भाद्रपद के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि हरतालिका तीज के रुप में विख्यात है। लेकिन छत्तीसगढ़ में यह लोक पर्व तीजा के रुप में जाना जाता है।ये पर्व सुहागिन महिलाओं के लिए बेहद खास होता है।यह पर्व विवाहित महिलाओं को मायके से जोड़कर रखने वाला पर्व है। जन्माष्टमी के बाद हर बहन अपने भाई का इंतजार करती है।तीजा लेने के लिए जब कोई भाई बहन के ससुराल पहुंचता है तब बहन के साथ उनके बच्चों का उत्साह देखते ही बनता है।यह इकलौता ऐसा पर्व है जिसमें सभी गांव और परिवार की बेटी बहनों का एक साथ आगमन होता है। बरसों बाद विवाहित महिलाओं की अपने हमउम्र सहेलियों से मुलाकात जब होती है तो बचपन की अनेक स्मृतियां ताज़ी हो जाती है जो उनके गृहस्थ जीवन में चल रही उठा पठक के बीच एक नये उत्साह का संचार करती है।तीजा का ये पक्ष सबसे महत्वपूर्ण है।
शादी के बाद बहन और बेटियां मायके सिर्फ विशेष अवसरों पर ही आ पाती है। इसलिए अपने बचपन की सहेलियों के साथ वक्त बिताने का अवसर उनको नहीं मिल पाता।तीजा ये अवसर लब्ध कराती है।
भाई बहन के बीच के संबंध को भी यह पर्व मजबूती प्रदान करता है।भाई अपनी क्षमता अनुसा बहनों को खुश रखने का हरसंभव प्रयास करता है।इस पर्व में भाई चाहे जितनी भी व्यस्तता रहे समय निकालकर बहनों को तीजा लेने जरुर जाता है।दुर्भाग्यवश यदि किसी का भाई गुजर जाता है तो उसके बाद उनके पुत्र उस दायित्व का निर्वहन करता है और अपनी बुआ को तीजा लेने जाता है।ये तो इस पर्व का धवल पक्ष हुआ।लेकिन इसका एक स्याह पक्ष भी है ।कहीं कहीं जब मायके में बेटी के सर पर से मां बाप का साया उठ जाता है तो मात्र भाई ही एकमात्र सहारा रह जाता है उसके लिए।ऐसे में अगर भाई का व्यवहार रुखा हो जाए तो बहनों के लिए मायके से संपर्क ही टूट जाता है। उम्र भर मायके के एक लोटा पानी के लिए तरसना किसी भी बहन या बेटी के लिए अत्यंत कष्टकारी होता है तो कहीं कहीं बहनें भी धन संपत्ति के लालच में भाईयों से ही विद्रोह कर बैठती है।ऐसा भी देखने में आता है।
साल 2023 में एक फिल्म आई थी चोरी-चोरी। इसमें अमीर खुसरो की पंक्तियों में मामूली फेरबदल करके आनंद बख़्शी साहब ने बेहद मार्मिक गीत लिखा है...अम्मा मोरी बाबुल को भेजो री।इस गीत में एक बेटी की व्याकुलता और मां की मजबूरियों का मार्मिक चित्रण है।कभी मौका मिले तो जरूर सुनियेगा। हां तो बात फिर से तीजा पर्व की करते हैं।
एक अनूठी बात ये भी है कि बहनें मायके में रहकर अपने सुहाग की रक्षा के लिए यह व्रत रखती है।एक दिन पूर्व रात्रि में करु भात का नियम रहता है।दूसरे दिन निराहार रहकर भगवान शिव की पूजा-अर्चना कर सभी सुहागन अपने पति के दीर्घायु होने की कामना करती है।इस दिन तिजहारिन नदियों में रेत का शिवलिंग बनाकर पूजा करती है।तीजा के दूसरे दिन गणेश चतुर्थी को समस्त तिजहारिनें भाई द्वारा उपहार स्वरूप प्राप्त वस्त्र पहन कर भोलेनाथ और नंदी के पूजन पश्चात फलाहार कर व्रत तोड़ती हैं।इस दिन छत्तीसगढ़ के गांवों की गलियां ठेठरी,खुरमी जैसे पकवानों की गंध से सुवासित रहती है।सभी तिजहारिन एक दूसरे के घर मिल भेंट करने के लिए जाती हैं और तीजा का ये पर्व हंसी खुशी के साथ संपादित होता है।
इस पर्व को छत्तीसगढ़ के मशहूर संत कवि पवन दीवान ने छत्तीसगढ़ी भाषा में इन शब्दों में चित्रित किया है -
बच्छर म एक दिन आथे ये तीजा
चुररुस ले बाजे करेला के बीजा
पहिरे बर मिलथे वो रंग रंग के लुगरा
लुगरा बर कर डारेन कूद कूद के झगरा
रात भर मसके हन करू करू भात
दिनभर उपास करेन नारी के जात
लेत बरेत चुल्हा म चढ़गे तेलई
झेंझरी के ठेठरी ल खा दिस बिलई
थूके थूक म बरा चूरे लार म सोंहारी
लटपट चबावत हे रोगही मुखारी
धकर धकर जीव करे लकर लकर बुता
हरु हरु चूरी अउ गरु गरु सुता
चल वो बिसाहिन घर बइठे बर जाबो
घरो घर जाबो अउ फेँकत ले खाबो
गाँव भर देख लेबो सबे के तीजहा
सही सही के सब दुःख ल तन होगे सिजहा
रोज रोज नइ पावन मइके के कोरा
फेर जल्दी आबे रे तीजा अउ पोरा।
तो लीजिए इस पोस्ट का आनंद ठेठरी खुरमी के साथ... मिलते हैं अगले पोस्ट में
चित्र साभार -श्री धनेश साहू, तिल्दा-नेवरा
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