पिछले तीन पोस्ट वीर कचनाधुरवा पर आधारित थे। इसमें मिली जुली प्रतिक्रिया मिली।लेकिन पाठक संख्या के हिसाब से इतना तो समझ आ गया कि लोगों को अपने गौरवशाली इतिहास में कोई विशेष रूचि नहीं है। इसलिए उस वीरगाथा पर विराम लगाता हूं। लोगों की पुरानी बातों में अरूचि देखकर लगता है कि इतिहास एक विषय के रूप में स्कूल और कालेज की किताब तक ही ठीक है।वैसे लोगों की रूचि तो वर्तमान की ज्वलंत समस्याओं पर भी नहीं हैं।लोगों में संवेदना खतम होती जा रही है।आज के जमाने में तो यही देखने में आता है कि कोई बाजू में भूखा मरता रहे, उससे कोई मतलब मत रखो।आपके पास सामर्थ्य है,पैसा है तो लात मारो दुनिया को और ऐश करो।किसी की मदद के नाम पर लोग ऐसे बिदकते हैं जैसे फिलहाल किसी कोरोना पाजेटीव आदमी को देखकर बिदकते हैं।वैसे इस कोरोना नामक दुश्मन ने गरीबों का जीना हराम कर रखा है।ऊपर से महंगाई की मार अलग। दिनभर में सौ डेढ़ सौ की दिहाड़ी कमाने वाला मजदूर अस्सी रू किलो टमाटर और सवा सौ रुपए किलो की दाल खाने की हिम्मत कैसे करेगा?ऊपर से ऐसे हालात के मारे लोग बुरी संगत का शिकार होकर नशे की लत में बर्बाद होते हैं सो अलग।
कोरोनाकाल की विषम परिस्थितियों में आज छोटे व्यवसायी और मजदूरों का बुरा हाल है।अनेक लोगों की रोजी-रोटी कमाने का माध्यम छिन गया है। खासतौर से जो ठेले आदि लगाकर खाद्य सामग्री बेचते थे या कोई छोटा मोटा काम धंधे करते थे और जो रिपेयरिंग आदि के काम से जुड़े थे,उनके सामने जीवन यापन की विकराल समस्या खड़ी है।कोरोना की दहशत और लाकडाउन के कारण आज कितने ही लोग भटकने के लिए मजबूर हैं।मेरे आस-पास रहने वाले बहुत से ऐसे लोगों से मेरी रोज मुलाकात होती है जो अपनी बेबसी का किस्सा सुनाते हैं।ऐसा ही हाल कला से जुड़े कलाकारों का भी है।लोकमंच और अन्य संगीतमय कार्यक्रम पर अभी अघोषित रोक लगी है।इस माध्यम से जुड़े लोग भी हलाकान परेशान हैं।मेरे परिचित कुछ कलाकार मित्र मां शारदा के कृपा पात्र है।उनकी उंगलियां के जादू पर स्वरलहरियां मंत्रमुग्ध कर देती हैं।पर अभी हालात के मारे बेचारे जीवन यापन हेतु अन्य काम करने पर मजबूर हैं।आदमी अपने हिस्से का मेहनत करने के लिए तैयार है, लेकिन जब परिस्थितयां ही विपरीत हों,तो आदमी क्या करे???
बहुत से लोग एक भीषण तनाव के दौर से गुजर रहे हैं,और अपने आसपास सहायता मिलने की थाह लगा रहे हैं।शासन की ओर भी एकटक देख रहे हैं,शायद कुछ रहमत की बारिश हो जाए?
लोकतंत्र के चौथे स्तंभ होने का दंभ भरने वाली मीडिया को एक अभिनेता के आत्महत्या प्रकरण और रोज नए मसालेदार खुलासे से फुर्सत नहीं है।ज्यादातर सरकारी कार्यालयों के दरवाजे कोरोना संक्रमण से बचाव के नाम पर वैसे ही बंद हैं,कोरोना के कहर को देखकर राजनीतिक हस्तियां आम लोगों से मिलने-जुलने में परहेज करने लगी है।आखिर ये दुखियारे जाएं तो जाएं कहां?किनको अपना दुखड़ा सुनाए। संयोगवश इस पोस्ट को लिखते लिखते ही भगवत रावत साहब की एक कविता हाथ लगी।जो वर्तमान पर सटीक बैठती है
हमने चलती चक्की देखी
हमने सब कुछ पिसते देखा
हमने चूल्हे बुझते देखे
हमने सब कुछ जलते देखा
हमने देखी पीर पराई
हमने देखी फटी बिवाई
हमने सब कुछ रखा ताक पर
हमने ली लम्बी जमुहाई
हमने देखीं सूखी आंखें
हमने सब कुछ बहते देखा
कोरे हड्डी के ढांचों से
हमने तेल निकलते देखा
इस पोस्ट को मैंने सितंबर में पोस्ट किया था। लेकिन आज अचानक कलाकारों की पीड़ा को बयां करती मलयज साहू द्वारा निर्मित आरंभ फिल्म्स का ये शार्ट विडियो दिखा।अत्यंत मार्मिक चित्रण है।कोरोनाकाल में कलाकारों की व्यथाकथा का....
2 टिप्पणियां:
👌👌 वर्तमान परिदृश्य का बहुत ही सटीक वर्णन महोदय🙏
धन्यवाद मित्र
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