बुधवार, 4 सितंबर 2024

ठठेरा के ठ...

 

फोटो गूगल से साभार 


जो लोग अभी मेरे पोस्ट को पढ़ पा रहे हैं उन सभी ने हिंदी वर्णमाला जरुर पढ़ी होगी,और जब वर्णमाला पढ़े होंगे तो ठठेरा के ठ से जरूर परिचित होंगे। लेकिन क्या अब हम अपने बच्चों को दिखा पायेंगे कि ठठेरा क्या होता है?

बहुत से कारीगर और कलाकार इस ज़माने की बेतहाशा तरक्की के कारण बेकार हो गये। मशीनीकरण ने पारंपरिक तरीके से काम करने वाले कारीगरों को बेरोजगार कर दिया। इन्हीं में से एक थे ये ठठेरे।ठठेरा कारीगर पुराने हो चुके बर्तनों की कलई करके और मरम्मत करके फिर से नया बना देते थे।आज यूज एंड थ्रो की पालिसी का दौर है।किसी के पास मरम्मत करने और कराने की फुर्सत नहीं है।वैसे अब कलई करना क्या होता है ये प्रश्न आ सकता है?

तो मेरी मंद मति के अनुसार बताना चाहूंगा कि कलई करने का मतलब होता है ऐसे बर्तन जिनमें जोड़ होता है उसके जोड़ वाले भाग को एक प्रकार के काले लसदार रसायन से लेपित करके जोड़ा जाता है ताकि उसमें किसी प्रकार का रिसाव ना हो। वैसे कलई खुलना एक मुहावरा भी है जिसका आशय रहस्योद्घाटन होता है।

हमारे बचपन के दिनों में आंध्रप्रदेश या तमिलनाडु से एक व्यक्ति आता था।लोग उसे मद्रासी बोलते थे।वही पुराने बर्तनों को नये बनाने का काम करता था।मतलब वो ठठेरा था।ठठेरा नामकरण ऐसे कारीगरों द्वारा बर्तनों को सुधारते समय निकलने वाली ठक ठक के आवाज के कारण हुआ।

वैसे ही 90 के दशक में जब जनरल स्टोर्स और फैंसी स्टोर्स नहीं खुले थे तब यूपी से खोमचे वाले आते थे।सर पर अपना खोमचा उठाए आवाज लगाते थे।ले ताला कंघी साबुन....।इस आवाज को सुनकर बच्चे भी दौड़े आते थे। क्योंकि उनके पास सीटी और झुनझुना भी रखा होता था।उस वक्त की फैशनपसंद महिलाओं का फेवरेट क्रीम था बादल स्नो।कांच की एक बड़ी सी नीली शीशी में आती थी।खोमचे वाले तंबाकू की डिब्बी,साबुन डिब्बी और बादल स्नो खूब बेचा करते थे।समय के साथ ये लोग भी लुप्त हो गए।

पास के गांव से एक आदमी आता था बर्तन में नाम लिखने वाला।आते ही आवाज लगाता... बर्तन में नाम लिखा लो।तब मेरी दादी घर के एक न एक कांसे या पीतल के बर्तन में मेरा नाम जरुर लिखवाती थी एक अठन्नी में।छोटी हथौडी और कील की मदद से बहुत सुंदर नाम लिखता था वो कारीगर।वो बर्तन आज भी है घर में।कुछ शौकीन लोग साइकिल की हैंडिल पर भी अपना या अपने बच्चे का नाम लिखवाते थे।तब दौर कांसे और पीतल के बर्तनों का था।सबके घर में वही बर्तन होते थे।पास पडौस में आत्मीयता भरपूर होती थी इसलिए सब्जियों का खूब लेन-देन होता था।ऐसे में नाम लिखे होने के कारण एक जैसे बर्तनों के मिलने पर पहचानने में सुविधा होती थी।अब स्टील, प्लास्टिक और क्राकरी का चलन है।आत्मीयता तो गधे का सींग हो गया। इसलिए बर्तन में नाम लिखवाने की जरूरत ही नहीं रह गई।

फिलहाल बस इतना।कोई और भूला बिसरा कारीगर आप लोगों को याद आए तो मुझे ज़रूर बताइए....

3 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

कुछ लोग आज भी उपहार स्वरूप बर्तन देते समय लिखवा लेते है अमुक के द्वारा सप्रेम भेट

बेनामी ने कहा…

और आजकल मशीनों से लिखाई का काम होता हैं

झांपी-यादों का पिटारा ने कहा…

सही है

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