्य या धनराशि नहीं तो कम से कम पुष्प जरूर अर्पित करने चाहिए।खैर,सबका अपना-अपना ढंग, आराधना के अनेकों तरीके!!पर ईश्वर की कृपा सब पर बराबर रहती है।

थोड़ी देर बाद हम पहाड़ी के नीचे थे।ऊपर पहाड़ी तक जाने के लिए किसी भी प्रकार की सीढ़ी आदि का निर्माण नहीं हुआ है।कुछ दूरी तक मुरूम का रास्ता है, लेकिन ज्यादा रास्ता पथरीला है। पहाड़ी पर चढ़ाई आसान नहीं है। चट्टानों के बीच टेढ़े-मेढ़े पगडंडियों से होकर पहाड़ी की खड़ी चढ़ाई चढ़नी पडती है। जैसे-जैसे हम ऊपर जाते हैं सांस फूलने लगता है। पहाड़ी की उंचाई धरातल से अंदाजन तीन चार सौ फीट जरूर होगी।किसी को सांस संबंधी कोई परेशानी हो तो पहाड़ी पर चढ़ने का प्रयास बिल्कुल ना करे। महिलाओं, बुजुर्गों और बच्चों के लिए पहाड़ी की चढ़ाई वर्तमान में सुगम नहीं है।दूसरी खास बात ये है कि नवरात्र पर्व के अलावा साल के बाकी महीनों में पहाड़ी निर्जन होता है,साथ ही हिंसक जंगली जानवरों का भय भी रहता है तो उस समय भी आना उचित नहीं होगा।

माता का जयकारा लगाते मैं और जय पथरीली पगडंडियों और चट्टानों के बीच से गुजरते हुए अंततः हम माता के दरबार तक पहुंच ही गए।पर माता के मंदिर के पास जाते ही हमें आश्चर्य का सामना करना पड़ा।

 नवरात्रि के पर्व में अन्य वर्षों में यहां मेले सा माहौल होता था।दुर्गम चढ़ाई के बावजूद लोगों की भीड़ उमड़ा करती थी। विभिन्न प्रकार की दुकानें सजा करती थी। वहां सन्नाटा व्याप्त था।

माता के पुजारी और स्थानीय लोगों के मौजूद होने की आशा से पहाड़ी पर चढ़े थे पर माता के अलावा वहां हमें कोई ना मिला। सुनसान निर्जन वन्यक्षेत्र में सिर्फ हम दो प्राणियों की मौजूदगी थोड़ी भयदायक थी,पर हम माता के आंचल की छत्रछाया में थे तो भयभीत नहीं हुए।जय पहली बार आया था,मैं पहले तीन चार बार और आ चुका था। दोनों हांफ रहे थे और माथे पर पसीना उभर आया था।

फिर मैंने और जय ने माता के चरणों में प्रणाम निवेदित करते हुए श्रीफल भेंट किया।चूंकि उस पहाड़ी पर सिर्फ मैं और जय ही थे इसलिए शाम होने के पहले उतरने की जल्दी थी। लगभग 15 मिनट तक हम वहां माता की छत्रछाया में रहे और इधर उधर का फोटो मैं अपने मोबाइल से लेता रहा।फिर माता को प्रणाम कर लौटने लगे।

माता का मंदिर विशाल चट्टान के नीचे बनाया गया है। मंदिर आकार में छोटा है, जहां माता की सुंदरमुखाकृति वाली कमर तक की मूर्ति स्थापित है।

सामने ही ज्योतिकक्ष का निर्माण किया गया है। हनुमानजी जी की सीमेंट से निर्मित मूर्ति भी पहाड़ी पर खुले में स्थापित है।उसी प्रकार माता काली और शिवजी के स्वरूप का अंकन भी पहाड़ी पर किया गया है।

चूंकि पहाड़ी पर इस स्थल के बारे में जानकारी देने वाला कोई नहीं मिला तो फिलहाल मैं माता के स्थापना के संबंध में जानकारी नहीं दे पाऊंगा।माता रानी की कृपादृष्टि रही तो अगले किसी ना किसी पोस्ट में जरूर उल्लेख करूंगा।

जय ताज्जुब में था पक्के ज्योतिकक्ष के निर्माण को देखकर।ऊपर पहाड़ी तक पानी और भवन निर्माण सामग्री पहुंचाने का काम आसान नहीं रहा होगा।स्थानीय जटियाई माता समिति के संचालक गण और ग्रामीणों के श्रम को प्रणाम है।

दिन डूबने के पहले ही माता जटियाई की कृपा से हम सुरक्षित वापस लौट आए....

बोलो जटियाई महारानी की जय!!!

रविवार, 18 अक्टूबर 2020

सुन्ना हे दाई गांव गली खोर....

माता शेरावाली


 आज नवरात्रि का दूसरा दिन है। लेकिन चारों तरफ सन्नाटा सा पसरा हुआ है।ना कहीं मांदर की थाप में जसगीत सुनाई पड़ रही है ना कहीं आरती का स्वर।कोरोना नाम के एक विदेशी दैत्य ने हाहाकार मचा दिया है।इस दैत्य का आतंक देश दुनिया के ऊपर सर चढ़कर बोल रहा है। मीडिया ने इसको इतना खौफनाक बनाकर प्रस्तुत किया कि आज ये हमारी आस्था पर भारी पड़ गया।
पावन शारदीय नवरात्र का आनंदोल्लास सरकारी नियमों के दांव-पेंच में उलझकर रह गया। नवरात्र में मूर्ति स्थापना के लिए इतने अधिक शर्तें रख दी गई कि लोगों ने दुर्गोत्सव और मूर्ति स्थापना का विचार ही मन से निकाल दिया। सीसीटीवी कैमरे की अनिवार्यता, मूर्ति स्थापना के लिए अनुमति, रजिस्टर संधारित करना, भीड़ ना होने देने के सख्त निर्देश और भी ना जाने क्या-क्या???
पुरातन काल से जिन मंदिरों में भक्तों की भीड़ उमड़ा करती थी,आज वहां लोगों को दर्शन की अनुमति नहीं मिल पा रही है।कुल मिलाकर इस वर्ष की नवरात्रि का पर्व कोरोना की भेंट चढ़ गया।
इसके पहले चैत्र नवरात्रि में भी जंवारा आदि का कार्यक्रम स्थगित किया गया था।पता नहीं कब तक ये सिलसिला चलेगा? मूर्ति बनाने की व्यवसाय से जुड़े लोगों के समक्ष जीवन यापन का प्रश्न खडा हो गया है। गणपति की मूर्ति बनाने के नुकसान से उबरे नहीं थे कि दुर्गा मूर्ति के निर्माण में भी नुकसान हो गया। कल ही अख़बार में पढ़ा था कि किसी मूर्तिकार ने साठ मूर्तियों का निर्माण नवरात्रि के लिए किया था,पर मात्र दो मूर्तियों का ही विक्रय हो पाया।शासन के आदेश ने लोगों के हाथ बांध रखे हैं। इसलिए ये स्थिति निर्मित हुई।
कोरोना की मौजूदगी अब हमारे दैनिक जीवन का हिस्सा बन चुका है।हमें उसकी मौजूदगी के बाद भी जीवन जीने का संघर्ष करना है।जिस प्रकार शेर और चीते जैसे हिंसक जीवों की मौजूदगी के बावजूद भी जंगल के अन्य जीव खतरा उठाकर अपना जीवन जीते है ठीक वैसे ही हमें जीना होगा।आखिर घर में दुबके रहने से तो प्राण रक्षा होने से रही!!
सरकार के लाकडाऊन जैसे जतन भी विशेष कारगर साबित नहीं हुए।अभी भी कोरोना पेशेंट के मिलने का सिलसिला जारी है। हालांकि शासन भी अपनी ओर से लोगों की जीवन रक्षा के लिए भगीरथ प्रयास कर ही रही है,पर अपेक्षानुरूप सफलता मिलती दिखाई नहीं देती।
कोरोनावायरस के कारण लोगों की जीवनशैली में बहुत फर्क आया है।लोग अब अपने स्वास्थ्य के प्रति पहले से कहीं अधिक जागरूक हुए हैं।खुले हाथों में कोई भी चीज खाने से बच रहे हैं।बाहरी खान-पान पर अंकुश लगा हुआ है। साफ-सफाई के प्रति लोग जागरूक हुए हैं।ये परिवर्तन समाज में स्पष्ट दिखाई पड़ता है।
विभिन्न सामाजिक रीति-रिवाजों का स्वरूप भी बदला है। जीवन-शैली में सादगी का समावेश हुआ है। अनावश्यक खर्चों पर रोक लगी है।
इस कोरोना के कारण सबसे अधिक नुकसान विद्यार्थियों को उठाना पड़ा है।बच्चे अपने मित्रों से दूर हैं। उनमें चिड़चिड़ापन बढ़ रहा है। पढ़ाई-लिखाई से दूरी बढ़ गई है, हालांकि आनलाईन पढ़ाई-लिखाई का क्रम जारी है पर ये कितने सफल हो पा रहे हैं आये दिन समाचार पत्रों में छपने वाली खबर से जाना जा सकता है। केंद्र सरकार ने पिछले 15 तारीख से स्कूल खोलना ना खोलना राज्य सरकारों की मर्जी पर छोड़ दिया है। हालांकि दहशत का दौर अभी भी जारी है पर अब जीरो या अल्प कोरोना पेशेंट क्षेत्रों में आधी या  चौथाई उपस्थिति के साथ बड़े बच्चों का स्कूल और कालेज खोलने चाहिए। परिस्थितियों को देखकर दीवाली पश्चात तीसरी-चौथी के उस पार वाले कक्षाओं को खोलने पर भी विचार किया जाना चाहिए। हालांकि ये तभी हो,जब उस क्षेत्र या संबंधित स्थान में कोरोना के मामले निरंक हो और स्कूल में कोरोना से बचाव के सारे संसाधन उपलब्ध हो।मसलन सैनिटाइजर,हैंडवाश और स्कूल से जुड़े सभी लोगों के लिए मास्क आदि।हफ्ते में प्रति कक्षा एक दिवस के अनुसार भी शाला संचालित किया जा सकता है।आखिर कब तक हम हाथ पर हाथ धरे बैठे रहेंगे।कुछ ना करने से कुछ करना बेहतर होगा।विरल आबादी वाले ग्रामीण क्षेत्रों के स्कूलों को पहले खोला जाना चाहिए तत्पश्चात शहरों केस्कूलों को।
बहरहाल गांव-गांव में सन्नाटा पसरा है।हर चौक चौराहा सुनसान है.....
कामना करें कि माता रानी कृपा बरसाये और कोरोना नाम की वैश्विक आपदा का जल्द ही अंत हो।बोलो आदिशक्ति जगदंबा भवानी की जय...

बुधवार, 14 अक्टूबर 2020

माता टेंगनही दर्शन






जैसा कि मैंने पिछले पोस्ट में बताया था कि मैं और ललित मां टेंगनही दरबार की ओर चल पड़े थे,तब रास्ते में ललित भाई पहले और अब कि स्थिति में हुए परिवर्तन के बारे में बता रहे थे।उसने बताया कि पहले सडक के दोनों तरफ खूब पेड़ और झाड़ियां हुआ करती थीं।अकेले इस सडक पर चलने में डर लगता था।जंगली जानवरों के अचानक निकल आने का भय बना रहता था। कुछ बरस पहले यहां के आसपास रहनेवाले ग्रामीणों से पैसेवाले व्यापारियों ने बेहद कम कीमत पर जमीनों को खरीदा और अब उन जमीनों पर उन्होंने फार्म हाउस बना रखे हैं। पहाड़ी के नीचे वाला आसपास हिस्सा वीरान ग्राम टेंगनाभाठा के नाम से राजस्व रिकार्ड में दर्ज है।पर अब यहां भी आबादी का आगमन और बसाहट प्रारंभ हो गया है। बढ़ती जनसंख्या के कारण अब धरती का क्षेत्रफल कम पड़ने लगा है।ऐसे ही दुनिया भर की बातों का सिलसिला रास्ते भर चलता ही रहा थोड़ी देर बाद हम पहाड़ी के नीचे मौजूद थे।
 ये पहाड़ी विकासखण्ड मुख्यालय छुरा से लगभग-लगभग 6 किमी की दूरी पर कोसमी-चुरकीदादर रोड के किनारे स्थित है और उंची पहाड़ी पर विराजमान है मां टेंगनही।वैसे ये रोड पड़ोसी राज्य ओडिशा को छत्तीसगढ़ से जोड़ती है।
माता टेंगनही की क्षेत्र में विशेष मान्यता है।
माता के स्थापना और नामकरण के संबंध में जनश्रुति है कि माता इस पहाड़ी पर विराजमान थीं और एक बार उन्होंने बिन्द्रानवागढ़ के राजा को स्वप्न में आकर अपने पहाड़ी पर विराजित होने की बात कही और दर्शन देने के लिए उनको तीन सिंगवाले बकरे की बलि देने की शर्त रखी।माता की आज्ञा शिरोधार्य करके राजा ने तीन सिंग वाले बकरे की खोज आरंभ कर दिया;पर बहुत यत्न करने पर भी राजा को तीन सिंग वाला बकरा नहीं मिला।थक हारकर राजा माता के द्वारा बताए हुए स्थान पर पहुंचा और माता से विनती किया कि वे उनकी शर्त पूरी करने में असमर्थ हैं। तब माता ने पुन: उनको स्वप्न में आकर बताया कि मेरे निवास से कुछ ही दूरी पर एक सरोवर स्थित है।उस सरार(सरोवर) में मिलने वाले तीन सिंग वाले टेंगनामछरी को लाकर बलि दो।तब माता की आज्ञानुसार राजा ने बलि दिया और माता ने उनको दर्शन देकर कृतार्थ किया।तब से प्रतिकात्मक रूप से माता टेंगनहीं को टेंगना मछली की स्वर्ण या चांदी प्रतिकृति मनौती पूर्ण होने पर भक्तों द्वारा चढ़ाई जाती है।टेंगनहीं माता का नामकरण भी इसी कारण टेंगनहीं हुआ।
जिस सरार की इस कहानी में प्रसंग आया है वह मेरे गृहग्राम टेंगनाबासा में आज भी मौजूद है और माता टेंगनहीं के नाम से ही गांव का नाम जुड़ा है।कुछ लोग मानते हैं कि ये सरार फिंगेश्वर में स्थित सरार से जुड़ा है।फिंगेश्वर स्थित सरार अब गंदगी से अटा पड़ा है लेकिन हमारे गांव के सरार में आज भी स्वच्छ निर्मल जल भरा रहता है और उसमें रहने वाली टेंगना मछली को पानी के अंदर तैरते देखा जा सकता है।
माता टेंगनही पहाड़ी में प्राकृतिक सुंदरता की भरमार है।पहाड़ी से नीचे देखने पर अद्भुत दृश्य दिखाई देता है। पहाड़ी के ऊपर विशाल शिला खंड पर चढ़कर ऐसा लगता है मानों बादलों को छू लेंगे।नीचे हरे हरे पेड़ों की हरियाली और खेतों में लहलहाती धान की फसल मन को प्रफुल्लित कर देता है।इस पहाड़ी में कई दुर्लभ वनौषधियां सहज रूप में उपलब्ध है। ललित भाई को पेड़ों की अच्छी जानकारी है।पहाड़ी के ऊपर बरगद की प्रजाति का एक पेड़ है। ललित ने बताया कि स्थानीय भाषा में उसको पाकर कहा जाता है।कुछ दूर पर केंवाच की बेलें पेड़ों पर चढ़ी हुई थी। उसमें लगे फूल और हरी हरी फलियां खूबसूरत लग रही थी।पर जितना ये देखने में खूबसूरत लगा पकने के बाद उतना ही खतरनाक हो जाता है।इस पेड़ के फलियों से अगर किसी व्यक्ति के शरीर का स्पर्श हो जाए तो इससे तीव्र खुजलाहट होने लगती है।बताते हैं कि इस खुजली से मुक्ति तभी मिलती है जब उस व्यक्ति को गोबर से नहलाया जाता है।खैर, वहीं पर एक प्रकार के जंगली मूंग की बेलें भी नजर आई। ललित ने बताया कि इसे मूंगेसर बोलते हैं। फिर मैं और ललित मूंगेसर खोजकर खाने लगे। आमतौर पर ये जंगली मूंग खेतों की मेड़ों पर भी उगते हैं।इसकी कच्ची फलियां स्वादिष्ट होती है। बचपन में बहुत खाते थे।
माता के दरबार की बात करें तो माता के स्थापना स्थल पर किसी भी प्रकार की अतिरिक्त बनावट नहीं की गई है,ना ही माता के लिए मंदिर का निर्माण किया गया है।सुरक्षा के लिए लोहे की रेलिंग लगी हुई है पहाड़ी पर।एक छोटा सा लोहे का गेट भी लगाया गया है। माता आज भी दो विशाल शिलाखंड के बीच स्थित गुफानुमा स्थान पर विराजित हैं।
दो विशाल शिला खंड पता नहीं किस प्रकार से पहाडी पर बिना किसी जोड़ के टिका है,समझ में नहीं आता। देखने से ऐसा लगता है कि ये अब तब लुढ़क सकते हैं।पर ये सदियों से वैसे ही विद्यमान हैं।वाकई ये कुदरत का चमत्कार है।नीचे आने पर एक स्थान पर राम तुलसी और श्याम तुलसी का झुरमुट एक साथ नजर आया। मैंने अच्छे अच्छे दृश्यों को अपने मोबाईल कैमरा में कैद कर लिया।पर अफसोस!!!सारे फोटो ब्लाग में डालते नहीं बनता।
पहले पहाड़ी के ऊपर बिजली की सुविधा नहीं थी लेकिन अब नवरात्र पर्व आदि पर बिजली की सुविधा पहाड़ी के ऊपर तक उपलब्ध हो जाती है।
पहाड़ी के नीचे भाग में हनुमानजी जी सहित अन्य देवी-देवताओं के मंदिर भक्त गणों द्वारा बनवाया गया है।स्थानीय 12 पंचायत समिति के द्वारा मंदिर की देखरेख की जाती है।पहले चैत्र पूर्णिमा के दिन चइतरई जात्रा मनाने का ही प्रचलन था।उस दिन माता के भक्तों के द्वारा यहां मनौतीस्वरूप बकरे आदि की बलि दी जाती थी,मेले का आयोजन होता था।आज भी प्रतिवर्ष जात्रा के दिन भव्य मेले का आयोजन किया जाता है और भक्तों की भीड़ उमड़ती है।जात्रा परब के साथ ही कालांतर में यहां शारदीय नवरात्र में ज्योतिकलश स्थापित किया जाने लगा जो आज भी निरंतर जारी है।विशाल ज्योति कक्षों का निर्माण स्थानीय जनप्रतिनिधियों के सहयोग द्वारा किया गया है। पहाड़ी पर चढने के लिए पक्के सिढियों का निर्माण हो चुका है। चढ़ाई दुर्गम नहीं है।
अगर आप प्राकृतिक सौंदर्य के प्रेमी हैं और माता टेंगनहीं के दर्शन के अभिलाषी हैं तो जरूर पधारियेगा।

रविवार, 11 अक्टूबर 2020

पिछले दिनों में....

     
पिछले कुछ दिनों में इतनी व्यस्तता रही की लिखने का संजोग ही नहीं बना।हम दुनियादारी के लिए भले ही वक्त निकाल सकते हैं,मगर खुद के लिए,अपने शौक के लिए वक्त निकालना कभी कभी मुश्किल सा हो जाता है।कुछ ऐसा ही मेरे साथ पखवाड़ा भर होते रहा और मैं कोई नया पोस्ट नहीं डाल पाया। लेकिन इन पिछले दिनों के भीतर एक अच्छी बात ये हुई कि मेरा परिचय छत्तीसगढ़ के मशहूर ब्लागर और छत्तीसगढ़ के पर्यटन क्षेत्र और पुरातत्व में विशेष रुचि रखनेवाले श्री ललित शर्मा जी से हुआ। पिछले महीने ही उनको छत्तीसगढ़ की महामहिम राज्यपाल द्वारा छत्तीसगढ़ के पर्यटन स्थलों को देश विदेश में पहचान दिलाने लिए उनके योगदान को एक लाख रुपए की सम्मान राशि देकर सराहा गया।फिर उनसे मेरी बातचीत भी हुई। रौबदार व्यक्तित्व है उनका और जानकारी के महासागर भी हैं।उनके ब्लाग ललित डाट काम और अडहा के गोठ को अपार पाठक और प्रसिद्धि मिला है। वर्तमान में न्यूज एक्सप्रेस और दक्षिण कौशल टुडे का संपादकीय दायित्व संभाल रहे हैं।उनसे फोन में बातचीत मात्र से बहुत सी ज्ञानवर्धक जानकारी मिली।ये भी एक मजेदार संयोग है कि मेरे जान पहचान में ललित नामधारी बहुत से लोग हैं और मैं उनके लालित्य में बंधा हुआ हूं।
हां,तो मैं बता रहा था कि पिछले दिनों बिल्कुल भी नया पोस्ट डालने के लिए समय नहीं मिला इसलिए पूरे पन्द्रह दिन मेरा ये ब्लाग खाली रह गया।आज सवेरे मैंने अपने अभिन्न मित्र ललित नागेश को फोन करके टेंगनही माता दरबार में जाने के लिए राजी किया। बड़ी मुश्किल से तैयार हुआ।जोर जबरदस्ती वाली डांट से माना।दोपहर तीन बजे का समय तय हुआ और मैं अपनी द्विचक्रवाहिनी लेकर कोसमबुडा घाट के तिराहे के पास पहुंच गया।

 कुछ देर बाद ललित भाई भी पहुंचे और एक गाड़ी को वहीं एक दुकान के पास छोड़कर डबल सवारी मां टेंगनहीं दरबार की ओर चल पड़े।रास्ते के आजू-बाजू कहीं मौसम की मार से आहत फसलें खेत में पड़ी नजर आई तो कहीं कटाई के लिए तैयार फसल भी खडी नजर आई।किसान बेचारा अभी कोरोना की दहशत, महंगाई की मार और मौसम की दगाबाजी से हैरान परेशान है।रास्ते भर हम देश दुनिया की चर्चा ही करते रहे।
थोड़ी देर बाद हम अपने गंतव्य में पहुंचे और माता के दर्शन के लिए चल पड़े।माता टेंगनही हमारे क्षेत्र की आराध्य देवी है और मेरे लिए तो मेरी ग्राम्य देवी भी है। उनके ही नाम से मेरे निवास ग्राम का नाम जुड़ा है।इस साल कोरोना के खौफ के कारण नवरात्र नजदीक होने के बाद भी देवी तीर्थ स्थलों में सन्नाटा पसरा है।माता दरबार में जब हम पहुंचे तो वहां कोई भी नहीं था जबकि अन्य वर्ष नवरात्र की तैयारियां इन दिनों में जोर शोर से चला करती थीं। नवरात्र में हमारे यहां कन्यापूजन की परंपरा रही है, लेकिन बीते दिनों घटी अनाचार की घटनाओं की खबरें सुनकर मन व्यथित हो गया है।अभी हाथरस का घटनाक्रम जहर




उगलते न्यूज चैनलों की ब्रेकिंग न्यूज बनी हुई है।जिस हाथरस का नाम साहित्य जगत में काका हाथरसी के कारण जाना पहचाना है, जहां काका की हास्य पंक्तियों से हास्य फूटा करते थे,आज वहां एक बेटी की सिसकारियां दहला रही है।इंसानी खाल में छुपे भेड़ियों को आखिर पहचाने तो पहचाने कैसे? ना जाने कब इन नरपिशाचों का अंत होगा?पता नहीं आज कैसे अपने भावों को इन शब्दों में पिरोने से स्वयं को रोक नहीं पाया-
बेटियां कहां सुरक्षित है
सड़क पर,घर में,स्कूल
अस्पताल,हास्टल,बस में!!
हैवानों की आंखें घूरती है
सब जगह,हर भीड़,हर मोड़ में
बेटियां सहम जाती है 
गिद्धों की वहशी नजरों से
अपनी चुनरी को व्यवस्थित होने के बाद भी
फिर से व्यवस्थित करने लगती है
घुटनों तक पहनी कमीज को और नीचे तक खींचते 
बढ़ जातें हैं हाथ खुद बखुद
हर अकेली औरत, हैवानों के लिए मौका साबित होता है
रिश्तों की अहमियत भी कहां रह गई है आज
कलंकित होते रिश्ते जगह पाते हैं
अखबार के मुखपृष्ठ पर
कन्यापूजन के दिन चुनरी चढ़ाकर
नन्हीं बच्चियों से आशीष लेते कुछ ढोंगी
अवसर पाते ही उन चुनरियों को तार-तार करने में कसर नहीं छोड़ते!!!

      खैर,ये तस्वीर जल्द बदले।माता रानी कृपा करे। मैं और ललित प्रकृति का सामीप्य पाने की अभिलाषा से गये थे तो हमने प्राकृतिक दृश्यों का भरपूर आनंद लिया।कुछ नयनाभिराम दृश्यों को अपने कैमरे से कैद भी किया।अभी मूंगफली की कच्ची फलियां बाजार में उपलब्ध है।हम अपने साथ वही लेकर गये थे बातचीत के दरमियान खाने के लिए। आनंद आ गया।अभी इसके बारे में और ज्यादा लिखूंगा तो पोस्ट लंबी हो जायेगी इसलिए यहीं विराम करता हूं,शेष बातें इस यात्रा की आगामी पोस्ट में....


दिन चारी मइहरवा में....सुरता स्व.मिथलेश सर के

  लोकगीतों की अपनी एक अलग मिठास होती है।बिना संगीत के भी लोकगीत मन मोह लेता है,और परंपरागत वाद्य यंत्रों की संगत हो जाए, फिर क्या कहने!! आज ...