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सुरंग मार्ग |
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बेंदरा कछेरी |
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पहाड़ी से दृश्य |
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जंगली वनस्पति का सौंदर्य |
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जंगली वनस्पति का सौंदर्य |
शायद आप सबने कभी ना कभी ये महसूस किया होगा या कर रहे होंगे। मैं भी कभी कभी ऐसा ही कुछ महसूस करता हूं।पर क्या ये सच है?क्या आप दुनिया के सबसे दुखी आदमी हैं?क्या सचमुच आपके साथ ईश्वर ने न्याय नहीं किया?
मेरा मानना है कि ये बिल्कुल भी सच नहीं है।हमारा दुख तब तक हमारे लिए बहुत बड़ा होता है जब तक हम अपने से बड़ी तकलीफ़ झेलने वाले के बारे में नहीं जानते या नहीं देखते हैं। जैसा ही हम अपने से भारी मुसीबत के मारों से मिलते हैं।हमारी तकलीफ हमें छोटी लगने लगती है।एक से एक बड़े बड़े मुसीबत के मारे अनगिनत लोग हमारे आस-पास ही मौजूद होते हैं।कभी कभी बात निकल आने पर ही हमें लोगों की परेशानियों का पता चलता है। नहीं तो हर आदमी अपनी दुखों की गठरी लेकर घूम रहा होता है।
ऐसा ही एक कहानी मैंने कहीं पढ़ा था।एक बार एक आदमी अपनी तकलीफों का दास्तां एक बाबाजी से कहते हैं।बाबाजी पहुंचे हुए संत थे। उन्होंने उस आदमी से कहा कि अपनी जितनी भी सारी तकलीफें हैं उन सबको लिखकर लाए और गठरी बांधकर कमरे में रख आए।और उस गठरी के बदले में सबसे कम वजन वाली गठरी लेकर वापस आ जाये।जितनी हल्की गठरी वो लाएगा वो उसका दुख उतना ही दूर कर देंगे।वह आदमी अपनी गठरी लेकर कमरे के अंदर गया तो उसका दिमाग चकरा गया।उस कमरे में एक से बढ़कर एक बड़ी बड़ी दुखों की गठरी रखी पड़ी थी।उसने अपने गठरी के मुकाबले छोटी गठरी का बहुत लंबे समय तक तलाश किया पर उसके गठरी से छोटा गठरी उस आदमी को नहीं मिला।थक हार कर वह अपनी ही गठरी लेकर कमरे से वापस आया।बाबाजी ने पूछा-कहो बच्चा!छोटी गठरी मिली?तो उस आदमी ने ना में सिर हिलाया।तब बाबाजी ने उस आदमी को समझाया-बच्चे!जिस कमरे से तुम आ रहे हो वह इस दुनिया का प्रतिबिंब है। तुम्हारी तरह हर आदमी को अपनी तकलीफों का बोझ ज्यादा महसूस होता है,लेकिन इसमें सच्चाई नहीं है।हर व्यक्ति को अपने हिस्से का दर्द और तकलीफ झेलना ही पड़ता है।यही संसार का नियम है।बाबाजी के वचनों को सुनकर आदमी को अपनी मूर्खता का एहसास हुआ और उसने ईश्वर को कोसना बंद कर दिया।
उस व्यक्ति की तरह हमारे पास भी अपनी-अपनी तकलीफों की गठरी है और हम भी अपनी गठरी को भारी समझने की भूल कर बैठे हैं। पिछले दिनों एक माताजी मिली थीं एक अपंग बच्चे को गोद में लिए।पूछने पर उसने बताया कि बच्चा जन्म से ही पैरालिसिस का शिकार है। नित्य क्रिया और भोजन के लिए अपनी मां पर आश्रित है।उसके पिता को दारू की लत लगी हुई है।बच्चे के इलाज के लिए ना तो उनके पास पैसे हैं और ना ही उनके पिताजी को जिम्मेदारी का एहसास।उस बच्ची का बाप नशे में धुत्त होकर पड़ा रहता है। बड़ी मुश्किल से उसकी पत्नी और वो रोजी मजूरी करके अपना गुजर-बसर कर रहे हैं।
एक और महिला है जो बड़ी निडरता से जीवन पथ पर तकलीफों को मात देकर सम्मानित जीवन जी रही है।उसके पति का देहांत दारू पीने के कारण बच्चे जब छोटे थे तभी हो गया।दो बच्चे थे एक सामान्य बच्चा था और एक पोलियो ग्रस्त। बड़ी मुश्किल से दोनों का लालन-पालन किया। बड़ा लड़का जब किशोरावस्था की दहलीज पर पहुंचा तब वो भी अपने दिवंगत पिता की राह पर चलने लगा और दारू पी पीकर बाली उमर में चल बसा।अब दोनों मां बेटे छोटे से होटल व्यवसाय से अपना जीवन यापन कर रहे हैं।
हमारे आसपास इतने जीजिविषा वाले लोग हैं जो ईश्वर को मानो चुनौती देते प्रतीत होते हैं कि आप तकलीफों का सैलाब भेजो हम अपनी इच्छा शक्ति की मजबूत चट्टानों से उसे रोक लेंगे।एक भाई साहब पैरों से विकलांग है।बहुत दिनों तक दुकानों पर काम भी किया।मगर आज अपने बलबूते पर खुद का मेडिकल स्टोर चला रहा है।एक आदमी का एक हाथ नही है,पर वह जंगल से लकड़ी लाकर बेचता है। एक बंदे ने एक पैर दुर्घटना में गंवा देने के बाद एक छोटा सा होटल खोला है और अपने परिवार को सम्मान की रोटी खिला रहा है।क्या हम इन लोगों से कुछ सीख सकते हैं?ये वे लोग हैं जिनकी कहानी हमको किताबों में नहीं मिलेगी।ये जीवनपथ पर संघर्षों से जूझते लोग हैं। हमें इनसे सीखने की जरूरत है।लडिए अपने दुखों से,दर्द से, तकलीफ से।अपने आपको साबित कीजिए,पलायन नहीं। फिलहाल इतना ही..
तो मित्रों,हारिए मत, दौड़िए लगातार,बिना हारे...बिना थके (फोटो सोशल मीडिया से साभार)
चंदैनी गोंदा,एक छोटा सा खुशबूदार और सदाबहार पुष्प जो आमतौर गांवों में सहज रूप से कुएं के पास या बाड़ी में मिल जाया करती है।इसके छोटे-छोटे लाल पीले रंगत लिए फूल बड़ी मात्रा में छोटे-से पौधे मे खिलते हैं,जो सामान्यत: देव-पूजा में प्रयुक्त होते हैं।चंदैनी मतलब चांदनी।जिस प्रकार आकाश में एक साथ अनगिनत चांदनी दिखाई पड़ते हैं,उसी प्रकार चंदैनी गोंदा के नन्हें पौधे पर भी अनगिनत फूल खिलते हैं।
चंदैनी गोंदा का सौंदर्य देखते ही बनता है।नाम अनुरूप छत्तीसगढ़ का प्रतिष्ठित सदाबहार लोक सांस्कृतिक मंच है"चंदैनी-गोंदा"।दाऊ रामचंद्र देशमुख द्वारा रोपित और आदरणीय खुमान लाल साव जी के श्रम से सिंचित"चंदैनी-गोंदा"समय की मार से आज तक कुम्हलाया नहीं है।यह कार्यक्रम छत्तीसगढ़ में राजनीतिक और सांस्कृतिक जागरण का शंखनाद था।
मुझे याद है साल 2002 में हमारे निकटतम कस्बे छुरा में दशहरे के अवसर पर"चंदैनी-गोंदा"का कार्यक्रम आया था।तब मुझे इस संस्था के बारे में ना तो कोई जानकारी थी और ना ही मुझे लोकमंच के कार्यक्रम में विशेष रूचि थी।सोचा था कि रावण दहन के पश्चात एकाध घंटे कार्यक्रम देखके लौट आयेंगे। लगभग-लगभग रात के 10 बजे"चंदैनी-गोंदा" कार्यक्रम की प्रस्तुति की शुरुआत हुई। छत्तीसगढ़ लोक संस्कृति और देशभक्ति गीत की प्रस्तुति के बाद उन जाने पहचाने गीत की प्रस्तुति होने लगी जिन्हें मैं बचपन से रेडियो आदि पर सुनते आ रहा था।वापस घर लौटने का इरादा बदल गया और मैं कार्यक्रम देखने में रम गया। छत्तीसगढ़ रेजीमेंट और बटोरनलाल वाला प्रहसन देखकर तो एकदम जमके बैठ गया।पूरे रात-भर कार्यक्रम चला और कार्यक्रम के समापन के बाद भोर हुई तब घर लौटा।ऐसा आकर्षण था चंदैनी गोंदा का।इस लोकमंच के कार्यक्रम को देखकर छत्तीसगढ़ी गीत-संगीत का जादू मुझ पर इस कदर चढ़ा कि आज तक झूम रहा हूं।तब कार्यक्रम के कलाकारों के नाम से परिचित नहीं था।कुछ बीतने के बाद जब जानकारी बढ़ी तब ज्ञात हुआ कि हारमोनियम वादन करने वाले चंदैनी गोंदा के आधार स्तंभ खुमान साव जी थे और बटोरनलाल की भूमिका में प्रख्यात हास्य कलाकार शिवकुमार'दीपक' और उसके पीए की भूमिका में हेमलाल कौशल थे।अभी दो साल पहले ही मेरे गृहग्राम में भी"चंदैनी-गोंदा"का आयोजन हुआ था।तब भी पूरी रात जागकर कार्यक्रम देखा था।कुछ कलाकारों का बदलाव हुआ था पर कार्यक्रम का तेवर और खुमान जी का अंदाज नहीं बदला था। बीच-बीच में सिगरेट के कस लगाते रहते और हारमोनियम पर उनकी उंगलियों का जादू चलते रहता।उनका रचा संगीत अजर अमर हो गया है।मुझे इस मंच पर प्रस्तुत होनेवाली देशभक्ति गीत रोमांचित कर देती है।देशभक्तों की कुर्बानी और अंग्रेजों के अत्याचार का दृश्यांकन देखकर देह घुरघुराने लगता है।अजादी के परसाद नाटक में हास्य के साथ ही जोरदार संदेश भी मिलता है।बटोरन लाल जैसे नेताओं के कारण देश की दुर्गति और विषम परिस्थितियों के कारण उपजी युवाशक्ति का आक्रोश इस प्रस्तुति में देखने को मिलती है।
"चंदैनी-गोंदा"मनोरंजन मात्र के उद्देश्य से स्थापित एक लोकमंच नहीं था बल्कि मनोरंजन के साथ-साथ लोगों में जागरण का संदेश पहुंचाना भी था।"चंदैनी गोंदा" की सर्वप्रथम प्रस्तुति दाऊ रामचंद्र देशमुख के गृहग्राम बघेरा में 7 नवंबर सन् 1971 को हुई थी।इस लोक सांस्कृतिक मंच के कलाकारों के तलाश में उन्होंने कई कोस की यात्रा की थी।तब जाकर उन्हें एक से बढ़कर एक नगीने मिल पाए। अपने-अपने हुनर में माहिर कलाकारों की कलाकारी जब मंच पर अवतरित हुई तो लोग वाह-वाह कर उठे। छत्तीसगढ़ महतारी के वैभव को देखकर दर्शक मंत्रमुग्ध हो गए।चंदैनी गोंदा के गीत लोगों की जुबां पर आ गए।अल्प समय में ही चंदैनी गोंदा को अपार ख्याति मिली।भारत मां के रतन बेटा,धरती के अंगना मा,पता ले जा रे गाड़ी वाला,शहर डहर के जवइया जैसे अनेक गीतों को अपार ख्याति मिली।चंदैनी गोंदा के तकरीबन 22 गीतों की रिकार्डिंग आकाशवाणी रायपुर से हुई जिसका निरंतर प्रसारण आज भी हो रहा है।
दाऊ रामचंद्र देशमुख में बचपन से ही मंचीय कला के प्रति रूझान था।गांव में आयोजित होने वाली रामलीला देखकर लगभग 14-15 साल की उम्र में उन्होंने हमउम्र साथियों के साथ मिलकर खुद की लीला मंडली बना ली थी।सन् 1951 में उनके द्वारा "छत्तीसगढ़ देहाती कला विकास मंडल"की स्थापना की गई जो लगभग तीन वर्ष तक चला और विभिन्न प्रस्तुतियां हुई।
सत्तर के बाद का दशक पृथक् छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण की अकुलाहट का था। राजनीतिक उथल-पुथल का दौर भी था ये समय। सन् 1967 में दाऊजी के ससुर और लोकप्रिय नेता श्री खूबचंद बघेल ने "छत्तीसगढ़ भातृ संघ" का गठन किया और पृथक् राज्य निर्माण के संघर्ष को गति प्रदान किया।कला के माध्यम से लोगों को जगाने का दायित्व उन्होंने दाऊजी को सौंपा।
दाऊ रामचंद्र देशमुख छत्तीसगढ़ और छत्तीसगढ़ी की श्रेष्ठता को स्थापित करना चाहते थे।वे चाहते थे कि छत्तीसगढ़ी को महज आंचलिक भाषा समझकर उसका तिरस्कार ना हो। छत्तीसगढ़ की लोककला को सम्मान मिले।नाचा में हास्य के नाम पर फूहडता का समावेश होने लगा था।आम जन जीवन की व्यथा कथा को वे मंच पर पूरी शिद्दत के साथ प्रस्तुत करने को आतुर थे।दाऊजी अध्ययनशील व्यक्ति थे।बताया जाता है कि उनके पास लगभग 15000 से अधिक पुस्तकों का संग्रह था।वे छत्तीसगढ़ी गीत के नाम पर द्विअर्थी गीतों को नहीं परोसना चाहते थे इसलिए चुन-चुनकर छत्तीसगढ़ के साहित्य जगत के साहित्यिक रचनाओं को चंदैंनी गोंदा में प्रस्तुति के लिए चुना गया।दाऊजी की इस परंपरा का निर्वहन बाद में खुमान साव जी ने भी किया।उनका कहना था कि नारी के गाल,बाल और शारीरिक अंगों का वर्णन करना ही चलन बन गया है आजकल के रचनाकारों में।वे इसके बिलकुल विरोधी थे।उनका कहना था कि गीतों में छत्तीसगढ़ और छत्तीसगढ़ी संस्कृति की झलक मिलनी चाहिए।
"चंदैनी-गोंदा" में साहित्य स्थान पाता था।तभी तो पं.रविशंकर शुक्ल,पं.द्वारिका प्रसाद तिवारी"विप्र",संत पवन दीवान,मुकुंद कौशल,लक्ष्मण मस्तूरिया,भगवती सेन कोदूराम दलित जी के गीत चंदैनी गोंदा की शोभा बने और जन-जन में लोकप्रिय हुए। इसमें सर्वाधिक गीत लक्ष्मण मस्तुरिया के थे।
खुमान लाल साव जी चंदैनी गोंदा में आने से पहले अपने मौसेरे भाई और छत्तीसगढ़ी नाचा के प्रवर्तक दाऊ मंदराजी के रवेली साज के हारमोनियम वादक थे।कभी-कभी महसूस होता है कि दाऊ रामचंद्र देशमुख,खुमान साव और लक्ष्मण मस्तुरिया का अगर मेल ना हो पाता तो छत्तीसगढ़ इस कालजयी प्रस्तुति से वंचित हो जाता।
"चंदैनी-गोंदा"ने छत्तीसगढ़ी भाषा और छत्तीसगढ़ी रचनाकारों को प्रतिष्ठित किया।लगभग 99 कार्यक्रम की प्रस्तुति के बाद दाऊजी ने "चंदैनी-गोंदा"के संचालन का भार आदरणीय खुमान साव जी को सौंप दिया, जिन्हें वे ताउम्र संचालित करते रहे। छत्तीसगढ़ पाठ्य पुस्तक निगम द्वारा छत्तीसगढ़ के विशिष्ट व्यक्तियों के ऊपर चित्र कथा की किताबें बच्चों के पढ़ने के लिए प्रकाशित किया गया है उसमें एक दाऊ रामचंद्र देशमुख के ऊपर भी आधारित है। उसमें बताया गया है कि दाऊजी असाधारण चिंतक, वैज्ञानिक पद्धति से कृषि करने वाले कृषक, आयुर्वेद के अच्छे जानकार और कला मर्मज्ञ थे।लकवा की दवाई के लिए दाऊजी का नाम और बघेरा ग्राम प्रसिद्ध था।उनकी जीवनसंगिनी "चंदैनी-गोंदा"के कलाकारों को मातृतुल्य स्नेह दिया करती थी।
"चंदैनी गोंदा"एक ऐसा लोक सांस्कृतिक संस्था थी जिसे लोकसांस्कृतिक कलामंच का वट वृक्ष कहा जाय तो अतिश्योक्ति नहीं होनी चाहिए।अभी वर्तमान में छत्तीसगढ़ के जो प्रसिद्ध लोककला मंच चल रहे हैं उनमें से अधिकांश के संचालक आदरणीय खुमानजी के शिष्य-शिष्याएं हैं।कविता वासनिक,अनुराग ठाकुर,दुष्यंत हरमुख,केदार यादव,लक्ष्मण मस्तूरिहा,महादेव हिरवानी जैसे अनेक नगीने इसी मंच की देन है।
अभी पिछले दिनों ही इस कलामंच के विशिष्ट कलाकार शिवकुमार'दीपक'जी को राज्य के प्रतिष्ठित अलंकरण "दाऊ मंदरा जी" सम्मान से अलंकृत किया गया है।दुखद बात है कि इस मंच के दो प्रमुख आधार स्तंभ श्री लक्ष्मण मस्तुरिया सन् 2018 में और खुमान लाल साव जी पिछले वर्ष सन् 2019 में हमसे बिछड़ गए।
दाऊजी रामचंद्र देशमुख के"चंदैनी-गोंदा" सफर इस वर्ष आधी सदी को पूरा कर रहा है। प्रथम प्रस्तुति के बाद आज इस संस्था को पूरे 50 साल पूरे हो गए हैं।किसी भी लोक सांस्कृतिक संस्था का इतना लंबा सफर शायद ही कहीं और मिलेगा।"चंदैनी-गोंदा"के ऊपर कार्यक्रम के सर्वप्रथम उद्घोषक और दाऊ जी के भतीजे प्रोफेसर सुरेश देशमुख जी की किताब आने वाली है।जिसका कलाप्रेमियों को बेसब्री से इंतजार रहेगा।दाऊ रामचंद्र देशमुख जी के दौर वाले चंदैनी गोंदा को देखने का अवसर तो नहीं मिला पर मैं खुमान बबा के दौर के "चंदैनी गोंदा"को देखना अपनी किस्मत समझता हूं।"चंदैनी-गोंदा"के सभी ब्रम्हलीन और वर्तमान कला साधकों को नमन करते हुए इस अद्भुत लोकसांस्कृतिक मंच के 50 साल पूरे होने की समूचे छत्तीसगढ़ वासियों को बधाई।
एक बात और ये सुखद संयोग है कि आज बतौर ब्लागर ये मेरा 50 वां पोस्ट है। मैंने भी ब्लाग लेखन का अर्द्धशतक पूर्ण कर लिया है।मेरे एक यूट्यूबर मित्र दिलीप भाई ने बताया है कि कल यानि 8 नवंबर को दुर्ग में"चंदैनी-गोंदा"के पचास साल पूरे होने पर कार्यक्रम का आयोजन किया गया है।
परिस्थितियों के आगे इंसान मजबूर होता है। बड़े से बड़े प्रतिभावान की प्रतिभा दब जाया करती है। जरूरतमंदों को समय पर ना तो मार्गदर्शन मिल पाता है और ना किसी किस्म की कोई मदद।फलत:अनेक प्रतिभाएं दम तोड़ देती है। हालांकि सरकारी तंत्र बड़े बड़े दावे जरूर करती है पर वास्तविक हकदार तक प्राय:मदद पहुंचने में देर हो जाती है।
हीरा कहीं भी रहे पर अपनी चमक जरूर बिखेरता है,ये शत् प्रतिशत सत्य है।पर हीरे की परख करने वाले और तराशकर गढ़ने वाले जौहरी का होना भी जरूरी है हीरे को मूल्यवान बनाने के लिए।
ऐसा ही एक कीमती हीरा है श्री धनेश साहू। तिल्दा-नेवरा में पान की छोटी सी दुकान चलाकर अपने परिवार का भरण-पोषण करते हैं।घर और दुकान के बाद जो समय बचता है उसमें चित्रकारी का अपना शौक पूरा करते हैं।परिस्थिति वश अधिक पढ़ने का उनको अवसर नहीं मिल पाया और वे अपने सपनों को मनमुताबिक आकार नहीं दे पाये।मगर उनकी कल्पनाओं में छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति और ग्राम्य जीवन बसती है,जो उनके हाथों के जादू से कागज पर उतर आता है।उनके बनाए चित्रों मे मजदूर की पीड़ा,छत्तीसगढ़ की संस्कृति, तीज-त्योहार और ग्राम्य जीवन का सुंदर चित्रण देखने को मिलता है। पिछले दिनों राज्य स्थापना दिवस पर उनके बनाए चित्रों की प्रदर्शनी बालोद में लगी थी।जिसे कलाप्रेमियों ने खूब सराहा था।साहूजी द्वारा बनाया छत्तीसगढ़ महतारी का चित्र वाट्सएप के माध्यम से खूब प्रसिद्धि पा रहा है। वाटर कलर से साधारण कागज पर बनाई उनकी पेंटिंग मंत्रमुग्ध कर देती है।रंगोली के भी बढ़िया कलाकार हैं।उनको एक मंच की जरूरत है, जहां उनकी कला को अवसर मिले।सरल सहज स्वभाव के धनी धनेश साहू जी की कृतियों को आप उनके फेसबुक पेज पर जाकर देख सकते हैंhttps://www.facebook.com/100022997314063/posts/806752160101354/?sfnsn=wiwspwa
बिलासपुर के मस्तूरी में जन्म लेकर रायपुर आने तक का उनका सफर बहुत संघर्षपूर्ण रहा है।उनके समकालीन साहित्यकार रवि श्रीवास्तव जी बताते हैं कि लक्ष्मण मस्तूरिहा ने राजिम में पवन दीवान और कृष्णारंजन जी का सान्निध्य प्राप्त किया था। उन्होंने राजिम में बहुत समय बिताया था और नवापारा में जाकर टेलरिंग का काम भी किया करते थे।इस दौरान उनका काव्य सृजन चलता रहा और वे आकाशवाणी से प्रसारित होने लगे थे।
आकाशवाणी से प्रसारित किसी गीत को सुनकर बघेरा वाले दाऊ रामचंद्र देशमुख उनकी आवाज और गीत से इतने प्रभावित हुए कि वे उनको अपनी लोक सांस्कृतिक प्रस्तुति"चंदैनी-गोंदा" में काम करने के लिए मनाने के लिए राजिम आ गए।
"चंदैनी-गोंदा" से जुड़ने के बाद उनके द्वारा लिखित और गाए गीतों को अपार ख्याति मिली।"चंदैनी गोंदा" के अधिकांश गीत उनकी लेखनी का ही सृजन है,जो आदरणीय खुमान साव जी का संगीत पाकर कालजयी बन गये।कविता हिरकने,अनुराग ठाकुर,साधना यादव,महादेव हिरवानी जैसे अनेक कलाकारों को उनके गीतों से प्रसिद्धि मिली।मस्तूरिया जी के लिखे गीतों की फेहरिस्त बहुत लंबी है जिनमें से धरती मैय्या जय होवय तोर,मन डोले रे माघ फागुनवा,वा रे मोर पडकी मैना,मोर संग चलव रे,आओ मन भजो गणपति महाराज,बखरी के तुमानार,तोर खोपा मा गजरा,पता ले जा गाडीवाला,चौरा मा गोंदा,धनी बिना जग लागे सुन्ना,मंगनी मा मांगे,पुन्नी के चंदा,भारत माता के रतन बेटा,नाच नचनी झूमा झूम के,मोर खेती खार रूनझुन जैसे गीत प्रमुख हैं।आकाशवाणी श्रोताओं के बीच लक्ष्मण मस्तुरिया जी के गीतों की मांग आज भी जस की तस बनी हुई है। लक्ष्मण मस्तूरिया जी ने पं सुंदरलाल शर्मा लिखित"छत्तीसगढ़ी दानलीला" को भी श्रीमती छाया चंद्राकर और सुश्री तीजन पटेल के सहस्वर के साथ अपनी आवाज दिया है।उनकी कृति मैं छत्तीसगढ़ के माटी अंव को खुमान साव जी के मोहक संगीत के संग श्रीमती कविता वासनिक, महादेव हिरवानी और स्वयं मस्तूरिहा जी ने स्वर दिया है।ये सब यूट्यूब पर उपलब्ध है और इसका संगीत तथा गायन मंत्रमुग्ध कर देता है।
सत्तर के बाद के दशकों में जब पृथक छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण की मांग जोर पकड़ने लगी तो आम जनमानस को इस आंदोलन से जोड़ने का काम लक्ष्मण मस्तूरिहा के गीतों ने किया। अभावग्रस्त, शोषित,सहज और सरल छत्तीसगढ़ के आम मजदूर किसान के मनोभावों को मस्तूरिहा जी के गीतों ने आवाज दिया। इसलिए उनको जनकवि भी कहा जाता है।
साल 1974 में छत्तीसगढ़ के मशहूर शायर मुकीम भारती के संग मस्तुरिया जी को गणतंत्र दिवस के अवसर पर दिल्ली के लालकिले से काव्य पाठ का मौका मिला जहां उन्होंने अपनी कविता से छत्तीसगढ़ को गौरवान्वित किया।उन्होंने बहुत सारे गीत लिखे हैं और उनकी पुस्तक रूप में प्रकाशित-प्रसारित कृतियों में हमूं बेटा भुईंया के,गंवई-गंगा,चंदैनी-गोंदा, छत्तीसगढ़ के माटी,सोनाखान के आगी,घुनही बंसुरिया और मोर संग चलव प्रमुख है।
मस्तुरिया जी की प्रसिद्ध कविता मैं छत्तीसगढ़ के माटी अंव में आप संपूर्ण छत्तीसगढ़ का दर्शन सहज रूप से कर सकते हैं।इसका आडियो संस्करण बन चुका है और अच्छी बात ये है कि उनकी ये मशहूर रचना छत्तीसगढ़ में"छंद के छ" कक्षा के संस्थापक और साहित्यकार जनकवि स्व.श्री कोदूराम'दलित' जी के सुपुत्र श्री अरूण निगम जी के यूट्यूब चैनल पर उपलब्ध है।मस्तूरिहा जी की रचना को आदरणीय खुमान साव जी के संगीत में पिरोकर सर्वसुलभ बनाने में निगम जी का प्रयास स्तुत्य है।
मस्तूरिहा जी छत्तीसगढ़ के प्रसिद्ध गायक,गीतकार और कवि हैं। वर्ष 1988 से राजकुमार कालेज में प्रोफेसर के रूप में लगातार कार्यरत रहे। सेवानिवृत्त होने के बाद उन्होंने"लोकसुर"नामक पत्रिका का संपादन भी किया था।पत्रिका उच्च क्वालिटी की थी पर किन्हीं कारणवश अधिक अंक नहीं निकल पाए।वर्ष 2014 में राजनीति में किस्मत आजमाने निकले और नवगठित आम आदमी(आप) पार्टी के टिकट पर उन्होंने महासमुंद लोकसभा सीट से सांसद पद का चुनाव लडा।उस समय महासमुंद सीट पर पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी सहित 11 चंदूलाल साहू नाम के प्रत्याशी चुनाव मैदान में थे,जिसके कारण यह सीट काफी चर्चित रहा। यहां तक कि अमिताभ बच्चन द्वारा प्रस्तुत मशहूर क्वीज शो इस केबीसी में इस पर प्रश्न भी पूछा गया था।इस चुनाव में उनको आशातीत सफलता नहीं मिली।
आडियो विडियो के दौर में उनके गीतों का एल्बम भी आया और वे पहले की तरह ही सराहे गए।राज्य गठन के दौरान आए सुपरहिट छत्तीसगढ़ी फिल्म"मोर छंईहा भुंईया" में लिखे उनके गीत बहुत लोकप्रिय हुए।इसके अलावा अन्य फिल्मों में भी गीत लेखन किया। उनके प्रसिद्ध गीत मोर संग चलव को बालीवुड के गायक सुरेश वाडेकर जी ने स्वर दिया था।
उनको अनेकों पुरस्कार और सम्मान प्राप्त हो चुके हैं।कवि सम्मेलन के सितारा कवि थे। लोग उनकी रचना सुनने के लिए प्रतीक्षा करते थे।उनका गीत और कविता लेखन चलता ही रहता यदि अकस्मात 3 नवंबर 2018 को उनका देहावसान ना होता। छत्तीसगढ़ महतारी का ये लाडला बेटा उसी की गोद में चिरनिद्रा में लीन हो गया।उनके निधन पश्चात उनके नाम पर राज्य पुरस्कार स्थापित करने की मांग साहित्यकार बिरादरी की ओर से उठ रही है।जिन लोगों को राजनीतिक कलाकारी नहीं आती प्राय:वे उपेक्षित किए जाते हैं। दुर्भाग्य से अपेक्षाकृत कम योग्य लोगों को प्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है पर मस्तूरिहा जी को पद्म पुरस्कार ना मिल पाना खलता है। उनके लेखनी को प्रणाम करते हुए मस्तूरिहा जी को नमन जो पीड़ितों और शोषितों की आवाज बनकर न्याय प्राप्त करने की आवाज बुलंद करते थे।माटी सोनाखान के काव्यकृति की पंक्तियां देखिए....
सरन परे भिखमंगा आइन
छिन भर म होगिन धनवान
तपसी आइन इहि माटी म
मया करिन बनगिन भगवान
इहि माटी के गुन आगर हे
जेखर गली गली परमान
सतवादी हें लांघन भूखन
मंजा करत बइठे बइमान
जेहि पतरी म खाइन बइरी
उहि पतरी म छेद करिन
जेहि म जीव लुकाइन
उहि घर मुडि़यामेंट करिन
राजा अउ परजा के मंझ म
बड चतुरा बयपारी यार
नफा कमावै मजा उडावै
काम करै बइमानी सार
आज का समाचार पत्र देखा तो पता चला कि अंततः राज्य निर्माण के बीसवें वर्ष में हमारे वयोवृद्ध कलाकार श्री शिवकुमार'दीपक' को लोककला में उनके योगदान के लिए राज्य अलंकरण"दाऊ मंदराजी सम्मान"से अलंकृत किया गया है।इस पर पोस्ट लिखने का विचार मन में चल ही रहा था कि ललित भाई का वाट्सएप मैसेज इस विषय पर लिखने के लिए आ गया।"दीपक" जी से मेरी प्रत्यक्ष भेंट तो नहीं है पर मोर मितान चैनल के दिलीप भाई से उनकी बातचीत और उनसे संबंधित मेरी अल्प जानकारी के आधार पर ये पोस्ट लिख रहा हूं।
राज्य शासन द्वारा दीपक जी को अलंकृत किया जाना स्वागतेय है पर मुझे लगता है कि उनको ये पुरस्कार मिलने में थोड़ा विलंब हो गया,वरन वे पहले ही इसके अधिकारी थे।खैर,देर आए दुरुस्त आए।सही व्यक्ति को सही सम्मान मिला।
इस पुरस्कार के बाद उनको पद्म पुरस्कार भी मिल जाए तो श्रेयस्कर होगा। हालांकि उनसे आयु में कम और कला क्षेत्र में कम अनुभवी लोगों को पद्मश्री जैसे प्रतिष्ठित पुरस्कार से नवाजा जा चुका है।
दुर्ग जिले के पोटिया ग्राम में जन्मे शिवकुमार"दीपक"जी की बचपन से ही अभिनय में रूचि थी।बालपन में अपने साथियों के संग किसी के सूने मकान या बियारा(खलिहान) में घर की साड़ियां आदि के कपड़े,गेरू आदि से मेकअप और सिगरेट के डिब्बे की चमकीली पन्नियों का मुकुट बनाकर राम लीला खेला करते थे।
बचपन से जारी अभिनय का उनका ये शौक कालेज की पढ़ाई के दौरान भी चलता रहा और उनको एक बार कालेज की ओर से युवा महोत्सव नागपुर में अभिनय दिखाने का अवसर प्राप्त हुआ। कार्यक्रम में पं.जवाहर लाल नेहरू अतिथि थे। उन्होंने शिवकुमार का अभिनय देखा और उसको सदैव दीपक की भांति उजाला फैलाने का आशीर्वाद दिया।बस!इसी आशीर्वचन को शिवकुमार ने अपने नाम से जोड़ लिया और बन गए हमारे शिवकुमार "दीपक"।
उनकी कला यात्रा अद्भुत है।वे लोक सांस्कृतिक मंच और फिल्मों में समान अधिकार के साथ अभिनय करते हैं।सन् 1963 के आसपास जब मनुनायक जी ने छत्तीसगढ़ी भाषा की पहली फिल्म "कहि देबे संदेश"का निर्माण किया तो इस फिल्म में शिवकुमार"दीपक" ने रसिकराज नाम से फिल्म में अभिनय किया। जब छत्तीसगढ़ी फिल्म का एक लंबे दौर के विराम के बाद पुनः निर्माण प्रारंभ हुआ तो पृथक छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के बाद प्रदर्शित पहली छत्तीसगढ़ी" मोर छंइहा भुईंया" में भी अभिनय किया।ये अपने आप में एक अनूठी बात है। तत्पश्चात प्रेम चंद्राकर के फिल्मों में स्व.कमलनारायण सिन्हा के साथ इनकी आनस्क्रीन जोड़ी "कचरा-बोदरा" के रूप में छत्तीसगढ़ के गांव गांव में प्रसिद्ध हो गया।महिला किरदार को हूबहू अभिनीत करने में उनका कोई मुकाबला नहीं है।ग्रामीण महिला के लहजे की बारिकियां वे इस कुशलता से अभिनीत करते हैं कि पहले-पहल देखने वाला अवश्य ही भ्रमित हो जायेगा कि कलाकार वास्तव में पुरुष है कि नारी।हास्य भूमिका निभाने में वे पारंगत है।
"दीपक"जी ने छत्तीसगढ़ी सहित मालवी,भोजपुरी,हिंदी और अफगानी फिल्मों में भी काम किया है।'सुहागन' व 'हल और बंदूक' उनके द्वारा अभिनीत हिंदी फिल्म है, जिनमें उनके साथ रजा मुराद,अरूण गोविल और परीक्षित साहनी जैसे कलाकारों ने काम किया है।
सन् 1971 में दाऊ रामचंद्र देशमुख जी ने छत्तीसगढ़ी लोक सांस्कृतिक मंच"चंदैनी गोंदा"का गठन किया। जिसमें अपने-अपने फन में माहिर कलारत्नों को चुना गया था।उस मंच पर भी शिवकुमार"दीपक"जी ने अपने अभिनय का जादू चलाया।दाऊ जी ने "चंदैनी गोंदा" के कुल 99 प्रदर्शन के बाद उसका बागडोर श्री खुमानलाल साव जी के हाथ में सौंप दिया।बीच में "दीपक" जी इस मंच से कुछ दिनों तक गायब रहे।फिर खुमानलाल साव जी ने उनको पुनः "चंदैनी-गोंदा" से जोड़ा जिसमें उनकी अभिनय यात्रा चलती रही।साल 2018 में अंतिम बार मैने उनको चंदैनी गोंदा के मंच पर बटोरन लाल के रूप में देखा था।जिस तरह से बटोरनलाल के चरित्र को वे मंच पर जीवंत करते हैं,शायद दूसरा कलाकार ना कर पाए।आम जन मानस की पीड़ा को वे अपने व्यंग्य के माध्यम से व्यक्त करते हैं।एक बार बीस सूत्री प्रहसन में उन्होंने तत्कालीन सरकार ऊपर तीखा व्यंग्य कर दिया था तो उनके ऊपर जांच बिठा दी गई थी।कालेज के दिनों में गांधीजी के देशसेवा करने के आह्वान पर वे अपने साथियों के साथ दुर्ग कचहरी में लगे ब्रिटिश झंडा को आग लगाने का असफल प्रयास करते पकड़े गए थे, तब उस समय के स्वतंत्रता सेनानियों ने उनको छुडाया था। डॉ खूबचंद बघेल द्वारा लिखित नाटक"जनरैल सिंह"के मंचीय संस्करण छत्तीसगढ़ रेजीमेंट प्रहसन में उनका विशुद्ध छत्तीसगढ़ी संवाद लोट-पोट कर देता है। छत्तीसगढ़ की विशिष्टता का पक्ष रखते हुए भारतीय सेना में अन्य रेजीमेंट की तरह छत्तीसगढ़ रेजीमेंट की मांग संदेश परक हास्य प्रस्तुति है। दाऊ रामचंद्र देशमुख,श्री खुमान साव और लक्ष्मण मस्तुरिया की तरह बटोरनलाल अर्थात "दीपक जी" भी चंदैनी गोंदा की पहचान है।वैसे उनके पुत्र शैलेष साव भी अपने पिताजी के नक्शे कदम पर चलकर अभिनय में अपना जौहर दिखा रहे हैं।भूपेंद्र साहू कृत लोक सांस्कृतिक मंच"रंग-सरोवर"के साथ ही विभिन्न छत्तीसगढ़ी फिल्मों में अपनी कला का प्रदर्शन कर रहे हैं।
बढती उम्र और शारीरिक असमर्थता ने उनको अब मंच से दूर कर दिया है पर उनके भीतर का कलाकार थका नहीं है। 88 साल की उम्र में भी कलाकारी के लिए तत्पर जान पड़ते हैं।प्रख्यात लेखक श्री पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी के भतीजे रमाकांत बख्शी को अपना गुरु मानने वाले शिवकुमार"दीपक"जी शतायु हों।ऐसी कामना है...
पृथक् छत्तीसगढ़ राज्य का सपना हमारे पुरखों ने देखा था और उस सुनहरे स्वप्न को हकीकत का अमलीजामा पहनाने के लिए संघर्ष और आंदोलन का एक लंबा दौर चला।पं.सुंदरलाल छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के प्रथम स्वप्नदृष्टा थे तत्पश्चात डॉ खूबचंद बघेल,संत पवन दीवान, ठाकुर रामकृष्ण सिंह और श्री चंदूलाल चंद्राकर जैसे अनेकों माटी पुत्रों ने छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण का मार्ग प्रशस्त किया।वर्ष 1999 के लोकसभा चुनाव में अटल जी की रायपुर में सभा हुई तो उन्होंने छत्तीसगढ़ की जनता से 11 लोकसभा सीट में अपने प्रत्याशियों को जिताने का आग्रह किया और चुनाव जीतने के बाद पृथक् छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण का आश्वासन दिया। चुनाव के बाद परिणाम आए। अपेक्षानुरूप अटल जी को सीटें नहीं मिली फिर भी उन्होंने अपना वादा निभाया और 1 नवंबर सन् 2000 से हमारा छत्तीसगढ़ राज्य अस्तित्व में आया।स्थापना के पश्चात छत्तीसगढ़ राज्य सफलता के नित नए सोपान तय करता रहा और आज हम बीसवीं वर्षगांठ मना रहे हैं।
छत्तीसगढ़ की शस्य श्यामला धरती रत्नगर्भा है।एक से बढ़कर एक रत्न छत्तीसगढ़ महतारी की कोरा में जन्म लिए हैं।जिन्होने छत्तीसगढ़ के वैभव को देश-विदेश में फैलाया। दक्षिण कौशल,महाकोसल,चेदिसगढ जैसे नामों से वर्णित इस धरा की बात ही निराली है।लोकगीत,सरल-सहज लोकजीवन और वन प्रांतर छत्तीसगढ़ के गौरव में चार चांद लगाते हैं, और छत्तीसगढ़ के वैभव का यशगान करती है छत्तीसगढ़ के प्रख्यात भाषाविद्, साहित्यकार,उद्घोषक और कुशल वक्ता डॉ नरेन्द्र देव वर्मा की लेखनी से सृजित गीत अरपा पैरी के धार......
छत्तीसगढ़ महतारी का वर्णन करती इस गीत की सर्वप्रथम प्रस्तुति कला मर्मज्ञ दाऊ महासिंह चंद्राकर द्वारा गठित सांस्कृतिक लोकमंच"सोनहा बिहान" में हुई।सबसे बड़ी बात ये थी कि इस गीत की स्वरलिपि भी उन्हीं के द्वारा रची गई थी,जो आज भी थोड़े बहुत परिवर्तन के साथ अनेक गायक गायिकाओं के कंठ से मुखरित होता है।इस गीत की मधुरता ने लोगों को सम्मोहित कर दिया है।
एक साक्षात्कार में सोनहा बिहान के गायक रहे भीखम धर्माकर जी ने बताया है कि इस गीत के लिए दाऊ महासिंह चंद्राकर,केदार यादव सहित बहुत से कलाकारों ने खूब मेहनत किया था,और उनकी मेहनत रंग भी लाई और गीत को अपार ख्याति मिली।बताया जाता है कि इस गीत के लिए पूरे सप्ताह भर तक तैयारी चली थी।सोनहा बिहान की सर्वप्रथम प्रस्तुति ओटेबंद ग्राम में हुई जहां 14-15 वर्ष की छोटी आयु में ममता चंद्राकर ने इस गीत को अपना स्वर दिया था।ये सन् 1976 की बात थी।कुछ समय के बाद इस गीत का प्रसारण आकाशवाणी से हुआ और ये गीत छत्तीसगढ़ के जन-जन की जुबां पर चढ़ गया।इस गीत की शब्द रचना और संगीत ने समूचे छत्तीसगढ़ को मंत्रमुग्ध कर दिया।
अभी तक इस गीत को स्व.लक्ष्मण मस्तूरिया,पद्मश्री ममता चंद्राकर, नन्ही गायिका आरू साहू सहित छत्तीसगढ़ की अनेक छोटे-बड़े गायक गायिकाएं अपना स्वर दे चुके हैं। छत्तीसगढ़ के प्रतिष्ठित लोक सांस्कृतिक मंच यथा चिन्हारी,लोकरंग अर्जुंदा और रंग सरोवर में इस गीत की प्रस्तुति जरुर होती है।
गीत के रचयिता साहित्यकार एवं भाषाविद डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा का जन्म सेवाग्राम वर्धा में 4 नंवबर 1939 को हुआ था। 8 सितंबर 1979 को उनका रायपुर में निधन हुआ। डॉ. नरेंद्र देव वर्मा, वस्तुतः छत्तीसगढ़ी भाषा-अस्मिता की पहचान बनाने वाले गंभीर कवि थे।उनके बड़े भाई स्वामी आत्मानंदजी का प्रभाव उनके जीवन पर बहुत अधिक पड़ा था।स्वामी आत्मानंद छत्तीसगढ़ में आध्यात्मिक और शैक्षिक, सामाजिक जागरण के अग्रदूत रहे हैं।सुदूर बस्तर के नारायणपुर में शिक्षा केन्द्र और वर्तमान राजधानी रायपुर में उनके द्वारा विवेकानंद आश्रम स्थापित किया गया है। उन्होंने अभावग्रस्त लोगों की सेवा में अपना सब कुछ अर्पित कर दिया था। स्वाभाविक रूप से ऐसे महामना का अनुज भी साधारण नहीं हो सकता था। उनमें भी विद्वता कूट कूटकर भरी थी।
नरेन्द्र देव वर्मा जी ने छत्तीसगढ़ी भाषा व साहित्य का उद्भव विकास विषय में रविशंकर विश्वविद्यालय से पी.एच.डी की उपाधि प्राप्त किया था और छत्तीसगढ़ी भाषा व साहित्य के विकास और संवर्धन के लिए उत्कृष्ट कार्य करते रहे। उनकी एक प्रसिद्ध कृति थी-सुबह की तलाश नामक उपन्यास। हालांकि ये कृति हिंदी में थी पर इसी कृति का मंचीय स्वरूप था सोनहा बिहान।इस मंच के मूल संकल्पनाकार होने के साथ ही वे मंच पर उद्घोषक का दायित्व भी निभाते थे।
डॉ नरेन्द्र देव वर्मा जी द्वारा लिखित अरपा पैरी के धार....गीत को राज्य गीत का दर्जा दिलाने के लिए छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ साहित्यकार डॉ परदेशी राम वर्मा समेत अनेक साहित्यकार बहुत सालों से प्रयासरत थे। अंततः उनका प्रयास सफल हुआ और इस गीत को पिछले वर्ष राज्योत्सव के अवसर पर छत्तीसगढ़ शासन द्वारा राज्यगीत घोषित किया गया।ये भी एक सुखद संयोग है कि डॉ नरेन्द्र देव वर्मा जी के इस कालजयी गीत को राज्यगीत के रूप में प्रतिष्ठित करने का गौरव उनके दामाद और वर्तमान मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल जी को मिला।शासन द्वारा कुछ समय के बाद ही राज्यगीत को स्कूलों में प्रार्थना के समय गाने का आदेश जारी किया गया जो विद्यालयों में निरंतर जारी है।राष्ट्रीय गीत, राष्ट्र गान और राज्य गीत को गाने का क्षण गौरवशाली होता है। विभिन्न सरकारी समारोह में भी इस गीत को गाना अनिवार्य किया गया है।
ये गीत छत्तीसगढ़ की पहचान बनकर छत्तीसगढ़ महतारी के वैभव को चतुर्दिक फैला रहा है।वैसे इस गीत के अनेक संस्करण यूट्यूब पर मौजूद है। जिसमें से श्रीमती ममता चंद्राकर के स्वर में ये है https://youtu.be/VSZnPtFvJ-o
अरपा पैरी के धार, महानदी हे अपार
इँदिरावती हा पखारय तोर पईयां
महूं पांवे परंव तोर भुँइया
जय हो जय हो छत्तीसगढ़ मईया
सोहय बिंदिया सहीं, घाट डोंगरी पहार
चंदा सुरूज बनय तोर नैना
सोनहा धाने के अंग, लुगरा हरियर हे रंग
तोर बोली हावय सुग्घर मैना
अंचरा तोर डोलावय पुरवईया
महूं पांवे परंव तोर भुँइया
जय हो जय हो छत्तीसगढ़ मईया
रयगढ़ हावय सुग्घर, तोरे मउरे मुकुट
सरगुजा अउ बिलासपुर हे बइहां
रयपुर कनिहा सही घाते सुग्घर फबय
दुरूग बस्तर सोहय पैजनियाँ
नांदगांव नवा करधनिया
महूं पांवे परंव तोर भुँइया
जय हो जय हो छत्तीसगढ़ मईया।।
बोलो छत्तीसगढ़ महतारी की जय!
छत्तीसगढ़ महतारी का चित्र तिल्दा-नेवरा निवासी धनेश साहू जी ने बनाया है।अच्छे कलाकार हैं।आप उनके फेसबुक पेज पर जाकर उनके मनमोहक चित्रों में छत्तीसगढ़ की झलक देख सकते हैं।https://www.facebook.com/100022997314063/posts/806752160101354/?sfnsn=wiwspwa
आप सभी को राज्य स्थापना दिवस की बधाई। गाड़ा गाड़ा जोहार!!!
लोकगीतों की अपनी एक अलग मिठास होती है।बिना संगीत के भी लोकगीत मन मोह लेता है,और परंपरागत वाद्य यंत्रों की संगत हो जाए, फिर क्या कहने!! आज ...