ग्रामीण भारत की बात ही अनूठी होती है। सर्वजनहिताय सर्वजन सुखाय की भावना से भरपूर ग्राम्यांचलों के उच्च आदर्शों को देखकर भारत की ग्राम्य संस्कृति पर गर्व होता है।
वैसे भी भारत को गांवों का देश कहा जाता है। छत्तीसगढ़ तो ग्राम्य संस्कृति के उच्च आदर्शों से सराबोर प्रदेश है। कुछ वर्ष पहले तक जब सरकारी योजनाओं से पक्के मकान नहीं बन रहे थे और लोगों की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी तब ज्यादातर मकान कवेलू(खपरा) वाले होते थे। मिट्टी और लकड़ी से बने इन मकानों में रहने का आनंद पूछिए ही मत।हर दीवाली और तीज त्योहारों पर उसमें मिट्टी का लेपन और उसके बाद सफेद मिट्टी(छुही) से लिपाई पुताई होने के बाद मिट्टी की खुशबू से सराबोर घर की रौनक ही अलग होती थी। दीवारें बातें करती थीं।भले ही अब केमिकल युक्त रंग कंपनियां दीवारें बोल उठेंगी बताकर अपने उत्पाद का प्रचार कर रही है लेकिन उसमें तब वाली बात नहीं है।
घर भले ही मिट्टी की होती थी पर भोले भाले ग्रामीणों के नेक विचार आसमान की बुलंदियों को छूता था।ऐसे मिट्टी के घरों में सिर्फ परिवार की जरुरतों को ध्यान नहीं रखा जाता था अपितु जानवरों के लिए,घर के सदस्यों के लिए और घुमंतू जीवन यापन करने वाले लोगों के लिए भी व्यवस्था होती थी।घर के मुख्य द्वार के सामने या अगल बगल में परछी बनाई जाती थी।जो बाहरी आगंतुकों के लिए एक तरह का रैन-बसेरा था। भिक्षाटन करने वाले लोग या बाहरी व्यापारी रात बिताने के लिए इन्हीं परछी का सहारा लेते थे।
परछी एक प्रकार का चौपाल होता था। जहां फुर्सत के क्षणों में विचारों का आदान-प्रदान,हास परिहास की बातें होती थीं। खेती-बाड़ी की बातें होती थीं। कितने ही योजनाएं और सपने इसी परछी में जन्म लेती थीं। बुजुर्गों के लिए तो घर का ये हिस्सा सबसे कीमती था। अपने हमउम्र लोगों के साथ बीड़ी का सुट्टा लगाते उनके आनंद की कोई सीमा नहीं होती थी। बरसात के दिनों में परछी में पाटे पर बैठकर चाय पीने का आनंद अलौकिक होता था।जूट के रेशे से रस्सी अटने का यंत्र लिए बुजुर्गों का समय इसी परछी में बीत जाता था। बच्चियां कभी मिट्टी के खिलौने से खेलने आती तो कभी अट्ठा चॅंगा का रोमांच आजकल के लूडो से कहीं अधिक हुआ करता था। बरसात के दिनों में बैलगाड़ी के चक्के,बेलन आदि और बरसात के बाद हल आदि यहीं रख दिए जाते थे।
मैंने अपने बचपन के दिनों में बहुधा घुमंतू लोगों को परछी में रात्रि विश्राम करते देखा है।दिन के समय कभी कभी इसमें कसेर,बनिया और मनिहारी वाले भी अपना दुकान लगाया करते थे।इन रात्रि पथिकों के लिए गृहस्वामी भी सब्जी, लकड़ी आदि की व्यवस्था कर दिया करते थे।तब असुरक्षा की भावना नहीं थी।तब आज की तरह आधार कार्ड जैसे पहचान दस्तावेजों की जरूरत नहीं होती थी।
अब बनने वाले मकानों में जानवरों और बाहरी लोगों के लिए कोई जगह नहीं है।परछी की जगह आजकल पोर्च बनाने का चलन है। जिसमें गृहस्वामी अपनी चौपहिया वाहन खड़ी करके अपनी आर्थिक समृद्धि का परिचय देता है और जिनके पास चारपहिया वाहन नहीं भी होता तो वो इस उम्मीद में पोर्च बनवा लेता है कि कभी ना कभी वो भी चारपहिया वाहन का मालिक बनेगा। सिर्फ मैं और मेरा वाले आज के दौर में इन परछियों की स्मृति ही शेष है।कभी कभी किसी गांव में इसका दिख जाना एक सुखद एहसास दिलाता है।शेष शुभ.... मिलते हैं अगले पोस्ट में
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