गुरुवार, 19 नवंबर 2020

मेरा गम कितना कम है...


 क्या आपको कभी लगा है कि दुनिया की तमाम परेशानियों को मै झेल रहा हूं।कभी महसूस किया है कि दुनिया में सबसे परेशान आदमी मैं हूं।मेरे अलावा पूरा संसार सुखी है।काश ऐसा होता तो मुझे खुशी मिलती या ऐसा नहीं होता तो सब बढ़िया होता। दुनिया जहान की सारी तकलीफें ईश्वर ने मेरे पल्ले बांध रखी है।

शायद आप सबने कभी ना कभी ये महसूस किया होगा या कर रहे होंगे। मैं भी कभी कभी ऐसा ही कुछ महसूस करता हूं।पर क्या ये सच है?क्या आप दुनिया के सबसे दुखी आदमी हैं?क्या सचमुच आपके साथ ईश्वर ने न्याय नहीं किया?

मेरा मानना है कि ये बिल्कुल भी सच नहीं है।हमारा दुख तब तक हमारे लिए बहुत बड़ा होता है जब तक हम अपने से बड़ी तकलीफ़ झेलने वाले के बारे में नहीं जानते या नहीं देखते हैं। जैसा ही हम अपने से भारी मुसीबत के मारों से मिलते हैं।हमारी तकलीफ हमें छोटी लगने लगती है।एक से एक बड़े बड़े मुसीबत के मारे अनगिनत लोग हमारे आस-पास ही मौजूद होते हैं।कभी कभी बात निकल आने पर ही हमें लोगों की परेशानियों का पता चलता है। नहीं तो हर आदमी अपनी दुखों की गठरी लेकर घूम रहा होता है।

ऐसा ही एक कहानी मैंने कहीं पढ़ा था।एक बार एक आदमी अपनी तकलीफों का दास्तां एक बाबाजी से कहते हैं।बाबाजी पहुंचे हुए संत थे। उन्होंने उस आदमी से कहा कि अपनी जितनी भी सारी तकलीफें हैं उन सबको लिखकर लाए और गठरी बांधकर कमरे में रख आए।और उस गठरी के बदले में सबसे कम वजन वाली गठरी लेकर वापस आ जाये।जितनी हल्की गठरी वो लाएगा वो उसका दुख उतना ही दूर कर देंगे।वह आदमी अपनी गठरी लेकर कमरे के अंदर गया तो उसका दिमाग चकरा गया।उस कमरे में एक से बढ़कर एक बड़ी बड़ी दुखों की गठरी रखी पड़ी थी।उसने अपने गठरी के मुकाबले छोटी गठरी का बहुत लंबे समय तक तलाश किया पर उसके गठरी से छोटा गठरी उस आदमी को नहीं मिला।थक हार कर वह अपनी ही गठरी लेकर कमरे से वापस आया।बाबाजी ने पूछा-कहो बच्चा!छोटी गठरी मिली?तो उस आदमी ने ना में सिर हिलाया।तब बाबाजी ने उस आदमी को समझाया-बच्चे!जिस कमरे से तुम आ रहे हो वह इस दुनिया का प्रतिबिंब है। तुम्हारी तरह हर आदमी को अपनी तकलीफों का बोझ ज्यादा महसूस होता है,लेकिन इसमें सच्चाई नहीं है।हर व्यक्ति को अपने हिस्से का दर्द और तकलीफ झेलना ही पड़ता है।यही संसार का नियम है।बाबाजी के वचनों को सुनकर आदमी को अपनी मूर्खता का एहसास हुआ और उसने ईश्वर को कोसना बंद कर दिया।

उस व्यक्ति की तरह हमारे पास भी अपनी-अपनी तकलीफों की गठरी है और हम भी अपनी गठरी को भारी समझने की भूल कर बैठे हैं। पिछले दिनों एक माताजी मिली थीं एक अपंग बच्चे को गोद में लिए।पूछने पर उसने बताया कि बच्चा जन्म से ही पैरालिसिस का शिकार है। नित्य क्रिया और भोजन के लिए अपनी मां पर आश्रित है।उसके पिता को दारू की लत लगी हुई है।बच्चे के इलाज के लिए ना तो उनके पास पैसे हैं और ना ही उनके पिताजी को जिम्मेदारी का एहसास।उस बच्ची का बाप नशे में धुत्त होकर पड़ा रहता है। बड़ी मुश्किल से उसकी पत्नी और वो रोजी मजूरी करके अपना गुजर-बसर कर रहे हैं।

एक और महिला है जो बड़ी निडरता से जीवन पथ पर तकलीफों को मात देकर सम्मानित जीवन जी रही है।उसके पति का देहांत दारू पीने के कारण बच्चे जब छोटे थे तभी हो गया।दो बच्चे थे एक सामान्य बच्चा था और एक पोलियो ग्रस्त। बड़ी मुश्किल से दोनों का लालन-पालन किया। बड़ा लड़का जब किशोरावस्था की दहलीज पर पहुंचा तब वो भी अपने दिवंगत पिता की राह पर चलने लगा और दारू पी पीकर बाली उमर में चल बसा।अब दोनों मां बेटे छोटे से होटल व्यवसाय से अपना जीवन यापन कर रहे हैं।

हमारे आसपास इतने जीजिविषा वाले लोग हैं जो ईश्वर को मानो चुनौती देते प्रतीत होते हैं कि आप तकलीफों का सैलाब भेजो हम अपनी इच्छा शक्ति की मजबूत चट्टानों से उसे रोक लेंगे।एक भाई साहब पैरों से विकलांग है।बहुत दिनों तक दुकानों पर काम भी किया।मगर आज अपने बलबूते पर खुद का मेडिकल स्टोर चला रहा है।एक आदमी का एक हाथ नही है,पर वह जंगल से लकड़ी लाकर बेचता है। एक बंदे ने एक पैर दुर्घटना में गंवा देने के बाद एक छोटा सा होटल खोला है और अपने परिवार को सम्मान की रोटी खिला रहा है।क्या हम इन लोगों से कुछ सीख सकते हैं?ये वे लोग हैं जिनकी कहानी हमको किताबों में नहीं मिलेगी।ये जीवनपथ पर संघर्षों से जूझते लोग हैं। हमें इनसे सीखने की जरूरत है।लडिए अपने दुखों से,दर्द से, तकलीफ से।अपने आपको साबित कीजिए,पलायन नहीं। फिलहाल इतना ही..

तो मित्रों,हारिए मत, दौड़िए लगातार,बिना हारे...बिना थके (फोटो सोशल मीडिया से साभार)



कोई टिप्पणी नहीं:

दिन चारी मइहरवा में....सुरता स्व.मिथलेश सर के

  लोकगीतों की अपनी एक अलग मिठास होती है।बिना संगीत के भी लोकगीत मन मोह लेता है,और परंपरागत वाद्य यंत्रों की संगत हो जाए, फिर क्या कहने!! आज ...