गुरुवार, 19 दिसंबर 2019

सुन्ना होगे फुलवारी....

साल 2019 छत्तीसगढ़ के कलाजगत के लिए अपूरणीय क्षति का वर्ष कहा जाएगा।अभी छ:महिना पहले ही छत्तीसगढ़ के महान कलाकार खुमान साव जी जून में हमसे बिछड़े थे।उस दुख से उबर भी न पाए थे कि एक और क्षति का सामना करना पड़ गया।16 दिसंबर 2019 को हम सबके चहेते और लोकप्रिय लोकगायक मिथलेश साहू जी भी चिरनिद्रा में लीन हो गए।
28 जून 1960 को छत्तीसगढ़ के वनांचल में बसे वन्यग्राम बारूका में मिथलेश साहू जी का जन्म हुआ था।पिता स्व.जीवनलाल साहू भी कलासाधक थे।वे नाचा मंडली से जुड़े हुए थे।इसलिए लोककला के प्रति उनका झुकाव स्वाभाविक ही था।
उनकी प्रारंभिक शिक्षा छुरा ब्लाक के अंतर्गत स्थित कुकदा और पांडुका ग्राम में हुई। उच्च शिक्षा के लिए वे रायपुर गए। सन् 1977 में उनके गांव में रवेली साज के मशहूर नाचा कलाकार मदन निषाद का कार्यक्रम हुआ।उस कार्यक्रम के दौरान वे मदन निषाद की कला से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने लोककला की राह ही पकड़ लिया। अध्ययन के दौरान ही उनको छत्तीसगढ़ के कलापुरोधा दाऊ महासिंह चंद्राकर और मशहूर गायक केदार यादव का सान्निध्य प्राप्त हुआ।उस दौरान उनकी सोनहा बिहान लोककला मंच की छत्तीसगढ़ में धूम हुआ करती थी।जल्दी ही उनको सोनहा बिहान में गाने और अभिनय का अवसर प्राप्त हुआ और वे लोककला की सेवा में मगन हो गए।अच्छे खासे पढ़े लिखे थे तो आगे चलकर सन् 1984 में उनको शिक्षक की सरकारी नौकरी भी मिल गई। हालांकि लोककला की सेवा और नौकरी के बीच सामंजस्य बिठा पाना आसान नहीं था फिर भी उन्होंने लोककला और अपनी नौकरी के बीच तालमेल बिठा लिया।जिस पांडुका गांव से उनको शिक्षा मिली थी उसी गांव में ही उन्होंने एक लंबा समय शिक्षक के रूप में व्यतीत किया।अपने विद्यार्थियों की प्रगति के लिए उन्होंने हरसंभव प्रयास किया।विशेषकर कमार जनजाति के विद्यार्थियों के प्रति उनको विशेष लगाव था। सामान्यतः आखेट और वनोपज संग्रहण करके जीवनयापन करने वाले कमार जनजाति के बच्चों को शिक्षा से जोडना आसान काम नहीं था लेकिन अपने प्रयासों से उन्होंने कमार बच्चों को उच्च शिक्षा के लिए प्रेरित किया फलत:आज उनके बहुत से विद्यार्थी शासकीय सेवा में है।सन् 1994 में जब जनजाति अनुसंधान विभाग भोपाल द्वारा कमार जनजाति पर डाक्यूमेंट्री फिल्म का निर्माण कराया गया तो समन्वयक के रुप में मिथलेश जी का सहयोग लिया गया।एक शिक्षक के रूप में शालेय बच्चों को जिला,संभाग और राज्य स्तर पर कई सालों तक सांस्कृतिक गतिविधियों में पुरस्कार दिलवाए।उनके द्वारा पढाए कई विद्यार्थियों से मेरी बात हुई है,प्राय:सभी उनकी सादगी और समर्पण का गुणगान करते दिखे।ये उनके उच्च शिक्षकीय गुण का परिचायक है।
  शिक्षकीय दायित्वों के निर्वहन के बाद भी लोककला के प्रति उनका समर्पण कभी भी कम नहीं हुआ था।सोनहा बिहान के विसर्जन के पश्चात वे दीपक चंद्राकर के साथ "लोकरंग अर्जुंदा"से जुड़ गए और मंचीय प्रस्तुतियां देने लगे।दीपक जी के साथ लोकरंग अर्जुंदा के मंच पर देवार डेरा प्रहसन में उनका देवार के रूप में जुगलबंदी देखते ही बनती थी।मंच पर गायन से मुक्त उनको हास्य अभिनय करते देखना बड़ा मजेदार होता था।मुझे याद है जब सन 2002 में उनका कार्यक्रम देखने एक बार मैं अपने छोटे भाई के साथ माघ महीने की कड़कड़ाती ठंड में राजिम गया था। जहां राजिम महोत्सव के मंच पर महानदी की रेत में ठिठुरन भरी ठंड में हमने उनका कार्यक्रम देखा था।लोकरंग में भी मिथलेश जी अपने अभिनय और आवाज का जादू जगाते रहे तत्पश्चात सन् 2006 में उनके अनुज भूपेंद्र साहू द्वारा एक नए लोकमंच "रंग-सरोवर" की स्थापना की गई। मिथलेश गुरूजी के मुख्य गायन स्वर में इस लोकमंच ने अल्प समय में ही अच्छी ख्याति अर्जित कर लिया।इसके पूर्व वे छत्तीसगढ़ी फिल्मों में पार्श्वगायन और अभिनय से भी जुड़े रहे।मया देदे मया लेले,परदेशी के मया,तोर मया के मारे और कारी उनकी सुपरहिट संगीतमय फिल्में रही है।सन् 2003 में उनको एक ही वर्ष में श्रेष्ठ शिक्षक का राज्य पुरस्कार और श्रेष्ठ पार्श्व गायक का पुरस्कार भी प्राप्त हुआ है। इसके पूर्व उनको भिलाई इस्पात संयंत्र द्वारा स्थापित दाऊ महासिंह चंद्राकर पुरस्कार सन् 2000 में मिल चुका था।उनको प्राप्त सम्मानों और पुरस्कारों की फेहरिस्त लंबी है,जिनका वर्णन यहां करना संभव नहीं है।
 जब छत्तीसगढी फ़िल्मो की असफलता का दौर आया और बाजार में प्रायवेट एल्बमों की बाढ़ आ गई तब इनके द्वारा देखंव रे तोला नाम से एल्बम लाया गया।इस एल्बम के गीतों ने तब धूम मचा दिया था। पारंपरिक गीतों को नए वाद्ययंत्रों के साथ सुमधुरता के साथ प्रस्तुत किया गया था जिसे श्रोताओं ने हृदय से सराहा।इस एल्बम के पश्चात मोर मनबसिया,गाडीवाला जहुंरिया,मया के मडवा, मया के सुवा,देवारी,अलबेली,मोर आजा सजन,और सुमिरन कई एल्बम सुपरहिट हुए।उनके गाए कुछ गीत जैसे-फुल झरे हांसी,आजा न गोरी और सुन्ना होगे फुलवारी जैसे गीत उनकी पहचान बन गए।अंग्रेजी में एक शब्द होता है सिग्नेचर जिसका शाब्दिक अर्थ होता है हस्ताक्षर। परंतु किसी की विशिष्टता को दर्शाने के लिए भी इस शब्द का प्रयोग होता है।उपर वर्णित ये गीत मिथलेश जी के सिग्नेचर सांग ही हैं।जो उनके अलावा किसी और के कंठ से सुनने में अच्छा नहीं लगता।रंग सरोवर कार्यक्रम की चार पांच प्रस्तुतियां मैं देख चुका हूं।उस मंच पर जब ताल गुलागुल टुरी झन जा मंझनिया गीत वे गाते थे तो वे स्वयं खूब ठुमकते थे और साथी कलाकारों को भी ठुमकने पर विवश कर दिया करते थे।मंच में मस्ती छा जाती थी और दर्शक दीर्घा भी उनके इस गीत पर थिरक उठती थी।इस लोकमंच की प्रस्तुति का समापन उनके मशहूर गीत "सुन्ना होगे फुलवारी"से हुआ करती थी।ये रंग सरोवर की अंतिम सांगीतिक प्रस्तुति होती थी।
आकाशवाणी में श्रीमती ममता चंद्राकर और कुलेश्वर ताम्रकार के साथ उनके गीत को छत्तीसगढ़ के श्रोताओं ने खूब सराहा और आज भी वे उसी चाव से ग्रामीण क्षेत्रों में सुने जाते हैं। छत्तीसगढ़ की लोकगीतों की अश्लीलता रहित प्रस्तुति और लोकगीतों के संग्रहण में उनके योगदान को कभी विस्मृत नहीं किया जा सकता।वे गांव और माटी से जुड़े कलाकार थे।मुझे महसूस होता है कि ये उनके अपने गांव से लगाव ही था कि ग्राम बारूका की पृष्ठभूमि में फिल्म मया देदे मया लेले को फिल्माया गया और उनके द्वारा निर्मित तकरीबन सभी एल्बमों में बारूका और पैरी नदी का दृश्यांकन जरूर होता था। अभावग्रस्त जनजाति की पीड़ा को वे लोकमंच के माध्यम से समाज के सामने लाने का काम प्रमुखता से करते थे। छत्तीसगढ़ के लोकगीतों को सहेज कर रखने का काम देवार जैसी जनजातियों ने किया है।उनके इस सांस्कृतिक अवदान का आभार उनकी प्रस्तुतियों के दौरान जरूर होता था।देवार के रोल में मिथलेश जी को फिल्म तोर मया के मारे में देख सकते हैं।देवारों की अभावग्रस्तता और पीडा उनके अभिनय में साकार होता सा प्रतीत होता है।रंग सरोवर के एक प्रहसन"मुसाफिरी"में भी देवार जनजाति की व्यथा और रहन-सहन की छोटी सी अभिव्यक्ति होती है।मेरी उनसे सम्मुख भेंट सिर्फ अभिवादन तक ही थी जब वे तीन साल तक हमारे गांव में रंग सरोवर की प्रस्तुति देने आए थे।इस साल उनसे मुलाकात करने का कार्यक्रम दो बार बना पर उनके गृहग्राम से स्वास्थ्य गत कारणों से अनुपस्थिति के कारण संभव नहीं हो पाया। अंततः उनके अंतिम दर्शन के लिए जाने का अवसर मिला और उनको अपनी आदरांजलि देने में मैं कामयाब रहा।
  मिथलेश जी जैसे कलाकार विरल होते हैं जो सादगी के साथ जनमानस से जुड़े रहते हैं।वे हमारे बीच अब सशरीर भले ही नहीं हैं पर उनकी अमर आवाज हमारे आस-पास सदा गुंजती रहेगी।गीत पहले भी बनते थे।अब भी बन रही है और आगे भी लिखे और गाए जाते रहेंगे। लेकिन छत्तीसगढ़ के कलाजगत के फुलवारी का एक अनमोल पुष्प परमात्मा ने अपने पास रख लिया और हम कहने को विवश हैं....आज सुन्ना होगे फुलवारी।उनके जाने के बाद एक सन्नाटा सा पसरा हुआ है।और याद आ रहा है उनके गाए गीत के बोल..
        मोर रोवत हे तमूरा,सुन्ना हे मोर पारा
         जरूर आबे ना.......
नमन मिथलेश गुरूजी ला.. भावभीनी श्रद्धांजलि
रीझे टेंगनाबासा

   








शनिवार, 14 दिसंबर 2019

ए पानवाला बाबू.....

बहुत दिनों के बाद आज खुल्ला पान खरीदने के लिए पानठेला (पान बेचने के खोमचे) में जाना हुआ। दुकानदार ने बड़ी उम्मीद से पूछा-कौन सा पान बनाऊं?तो मैंने उनको मायूस करने वाला जवाब दिया-भाई मुझे खुल्ले पान चाहिए,कुछ काम है।तो उन्होंने दस रूपए लेकर मुझे बंगला पान के चार पत्ते कागज में लपेटकर थमा दिए। मैं भी पान लेकर लौट आया।मुझे ताज्जुब हुआ कि उसने बिना पूछे मुझे बंगला पान ही क्यों दिया?
अगले दिन उनके दुकान पर फिर जाना हुआ तो मैंने उनसे अपने मन की बात कही।तो उन्होंने बताया कि ज्यादातर पूजा पाठ के लिए बंगला पान का ही उपयोग होता है, इसलिए बिना पूछे ही दे दिया।ये होता है कामन सेंस!!!
वैसे पानवाले भाई साहब की याददाश्त की दाद देनी चाहिए क्योंकि उनको अपने ग्राहकों के टेस्ट और पसंद हमेशा याद रहती है।फलाने साहब की पसंद ये है,ढेकाने साहब ये बनवाते हैं।एकदम कंम्प्यूटर के मेमोरी में जैसे फिट कर दी हो। बचपन में जब किसी को पान मंगाना होता था तो वो सामनेवाले पान दुकान का नाम बता दिया करते थे और हम जाकर पानवाले को उन सज्जन का नाम बता दिया करते थे तब वो फौरन  ही सामने वाले बंदे की मनपसंद पान बना दिया करते थे।बचपन में कुछ पान में डलने वाले सामानों के नाम बड़े अच्छे लगते थे। रिमझिम,किमाम,रत्ना,चमन चटनी,बाबा 420 वगैरह।उस समय हमको मालूम भी नहीं होता था कि कुछ लोग पान में तंबाकू भी डलवाया करते थे। खैर,जो बीत गई सो बात गई।
अब बात पान की करते हैं।पान भारतीय संस्कृति का हिस्सा रही है।देवपूजा से लेकर खान-पान तक में पान का उपयोग समाहित है।संस्कृत भाषा में पान को नागवल्ली और तांबूल कहा जाता है।हिंदी में पान और हमारी छत्तीसगढी में बीरो पान।नाम कुछ भी हो पर पान वही है,दिल के आकार वाली। भारत में पान की ज्यादातर खेती दक्षिण प्रदेशों में होती है। छत्तीसगढ़ में एक समय में छुईखदान का पान फेमश हुआ करता था।पान की कई प्रजातियां होती हैं और स्वाद और गुण के आधार पर नाम भी अलग-अलग होते हैं। मैं ज्यादा नाम तो नहीं जानता पर कपूरी,मीठा पत्ती और बंगला पान आदि नामों से परिचित हूं।।पान सिर्फ मुंह की शोभा या स्वाद बढाने के लिए नहीं खाया जाता,पान में औषधीय गुण भी होते हैं।भोजन के बाद पान खाना स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से अच्छा होता है और पाचन में सहायक होता है।ये मुंह को बैक्टीरियल संक्रमण से भी बचाते हैं।कटने छिलने पर घाव में बांधने से घाव जल्दी भर जाते हैं।वैसे हमारे यहां माउथ फ्रेशनर के रुप में ही ज्यादातर पान का उपयोग करते हैं। इसमें डाले जाने वाले मसाले के अनुसार पान के नाम भी अलग अलग होते हैं।जैसे चुनिया,सादा,मीठा मसाला वगैरह।चुनिया पान खानेवालों का अंदाज ही निराला होता है।वो पान चबाते चबाते बीच-बीच में चूना चाटते रहते हैं।बताते हैं कि इससे कैल्शियम की कमी पूरी होती है।
एक दौर होता था जब दुनिया भर की ब्रेकिंग न्यूज पान के ठेले खोमचे से ही मिला करती थीं।पान चबाते-चबाते दुनिया भर की बातें इधर से उधर हुआ करती थी यहां।इन ठेलों में एक आईना और एक जलती हुई ढिबरी जरूर होती थी।मै छोटा था तब हर पान दुकान में दिन के उजाले में भी जलती हुई ढिबरी को देखकर आश्चर्य होता था।दिन में भला ढिबरी जलाने का क्या मतलब?
थोड़ा बड़ा होने के बाद समझ में आया कि तब दुकानदार माचिस मांगने वालों से तंग आकर और धुम्रपान करने वालों की सुविधा के लिए दिन में भी ढिबरी जलाया करते थे। जहां सिगरेट कैस के छोटे-छोटे कतरन काट के रखे होते।उसी से ढिबरी की लौ से धुम्रपान के शौकीन लोग बीड़ी सिगरेट जलाया करते थे।है न मितव्यता की बात!!
पान के असर से बालीवुड भी अछूता नहीं रहा है।एक से बढ़कर एक लाजवाब गीत पान पर बने हैं।खईके पान बनारस वाला तो याद ही होगा और पान खाए संईया हमारो सांवली सुरतिया होंठ लाल लाल" को कौन भूल सकता है। छत्तीसगढ़ी गीत पान खई लेबे मोर राजा ने भी धूम मचाया था। संबलपुरी गीत ए पानवाला बाबू तब मेले मडई में दूर तक गूंजा करते थे।
पान अतिथि सत्कार का माध्यम हुआ करते थे। तब गुटखे का चलन शुरू नहीं हुआ था।पान में थोड़ी सी महंगाई का दौर आया और विकल्प के रूप में लोगों ने गुटखे को अपनाया।अठन्नी में मिलने वाले गुटखे ने देश की युवा पीढ़ी,लोगों का स्वास्थ्य,घर की दीवारों और इन पान दुकानों का बेड़ा गर्क कर रखा है। स्वास्थ्य के लिए बेहद ख़तरनाक गुटखे का प्रयोग बढता ही जा रहा है। इससे मुंह के कैंसर जैसी बिमारियों में इजाफा हुआ है। खासतौर से देश की जवान पीढ़ी इसके घातक चपेट में है। ईश्वर करे पान का दौर फिर वापस आए और हमारी पीढियां सुरक्षित रहें।अब पान विक्रेता फंक्शन वगैरह में पान लगाने की बुकिंग लेकर इस पेशे को कायम रखे हुए है। खासतौर से शादी की पार्टियों में इनकी विशेष डिमांड होती है।कुछ लोगों ने इसमें रचनात्मकता जोडकर नाम और दाम भी कमाया है। गरियाबंद के एक डिजाइनर पानवाले ने पान की गिलौरी को अलग-अलग रूप देकर प्रसिद्धि प्राप्त किया है।उनकी इस कला को विभिन्न टेलीविजन चैनलों ने प्रसारित किया था। फिल्म कलाकार भी उनके पान के दीवाने हैं।
पान का बीड़ा उठाने से ही "बीड़ा उठाना"कहावत बनी है शायद।किसी भी जोखिम भरे या मुश्किल काम को करते वक्त कहा जाता है-अमुक ने फलाने काम का बीड़ा उठाया है।मतलब बीड़ा उठाना साहस का काम होता है।खैर, हमारे यहां साहसी बंदों की भरमार है। छत्तीसगढ़ में भी कहा जाता है-सियान संग रहिबे त खाबे बीरो पान,लइका संग रहिबे त कटाबे दूनों कान।इसका मतलब ये है कि बुद्धिमान आदमी के साथ रहने से पान खाने को मिल सकता है जबकि नादान के साथ रहने से कान कटाने तक की नौबत आ सकती है।
सदा गुलजार रहनेवाले इन पानठेलों पर आज वक्त की मार और बदलाव से सन्नाटा पसरा हुआ है।इस धंधे से जुड़े लोगों के सामने जीवन यापन की समस्या खड़ी हो गई है।कामना करते हैं जल्द ही पहले की तरह यहां रौनक लौटे।आज यहीं पर विश्राम...बाकि बातें अगली बार.. राम-राम
रीझे
टेंगनाबासा

गुरुवार, 5 दिसंबर 2019

उम्मीदों के गीत.....


जीवन सतत चलने का नाम है।ये ऐसा सफर है जिसमें पथिक को विश्राम तभी मिलता है जब वह मौत के आगोश में चला जाता है।जीवन में उतार-चढ़ाव आते रहते हैं।कभी खुशियों के बसंत आते हैं तो कभी गम की पतझड़ का सामना भी करना पड़ता है। हंसी-खुशी के पल जितने भी मिले कम लगते हैं और जब दुख का सामना करना पड़ता है तो एक-एक पल भारी लगने लगता है।उस समय ऐसा लगता है मानों दुनिया में कुछ भी नहीं रह गया है।सारी बातें बेमानी सी लगने लगती हैं।
हौसला जवाब देने लगता है।कदम डगमगाने लगते हैं और खुद को संभालना भी मशक्कत का काम हो जाता है।ऐसे समय में दुखी आदमी किसी अपने का सहारा ढूंढता है। लेकिन सबको अपनों का साथ हर वक्त मिल जाए ये मुमकिन नहीं।तब ऐसे समय में हम गीत-संगीत सुनकर या ऐसी ही किसी मनपसंद काम करके अपने आपको मशरूफ रखते हैं।गीतों का जिक्र आया है तो मुझे कुछ चुनिंदा गीत याद आ रहे हैं,जो दुखी मन में आशा का संचार करते हैं।थके हारे से उदासी भरे मन को धीरज बंधाते हैं।
किशोर दा के रोमांटिक गीतों के साथ सैड सांग्स भी बेहद पसंद किए जाते हैं। उन्होंने उम्मीद और आशाभरे बहुत से गीतों को अपने आवाज से सजाया है।जो जीने का जज्बा पैदा करते हैं और नए उत्साह का संचार करते हैं।एक फिल्म आई थी दोस्ती धर्मेंद्र और शत्रुघ्न सिन्हा की जोड़ी वाली। उसमें एक गीत है"गाड़ी बुला रही है...सीटी बजा रही है.."आनंद बक्षी के कलम से निकले शब्द और लक्ष्मी प्यारे के संगीत के साथ किशोर कुमार के आवाज़ के ताल-मेल के क्या कहने!! रेलगाड़ी के माध्यम से जीवन की दार्शनिकता को इस गीत में बखूबी पिरोया गया है। एक-एक लफ्ज सच्चाई का करीब से सामना कराता है।
 ऐसे ही मि.इंडिया फिल्म से"जिंदगी की यही रीत है...",कहां तक ये मन को अंधेरे छलेंगे(बातों बातों में),जिंदगी एक सफर है सुहाना (अंदाज),रूक जाना नहीं तू कहीं हार के(इम्तेहान),एक रास्ता है जिंदगी(काला पत्थर)आदि।सभी गीत किशोर कुमार के आवाज की जादू से सराबोर एक से बढ़कर एक और बेहतरीन हैं।
 रफी साहब के गीत भी बेहद लाजवाब है। फिल्म जीने की राह का गीत तो आप सबने सुना ही होगा....एक बंजारा गाए,जीवन के गीत सुनाए।है ना दिलकश और जीने का राह दिखाती गीत।वैसे ही रफी साहब का माझी चल ओ माझी चल गीत भी बेहद खूबसूरत और अर्थपूर्ण है।
मन्नाडे साहब ने फिल्म सफर में बेहद प्यारा सा गीत गाया है।जीवन में चलने की सार्थकता सिद्ध करती सी-नदिया चले,चले रे धारा...तुझको चलना होगा।और संसार के दोहरे चरित्र को उजागर करते से मलंग चाचा के गीत"कस्में वादे प्यार वफा सब बातें हैं,बातों का क्या?"याद ही होगा। उपकार फिल्म का ये गीत उनकी आवाज में कालजयी बन पड़ा है।
राजकपूर की आवाज कहे जानेवाले मुकेश जी के सभी गीत सदाबहार हैं।आज भी उनके चाहनेवालों की कमी नहीं है। उन्होंने फिल्म संबंध में कवि प्रदीप की लेखनी और ओपी नैय्यर साहब की संगीत की जादू के साथ एक बेहद प्यारा गीत गाया है-चल अकेला,चल अकेला तेरा मेला पीछे छूटा राही चल अकेला।गुरूदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर की एकला चलो रे की तरह अकेले ही सभी झंझावातों का सामना करने की ताकता भरता सा गीत।खास बात ये है कि कवि प्रदीप के एक-एक शब्द बेहद महत्वपूर्ण है।एक पंक्ति मुझे बड़ी अच्छी लगती है-
जमाना साथ ना दे तो तू खुद से प्रीत जोड़ ले।
बिछौना धरती को कर ले,अरे! आकाश ओढ़ ले।।
कितनी बड़ी बात!वैसे एक कवि की लेखनी का कमाल ही कुछ और होता है।उनका ही लिखा एक और बेहद सुंदर गीत है-सुख दुख दोनों रहते जिसमें जीवन है वो गांव।
कभी धूप तो कभी छांव।
जीवन में होने वाले बदलाव को रेखांकित करता ये गीत आज भी प्रासंगिक है और एक एक शब्द अक्षरशः सत्य भी।
महेंद्र कपूर देशभक्ति गीतों के लिए जाने जाते हैं।उनकी आवाज मनोज कुमार पर खूब जचती है।उनकी फिल्म शोर में उन्होंने बहुत बढ़िया गीत गाया है-जीवन चलने का नाम,चलते रहो सुबहो शाम।जीवन में निरंतर चलने का संदेश देता ये गीत बेहतरीन है।इसके अलावा उन्होंने शायद हमराज फिल्म के लिए ये गीत भी गाया है-न सर छुपा के जियो और न सर झुका के जियो।
गमों का दौर भी आए तो मुस्कुरा के जियो।
  इतना सारा लिखने का कुल जमा हासिल ये है कि जिंदगी हमेशा खुशगवार नहीं होती। इसमें उतार चढ़ाव के पल आते-जाते रहेंगे। परिस्थितियां कभी कभी विपरीत भी हो सकती है।तब आप संघर्ष से पलायन के बारे में ना सोचें।मूसीबतों का हमेशा डटकर मुकाबला करें।हो सकता है आपकी दुश्वारियां अपनों के साथ मिलने से जल्द ही दूर हो जाएं या कुछ ज्यादा वक्त ले। बावजूद इसके कोशिश करें सबको खुश रखने और खुद खुश रहने की। लेकिन अगर आप अकेले हैं और किसी अपने का साथ या हमदर्द ना मिलें तो जरूर सुनें... उम्मीदों के गीत
रीझे
 टेंगनाबासा(छुरा)







रविवार, 1 दिसंबर 2019

कब तक....?

अभी पूरे देश को हैदराबाद की घटना ने हिलाकर रख दिया। सर्वत्र इस अमानुषिक कृत्य की निंदा की जा रही। आरोपियों को तत्काल फांसी पर चढाने की मांग को लेकर लोग आंदोलनरत हैं। पीड़िता को न्याय दिलाने के लिए आम आदमी,युवा वर्ग और मिडिया भी उद्वेलित है।ये अच्छी बात है और होनी भी चाहिए।
  इस घटना के पूर्व एक अमानवीय घटनाक्रम साल 2012 में भी घटित हुआ था।जब पूरा देश पीड़िता के लिए न्याय की मांग को लेकर उठ खड़ा हुआ था। तब दामिनी और निर्भया कांड के नाम से चर्चित अनाचार की उस घटना ने शासन-प्रशासन को कुंभकर्णी नींद से जागने के लिए मजबूर कर दिया था। इंसानियत को शर्मसार करने वाली उस घटना ने समूचे देश को हिलाकर रख दिया था।जन आंदोलन के दबाव में तब पीड़िता को न्याय दिलाने की त्वरित कोशिश की गई।सभी आरोपियों की गिरफ्तारी के बाद उनको सजा दिलाने का त्वरित प्रयास हुआ। तब वकीलों ने आरोपियों का मुकदमा लडने से इंकार कर दिया और भारत की उस मासूम बच्ची के नाम पर शासन की ओर से निर्भया फंड की स्थापना की गई।जिसके तहत प्राप्त राशि को महिलाओं और बच्चियों की सुरक्षा में खर्च करने का प्रावधान रखा गया।
  उस लोमहर्षक घटना के बाद बलात्कार संबंधी सजा के नियमों में बदलाव किया गया और ऐसे जघन्य अपराध के लिए कठोर दंड की व्यवस्था की गई।तब ऐसा लगा जैसे देश में अब बेटियां सुरक्षित हो गई।अब ऐसे अपराधों में कमी आयेगी।लेकिन इस सोच के ठीक विपरीत दुष्कर्म की घटनाओं में लगातार इजाफा हो रहा है।ज्यादातर ऐसी घटनाएं उत्तर भारत के क्षेत्रों में ज्यादा देखने-पढने में आता था। धीरे-धीरे ऐसी घटनाएं भारत के कोने-कोने से समाचार पत्र की सुर्खियां बनने लगीं।
    बीते 27 नवंबर की रात घटे हैदराबाद दुष्कर्म की घटना से ये साबित हो गया कि नरपिशाच सर्वत्र मौजूद है।इंसानी खाल में छुपे भेड़िए हर जगह खुले घूम रहे हैं।जरा सी चूक इन भेड़ियों के लिए मौका साबित हो रहा है।हम अपनी बेटियों को इन वहशी दरिंदों से बचाने में नाकाम साबित हो रहे हैं।शासन का सुरक्षातंत्र ऐसी घटनाओं से प्राय: अनभिज्ञ ही बना रहता है।एक ओर हम मातृशक्ति के उपासक के रूप में पूरी दुनिया में अपनी बड़ाई करते फिरते हैं। नवरात्रि के नौ दिन शक्ति की आराधना में बिताते हैं।नवरात के अंतिम दिन नौ कन्या पूजन का विधान भी करते हैं।तो फिर ये नरपिशाच,नराधम,और वहशी दरिंदे कहां से पैदा हो रहे हैं। बेटियां हर जगह अपनी सुरक्षा को लेकर चिंतित क्यों रहती हैं?हर तरफ घूरने वाली निगाहों से अपने आप को बचाने की चेष्टा क्यो?क्यों अकेली औरत को सब मौका समझते हैं?शायद इस क्यों का जवाब बहुतेरों के पास नहीं है।
  आज तकनीक ने आदमी को सुविधा संपन्न बना दिया है। लेकिन तकनीक के कारण ही आज अपराध में बढ़ोतरी भी हो रही है। इंटरनेट उपयोग की खुली छूट ने  देश के बच्चों और युवा पीढ़ी का बेड़ा गर्क कर रखा है। इंटरनेट पर अश्लील सामग्री की भरमार है।इन सामग्रियों के कारण बच्चों से लेकर बूढों तक के दिमाग में विकृति आ रही है। मोबाइल के आगमन से लोगों का एकाकीपन बढ रहा है।लोग वास्तविकता के बजाय आभासी दुनिया में रमने लगे हैं।लोग भले ही अपने पड़ोसी को न पहचानते हों पर सोशल मीडिया के माध्यम से देश दुनिया के लोगों के साथ परिचय रखते हैं।ये अच्छे संकेत नहीं हैं।
  जब हम परस्पर जुडाव और एक दूसरे के प्रति सम्मान की भावना रखते हैं तो एक अपनेपन का एहसास होता है।हमारी नई पीढ़ी को तकनीक के ज्ञान के साथ-साथ संस्कार देने की भी जरूरत है ताकि वे सबका सम्मान करना सीख सकें।रिश्तों की मर्यादा और अहमियत को समझ सकें।हमें अपनी सामाजिक जिम्मेदारी समझनी होगी।अपनी बहन बेटियों की सुरक्षा के प्रति सचेत रहना होगा।पहले गांवों में परंपरा थी सबकी बहू बेटियों को अपना समझने की।पूरा का पूरा गांव रिश्तों की डोर से बंधा होता था।तब किसी की नीयत गंदी नहीं होती थी।और गंदी नियत के लिए कठोर सजा तय हुआ करती थी।हम अपने धर्म ग्रंथों को खोलकर देखेंगे तो पाएंगे कि स्त्री के सम्मान की रक्षा के लिए रामचंद्र जी ने रावण को उसी के घर में जाकर मारा था।गंदी नियत वाले रावण की पूरी लंका जला दी गई थी। महाभारत के प्रसंग में नारी अपमान करने वाले दु:शासन के छाती को चीरा गया था।दुर्योधन की टांगे तोड़ दी गई थी। हमें भी दुष्कर्म करने वाले के लिए ऐसे ही कठोर दंड की व्यवस्था करनी होगी ताकि किसी भी नराधम का साहस न हो ऐसे दुष्कृत्य के लिए।दुष्कर्मी केअपराध को साबित करने के लिए प्रत्येक राज्य में फोरेंसिक लैब की स्थापना की जानी चाहिए ताकि अपराध जल्द से जल्द साबित हो और पीड़ित को न्याय मिले।पुलिस स्टेशन और कोर्ट में खाली पड़े पदों को भरा जाए ताकि स्टाफ की कमी का रोना बंद हो और न्याय प्रक्रिया सहज और सुलभ बन सके। पीड़िता के प्रति सामाजिक नजरिए में बदलाव की भी जरूरत है।उनके साथ ऐसा व्यवहार न हो जो उन्हें ठेस पहुंचाए।प्राय:देखने में आता है कि अपराधी से ज्यादा पीड़िता का जीवन कष्टप्रद हो जाता है।उनके प्रति सम्मान और स्नेह का भाव होना चाहिए तिरस्कार का नहीं।
शासन को स्वास्थ्य,शिक्षा, सुरक्षा और न्याय के लिए सजग होना होगा।मुफ्त की चीजें बांटने और अन्य सहूलियत देकर लोगों को अकर्मण्य बनाने के बजाय उक्त चारों व्यवस्था को सुधारने का यत्न करना चाहिए।न्याय मिलने में देरी से पीड़ित का आत्मविश्वास डगमगाता है।सजा में नरमी और देरी से अपराधियों के हौसले बुलंद होते है।शासन को ऐसे घटनाक्रम में आरोपियों की सजा के लिए तुरंत कार्रवाई की जरूरत है।
ईश्वर करे आगे से किसी और बेटी के साथ ऐसा अमानवीय घटना ना घटे। पीड़िता को श्रद्धांजलि,नमन।
रीझे
टेंगनाबासा(छुरा)

गुरुवार, 28 नवंबर 2019

जीवन चलने का नाम..

नमस्कार मित्रों!बहुत दिनों तक मैं लेखन गतिविधियों से दूर रहा। इसलिए नया पोस्ट नहीं डाल पाया।
    जिंदगी संघर्ष का नाम है।सबको अपने जीवन पथ पर अनेक कठिनाइयों का सामना करते हुए वांछित लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अग्रसर होना ही पड़ता है। परिस्थितियां ज्यादातर हमारे अनुकूल नहीं होती।हमें ही परिस्थितियों को अनुकूल बनाते ही हुए सार्थक जीवन जीने का प्रयास करना चाहिए।हमारी कई पौराणिक कथाओं में उनके महानायकों ने प्रतिकूल परिस्थितियों को वश में करके अपने लक्ष्य को प्राप्त किया है। उन्होंने हमारी आपकी तरह परिस्थितियां खराब होने का रोना नहीं रोया और न ही परिस्थितियों के अनुकूल होने की प्रतीक्षा की। उन्होंने अपने साहस और संघर्ष से विपरीत परिस्थितियों पर विजय प्राप्त किया।
       भारतीय जनमानस में राम और कृष्ण के प्रति अगाध आस्था है।और दोनों का जीवन चरित संघर्ष की दास्तान है। हालांकि इनका जन्म धन-धान्य से परिपूर्ण राजकुल में हुआ था और इनको किसी भी प्रकार की भौतिक संपदा की कमी नहीं थी। लेकिन परिस्थितियां इनके लिए भी कम कष्टदायी नहीं थी। कृष्ण का जन्म राजपुत्र होने के बावजूद कारागार में हुआ था जबकि राम को युवावस्था में सुखमय गृहस्थ जीवन के बजाय वनवास और पत्नी वियोग का दारूण दुख सहना पड़ा। कृष्ण को बाल्यकाल मे क्षण- प्रतिक्षण मौत की अनेक बाधाओं से जूझना पड़ा जबकि राम को बियाबान वन में हिंसक जंगली पशुओं और मौसम की प्रतिकूल परिस्थितियों में दुर्दिन का सामना करना पड़ा। लेकिन उन्होंने जीवन संघर्ष से हार नहीं मानी।
   कृष्ण ने राजपुत्र होने के बाद भी सामान्य जीवन व्यतीत करते हुए गौचारण का कार्य किया।राम ने स्थानीय संसाधन और वन्य जीवों के सहयोग से त्रिलोक विजयी रावण जैसे असुर को मारने का अद्भुत कार्य किया। उन्होंने अपने जीवन में आनेवाले कठिनाइयों के सामने घुटने नहीं टेके अपितु पूर्ण साहस और धैर्य के साथ उनका सामना किया। उन्होंने कभी भी अपनी राजकीय शक्ति का प्रयोग अपना हित साधने में नहीं किया। परिस्थितियां मनुष्य के धैर्य और साहस की परीक्षा लेती हैं।आपने चिडियों को घोसला बनाते देखा होगा।घोसला के निर्माण में बहुत श्रम भी करती हैं नन्ही चिड़िया। लेकिन कभी कभी उसके घोसले को प्रकृति नेस्तनाबूद कर देती हैं।आंधी,तूफान और बारिश जैसी विपदाएं उनके घोसले को तबाह कर देती है। लेकिन इसके बावजूद वो हार नहीं मानती और न ही अफसोस करने में वक्त गंवाती है।वो पुनः तिनका तिनका इकट्ठा करके अपने घोसले के नवनिर्माण में जूट जाती हैं।जब छोटी सी चिड़िया विषम परिस्थितियों से नहीं घबरातीं तो हम मनुष्य होकर भी केवल सुख की कामना क्यों करते हैं?तकलीफों से दूर भागने के लिए इतना उतावलापन क्यो?क्या हम एक चिड़िया से भी गए गुजरे हैं?
  मानता हूं जिंदगी में कभी कभी ऐसी परिस्थितियां भी आती है जब धैर्य साथ छोड़ देता है और मन का विश्वास डगमगाने लगता है।हम निराशा के गहरे सागर में डूबने वाले होते हैं तो हमें अपने आराध्य राम और कृष्ण के जीवन चरित्र का स्मरण करना चाहिए। हमारे आसपास भी कई ऐसे लोग आपको अवश्य मिलेंगे जिन्होंने प्रतिकूल परिस्थितियों के सामने आत्मसमर्पण नहीं किया बल्कि उसका डटकर सामना किया और उस पर जीत हासिल किया। हमारे पास ही के कस्बे में एक भाई हैं जो एक पैर गंवाने के बाद भी अपने परिवार के साथ खुशहाल जिन्दगी जी रहे हैं।उनके पैर गंवाने की कहानी और जीवन संघर्ष की गाथा प्रेरणास्पद है।
  उनका किस्सा कुछ यूं है।जिनका वर्णन मैंने ऊपर किया है वो भाई साहब गाय बैल चराने जंगल जाते थे।ज्यादा पढे लिखे नहीं थे और गाय बैल चराना उनका पुश्तैनी काम है।एक दिन जब वो गाय बैल चरा रहे थे तभी उसे एक जहरीले सांप ने काट लिया।उसने सांप को देख लिया और तत्काल उसी पल उस सांप को अपने टंगिया से(जो वो हमेशा पेड़ों की टहनियां काटने के लिए रखते थे)काट दिया।अब उसके सामने जीवन और मौत के बीच एक को चुनने की समस्या आ गई।अगर वो पीड़ा की परवाह करते तो मौत साक्षात खड़ी थी और पीड़ा बर्दाश्त करने का साहस नहीं हो रहा था। अंततः उसने जीवनरक्षा के लिए भीषण दर्द का सामना करने का निर्णय लिया और अपनी अंगुली जिसको सांप ने काटा था उसको अपने टंगिया से काट दिया।दर्द की अधिकता और खून बहने के कारण उस पर बेहोशी छाने लगी। तक उसके साथ गए अन्य साथी भी आ गए और उसको बेहोशी की हालत में अस्पताल में भर्ती कराया। कुछ दिन उपचार के बाद उसकी अस्पताल से छुट्टी मिल गया।घाव भरा नहीं था लेकिन जानकारी के अभाव और कुछ लापरवाही के कारण दो महिने के भीतर ही उसके पांव में गैंगरिन हो गया और उसके पांव को काटना पड़ा।छ:महिने की देखभाल के बाद वो अपने एक पैर को खोने के बाद वापस दुनिया के साथ तालमेल बिठाने के लिए तैयार खड़ा था। परिस्थिति पूरी तरह प्रतिकूल हो गई थी।अब वो अपना पुश्तैनी काम नहीं कर सकता था और भारी काम करने के लिए उसके पैर नहीं थे। लेकिन उसने साहस नहीं खोया।अपने अदम्य इच्छाशक्ति के बल पर उसने अपनी शारीरिक कमजोरी को बौना साबित किया।उसने एक पैर से ही सायकल चलाने का अभ्यास किया और उसमें पूरी तरह पारंगत होने के बाद वो आज सायकल से लकड़ी भी ले आता है।अपने घर के पास एक छोटा सा होटल भी खोल लिया हैं जहां वो बैसाखी की सहायता से अपना काम पूरी तन्मयता से करता है।और अपने छोटे से परिवार को खुशहाल जिन्दगी दे रहा है।
उनके साहस को सलाम!!तो मित्रों,प्रतिकूल परिस्थितियों के सामने झुके नहीं और न ही अनुकूल परिस्थितियों के आने का इंतजार करें।बल्कि उसका डटकर सामना करें.....
रीझे"देवनाथ"
टेंगनाबासा(छुरा)



सोमवार, 10 जून 2019

माटी होही तोर चोला....

कल ही की तो बात है। प्रतिदिन की भांति वाटसप को खंगाल रहा था तो एक ग्रुप मे अचानक छत्तीसगढ़ कलाजगत के अनमोल रतन और छत्तीसगढ़ी लोकसंगीत के पितामह श्री खुमान लाल साव जी के देहावसान का समाचार मिला।यकीन नहीं हुआ तो एक दो और कलाप्रेमी मित्रों से समाचार को पुष्ट करने का प्रयास किया।जब उनका उत्तर नहीं मिला तो गूगल गुरु से समाचार की पुष्टि हुई और इस मनहूस से समाचार से दिल बैठ सा गया।
  खुमान लाल साव, छत्तीसगढ़ी कलाजगत के ऐसे वटवृक्ष थे जिनके नीचे कितने ही कलाकारों ने आश्रय पाया और कलाजगत मे नाम कमाया।एक शिक्षक के रुप मे भी उन्होंने यश कमाया और एक कलाकार के रुप मे उनके साथ छत्तीसगढ़ ने भी यश कमाया।उनके संगीत का जादू ऐसा था कि बरबस मन मयूर झूम उठता था। अश्लीलता और बाजारू गीत-संगीत से उनका दूर-दूर तक कोई नाता न था।उनके रचे संगीत मे साहित्य स्थान पाता था।पं.रविशंकर शुक्ल,पं.द्वारिका प्रसाद तिवारी"विप्र",संत पवन दीवान,लक्ष्मण मस्तूरिहा जैसे विलक्षण साहित्य साधकों की रचना को उन्होंने अपने संगीत के जादू से अमर कर दिया है। उनके संगीत का स्पर्श पाकर छत्तीसगढ़ की मशहूर गायिका श्रीमती कविता वासनिक की आवाज को प्रसिद्धि मिली। प्रसिद्ध कवि लक्ष्मण मस्तूरिहा के गीतों को एक नया आयाम मिला।
     जिन लोगों ने चंदैनी गोंदा की प्रस्तुति देखी है वे लोग खुमान साव जी के संगीत और प्रस्तुति मे उनके समर्पण को बेहतर महसूस कर सकते हैं।जब तक उनके शरीर ने जवाब नहीं दिया वे चंदैनी गोंदा की प्रस्तुति मे स्वयं हारमोनियम बजाते रहे।वे सिगरेट के कस लगाते रहते और पूरी रात उनका कार्यक्रम निर्बाध गति से चलता रहता। उनके साथ मेरा प्रत्यक्ष रुप से मिलना नहीं हुआ था लेकिन उनको करीब से देखने और उनके संगीत को सुनने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ है।लगभग चार वर्ष पूर्व उनका कार्यक्रम हमारे गांव मे हुआ था।
   हमारे गांव से कुछ लोग जब उनके कार्यक्रम को अनुबंधित करने उनके गृहग्राम ठेकवा गए थे तो उनसे जुडी एक वाकया साथ गए एक सज्जन ने बताया कि जब वे उनके निवास पहुंचे और बताया कि कार्यक्रम अनुबंध के सिलसिले मे वे लोग ढाई सौ किलोमीटर दूर से आए हैं तो साव जी ने उनको आत्मीयता से बिठाया और तत्काल उनकेे लिए जलपान की व्यवस्था किए।बाद मे जब कार्यक्रम के लिए एडवांस पैसा दिया तो वे उसे बिना गिने रखने लगे।जब उनसे गिनने का आग्रह किए तो बोले-"तुमन छत्तीसगढ़िया हरव।अउ एक छत्तीसगढ़िया ह दूसर छत्तीसगढ़िया ल ठगही थोरे जी।"ऐसा कहते हुए उन्होंने पुनः बिना गिने ही पैसा रख लिया।उनका ऐसा स्वभाव देखकर साथ गए लोग गदगद हो गए।
   वे अपने धुन मे रमे व्यक्ति थे। राजनीतिक उठापटक और सम्मान पुरस्कार की दौड से कोसों दूर। दर्शकों के प्यार को ही वे अपना सबसे बडा पुरस्कार मानते थे। उन्होंने बहुत से पुरस्कार को पुरस्कार नीति से आहत होकर ग्रहण नहीं किया।पिछले वर्ष ही उनको राष्ट्रपति महोदय के द्वारा संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार प्राप्त हुआ।कला प्रेमियों के द्वारा उनकी इस उपलब्धि के लिए उनका नागरिक अभिनंदन राजनांदगांव मे किया गया।वे पुरस्कार के लिए जुगाड लगाने वालों मे से नहीं थे। इसलिए प्राय: उपेक्षित ही रहे।मेरा मानना है कि खुमान साव जी पद्म पुरस्कार के हकदार रहे हैं।जो उन्हें नहीं मिल पाया। उनका निधन छत्तीसगढी कला जगत के लिए अपूरणीय क्षति है। पर संगीत प्रेमियों के दिलों मे उनका स्थान सदैव रहेगा।अपने रचे अमर संगीत के माध्यम से वे छत्तीसगढ़ मे सदैव गुंजित रहेंगे।जन्म लेने वाले का मृत्यु निश्चित है।इस कठोर सत्य से कोई नहीं बच सकता।उनके जाने के बाद मुझे चंदैनी गोंदा की प्रस्तुति और उनके संगीतबद्ध गीत बहुत याद आ रहे हैं और उन अनेक गीतों में से एक गीत...
माटी होही तोर चोला रे संगी! माटी होही तोर चोला.....
खुमान बबा ल विनम्र श्रद्धांजलि





   

बुधवार, 5 जून 2019

ईद और नन्हें हामिद की यादें...

आज ईद है। मुस्लिम भाईयों का सबसे बडा त्योहार।पर बचपन के कुछ वर्षों तक मुझे इसके बारे में कुछ भी पता नहीं था।तब हमारे लिए रक्षाबंधन,होली, दशहरा,दीवाली और कुछ स्थानीय त्योहार ही त्योहार हुआ करते थे। हालांकि एक दो मुस्लिम परिवार हमारे गांव मे भी हुआ करते थे पर वो त्योहार मनाने नजदीक के कस्बे मे जाते थे तो उनके त्योहार का कुछ भी त्योहार जैसा नहीं लगता था।
   हमारी बाल मति अनुसार जब उन लोगों के घर मे खाट के पाए से बांधकर सेवईयां बनाई जाती थी तब समझ मे आ जाता था कि उनका त्योहार करीब  है।और जिस दिन वे लोग नए कपडे पहनते थे,हमारे घर मे सेवई की कटोरी आती थी और हमारे स्कूल मे छुट्टी होती थी तब हमें मालूम पडता था कि आज उनका त्योहार है।
वैसे ईद से और हामिद से मेरा पहला परिचय हमारी भाषा की किताब मे कक्षा तीन मे हुआ था। ईदगाह कहानी से। हामिद... एक छोटा सा बच्चा जो उस समय तकरीबन हमारे जित्ते ही रहा होगा।पर उसकी सोच एक जिम्मेदार आदमी से भी बडी थी।बालमन लालची होता है।अपने सामर्थ्य के अंदर और बाहर कि सभी चीजों को पाने के लिए लालायित होता है।किंतु हामिद एक बैरागी संत की तरह मोहमाया से विरक्त खिलौनों और मिठाईयों को नजर अंदाज करके अपनी दादी की परेशानी को ही याद रखता है। दुनिया भर के आकर्षण की चमक उसे याद नहीं....सिर्फ दादी और रोटी बनाते समय उनके जलते हाथ ही उसे याद रहा।उसे पूरे मेले मे सिर्फ चिमटा ही उपयोगी वस्तु लगा।वो भी इसलिए कि चिमटे पाकर दादी की हाथ नहीं जलेगी।अपने हमउमर दोस्तों की सभी  दलीलों को उसने अपने अकाट्य तर्कों से काट डाला था।
    कितनी मासूमियत और कितनी बडी सोच थी उस नन्हे से फरिश्ते की।आज बच्चों मे उस मासूमियत की कमी खलती है।आज मां बाप का बर्ताव अपने बच्चों के साथ किसी सर्कस के रिंग मास्टर की तरह हो गया है जिनके आदेश मुताबिक बच्चों को चलना होता है।फलां काम करो,ऐसे बैठो,वैसे रहो आदि।बच्चे भी अब अतिरिक्त सुविधा मिलने के कारण जिम्मेदारी की भावना से मुक्त नजर आते हैं।वैसे संघर्ष ही आदमी को जिम्मेदार बनाता है जीने,की कला सिखाता है।संघर्षहीन जीवन मे कोई किसी चीज की कदर भला क्यों करे?अधिकांश घरों मे बच्चे अब अपनी मांगों को मनवाने के लिए अपने पालकों को भावनात्मक रूप से  ब्लैकमेल करते नजर आते हैं।इस क्लास मे जाउंगा तो सायकल दिलाओ,अमुक काम करने पर मुझे मोबाईल दिलाओ वगैरह वगैरह।अब बच्चों को तनिक भी परवाह नहीं है कि उनकी मांग पूरी करने मे उनके पैरेंट्स की क्या हालत होगी?उनको इन बातों से कोई मतलब नहीं।
     मां-बाप अपने बच्चों की जरूरतें तो पूरी कर रहे हैं पर उनको पैसे  और किसी सामान की अहमियत और उनकी इज्जत करना नहीं सीखा रहे हैं। परिवार सुविधाएं भले ही बढती जा रही है पर सामंजस्य घटता जा रहा है।एक दूसरे की परवाह की भावना कम हो रही है शायद इसीलिए हामिद वाली सोच अब नदारद हो रही है....ईद मुबारक
     
   

रविवार, 26 मई 2019

एक कुएं की मौत....



कुआं शब्द से हम सब परिचित है।जब दुनिया मे ट्यूबवेल या नलकूप का अस्तित्व नहीं था तब कुआं ही पेयजल का प्रमुख साधन हुआ करता था।बीते कुछ वर्षों से कुआं अब बडी तेजी से पाटे जा रहे हैं।नल और ट्यूबवेल जैसे पानी की घर पहुंच या कहें किचन पहुंच सेवा ने कुएं के अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया है।कुआं की उपयोगिता और अस्तित्व शनैःशनैः खत्म हो रहा है।
  पिछले दिनों ही हमारे पडोस के एक सज्जन ने मकान बनाने के नाम पर अपना पुश्तैनी कुआं पटवा दिया।मुझे लगता है कि कुछ सालों के बाद गूगल बाबा ही कुआं के बारे मे बता पाएंगे।वास्तविकता मे तो अब कुएँ विलुप्ति के कगार पर है।पर कुएं से जुडी यादों को स्मृति पटल से कभी विस्मृत नहीं किया जा सकता।
   बडे बुजुर्ग बताते हैं कि पहले जिन लोगों के पास थोडी संपत्ति होती थी वे लोग सडक किनारे या गांव के सामूहिक उपयोग के लिए कुआं खुदवाया करते थे।परलोक सुधारने की आकांक्षा लिए लोग कुआं खुदवाकर पुण्य अर्जित कर लेते थे।यह स्वर्ग मे स्थान सुरक्षित करने का सहज और सुगम मार्ग होता था।सडक किनारे राहगीरों के लिए कुएँ खुदवाए जाते थे ताकि कोई राहगीर प्यासा न रहे।साथ ही उन कुओं के पास ही विश्राम के लिए प्रायः सराय हुआ करती थी।तब रस्सी और बाल्टी कुएं पर हमेशा खुले मे हुआ करती थी।तब आजकल की वाटर कूलर के गिलासों को जैसे जंजीर मे जकड कर रखा जाता है वैसी स्थिति नहीं थी।लोग ईमानदार थे और अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों का बखूबी समझते थे।
कुआं मे सवेरे का दृश्य मनोरम हुआ करता था।महिलाएं कुआं मे पानी भरने के लिए जब इकट्ठा होतीं थी तो अपने अंतर्मन की बातें,परेशानियां,सुख-दुख की बातें आपस में बांट लिया करती थीं।कुआं ही उनके मनोरंजन का स्थल और परेशानी के समाधान का केंद्र हुआ करती थीं।सहयोग और मित्रता के अंकुर तब कुएं के पास ही फूटा करती थीं।बरतन मांजते हाथों से निकलती चूडियों की आवाज से सुबह का आरंभ हुआ करता था।नई-नवेली बहू से पडोस की महिलाओं का प्रथम परिचय भी कुएं पर ही होती थी।
   कृषि क्रांति के दौर मे असंख्य कुएं खोदे गए।उन कुओं के अमृत जल से ही देश खाद्यान्न उत्पादन मे आत्मनिर्भरता की ओर बढा।तब खेतों के कुएं मे रहट की शान हुआ करती थी।
   छत्तीसगढ़ मे कुआं पाटना पाप माना जाता था।ऐसा माना जाता है कि पानी के स्त्रोत को पाटने से पाप लगता है और पाटने वाले के कुल का समूल विनाश हो जाता है।लेकिन अब ये बीते समय की बात हो गई है।लोग अपनी वर्तमान की जरूरतों को पूरा करने की कोशिश मे ऐसी बातों को अब नजरअंदाज कर देते है।खैर,सच जो भी हो पर ऐसा सुनने को मिलता था।हम जब छोटे थे तो कुओं की खुदाई के समय कम गहराई तक उसमे चढना और उतरना हमारा प्रिय खेल हुआ करता था।और जब कुएं को पक्के ईंट या पत्थर से बांध लिया जाता था तब भगवान सत्यनारायण की पूजन के पश्चात ही कुएँ के पानी का उपयोग किया जाता था।
  कुछ कुएं इतिहास को भी अपने अंदर समाहित किये हुए हैं।जैसे जलियांवाला बाग के कुएं ब्रिटिश बर्बरता के मूक गवाह है।कुआं से भारतीयों का अद्भुत नाता है।लेकिन अब उनकी उपेक्षा बढती ही जा रही है।कुओं को अब कचरा फैंकने का ठिकाना बना दिया गया है।जहाँ कभी अमृत जल हुआ करता था अब उसमें प्लास्टिक और दूसरे कचरे की सडांध होती है।
क्या हमारी कोशिश इन धरोहरों को संरक्षित करने की नहीं होनी चाहिए।
  कुछ वर्षों के बाद शायद कुएं देखने को न मिल पाएं।तब इन कहावतों को नई पीढी के बच्चों को हम कैसे समझा पायेंगे...
आगे कुआं पीछे खाई
कुएं का मेढक होना
प्यासा कुएं के पास आता है कुआं प्यासे के पास नहीं
आग लगने पर कुआं खोदना
रोज कुआं खोदना और रोज पानी पीना आदि-आदि इत्यादि....




रविवार, 19 मई 2019

बचपन,गर्मी की छुट्टियां और किताबें...



अभी गर्मी की छुट्टियां चल रही है, जो अब समर वैकेशन कहलाती है।इन छुट्टियों को अब बच्चे स्कील डेवलपमेंट, हाबी क्लासेज या किसी हिल स्टेशन पर छुट्टियां मनाने मे बिताते हैं।
एक बचपन हमारा भी होता था जब गर्मी की छुट्टियों मे हमारा समय मित्रों के संग आम तोडने,तालाब मे घंटो तक तैरने,मामा के घर जाने और किताबें पढते पढते बीत जाता था।
उस समय हमको पाकेट खर्च नामक सुविधा अधिक प्राप्त नहीं होती थी।पच्चीस पैसे और पचास पैसे मे पूरा दिन निकालना होता था।उस पर भी कोई आइसक्रीम वाला अचानक भोंपू की पों..पों... करते आ जाता तो बडी मुश्किल से दादा-दादी की बैंक से डूब जानेवाला लोन मिलता था।तिस पर भी आइसक्रीम वाले को दादी दो चार खरी खोटी सुनाकर ही पैसे दिया करती थीं।हम उस फ्री फायनेंस वाली बैंक के सबसे डिफाल्टर और चहेते ग्राहक हुआ करते थे।
दो रूपये और पांच रूपये तब हमारे लिए रकम हुआ करती थी जो अक्सर हमें त्यौहारों पर या किसी मेहमान के बिदाई के समय उनके करकमलों से प्राप्त होता था।
कुछ मेहमान आते वक्त जलेबियाँ या पारले जी का पैकेट भी लेकर आते थे।ये प्रथा समय के साथ विलुप्त हो गई।वैसे भी चालीस रूपये वाली किंडरज्वाय के दौर मे अब पारलेजी को कौन याद करेगा?
खैर,अब बात करते हैं उन किताबों की जो हमारे बचपन का अभिन्न हिस्सा हुआ करती थी।कामिक्स और चंदामामा उस समय हमारे समय काटने का माध्यम हुआ करता था।कामिक की पुस्तकें किराये पर मिला करती थी।पृष्ठ संख्या और कामिक की मोटाई,और उसकी लोकप्रियता के आधार पर किराया दर तय होता था।प्रायः50 पैसे से लेकर ढाई तीन रूपये मे दिनभर के लिए किसी कामिक्स का मालिक बना जा सकता था।
एक भाई साहब रोज शाम को अपनी छोटी सी सायकल पर कामिक्स को लाते और अगली शाम को जमा करते।उस समय उधारी भी मिलता था और लेटलतीफी से कामिक्स वापस करने पर लेटफीस भी भरना पडता था।तब नागराज,ध्रुव, डोगा,चाचा चौधरी,बिल्लू, और अपने आसपास के जान पडते थे।लगता था कभी न कभी इनसे मुलाकात जरूर होगी।उस समय तक कामिक्स के किरदार काल्पनिक नहीं लगते थे।वो तो बडे होने के बाद समझ आया कि ये काल्पनिक हैं।तब सचमुच के राजनगर मे जाने की इच्छा होती थी।चाचा चौधरी,रमन,बिल्लू,पिंकी पडोस के जान पडते थे।
     कामिक्स पढने से मनोरंजन तो होता ही था लेकिन उसका सबसे बडा फायदा ये था कि पढने की आदत बनती थी।पढने मे मात्रा संबंधी त्रुटियां सुधरती थीं।मनमोहक चित्रों को देखकर कितने ही मित्रों को चित्र बनाने की प्रेरणा मिलींं।जो बाद मे पढाई के दौरान जरुर कभी न कभी काम आई होगी।अब आडियो विजुअल का जमाना है।सब काम तकनीक से हो रहा है।किताबें भी अब कागज के पन्नों पर नहीं बल्कि लैपटॉप और मोबाइल के स्क्रीन पर पढी जाती हैं।लेकिन...
माना कि किताबों को तकनीक मोबाइल मे ले आई है
पर वो खुशबू जो किताबों से आती थी,कहां मिल पायेगी......











शनिवार, 18 मई 2019

वो पुरानावाला अपनापन...

छत्तीसगढ़ ,अपनी लोकजीवन मे सादगी और सहज सरल परंपरा के कारण  भारतवर्ष मे विशिष्ट स्थान रखता है।सामान्यतः छत्तीसगढ़ के ग्रामीण अंचल मे गरमी के दिनों मे वैवाहिक कार्यक्रम रखे जाते हैं।हो सकता है पूर्व मे छत्तीसगढ़ मूलतः कृषि प्रधान क्षेत्र होने के खेती-किसानी के महीने मे अपनी व्यस्तता के कारण ठंड के दिनों मतलब देवउठनी एकादशी के बाद ऐसे वैवाहिक आयोजन मे असमर्थ रहा हो।और ग्रीष्म ऋतु मे वैवाहिक आयोजन की प्रथा चल पडी हो।
खैर,कारण जो भी रहा हो पर छत्तीसगढ़ मे वैवाहिक आयोजन प्रायःमाघ-फागुन से प्रारंभ होकर आषाढ़ माह तक चलता है।जेठ महीने मे सबसे ज्येष्ठ मतलब सबसे बडी संतान का विवाह निषेध होता है।
छत्तीसगढ़ की विवाह परंपरा मे सभी जाति-वर्ग से सहयोग लेने की परंपरा रही है।ग्रामीण अंचल मे वैवाहिक कार्यक्रम प्रायः आपसी सहयोग से ही संपन्न होता था।शादी के लिए वर-वधु की तलाश से लेकर संपूर्ण वैवाहिक कार्यक्रम के संपन्न होने मे सभी जाति वर्ग का सहयोग आवश्यक होता है।शादी मे प्रयुक्त होने वाले बांस निर्मित सामग्री जैसे-झांपी,पंर्रा,बिजना,टुकनी ,चंगोरा आदि कंडरा जाति के लोगों के सहयोग से मिलता था।कुछ क्षेत्रों मे कमार जनजाति भी यही काम करती है।
कलश और अन्य मिट्टी के बर्तन कुम्हार जाति के लोग उपलब्ध कराते थे।शादी मे भोजन व्यवस्था मे राउत जाति के लोगों का अहम स्थान होता था।प्रायःवैवाहिक आयोजन संबंधी पूजा मे पुरोहित के सहयोग के लिए नाई की भूमिका अहम होती है।भोजन के लिए जब पत्तल दोने का दौर होता था तो उनकी पूर्ति का जिम्मा भी नाई जाति के लोगों की हुआ करती थी।कुछ समाज मे सील-बट्टे को नवदंपत्ति को भेंट दिया जाता है और उसकी भी कुछ रस्मे होती हैं।सील-बट्टे बेलदार समाज के लोग प्रदान करते थे।कुछ वैवाहिक रस्मों मे लाई आदि की व्यवस्था केंवट जाति के लोगों के सहयोग से होता था।
इन सबके अलावा नव वरवधु के लिए जूते या जूतिया मोची समुदाय के लोग देते थे।खानपान के लिए सब्जी व्यवस्था की जिम्मेदारी मरार समाज की हुआ करती थी।नई गृहस्थी की शुरुआत करने के लिए वधु पक्ष की ओर से नवदंपत्ति को पचहर दाईज(कांसे और पीतल के पांच बरतन जिसमें थाली,लोटा,बटकी,कोपरा(परात) और हंडा होता है।)दिया जाता था जिसे कसेर(कंसारी) समाज के सहयोग से पूरा किया जाता था।
इसके बाद वैवाहिक रस्मों के लिए बाम्हन(ब्राह्मण) और बइगा(जो प्रायः आदिवासी संप्रदाय के होते हैं)का सहयोग लिया जाता था।
इन सारी बातों को लिखने का एक ही अर्थ है छत्तीसगढ़ मे आला दर्जे का सहयोगी स्वभाव की भावना।जो कभी हमारी विशिष्टता हुआ करती थी।सबका आपस मे सघन प्रेम था।दिखावटी अपनेपन को लोग जानते तक नहीं थे।तब वैवाहिक आयोजन निजी न होकर सार्वजनिक हुआ करता था।तब सब अपनी जिम्मेदारी का बखूबी निर्वहन करते थे।
अब पैसा फेंक तमाशा देख......वाली स्थिति निर्मित हो रही है।हर सामान बाजार मे रेडीमेड उपलब्ध है।पैसा दो और सामान ले आओ.....काश वो पुरानावाला अपना कहीं मिल पाता?

मंगलवार, 29 जनवरी 2019

मेरा छोटा सा प्रयास....उदीम

भारत की मर्मस्थल और धान का कटोरा उपमा से अलंकृत छत्तीसगढ़ अपनी मनमोहक लोकजीवन और स्वभाव मे निश्छल सादगी लिए पौराणिक काल से आज तक यहां आनेवाले प्रत्येक आगंतुक का मन मोह लेता है।
मर्यादा पुरूषोत्तम भगवान श्रीराम के ननिहाल कहे जानेवाले छत्तीसगढ़ ने ही उनको चौदह वर्ष के कठिन वनवास काल मे आश्रय दिया था।दण्डकारण्य के घनघोर वन, नदी और पहाडियों मे आज भी उनकी स्मृतियां विद्यमान है।महाभारत काल मे पांडवों के लिए भी छत्तीसगढ़ ने अपना स्नेह लुटाया था और उनको भी अपने कोरा(गोद)मे स्थान दिया था।
छत्तीसगढ़ महतारी अपना स्नेह अपनी संतान पर सदा लुटाती रही है।मुक्त हस्त से अपनी संपदा अपनी संतानों लिए न्यौछावर करती रही हैं।ऐसी स्नेहमयी माता के चरणों मे प्रणाम निवेदित करते हुए अपने अंतर्मन की बातों और जानकारियों को साझा करने का प्रयास मै इस ब्लॉग के माध्यम से करना चाहूंगा।सहयोग अपेक्षित है।
रीझे



दिन चारी मइहरवा में....सुरता स्व.मिथलेश सर के

  लोकगीतों की अपनी एक अलग मिठास होती है।बिना संगीत के भी लोकगीत मन मोह लेता है,और परंपरागत वाद्य यंत्रों की संगत हो जाए, फिर क्या कहने!! आज ...