मंगलवार, 3 सितंबर 2024

पोरा और पोला

















पोरा और पोला शब्द को लेकर एक पोस्ट कल ही वाट्सएप पर देखने को मिला। जिसमें बताया गया है कि छत्तीसगढ़ के प्रमुख त्योहार पोरा को आजकल पोला कहकर प्रचारित किया जा रहा है। महाराष्ट्र और अन्य कुछ प्रदेशों में भाद्रपद अमावस्या को पोला मनाया जाता है जिसमें बैलों को सजाकर पूजन किया जाता है और कृषि कार्यों में उनके सहयोग के लिए आभार प्रकट किया जाता है।
पोला शब्द का शाब्दिक अर्थ होता है खोखला जिसे छत्तीसगढ़ी में पोंडा कहा जाता है जबकि पोरा का आशय छत्तीसगढ़ी में छोटे छोटे खिलौने बर्तन से है।यथा-चुकी पोरा। छत्तीसगढ़ में प्रचलित पोरा त्योहार में नंदी स्वरूप बैल की छोटी छोटी मिट्टी से निर्मित बैलों और चुकी पोरा जांता की पूजा की जाती है। जिन्हें स्थानीय पकवान चीला,गुलगुला,ठेठरी,खुरमी का भोग लगाया जाता है। विशेष रूप से इस दिन गुड़ का मीठा चीला(गुरहा चीला) चढ़ाया जाता है।पूजन के पश्चात इन बैलों को छोटे छोटे बच्चे रस्सी बांधकर घूमाते रहते हैं और खेलते हैं।चुकी पोरा लड़कियों का खिलौना होता है जबकि नॅंदिया बईला(नंदी बैल) को लड़के खेलते हैं।पोरा मनाने के बाद गांव में अपनी बेटियों और बहनों को ग्रामीण तीजा मनाने के लिए उनके ससुराल से लिवाकर लाते हैं।
कुछ गांवों में इस अवसर पर खेल प्रतियोगिता का आयोजन भी किया जाता है।पोरा त्योहार में बस यही स्वरूप नहीं है इस पर्व का अपितु ये पर्व धान की फसल के गर्भधारण संस्कार का पर्व होता है।पोरा की पूर्व रात्रि में गांव के बुजुर्ग और बईगा गांव के शीतला मंदिर(माता देवालय ) में जाकर गांव की सुख समृद्धि और अच्छे फसल की कामना के साथ ग्राम्य देवी देवताओं की पूजा करते हैं।इस दिन कृषि संबंधी कार्य और निर्माण संबंधी कार्य पूर्णतः निषिद्ध रहता है।इस विधान को गरभचरु के नाम से जाना जाता है।सवेरे पूजन के पश्चात गभोट(धान के पौधे में बीज बनने/दूध बनने की अवस्था) वाले पौधे को लाकर गांव के हर घर में मुख्य प्रवेश द्वार पर खोंसा जाता है। ग्रामीण बईगा को इसके लिए अन्नदान और द्रव्यदान देकर विदा करते हैं।पोरा पर्व के उपरांत ही घास(कांदी) को गट्ठर बांधकर लाया जा सकता है उसके पूर्व नहीं लाया जाता।ग्राम्य जगत की अपनी रीति नीति होती है जिसमें सूक्ष्म वैज्ञानिक या आध्यात्मिक विचारधारा समाहित होता है।इनका विवेचन किये जाने की आवश्यकता है।
बैल को हिंदू धर्म में धर्म का स्वरूप माना गया है।बैल को ही भगवान शिव ने अपना वाहन बनाया है। विभिन्न सभ्यताओं के पुरातत्व अभिलेखों में बैलों का चित्रण मिलता है,जो मानव जाति के उत्थान में बैलों के योगदान को दर्शाता है।वृषभ राशि का प्रतीक भी बैल है।शिव मंदिर की कल्पना नंदी के बिना नहीं की जा सकती।इसलिए बैल पूजित होते हैं। छत्तीसगढ़ के गांवों में गोल्लर(सांड) छोड़ने की परंपरा रही है।जिस बैल को गोल्लर छोड़ दिया जाता है वह कृषि कार्यों से मुक्त होकर स्वच्छंद विचरण करते रहता है। संभवतः इसलिए स्वच्छंद विचरण करने वाले लोगों के लिए "गोल्लर ढिलाय हे" उक्ति का प्रयोग किया जाता है।लोक जीवन में प्रचलित बहुत से रीति रिवाजों का समय के साथ ह्रास हो रहा है। इनके संवर्धन के लिए नई पीढ़ी को आगे आना चाहिए और अपने अनमोल सांस्कृतिक विरासत को सहेजने का प्रयास करना चाहिए।मेरे विचार से छत्तीसगढ़ में पोरा का ही पर्व मनाया जाता है।इस बारे में आप लोगों का क्या कहना है।जरुर अवगत कराएं...और मुझसे त्रुटि हो तो भी सूचित करें...






 

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