गुरुवार, 3 दिसंबर 2020

खल्ल वाटिका में



 

खल्लारी माता प्राकट्य स्थल पर 

प्रवेश द्वार

डोंगा पथरा

पहाड़ी सौंदर्य

भीम चूल्हा

भीम पांव

मां गंगा का आवाहन करते शिव जी

पुराने मार्ग की सीढ़ियां
भारत के पौराणिक ग्रंथ महाभारत का एक पात्र है महाबली भीम। छत्तीसगढ़ की चिन्हारी और संस्कृति की संवाहक लोकविधा "पंडवानी" का नायक भी भीम है।भीम का परिचय देने की आवश्यकता नहीं है।जिस प्रकार कृष्ण का संबंध वृंदावन,राम का अयोध्या, विक्रमादित्य का धारानगरी उज्जैन से है उसी प्रकार कुंती पुत्र भीम का संबंध भीमखोज से है।भीमखोज अर्थात महाभारत में वर्णित खल्ल वाटिका जो कालांतर में खल्लारी हो गया। ऐतिहासिक व धार्मिक महत्व के स्थलों से भरपूर महासमुंद जिले का एक गांव है भीमखोज जहां माता खल्लारी विराजित हैं और महाभारत कालीन घटनाओं का साक्ष्य आज भी मौजूद है।

जैसा कि नाम से ही विदित होता है कि इस स्थान का संबंध पांच पांडवों में से एक भीम से है।
महाभारत के गाथानुसार जब पांडवों को वनवास मिला था तब वे वन-वन भटकते यहां पहुंचे थे।यह क्षेत्र उस समय राक्षसराज हिडिम्बासुर का क्षेत्र माना जाता था।वह अपनी बहन हिडिम्बा(हिरबिची कैना)के साथ रहता था।जब पांडव यहां से गुजर रहे थे,तब वे यहां की पहाड़ी पर रात्रि विश्राम के लिए रूके।जब भीम के चारों भाई और उनकी माता सो रही थीं तब भीम जागकर पहरा दे रहे थे।उन सबको हिडिंबा ने देखा और वह भीम को देखकर उस पर मोहित हो गई।इधर हिडिम्बासुर के नाकों तक मानव गंध पहुंच चुकी थी।वह उन सबको मारने के उद्देश्य से आया और भीम के साथ लड़ते लड़ते मारा गया।जब हिडिम्बासुर मारा गया तो हिडिम्बा ने माता कुंती के सामने अपनी व्यथा रखी।तब उन्होंने भीम को उसके साथ गंधर्व विवाह की अनुमति दे दी। फिर उन्होंने यहां की पहाड़ियों में बहुत समय व्यतीत किया।माना जाता है कि ये सभी घटनाएं भीमखोज के आसपास ही घटित हुई हैं।
खल्लारी माता की पहाड़ी पर भीम चूल्हा और भीम पांव आज भी देखे जा सकते हैं। यहां पर भीम का चीलम,हंडा और ढेलवा(झूला) होने की बात भी बताई जाती है।
बचपन से इस स्थान के बारे में सुनता रहा हूं,तो बड़ी तीव्र इच्छा और जिज्ञासा थी भीम पांव देखने की।कल्पना करता था कि भीम के बड़े-बड़े पांव के निशान होंगे।पर जब आके देखा तो मायूसी हाथ लगी। मैंने वहां मानव पांव की आकृति सोचा था,पर वहां केवल गोलाकार गड्ढे थे।बाद में पता चला कि ये गड्ढे असल में भीम पांव के ही है पर सामान्य रुप से धरती में चलते समय पड़े पगचिह्न नहीं है बल्कि हिडिम्बासुर से लड़ते समय चट्टानों पर धंसे भीम के पांव है।तब जाकर ठीक लगा।पांव के आकार से भीम की शारीरिक कद काठी का अनुमान लगाया जा सकता है।भीम विशालकाय शरीरधारी था।उसके शारीरिक मजबूती और सुदृढ़ डील-डौल के कारण ही आज भी सामान्य से अधिक ऊंचाई वाले मजबूत और तगड़े लोगों के लिए भीमकाय शब्द का प्रयोग किया जाता है।
भीमखोज की पहाड़ी पर भीमचूल्हा भी मौजूद है, जिसमें भीम ने अपनी माता और भाईयों के लिए भोजन बनाया था।भीम बलिष्ठ होने के साथ-साथ एक कुशल रसोईया था,जो उसके कीचक वध वाले कहानी से ज्ञात होता है।
भीमखोज के आसपास का इलाका पूरा भीममय है।खल्लारी पहाड़ी से कुछ किलोमीटर की दूरी पर एक और चिकनी पहाड़ी है,जो खल्लारी माता के मंदिर से स्पष्ट दिखाई देता है। वर्तमान में उस पर भीमसेन की विशाल प्रतिमा बनाई गई है। ग्रामीणों के बताए अनुसार मान्यता है कि ये पहाड़ी भीम के चीलम से निकली राख से बनी है।भीम अपने चीलम का राख यहीं झडाते थे जिसके कारण इस पहाड़ी के आसपास की वनस्पतियां जल गई और राख का एक पहाड़ बन गया। मजेदार बात है कि पहाड़ी में सचमुच पेड़ पौधे नहीं दिखाई देते।
खल्लारी माता पहाड़ी के आसपास बहुत से तालाब दिखाई देते हैं।माना जाता है कि पहले यहां छः आगर छः कोरी तालाब थे।क्या समझे?
छः आगर छः कोरी का मतलब होता है 126,कोरी मतलब बीस और आगर मतलब एक्स्ट्रा(अधिक) तो छः कोरी मतलब 120 और उसमें छः अधिक माने 126;पुराने समय की गणित और गिनती प्रणाली भी अद्भुत थी।
हालांकि ऐतिहासिक विद्वानों के अनुसार यहां लाक्षागृह होने की संभावना भी बताई जाती है। लेकिन इस ऐतिहासिक धरोहर की प्रशासनिक उपेक्षा से प्राय:सभी दस्तावेज धीरे धीरे नष्ट होते जा रहे हैं। पहाड़ी पर मौजूद ऐतिहासिक धरोहरों की जानकारी के लिए तख्ती तक नहीं लगाई गई है।
यहीं पहाड़ी पर डोंगा पथरा भी मौजूद है।जिसे बताया जाता है कि भीम ने कभी उस पत्थर को दो छोटे पत्थरों के ऊपर रख दिया है।देखने से ऐसा लगता है कि अब गिरेगा कि तब गिरेगा।पर अद्भुत संतुलन साधे ये चट्टान हजारों साल से पहाड़ी पर आज भी जस की तस मौजूद है।
पहाड़ी पर पर्यटकों के आकर्षण के लिए बनाई गई मूर्तियां भी स्थानुकुल प्रतीत नहीं होती।जिस डोंगा पत्थर को भीम ने रखा था वहां पर श्रीराम,जानकी,लक्ष्मण और केंवट की मूर्तियां बनाई गई है।जब ये स्थान महाभारत कालीन घटनाओं से जुड़ा है तो यहां पर रामायण के चरित्र की मूर्ति थोड़ी असहज लगती है।उसी प्रकार माता गंगा का आवाहन करते शिवजी और भागीरथी की मूर्ति भी चट्टान पर बनाई गई है।प्राय: धार्मिक स्थलों पर देखता हूं कि निर्माण के कुछ सालों तक इन मूर्तियों के रंग रोगन पर विशेष ध्यान दिया जाता है।बाद में प्राय:ऐसी मूर्तियां उपेक्षित पड़ी रहती हैं।किसी मूर्ति की उंगली टूटी है तो किसी का आंख गायब। धार्मिक स्थलों पर देवी-देवताओं की ऐसी मूर्तियां बनाने पर रोक लगनी चाहिए। सिर्फ लोगों के आकर्षण के लिए हम अपने ही देवी-देवताओं का मजाक बनाने लगे हैं।
पंचमुखी हनुमानजी की मूर्ति भी यहां देखा जा सकता है।खल्लारी माता के दर्शन के लिए आठ सौ से अधिक सीढ़ियों की चढ़ाई चढ़नी पड़ती है,जो उम्रदराज लोगों के लिए कष्टसाध्य कार्य है। हालांकि अब सीढ़ी के ऊपर टीनशैड लगाया गया है,जिससे चढ़ाई आरामदायक हो गई है।बैठने के लिए बीच-बीच में जगह भी है।
पुरानी सीढ़ी भी पहाड़ी पर मौजूद है,जो एकदम खड़ी है।उस सीढ़ी पर चलते समय थोड़ी सी असावधानी भी खतरनाक हो सकती है।माता का मंदिर बहुत सुंदर बन पड़ा है,जो बहुत विशाल है।पहले मंदिर एकदम छोटा-सा था।
भक्तों को माता के दर्शन सहजता से होते हैं। मूर्ति की फोटो खींचना वर्तमान में सुरक्षा कारणों से प्रतिबंधित है।माता के दर्शन पश्चात लौटते समय प्रवेश द्वार पर एक सूरदास माता के भजन गा रहा था... पहाड़ों वाली मैय्या तेरा अजब सजा दरबार।उनके गीत को सुनकर श्रद्धालुगण उनको सिक्के देकर पुण्य की पूंजी लूट रहे थे।उसको थोड़ी देर देखने के बाद पता चला कि वो लोगों के पदचाप सुनकर समझ जाता है कि लोग आ रहे हैं।तब वो भजन गाने लगता है।जैसे ही लोगों की आवाजाही बंद होती है,वो गीत गाना बंद कर देता था।मेरे साथ मेरा भांजा था।उसने बताया कि वो सूरदास पैसे देने पर फरमाइशी गीत भी गाता है।पिछली बार उससे नागिन धुन बजवाया था।लोग किसी की दीनता और अक्षमता का भी मजाक बनाने लगे हैं। भविष्य में मैंने उसको ऐसा करने के लिए मना किया।
पहाड़ी पर स्थानीय लोग प्रसाद, श्रृंगार सामग्री,खिलौने आदि बेचने का व्यवसाय करते हैं।उनसे चर्चा करने पर उन्होंने ने बताया कि इस साल की दोनों नवरात्रि पर होनेवाला व्यापार कोरोना महामारी की भेंट चढ़ गई।
पहाड़ी पर दर्शन के दौरान खरोरा से आये एक दिव्यांग दंपति से मुलाकात हुई।वे अपने दो बच्चों के साथ आए थे।उनको देखकर सुखद अनुभूति हुई। दोनों पति-पत्नी पोलियो ग्रस्त थे और बच्चे स्वस्थ थे।उनको देखकर लगा कि उनका परिवार सुखी था। शारीरिक अक्षमता किसी की खुशियों में बाधक नहीं बनती,उनको देखकर लगा। भगवान की लीला पर भी आश्चर्य हुआ।कहा जाता है कि जोड़ियां ऊपर से बनकर आती है।तो क्या दिव्यांग के लिए भगवान ने दिव्यांग जोड़ीदार बनाया है?
खल्लारी दर्शन के दौरान मुझे एक बात अच्छी लगी कि ना तो यहां पंडित दर्शन के दौरान छीना-झपटी करते हैं और ना ही व्यापारी पूजन सामग्री खरीदने के लिए मजबूर!!कभी अवसर मिले तो आइयेगा जरुर!
बोलो खल्लारी मातेश्वरी की जय!
बोलो वीर भीमसेन महराज की जय!!

सोमवार, 30 नवंबर 2020

माता चंपई दर्शन

सुरंग मार्ग
बेंदरा कछेरी


पहाड़ी से दृश्य

जंगली वनस्पति का सौंदर्य


 

माता चंपई और खल्लारी

छत्तीसगढ़ का कोना-कोना प्राकृतिक सौंदर्य से भरा पड़ा है।पग-पग पर कहानियां बिखरी पड़ी है।हम चाहे कितने भी आगे बढ़ जायें पर अतीत से हमारा नाता कभी नहीं टूट सकता।हर नई कहानी में पिछली कहानी का हिस्सा जरुर जुड़ा होता है।
कभी-कभी अनायास ही कहीं जाने का कार्यक्रम बन जाता है और वहां मेरे मतलब की चीजें मिल जाए तो फिर क्या कहने? घरेलू काम से आज जिला मुख्यालय महासमुंद से लगभग 14 किमी दूर स्थित मोंहदी ग्राम आने का कार्यक्रम बना तो माता चंपई के दर्शन लाभ का भी मौका मिला।
उंची पहाड़ी पर स्थित सुरंग में माता चंपई अपनी बहन माता खल्लारी के संग विराजमान हैं।सुरंग पूर्णतः प्राकृतिक है।सिर्फ चलने के लिए नीचे की ऊबड़-खाबड़ पथरीली जमीन पर सीमेंट का कार्य कराया गया है। चढ़ाई दुर्गम नहीं है।सुरंग तक पहुंचने के लिए पत्थर और सीमेंट से निर्मित पक्की सीढ़ी का निर्माण किया जा चुका है। आस-पास के चार गांव मोंहदी,तरपोंगी,अरंड और बेलर गांव के ग्रामीणों की माता चंपई पर अगाध श्रद्धा है।माता के नवरात्र पर्व पर कार्यक्रमों का संचालन इन्हीं गांवों के निवासियों के द्वारा किया जाता है। पहाड़ी पर ज्योति कक्ष का निर्माण कराया जा चुका है।
पहाड़ी के नीचे हनुमानजी और भैरवनाथ के छोटे-छोटे मंदिर हैं।वैसे हनुमानजी पहाड़ी पर तीन चार जगहों पर विराजित हैं।
माता के स्थापना के संबंध में ग्रामीणों के अनुसार जानकारी मिलती है कि माता चंपई ने गांव के बईगा को स्वप्न देकर अपनी पहाड़ी पर रहने की बात बताई थी।कुछ काल के पश्चात भीमखोज स्थित माता खल्लारी किसी बात पर नाराज़ होकर अपने मूल स्थान बेमचा पर जाने के लिए निकल पड़ीं तो माता चंपई ने उनको अपने साथ रहने के लिए मना लिया।बताया जाता है कि जब माता खल्लारी से निकली तो मार्ग में आने वाले बड़े बड़े पेड़ धराशाई हो गए थे।रास्ते भर तबाही के संकेत थे। लेकिन इस पहाड़ी के आगे से ऐसा कुछ नहीं हुआ तो माना गया कि माता खल्लारी अपनी बहन के साथ रहने लगी।तब से दोनों बहनों की साथ ही पूजा होती है। दोनों विग्रह एक स्थान पर साथ में विराजित हैं।जनमानस में कोई कहानी पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होती है,तो उसमें बदलाव संभाव्य है इसलिए माता के संबंध में प्रचलित कहानी अपुष्ट है।
हालांकि जिस पहाड़ी पर माता विराजित हैं वहां से खल्लारी की पहाड़ियों पर स्थित माता खल्लारी का मंदिर स्पष्ट दिखाई देता है।
इस पहाड़ी पर प्राकृतिक सौंदर्य की भरमार है। पहाड़ी से आसपास का दृश्य मनोरम दिखाई देता है। फिलहाल प्राकृतिक दृश्यों पर कृत्रिम बनावट नहीं हुई है।ये अच्छी बात है।
इसी पहाड़ी पर एक स्थान को बेंदरा कछेरी कहा जाता है।नाम मजेदार है।बताते हैं कि उस स्थान पर पहले बंदर हमेशा मौजूद रहते थे।चूंकि कछेरी का तात्पर्य कचहरी से है,हो सकता है कचहरी की भीड़ की तरह वहां उमड़ने वाली बंदरों की भीड़ के कारण बेंदरा कछेरी नाम पड़ा हो।
कुछ प्रशासनिक सहयोग मिले तो संभवतः इस स्थान को पर्यटन स्थल के रूप में बदला जा सकता है।बाकी बातें अगले पोस्ट में...तब तक राम..राम..

गुरुवार, 19 नवंबर 2020

मेरा गम कितना कम है...


 क्या आपको कभी लगा है कि दुनिया की तमाम परेशानियों को मै झेल रहा हूं।कभी महसूस किया है कि दुनिया में सबसे परेशान आदमी मैं हूं।मेरे अलावा पूरा संसार सुखी है।काश ऐसा होता तो मुझे खुशी मिलती या ऐसा नहीं होता तो सब बढ़िया होता। दुनिया जहान की सारी तकलीफें ईश्वर ने मेरे पल्ले बांध रखी है।

शायद आप सबने कभी ना कभी ये महसूस किया होगा या कर रहे होंगे। मैं भी कभी कभी ऐसा ही कुछ महसूस करता हूं।पर क्या ये सच है?क्या आप दुनिया के सबसे दुखी आदमी हैं?क्या सचमुच आपके साथ ईश्वर ने न्याय नहीं किया?

मेरा मानना है कि ये बिल्कुल भी सच नहीं है।हमारा दुख तब तक हमारे लिए बहुत बड़ा होता है जब तक हम अपने से बड़ी तकलीफ़ झेलने वाले के बारे में नहीं जानते या नहीं देखते हैं। जैसा ही हम अपने से भारी मुसीबत के मारों से मिलते हैं।हमारी तकलीफ हमें छोटी लगने लगती है।एक से एक बड़े बड़े मुसीबत के मारे अनगिनत लोग हमारे आस-पास ही मौजूद होते हैं।कभी कभी बात निकल आने पर ही हमें लोगों की परेशानियों का पता चलता है। नहीं तो हर आदमी अपनी दुखों की गठरी लेकर घूम रहा होता है।

ऐसा ही एक कहानी मैंने कहीं पढ़ा था।एक बार एक आदमी अपनी तकलीफों का दास्तां एक बाबाजी से कहते हैं।बाबाजी पहुंचे हुए संत थे। उन्होंने उस आदमी से कहा कि अपनी जितनी भी सारी तकलीफें हैं उन सबको लिखकर लाए और गठरी बांधकर कमरे में रख आए।और उस गठरी के बदले में सबसे कम वजन वाली गठरी लेकर वापस आ जाये।जितनी हल्की गठरी वो लाएगा वो उसका दुख उतना ही दूर कर देंगे।वह आदमी अपनी गठरी लेकर कमरे के अंदर गया तो उसका दिमाग चकरा गया।उस कमरे में एक से बढ़कर एक बड़ी बड़ी दुखों की गठरी रखी पड़ी थी।उसने अपने गठरी के मुकाबले छोटी गठरी का बहुत लंबे समय तक तलाश किया पर उसके गठरी से छोटा गठरी उस आदमी को नहीं मिला।थक हार कर वह अपनी ही गठरी लेकर कमरे से वापस आया।बाबाजी ने पूछा-कहो बच्चा!छोटी गठरी मिली?तो उस आदमी ने ना में सिर हिलाया।तब बाबाजी ने उस आदमी को समझाया-बच्चे!जिस कमरे से तुम आ रहे हो वह इस दुनिया का प्रतिबिंब है। तुम्हारी तरह हर आदमी को अपनी तकलीफों का बोझ ज्यादा महसूस होता है,लेकिन इसमें सच्चाई नहीं है।हर व्यक्ति को अपने हिस्से का दर्द और तकलीफ झेलना ही पड़ता है।यही संसार का नियम है।बाबाजी के वचनों को सुनकर आदमी को अपनी मूर्खता का एहसास हुआ और उसने ईश्वर को कोसना बंद कर दिया।

उस व्यक्ति की तरह हमारे पास भी अपनी-अपनी तकलीफों की गठरी है और हम भी अपनी गठरी को भारी समझने की भूल कर बैठे हैं। पिछले दिनों एक माताजी मिली थीं एक अपंग बच्चे को गोद में लिए।पूछने पर उसने बताया कि बच्चा जन्म से ही पैरालिसिस का शिकार है। नित्य क्रिया और भोजन के लिए अपनी मां पर आश्रित है।उसके पिता को दारू की लत लगी हुई है।बच्चे के इलाज के लिए ना तो उनके पास पैसे हैं और ना ही उनके पिताजी को जिम्मेदारी का एहसास।उस बच्ची का बाप नशे में धुत्त होकर पड़ा रहता है। बड़ी मुश्किल से उसकी पत्नी और वो रोजी मजूरी करके अपना गुजर-बसर कर रहे हैं।

एक और महिला है जो बड़ी निडरता से जीवन पथ पर तकलीफों को मात देकर सम्मानित जीवन जी रही है।उसके पति का देहांत दारू पीने के कारण बच्चे जब छोटे थे तभी हो गया।दो बच्चे थे एक सामान्य बच्चा था और एक पोलियो ग्रस्त। बड़ी मुश्किल से दोनों का लालन-पालन किया। बड़ा लड़का जब किशोरावस्था की दहलीज पर पहुंचा तब वो भी अपने दिवंगत पिता की राह पर चलने लगा और दारू पी पीकर बाली उमर में चल बसा।अब दोनों मां बेटे छोटे से होटल व्यवसाय से अपना जीवन यापन कर रहे हैं।

हमारे आसपास इतने जीजिविषा वाले लोग हैं जो ईश्वर को मानो चुनौती देते प्रतीत होते हैं कि आप तकलीफों का सैलाब भेजो हम अपनी इच्छा शक्ति की मजबूत चट्टानों से उसे रोक लेंगे।एक भाई साहब पैरों से विकलांग है।बहुत दिनों तक दुकानों पर काम भी किया।मगर आज अपने बलबूते पर खुद का मेडिकल स्टोर चला रहा है।एक आदमी का एक हाथ नही है,पर वह जंगल से लकड़ी लाकर बेचता है। एक बंदे ने एक पैर दुर्घटना में गंवा देने के बाद एक छोटा सा होटल खोला है और अपने परिवार को सम्मान की रोटी खिला रहा है।क्या हम इन लोगों से कुछ सीख सकते हैं?ये वे लोग हैं जिनकी कहानी हमको किताबों में नहीं मिलेगी।ये जीवनपथ पर संघर्षों से जूझते लोग हैं। हमें इनसे सीखने की जरूरत है।लडिए अपने दुखों से,दर्द से, तकलीफ से।अपने आपको साबित कीजिए,पलायन नहीं। फिलहाल इतना ही..

तो मित्रों,हारिए मत, दौड़िए लगातार,बिना हारे...बिना थके (फोटो सोशल मीडिया से साभार)



शनिवार, 7 नवंबर 2020

चंदैनी गोंदा....आधी सदी का सफर

 



चंदैनी गोंदा,एक छोटा सा खुशबूदार और सदाबहार पुष्प जो आमतौर गांवों में सहज रूप से कुएं के पास या बाड़ी में मिल जाया करती है।इसके छोटे-छोटे लाल पीले रंगत लिए फूल बड़ी मात्रा में छोटे-से पौधे मे खिलते हैं,जो सामान्यत: देव-पूजा में प्रयुक्त होते हैं।चंदैनी मतलब चांदनी।जिस प्रकार आकाश में एक साथ अनगिनत चांदनी दिखाई पड़ते हैं,उसी प्रकार चंदैनी गोंदा के नन्हें पौधे पर भी अनगिनत फूल खिलते हैं।

चंदैनी गोंदा का सौंदर्य देखते ही बनता है।नाम अनुरूप छत्तीसगढ़ का प्रतिष्ठित सदाबहार लोक सांस्कृतिक मंच है"चंदैनी-गोंदा"।दाऊ रामचंद्र देशमुख द्वारा रोपित और आदरणीय खुमान लाल साव जी के श्रम से सिंचित"चंदैनी-गोंदा"समय की मार से आज तक कुम्हलाया नहीं है।यह कार्यक्रम छत्तीसगढ़ में राजनीतिक और सांस्कृतिक जागरण का शंखनाद था।

मुझे याद है साल 2002 में हमारे निकटतम कस्बे छुरा में दशहरे के अवसर पर"चंदैनी-गोंदा"का कार्यक्रम आया था।तब मुझे इस संस्था के बारे में ना तो कोई जानकारी थी और ना ही मुझे लोकमंच के कार्यक्रम में विशेष रूचि थी।सोचा था कि रावण दहन के पश्चात एकाध घंटे कार्यक्रम देखके लौट आयेंगे। लगभग-लगभग रात के 10 बजे"चंदैनी-गोंदा" कार्यक्रम की प्रस्तुति की शुरुआत हुई। छत्तीसगढ़ लोक संस्कृति और देशभक्ति गीत की प्रस्तुति के बाद उन जाने पहचाने गीत की प्रस्तुति होने लगी जिन्हें मैं बचपन से रेडियो आदि पर सुनते आ रहा था।वापस घर लौटने का इरादा बदल गया और मैं कार्यक्रम देखने में रम गया। छत्तीसगढ़ रेजीमेंट और बटोरनलाल वाला प्रहसन देखकर तो एकदम जमके बैठ गया।पूरे रात-भर कार्यक्रम चला और कार्यक्रम के समापन के बाद भोर हुई तब घर लौटा।ऐसा आकर्षण था चंदैनी गोंदा का।इस लोकमंच के कार्यक्रम को देखकर छत्तीसगढ़ी गीत-संगीत का जादू मुझ पर इस कदर चढ़ा कि आज तक झूम रहा हूं।तब कार्यक्रम के कलाकारों के नाम से परिचित नहीं था।कुछ बीतने के बाद जब जानकारी बढ़ी तब ज्ञात हुआ कि हारमोनियम वादन करने वाले चंदैनी गोंदा के आधार स्तंभ खुमान साव जी थे और बटोरनलाल की भूमिका में प्रख्यात हास्य कलाकार शिवकुमार'दीपक' और उसके पीए की भूमिका में हेमलाल कौशल थे।अभी दो साल पहले ही मेरे गृहग्राम में भी"चंदैनी-गोंदा"का आयोजन हुआ था।तब भी पूरी रात जागकर कार्यक्रम देखा था।कुछ कलाकारों का बदलाव हुआ था पर कार्यक्रम का तेवर और खुमान जी का अंदाज नहीं बदला था। बीच-बीच में सिगरेट के कस लगाते रहते और हारमोनियम पर उनकी उंगलियों का जादू चलते रहता।उनका रचा संगीत अजर अमर हो गया है।मुझे इस मंच पर प्रस्तुत होनेवाली देशभक्ति गीत रोमांचित कर देती है।देशभक्तों की कुर्बानी और अंग्रेजों के अत्याचार का दृश्यांकन देखकर देह घुरघुराने लगता है।अजादी के परसाद नाटक में हास्य के साथ ही जोरदार संदेश भी मिलता है।बटोरन लाल जैसे नेताओं के कारण देश की दुर्गति और विषम परिस्थितियों के कारण उपजी युवाशक्ति का आक्रोश इस प्रस्तुति में देखने को मिलती है।

"चंदैनी-गोंदा"मनोरंजन मात्र के उद्देश्य से स्थापित एक लोकमंच नहीं था बल्कि मनोरंजन के साथ-साथ लोगों में जागरण का संदेश पहुंचाना भी था।"चंदैनी गोंदा" की सर्वप्रथम प्रस्तुति दाऊ रामचंद्र देशमुख के गृहग्राम बघेरा में 7 नवंबर सन् 1971 को हुई थी।इस लोक सांस्कृतिक मंच के कलाकारों के तलाश में उन्होंने कई कोस की यात्रा की थी।तब जाकर उन्हें एक से बढ़कर एक नगीने मिल पाए। अपने-अपने हुनर में माहिर कलाकारों की कलाकारी जब मंच पर अवतरित हुई तो लोग वाह-वाह कर उठे। छत्तीसगढ़ महतारी के वैभव को देखकर दर्शक मंत्रमुग्ध हो गए।चंदैनी गोंदा के गीत लोगों की जुबां पर आ गए।अल्प समय में ही चंदैनी गोंदा को अपार ख्याति मिली।भारत मां के रतन बेटा,धरती के अंगना मा,पता ले जा रे गाड़ी वाला,शहर डहर के जवइया जैसे अनेक गीतों को अपार ख्याति मिली।चंदैनी गोंदा के तकरीबन 22 गीतों की रिकार्डिंग आकाशवाणी रायपुर से हुई जिसका निरंतर प्रसारण आज भी हो रहा है।

दाऊ रामचंद्र देशमुख में बचपन से ही मंचीय कला के प्रति रूझान था।गांव में आयोजित होने वाली रामलीला देखकर लगभग 14-15 साल की उम्र में उन्होंने हमउम्र साथियों के साथ मिलकर खुद की लीला मंडली बना ली थी।सन् 1951 में उनके द्वारा "छत्तीसगढ़ देहाती कला विकास मंडल"की स्थापना की गई जो लगभग तीन वर्ष तक चला और विभिन्न प्रस्तुतियां हुई।

सत्तर के बाद का दशक पृथक् छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण की अकुलाहट का था। राजनीतिक उथल-पुथल का दौर भी था ये समय। सन् 1967 में दाऊजी के ससुर और लोकप्रिय नेता श्री खूबचंद बघेल ने "छत्तीसगढ़ भातृ संघ" का गठन किया और पृथक् राज्य निर्माण के संघर्ष को गति प्रदान किया।कला के माध्यम से लोगों को जगाने का दायित्व उन्होंने दाऊजी को सौंपा।

दाऊ रामचंद्र देशमुख छत्तीसगढ़ और छत्तीसगढ़ी की श्रेष्ठता को स्थापित करना चाहते थे।वे चाहते थे कि छत्तीसगढ़ी को महज आंचलिक भाषा समझकर उसका तिरस्कार ना हो। छत्तीसगढ़ की लोककला को सम्मान मिले।नाचा में हास्य के नाम पर फूहडता का समावेश होने लगा था।आम जन जीवन की व्यथा कथा को वे मंच पर पूरी शिद्दत के साथ प्रस्तुत करने को आतुर थे।दाऊजी अध्ययनशील व्यक्ति थे।बताया जाता है कि उनके पास लगभग 15000 से अधिक पुस्तकों का संग्रह था।वे छत्तीसगढ़ी गीत के नाम पर द्विअर्थी गीतों को नहीं परोसना चाहते थे इसलिए चुन-चुनकर छत्तीसगढ़ के साहित्य जगत के साहित्यिक रचनाओं को चंदैंनी गोंदा में प्रस्तुति के लिए चुना गया।दाऊजी की इस परंपरा का निर्वहन बाद में खुमान साव जी ने भी किया।उनका कहना था कि नारी के गाल,बाल और शारीरिक अंगों का वर्णन करना ही चलन बन गया है आजकल के रचनाकारों में।वे इसके बिलकुल विरोधी थे।उनका कहना था कि गीतों में छत्तीसगढ़ और छत्तीसगढ़ी संस्कृति की झलक मिलनी चाहिए।

"चंदैनी-गोंदा" में साहित्य स्थान पाता था।तभी तो पं.रविशंकर शुक्ल,पं.द्वारिका प्रसाद तिवारी"विप्र",संत पवन दीवान,मुकुंद कौशल,लक्ष्मण मस्तूरिया,भगवती सेन कोदूराम दलित जी के गीत चंदैनी गोंदा की शोभा बने और जन-जन में लोकप्रिय हुए। इसमें सर्वाधिक गीत लक्ष्मण मस्तुरिया के थे।

खुमान लाल साव जी चंदैनी गोंदा में आने से पहले अपने मौसेरे भाई और छत्तीसगढ़ी नाचा के प्रवर्तक दाऊ मंदराजी के रवेली साज के हारमोनियम वादक थे।कभी-कभी महसूस होता है कि दाऊ रामचंद्र देशमुख,खुमान साव और लक्ष्मण मस्तुरिया का अगर मेल ना हो पाता तो छत्तीसगढ़ इस कालजयी प्रस्तुति से वंचित हो जाता।

"चंदैनी-गोंदा"ने छत्तीसगढ़ी भाषा और छत्तीसगढ़ी रचनाकारों को प्रतिष्ठित किया।लगभग 99 कार्यक्रम की प्रस्तुति के बाद दाऊजी ने "चंदैनी-गोंदा"के संचालन का भार आदरणीय खुमान साव जी को सौंप दिया, जिन्हें वे ताउम्र संचालित करते रहे। छत्तीसगढ़ पाठ्य पुस्तक निगम द्वारा छत्तीसगढ़ के विशिष्ट व्यक्तियों के ऊपर चित्र कथा की किताबें बच्चों के पढ़ने के लिए प्रकाशित किया गया है उसमें एक दाऊ रामचंद्र देशमुख के ऊपर भी आधारित है। उसमें बताया गया है कि दाऊजी असाधारण चिंतक, वैज्ञानिक पद्धति से कृषि करने वाले कृषक, आयुर्वेद के अच्छे जानकार और कला मर्मज्ञ थे।लकवा की दवाई के लिए दाऊजी का नाम और बघेरा ग्राम प्रसिद्ध था।उनकी जीवनसंगिनी "चंदैनी-गोंदा"के कलाकारों को मातृतुल्य स्नेह दिया करती थी।

"चंदैनी गोंदा"एक ऐसा लोक सांस्कृतिक संस्था थी जिसे लोकसांस्कृतिक कलामंच  का वट वृक्ष कहा जाय तो अतिश्योक्ति नहीं होनी चाहिए।अभी वर्तमान में छत्तीसगढ़ के जो प्रसिद्ध लोककला मंच चल रहे हैं उनमें से अधिकांश के संचालक आदरणीय खुमानजी के शिष्य-शिष्याएं हैं।कविता वासनिक,अनुराग ठाकुर,दुष्यंत हरमुख,केदार यादव,लक्ष्मण मस्तूरिहा,महादेव हिरवानी जैसे अनेक नगीने इसी मंच की देन है।

अभी पिछले दिनों ही इस कलामंच के विशिष्ट कलाकार शिवकुमार'दीपक'जी को राज्य के प्रतिष्ठित अलंकरण "दाऊ मंदरा जी" सम्मान से अलंकृत किया गया है।दुखद बात है कि इस मंच के दो प्रमुख आधार स्तंभ श्री लक्ष्मण मस्तुरिया सन् 2018 में और खुमान लाल साव जी पिछले वर्ष सन् 2019 में हमसे बिछड़ गए।

दाऊजी रामचंद्र देशमुख के"चंदैनी-गोंदा" सफर इस वर्ष आधी सदी को पूरा कर रहा है। प्रथम प्रस्तुति के बाद आज इस संस्था को पूरे 50 साल पूरे हो गए हैं।किसी भी लोक सांस्कृतिक संस्था का इतना लंबा सफर शायद ही कहीं और मिलेगा।"चंदैनी-गोंदा"के ऊपर कार्यक्रम के सर्वप्रथम उद्घोषक और दाऊ जी के भतीजे प्रोफेसर सुरेश देशमुख जी की किताब आने वाली है।जिसका कलाप्रेमियों को बेसब्री से इंतजार रहेगा।दाऊ रामचंद्र देशमुख जी के दौर वाले चंदैनी गोंदा को देखने का अवसर तो नहीं मिला पर मैं खुमान बबा के दौर के "चंदैनी गोंदा"को देखना अपनी किस्मत समझता हूं।"चंदैनी-गोंदा"के सभी ब्रम्हलीन और वर्तमान कला साधकों को नमन करते हुए इस अद्भुत लोकसांस्कृतिक मंच के 50 साल पूरे होने की समूचे छत्तीसगढ़ वासियों को बधाई।

एक बात और ये सुखद संयोग है कि आज बतौर ब्लागर ये मेरा 50 वां पोस्ट है। मैंने भी ब्लाग लेखन का अर्द्धशतक पूर्ण कर लिया है।मेरे एक यूट्यूबर मित्र दिलीप भाई ने बताया है कि कल यानि 8 नवंबर को दुर्ग में"चंदैनी-गोंदा"के पचास साल पूरे होने पर कार्यक्रम का आयोजन किया गया है।

बुधवार, 4 नवंबर 2020

चित्रों में छत्तीसगढ़ दर्शन

















 किस्मत,नसीब,तकदीर,भाग्य पता नहीं सचमुच होता भी है कि नहीं ये मुझे समझ नहीं आता।क्योंकि कुछ लोगों को कड़ी मेहनत करके भी कुछ नहीं मिलता और कुछ लोगों को बैठे बिठाए ही सारे सुख मिल जाते हैं।कर्म के हिसाब से सबको फल मिलता है,ऐसा सुनने में आता है।तो क्या सारे धनकुबेरों ने अच्छे कर्म किए हैं?या दुनिया में गरीबों की जो बहुत बड़ी आबादी अभावग्रस्त जीवन जी रहे हैं उन्होंने खराब कर्म किए हैं। पता नहीं उनको किस कर्म का फल भोगना पड़ रहा है।ये गुत्थी मेरे समझ के बाहर है!!

परिस्थितियों के आगे इंसान मजबूर होता है। बड़े से बड़े प्रतिभावान की प्रतिभा दब जाया करती है। जरूरतमंदों को समय पर ना तो मार्गदर्शन मिल पाता है और ना किसी किस्म की कोई मदद।फलत:अनेक प्रतिभाएं दम तोड़ देती है। हालांकि सरकारी तंत्र बड़े बड़े दावे जरूर करती है पर वास्तविक हकदार तक प्राय:मदद पहुंचने में देर हो जाती है।

हीरा कहीं भी रहे पर अपनी चमक जरूर बिखेरता है,ये शत् प्रतिशत सत्य है।पर हीरे की परख करने वाले और तराशकर गढ़ने वाले जौहरी का होना भी जरूरी है हीरे को मूल्यवान बनाने के लिए।

ऐसा ही एक कीमती हीरा है श्री धनेश साहू। तिल्दा-नेवरा में पान की छोटी सी दुकान चलाकर अपने परिवार का भरण-पोषण करते हैं।घर और दुकान के बाद जो समय बचता है उसमें चित्रकारी का अपना शौक पूरा करते हैं।परिस्थिति वश अधिक पढ़ने का उनको अवसर नहीं मिल पाया और वे अपने सपनों को मनमुताबिक आकार नहीं दे पाये।मगर उनकी कल्पनाओं में छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति और ग्राम्य जीवन बसती है,जो उनके हाथों के जादू से कागज पर उतर आता है।उनके बनाए चित्रों मे मजदूर की पीड़ा,छत्तीसगढ़ की संस्कृति, तीज-त्योहार और ग्राम्य जीवन का सुंदर चित्रण देखने को मिलता है। पिछले दिनों राज्य स्थापना दिवस पर उनके बनाए चित्रों की प्रदर्शनी बालोद में लगी थी।जिसे कलाप्रेमियों ने खूब सराहा था।साहूजी द्वारा बनाया छत्तीसगढ़ महतारी का चित्र वाट्सएप के माध्यम से खूब प्रसिद्धि पा रहा है। वाटर कलर से साधारण कागज पर बनाई उनकी पेंटिंग मंत्रमुग्ध कर देती है।रंगोली के भी बढ़िया कलाकार हैं।उनको एक मंच की जरूरत है, जहां उनकी कला को अवसर मिले।सरल सहज स्वभाव के धनी धनेश साहू जी की कृतियों को आप उनके फेसबुक पेज पर जाकर देख सकते हैंhttps://www.facebook.com/100022997314063/posts/806752160101354/?sfnsn=wiwspwa


मंगलवार, 3 नवंबर 2020

मोर भुजा में लाखन लोग पलै,मैं घर हारे जगजीता अंव


 लक्ष्मण मस्तूरिया छत्तीसगढ़ का जाना-पहचाना नाम है।जो लोग उनको चेहरे से नहीं पहचानते वे उन्हें उनके गाए गीतों और कविता के माध्यम से पहचानते हैं। आकाशवाणी से प्रसारित गीतों से वे छत्तीसगढ़ के गांव गांव में लोकप्रिय हो गए। संभवतः उनके जैसी लोकप्रियता किसी और गायक कवि को नहीं मिला है।

बिलासपुर के मस्तूरी में जन्म लेकर रायपुर आने तक का उनका सफर बहुत संघर्षपूर्ण रहा है।उनके समकालीन साहित्यकार रवि श्रीवास्तव जी बताते हैं कि लक्ष्मण मस्तूरिहा ने राजिम में पवन दीवान और कृष्णारंजन जी का सान्निध्य प्राप्त किया था। उन्होंने राजिम में बहुत समय बिताया था और नवापारा में जाकर टेलरिंग का काम भी किया करते थे।इस दौरान उनका काव्य सृजन चलता रहा और वे आकाशवाणी से प्रसारित होने लगे थे।

आकाशवाणी से प्रसारित किसी गीत को सुनकर बघेरा वाले दाऊ रामचंद्र देशमुख उनकी आवाज और गीत से इतने प्रभावित हुए कि वे उनको अपनी लोक सांस्कृतिक प्रस्तुति"चंदैनी-गोंदा" में काम करने के लिए मनाने के लिए राजिम आ गए।

"चंदैनी-गोंदा" से जुड़ने के बाद उनके द्वारा लिखित और गाए गीतों को अपार ख्याति मिली।"चंदैनी गोंदा" के अधिकांश गीत उनकी लेखनी का ही सृजन है,जो आदरणीय खुमान  साव जी का संगीत पाकर कालजयी बन गये।कविता हिरकने,अनुराग ठाकुर,साधना यादव,महादेव हिरवानी जैसे अनेक कलाकारों को उनके गीतों से प्रसिद्धि मिली।मस्तूरिया जी के लिखे गीतों की फेहरिस्त बहुत लंबी है जिनमें से धरती मैय्या जय होवय तोर,मन डोले रे माघ फागुनवा,वा रे मोर पडकी मैना,मोर संग चलव रे,आओ मन भजो गणपति महाराज,बखरी के तुमानार,तोर खोपा मा गजरा,पता ले जा गाडीवाला,चौरा मा गोंदा,धनी बिना जग लागे सुन्ना,मंगनी मा मांगे,पुन्नी के चंदा,भारत माता के रतन बेटा,नाच नचनी झूमा झूम के,मोर खेती खार रूनझुन जैसे गीत प्रमुख हैं।आकाशवाणी श्रोताओं के बीच लक्ष्मण मस्तुरिया जी के गीतों की मांग आज भी जस की तस बनी हुई है। लक्ष्मण मस्तूरिया जी ने पं सुंदरलाल शर्मा लिखित"छत्तीसगढ़ी दानलीला" को भी श्रीमती छाया चंद्राकर और सुश्री तीजन पटेल के सहस्वर के साथ अपनी आवाज दिया है।उनकी कृति मैं छत्तीसगढ़ के माटी अंव को खुमान साव जी के मोहक संगीत के संग श्रीमती कविता वासनिक, महादेव हिरवानी और स्वयं मस्तूरिहा जी ने स्वर दिया है।ये सब यूट्यूब पर उपलब्ध है और इसका संगीत तथा गायन मंत्रमुग्ध कर देता है।

सत्तर के बाद के दशकों में जब पृथक छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण की मांग जोर पकड़ने लगी तो आम जनमानस को इस आंदोलन से जोड़ने का काम लक्ष्मण मस्तूरिहा के गीतों ने किया। अभावग्रस्त, शोषित,सहज और सरल छत्तीसगढ़ के आम मजदूर किसान के मनोभावों को मस्तूरिहा जी के गीतों ने आवाज दिया। इसलिए उनको जनकवि भी कहा जाता है।

साल 1974 में छत्तीसगढ़ के मशहूर शायर मुकीम भारती के संग मस्तुरिया जी को गणतंत्र दिवस के अवसर पर दिल्ली के लालकिले से काव्य पाठ का मौका मिला जहां उन्होंने अपनी कविता से छत्तीसगढ़ को गौरवान्वित किया।उन्होंने बहुत सारे गीत लिखे हैं और उनकी पुस्तक रूप में प्रकाशित-प्रसारित कृतियों में हमूं बेटा भुईंया के,गंवई-गंगा,चंदैनी-गोंदा, छत्तीसगढ़ के माटी,सोनाखान के आगी,घुनही बंसुरिया और मोर संग चलव प्रमुख है।

मस्तुरिया जी की प्रसिद्ध कविता मैं छत्तीसगढ़ के माटी अंव में आप संपूर्ण छत्तीसगढ़ का दर्शन सहज रूप से कर सकते हैं।इसका आडियो संस्करण बन चुका है और अच्छी बात ये है कि उनकी ये मशहूर रचना छत्तीसगढ़  में"छंद के छ" कक्षा के संस्थापक और साहित्यकार जनकवि स्व.श्री कोदूराम'दलित' जी के सुपुत्र श्री अरूण निगम जी के यूट्यूब चैनल पर उपलब्ध है।मस्तूरिहा जी की रचना को आदरणीय खुमान साव जी के संगीत में पिरोकर सर्वसुलभ बनाने में निगम जी का प्रयास स्तुत्य है।

 मस्तूरिहा जी छत्तीसगढ़ के प्रसिद्ध गायक,गीतकार और कवि हैं। वर्ष 1988 से राजकुमार कालेज में प्रोफेसर के रूप में लगातार कार्यरत रहे। सेवानिवृत्त होने के बाद उन्होंने"लोकसुर"नामक पत्रिका का संपादन भी किया था।पत्रिका उच्च क्वालिटी की थी पर किन्हीं कारणवश अधिक अंक नहीं निकल पाए।वर्ष 2014 में राजनीति में किस्मत आजमाने निकले और नवगठित आम आदमी(आप) पार्टी के टिकट पर उन्होंने महासमुंद लोकसभा सीट से सांसद पद का चुनाव लडा।उस समय महासमुंद सीट पर पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी सहित 11 चंदूलाल साहू नाम के प्रत्याशी चुनाव मैदान में थे,जिसके कारण यह सीट काफी चर्चित रहा। यहां तक कि अमिताभ बच्चन द्वारा प्रस्तुत मशहूर क्वीज शो इस केबीसी में इस पर प्रश्न भी पूछा गया था।इस चुनाव में उनको आशातीत सफलता नहीं मिली।

आडियो विडियो के दौर में उनके गीतों का एल्बम भी आया और वे पहले की तरह ही सराहे गए।राज्य गठन के दौरान आए सुपरहिट छत्तीसगढ़ी फिल्म"मोर छंईहा भुंईया" में लिखे उनके गीत बहुत लोकप्रिय हुए।इसके अलावा अन्य फिल्मों में भी गीत लेखन किया। उनके प्रसिद्ध गीत मोर संग चलव को बालीवुड के गायक सुरेश वाडेकर जी ने स्वर दिया था।

उनको अनेकों पुरस्कार और सम्मान प्राप्त हो चुके हैं।कवि सम्मेलन के सितारा कवि थे। लोग उनकी रचना सुनने के लिए प्रतीक्षा करते थे।उनका गीत और कविता लेखन चलता ही रहता यदि अकस्मात 3 नवंबर 2018 को उनका देहावसान ना होता। छत्तीसगढ़ महतारी का ये लाडला बेटा उसी की गोद में चिरनिद्रा में लीन हो गया।उनके निधन पश्चात उनके नाम पर राज्य पुरस्कार स्थापित करने की मांग साहित्यकार बिरादरी की ओर से उठ रही है।जिन लोगों को राजनीतिक कलाकारी नहीं आती प्राय:वे उपेक्षित किए जाते हैं। दुर्भाग्य से अपेक्षाकृत कम योग्य लोगों को प्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है पर मस्तूरिहा जी को पद्म पुरस्कार ना मिल पाना खलता है। उनके लेखनी को प्रणाम करते हुए मस्तूरिहा जी को नमन जो पीड़ितों और शोषितों की आवाज बनकर न्याय प्राप्त करने की आवाज बुलंद करते थे।माटी सोनाखान के काव्यकृति की पंक्तियां देखिए....

सरन परे भिखमंगा आइन

छिन भर म होगिन धनवान

तपसी आइन इहि माटी म

मया करिन बनगिन भगवान


इहि माटी के गुन आगर हे

जेखर गली गली परमान

सतवादी हें लांघन भूखन

मंजा करत बइठे बइमान


जेहि पतरी म खाइन बइरी

उहि पतरी म छेद करिन

जेहि म जीव लुकाइन

उहि घर मुडि़यामेंट करिन


राजा अउ परजा के मंझ म

बड चतुरा बयपारी यार

नफा कमावै मजा उडावै

काम करै बइमानी सार

सोमवार, 2 नवंबर 2020

बटोरनलाल की कलायात्रा

 


आज का समाचार पत्र देखा तो पता चला कि अंततः राज्य निर्माण के बीसवें वर्ष में हमारे वयोवृद्ध कलाकार श्री शिवकुमार'दीपक' को लोककला में उनके योगदान के लिए राज्य अलंकरण"दाऊ मंदराजी सम्मान"से अलंकृत किया गया है।इस पर पोस्ट लिखने का विचार मन में चल ही रहा था कि ललित भाई का वाट्सएप मैसेज इस विषय पर लिखने के लिए आ गया।"दीपक" जी से मेरी प्रत्यक्ष भेंट तो नहीं है पर मोर मितान चैनल के दिलीप भाई से उनकी बातचीत और उनसे संबंधित मेरी अल्प जानकारी के आधार पर ये पोस्ट लिख रहा हूं।

राज्य शासन द्वारा दीपक जी को अलंकृत किया जाना स्वागतेय है पर मुझे लगता है कि उनको ये पुरस्कार मिलने में थोड़ा विलंब हो गया,वरन वे पहले ही इसके अधिकारी थे।खैर,देर आए दुरुस्त आए।सही व्यक्ति को सही सम्मान मिला।

इस पुरस्कार के बाद उनको पद्म पुरस्कार भी मिल जाए तो श्रेयस्कर होगा। हालांकि उनसे आयु में कम और कला क्षेत्र में कम अनुभवी लोगों को पद्मश्री जैसे प्रतिष्ठित पुरस्कार से नवाजा जा चुका है।

दुर्ग जिले के पोटिया ग्राम में जन्मे शिवकुमार"दीपक"जी की बचपन से ही अभिनय में रूचि थी।बालपन में अपने साथियों के संग किसी के सूने मकान या बियारा(खलिहान) में घर की साड़ियां आदि के कपड़े,गेरू आदि से मेकअप और सिगरेट के डिब्बे की चमकीली पन्नियों का मुकुट बनाकर राम लीला खेला करते थे।

बचपन से जारी अभिनय का उनका ये शौक कालेज की पढ़ाई के दौरान भी चलता रहा और उनको एक बार कालेज की ओर से युवा महोत्सव नागपुर में अभिनय दिखाने का अवसर प्राप्त हुआ। कार्यक्रम में पं.जवाहर लाल नेहरू अतिथि थे। उन्होंने शिवकुमार का अभिनय देखा और उसको सदैव दीपक की भांति उजाला फैलाने का आशीर्वाद दिया।बस!इसी आशीर्वचन को शिवकुमार ने अपने नाम से जोड़ लिया और बन गए हमारे शिवकुमार "दीपक"।

उनकी कला यात्रा अद्भुत है।वे लोक सांस्कृतिक मंच और फिल्मों में समान अधिकार के साथ अभिनय करते हैं।सन् 1963 के आसपास जब मनुनायक जी ने छत्तीसगढ़ी भाषा की पहली फिल्म "कहि देबे संदेश"का निर्माण किया तो इस फिल्म में शिवकुमार"दीपक" ने रसिकराज नाम से फिल्म में अभिनय किया। जब छत्तीसगढ़ी फिल्म का एक लंबे दौर के विराम के बाद पुनः निर्माण प्रारंभ हुआ तो पृथक छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के बाद प्रदर्शित पहली छत्तीसगढ़ी" मोर छंइहा भुईंया" में भी अभिनय किया।ये अपने आप में एक अनूठी बात है। तत्पश्चात प्रेम चंद्राकर के फिल्मों में स्व.कमलनारायण सिन्हा के साथ इनकी आनस्क्रीन जोड़ी "कचरा-बोदरा" के रूप में छत्तीसगढ़ के गांव गांव में प्रसिद्ध हो गया।महिला किरदार को हूबहू अभिनीत करने में उनका कोई मुकाबला नहीं है।ग्रामीण महिला के लहजे की बारिकियां वे इस कुशलता से अभिनीत करते हैं कि पहले-पहल देखने वाला अवश्य ही भ्रमित हो जायेगा कि कलाकार वास्तव में पुरुष है कि नारी।हास्य भूमिका निभाने में वे पारंगत है।

"दीपक"जी ने छत्तीसगढ़ी सहित मालवी,भोजपुरी,हिंदी और अफगानी फिल्मों में भी काम किया है।'सुहागन' व 'हल और बंदूक' उनके द्वारा अभिनीत हिंदी फिल्म है, जिनमें उनके साथ रजा मुराद,अरूण गोविल और परीक्षित साहनी जैसे कलाकारों ने काम किया है।

सन् 1971 में दाऊ रामचंद्र देशमुख जी ने छत्तीसगढ़ी लोक सांस्कृतिक मंच"चंदैनी गोंदा"का गठन किया। जिसमें अपने-अपने फन में माहिर कलारत्नों को चुना गया था।उस मंच पर भी शिवकुमार"दीपक"जी ने अपने अभिनय का जादू चलाया।दाऊ जी ने "चंदैनी गोंदा" के कुल 99 प्रदर्शन के बाद उसका बागडोर श्री खुमानलाल साव जी के हाथ में सौंप दिया।बीच में "दीपक" जी इस मंच से कुछ दिनों तक गायब रहे।फिर खुमानलाल साव जी ने उनको पुनः "चंदैनी-गोंदा" से जोड़ा जिसमें उनकी अभिनय यात्रा चलती रही।साल 2018 में अंतिम बार मैने उनको चंदैनी गोंदा के मंच पर बटोरन लाल के रूप में देखा था।जिस तरह से बटोरनलाल के चरित्र को वे मंच पर जीवंत करते हैं,शायद दूसरा कलाकार ना कर पाए।आम जन मानस की पीड़ा को वे अपने व्यंग्य के माध्यम से व्यक्त करते हैं।एक बार बीस सूत्री प्रहसन में उन्होंने तत्कालीन सरकार ऊपर तीखा व्यंग्य कर दिया था तो उनके ऊपर जांच बिठा दी गई थी।कालेज के दिनों में गांधीजी के देशसेवा करने के आह्वान पर वे अपने साथियों के साथ दुर्ग कचहरी में लगे ब्रिटिश झंडा को आग लगाने का असफल प्रयास करते पकड़े गए थे, तब उस समय के स्वतंत्रता सेनानियों ने उनको छुडाया था। डॉ खूबचंद बघेल द्वारा लिखित नाटक"जनरैल सिंह"के मंचीय संस्करण छत्तीसगढ़ रेजीमेंट प्रहसन में उनका विशुद्ध छत्तीसगढ़ी संवाद लोट-पोट कर देता है। छत्तीसगढ़ की विशिष्टता का पक्ष रखते हुए भारतीय सेना में अन्य रेजीमेंट की तरह छत्तीसगढ़ रेजीमेंट की मांग संदेश परक हास्य प्रस्तुति है।  दाऊ रामचंद्र देशमुख,श्री खुमान साव और लक्ष्मण मस्तुरिया की तरह बटोरनलाल अर्थात "दीपक जी" भी चंदैनी गोंदा की पहचान है।वैसे उनके पुत्र शैलेष साव भी अपने पिताजी के नक्शे कदम पर चलकर अभिनय में अपना जौहर दिखा रहे हैं।भूपेंद्र साहू कृत लोक सांस्कृतिक मंच"रंग-सरोवर"के साथ ही विभिन्न छत्तीसगढ़ी फिल्मों में अपनी कला का प्रदर्शन कर रहे हैं।

बढती उम्र और शारीरिक असमर्थता ने उनको अब मंच से दूर कर दिया है पर उनके भीतर का कलाकार थका नहीं है। 88 साल की उम्र में भी कलाकारी के लिए तत्पर जान पड़ते हैं।प्रख्यात लेखक श्री पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी के भतीजे रमाकांत बख्शी को अपना गुरु मानने वाले शिवकुमार"दीपक"जी शतायु हों।ऐसी कामना है...

रविवार, 1 नवंबर 2020

जय हो जय हो छत्तीसगढ़ मइया




       पृथक् छत्तीसगढ़ राज्य का सपना हमारे पुरखों ने देखा था और उस सुनहरे स्वप्न को हकीकत का अमलीजामा पहनाने के लिए संघर्ष और आंदोलन का एक लंबा दौर चला।पं.सुंदरलाल छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के प्रथम स्वप्नदृष्टा थे तत्पश्चात डॉ खूबचंद बघेल,संत पवन दीवान, ठाकुर रामकृष्ण सिंह और श्री चंदूलाल चंद्राकर जैसे अनेकों माटी पुत्रों ने छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण का मार्ग प्रशस्त किया।वर्ष 1999 के लोकसभा चुनाव में अटल जी की रायपुर में सभा हुई तो उन्होंने छत्तीसगढ़ की जनता से 11 लोकसभा सीट में अपने प्रत्याशियों को जिताने का आग्रह किया और चुनाव जीतने के बाद पृथक् छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण का आश्वासन दिया। चुनाव के बाद परिणाम आए। अपेक्षानुरूप अटल जी को सीटें नहीं मिली फिर भी उन्होंने अपना वादा निभाया और 1 नवंबर सन् 2000 से हमारा छत्तीसगढ़ राज्य अस्तित्व में आया।स्थापना के पश्चात छत्तीसगढ़ राज्य सफलता के नित नए सोपान तय करता रहा और आज हम बीसवीं वर्षगांठ मना रहे हैं। 

छत्तीसगढ़ की शस्य श्यामला धरती रत्नगर्भा है।एक से बढ़कर एक रत्न छत्तीसगढ़ महतारी की कोरा में जन्म लिए हैं।जिन्होने छत्तीसगढ़ के वैभव को देश-विदेश में फैलाया। दक्षिण कौशल,महाकोसल,चेदिसगढ जैसे नामों से वर्णित इस धरा की बात ही निराली है।लोकगीत,सरल-सहज लोकजीवन और वन प्रांतर छत्तीसगढ़ के गौरव में चार चांद लगाते हैं, और छत्तीसगढ़ के वैभव का यशगान करती है छत्तीसगढ़ के प्रख्यात भाषाविद्, साहित्यकार,उद्घोषक और कुशल वक्ता डॉ नरेन्द्र देव वर्मा की लेखनी से सृजित गीत अरपा पैरी के धार......

छत्तीसगढ़ महतारी का वर्णन करती इस गीत की सर्वप्रथम प्रस्तुति कला मर्मज्ञ दाऊ महासिंह चंद्राकर द्वारा गठित सांस्कृतिक लोकमंच"सोनहा बिहान" में हुई।सबसे बड़ी बात ये थी कि इस गीत की स्वरलिपि भी उन्हीं के द्वारा रची गई थी,जो आज भी थोड़े बहुत परिवर्तन के साथ अनेक गायक गायिकाओं के कंठ से मुखरित होता है।इस गीत की मधुरता ने लोगों को सम्मोहित कर दिया है।

एक साक्षात्कार में सोनहा बिहान के गायक रहे भीखम धर्माकर जी ने बताया है कि इस गीत के लिए दाऊ महासिंह चंद्राकर,केदार यादव सहित बहुत से कलाकारों ने खूब मेहनत किया था,और उनकी मेहनत रंग भी लाई और गीत को अपार ख्याति मिली।बताया जाता है कि इस गीत के लिए पूरे सप्ताह भर तक तैयारी चली थी।सोनहा बिहान की सर्वप्रथम प्रस्तुति ओटेबंद ग्राम में हुई जहां 14-15 वर्ष की छोटी आयु में ममता चंद्राकर ने इस गीत को अपना स्वर दिया था।ये सन् 1976 की बात थी।कुछ समय के बाद इस गीत का प्रसारण आकाशवाणी से हुआ और ये गीत छत्तीसगढ़ के जन-जन की जुबां पर चढ़ गया।इस गीत की शब्द रचना और संगीत ने समूचे छत्तीसगढ़ को मंत्रमुग्ध कर दिया।

अभी तक इस गीत को स्व.लक्ष्मण मस्तूरिया,पद्मश्री ममता चंद्राकर, नन्ही गायिका आरू साहू सहित छत्तीसगढ़ की अनेक छोटे-बड़े गायक गायिकाएं अपना स्वर दे चुके हैं। छत्तीसगढ़ के प्रतिष्ठित लोक सांस्कृतिक मंच यथा चिन्हारी,लोकरंग अर्जुंदा और रंग सरोवर में इस गीत की प्रस्तुति जरुर होती है।

गीत के रचयिता साहित्यकार एवं भाषाविद डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा का जन्म सेवाग्राम वर्धा में 4 नंवबर 1939 को हुआ था। 8 सितंबर 1979 को उनका रायपुर में निधन हुआ। डॉ. नरेंद्र देव वर्मा, वस्तुतः छत्तीसगढ़ी भाषा-अस्मिता की पहचान बनाने वाले गंभीर कवि थे।उनके बड़े भाई स्वामी आत्मानंदजी का प्रभाव उनके जीवन पर बहुत अधिक पड़ा था।स्वामी आत्मानंद छत्तीसगढ़ में आध्यात्मिक और शैक्षिक, सामाजिक जागरण के अग्रदूत रहे हैं।सुदूर बस्तर के नारायणपुर में शिक्षा केन्द्र और वर्तमान राजधानी रायपुर में उनके द्वारा विवेकानंद आश्रम स्थापित किया गया है। उन्होंने अभावग्रस्त लोगों की सेवा में अपना सब कुछ अर्पित कर दिया था। स्वाभाविक रूप से ऐसे महामना का अनुज भी साधारण नहीं हो सकता था। उनमें भी विद्वता कूट कूटकर भरी थी।

नरेन्द्र देव वर्मा जी ने छत्तीसगढ़ी भाषा व साहित्य का उद्भव विकास विषय में रविशंकर विश्वविद्यालय से पी.एच.डी की उपाधि प्राप्त किया था और छत्तीसगढ़ी भाषा व साहित्य के विकास और संवर्धन के लिए उत्कृष्ट कार्य करते रहे। उनकी एक प्रसिद्ध कृति थी-सुबह की तलाश नामक उपन्यास। हालांकि ये कृति हिंदी में थी पर इसी कृति का मंचीय स्वरूप था सोनहा बिहान।इस मंच के मूल संकल्पनाकार होने के साथ ही वे मंच पर उद्घोषक का दायित्व भी निभाते थे।

 डॉ नरेन्द्र देव वर्मा जी द्वारा लिखित अरपा पैरी के धार....गीत को राज्य गीत का दर्जा दिलाने के लिए छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ साहित्यकार डॉ परदेशी राम वर्मा समेत अनेक साहित्यकार बहुत सालों से प्रयासरत थे। अंततः उनका प्रयास सफल हुआ और इस गीत को पिछले वर्ष राज्योत्सव के अवसर पर छत्तीसगढ़ शासन द्वारा राज्यगीत घोषित किया गया।ये भी एक सुखद संयोग है कि डॉ नरेन्द्र देव वर्मा जी के इस कालजयी गीत को राज्यगीत के रूप में प्रतिष्ठित करने का गौरव उनके दामाद और वर्तमान मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल जी को मिला।शासन द्वारा कुछ समय के बाद ही राज्यगीत को स्कूलों में प्रार्थना के समय गाने का आदेश जारी किया गया जो विद्यालयों में निरंतर जारी है।राष्ट्रीय गीत, राष्ट्र गान और राज्य गीत को गाने का क्षण गौरवशाली होता है। विभिन्न सरकारी समारोह में भी इस गीत को गाना अनिवार्य किया गया है।

ये गीत छत्तीसगढ़ की पहचान बनकर छत्तीसगढ़ महतारी के वैभव को चतुर्दिक फैला रहा है।वैसे इस गीत के अनेक संस्करण यूट्यूब पर मौजूद है। जिसमें से श्रीमती ममता चंद्राकर के स्वर में ये है   https://youtu.be/VSZnPtFvJ-o



अरपा पैरी के धार, महानदी हे अपार

इँदिरावती हा पखारय तोर पईयां

महूं पांवे परंव तोर भुँइया

जय हो जय हो छत्तीसगढ़ मईया


सोहय बिंदिया सहीं, घाट डोंगरी पहार

चंदा सुरूज बनय तोर नैना


सोनहा धाने के अंग, लुगरा हरियर हे रंग

तोर बोली हावय सुग्घर मैना

अंचरा तोर डोलावय पुरवईया

महूं पांवे परंव तोर भुँइया

जय हो जय हो छत्तीसगढ़ मईया


रयगढ़ हावय सुग्घर, तोरे मउरे मुकुट

सरगुजा अउ बिलासपुर हे बइहां

रयपुर कनिहा सही घाते सुग्घर फबय

दुरूग बस्तर सोहय पैजनियाँ

नांदगांव नवा करधनिया

महूं पांवे परंव तोर भुँइया

जय हो जय हो छत्तीसगढ़ मईया।।


बोलो छत्तीसगढ़ महतारी की जय!

छत्तीसगढ़ महतारी का चित्र तिल्दा-नेवरा निवासी धनेश साहू जी ने बनाया है।अच्छे कलाकार हैं।आप उनके फेसबुक पेज पर जाकर उनके मनमोहक चित्रों में छत्तीसगढ़ की झलक देख सकते हैं।https://www.facebook.com/100022997314063/posts/806752160101354/?sfnsn=wiwspwa

 आप सभी को राज्य स्थापना दिवस की बधाई। गाड़ा गाड़ा जोहार!!!

सोमवार, 26 अक्टूबर 2020

तिरिया जनम जी के काल....

 



आज दशहरे का पावन पर्व है।ये पर्व प्रतीक है अच्छाई की बुराई पर जीत का,सत्य की असत्य पर विजय का।सवेरे से मोबाइल में टेंहर्रा (नीलकंठ )के दर्शन हो रहे हैं,पर सचमुच इस दिन नीलकंठ का दर्शन मुश्किल होता है।पता नहीं दशहरे के दिन ये पक्षी कहां गायब हो जाते हैं?कहते हैं दशहरे के दिन नीलकंठ देखना शुभ होता है।ये पक्षी सामान्यतः आम दिनों में बिजली के तारों पर अक्सर बैठे दिखाई पड़ते हैं। संभवतः टेंहर्रा को भी दशहरे के दिन अपनी अहमियत का पता होता है ?तभी तो वो दशहरे के दिन आसानी से नजर नहीं आते।

संपूर्ण देश में रावण का पुतला दहन कर विजयादशमी मनाने की परंपरा है। छत्तीसगढ़ में भी रावण दहन और रामलीला प्रचलित है।पहले गणेश विसर्जन पश्चात पितृपक्ष से रामलीला का रिहर्सल गांव गांव में चला करता था,लेकिन टीवी,डीवीडी और अब मोबाइल के आगमन से ये परंपरा लगभग-लगभग विलुप्त हो गई और रामलीला का मंचन समाप्त होने के कगार पर है। बड़ी मुश्किल से रावण दहन करने के समय राम रावण का युद्ध दर्शाने के लिए कलाकार मिलते हैं।

     लेकिन इसके अलावा भी हमारे अंचल में में इस पर्व का एक क्षेत्रीय पहचान भी है। हमारे क्षेत्र में नवाखानी त्योहार के रूप में सुविधानुसार क्वांर मास की अष्टमी,नवमी और दशमी तिथि को मनाई जाती है।लेकिन ज्यादातर लोग दशहरे के दिन ही नवा खाते हैं।नवाखाई से तात्पर्य है देवी-देवताओं की पूजा करने के पश्चात उनको नई फसल के अन्न का भोग अर्पित करना तत्पश्चात परिवार समेत नये अन्न का भोग प्रसादी ग्रहण करना।कुछ लोग इस अवसर पर अपने ईष्ट देवी-देवताओं को बलि आदि भी देते हैं।

इस त्योहार को ओडिशा से लगे छत्तीसगढ़ के सीमावर्ती क्षेत्रों में थोड़े अलग स्वरूप के साथ मनाया जाता है।दशहरे के एक दिन पूर्व अविवाहित कन्याएं राह में रस्सी पकड़ कर आने जाने वाले वाहन चालकों को राह में डोर पकड़ कर रोकती है और भेंटस्वरूप दशहरा चंदे का संग्रहण करती है।फिर दूसरे दिन उपवास रखकर रात्रि में महालक्ष्मी माता की पूजा कर प्रसाद का वितरण किया जाता है।रात्रि जागरण किया जाता है और नाच-गाने या भजन आदि का कार्यक्रम रखा जाता है।

           पहले जब बाल विवाह का प्रचलन था तब दशहरे के दिन बेटे के साथ ब्याही गई बालिका वधू को नवा खाने के लिए लिवाकर लाते थे। बचपन में ही बच्चों की शादी कर दी जाती थी।  कम उम्र में शादी करने के बाद बच्चियों को पहले उनके मायके में ही छोड़ दिया जाता था और जानने समझने लायक होने पर ही ससुराल में गवन(गौना)कराकर लाते थे।इस परंपरा को पठौनी विवाह कहते थे। सामान्यतः ये परंपरा गोंड जनजाति में अधिक प्रचलित थी।          

गूगल में पठौनी विवाह का मतलब ढूंढने पर उपलब्ध अधिकतर लेख में कन्या द्वारा वर के यहां बारात लेकर आना बताया जा रहा है।वास्तव में कन्या द्वारा वर पक्ष के यहां बारात लेकर जाना और वर के घर में ही तमाम शादी की रस्में पूरी करना ठीका विवाह कहलाता है। कुछ बुजुर्गों ने ऐसा बताया है।

इस परंपरा के बारे में बुजुर्ग बताते हैं कि प्रगाढ़ संबंध वाले दो परिवारों में कोख भीतर से ही बच्चों के विवाह संबंध तय कर दिए जाते थे।तीन चार वर्ष की अवस्था में पंर्रा में बिठाकर भांवर(फेरे)भी ले लिए जाते थे और बच्चे शादी के बंधन में बंध जाया करते थे।चूंकि बच्चे छोटे होते थे इसलिए कुछ रस्मों को बचाकर रखा जाता था।बाद में पठौनी बारात आने पर कन्या की गौना (विदाई) की जाती थी।

सामान्यतः 14-15 वर्ष की आयु में गौना होता था। जिसमें वधु को विदाई के समय झांपी,झेंझरी और वस्त्र आदि कन्या को भेंट स्वरूप दिया जाता था।पहले आर्थिक रूप से लोग कमजोर थे तो आज की तरह दहेज आदि देने का चलन न था। अभावग्रस्तता थी पर उस समय का जीवन बेहद सरल और सहज हुआ करता था। 

वैसे छत्तीसगढ़ के पहले फिल्म निर्माता निर्देशक मनु नायक जी ने कहि देबे संदेश के बाद 'पठौनी' नाम से एक और छत्तीसगढ़ी फिल्म बनाने की घोषणा की थी।मगर पहले फिल्म के निर्माण और प्रदर्शन के दौरान हुए परेशानियों ने उनके कदम रोक दिए और उन्होंने इस योजना को ठंडे बस्ते में डाल दिया। छत्तीसगढ़ के प्रसिद्ध गायक और छत्तीसगढ़ के किशोर कुमार की उपमा से विभूषित बैतलराम साहू ने एक हास्य नाटक "पठौनी लायके" बनाया था। बड़ी मजेदार प्रस्तुति थी।हमारे बचपन के समय में टेप कैसेट में खूब सुनी जाती थी।

   बाल विवाह एक सामाजिक कुप्रथा थी जो शिक्षा के प्रसार के कारण आज समाप्त हो गया है।दो अबोध बच्चों का बचपन में ही जीवनसाथी तय कर देना कतई उचित नहीं था।इस विवाह का सबसे बड़ा नुक़सान ये था कि विवाह होने के पश्चात यदि वर का देहांत हो जाता तो वधु बाल विधवा कहलाती और उसकी शादी उसी प्रकार के किसी बाल विधुर से होती थी जबकि वधु का देहांत हो जाने पर वर के लिए ऐसा नियम नहीं था।समाज का ये दोहरा मापदंड आज भी समाज में प्रचलित है जहां लड़की की तुलना में लडके को विशेषाधिकार दिए जाते हैं। इस पर बदलाव की दिशा में पहल होनी चाहिए।आज भी एक युवा विधुर को कुंवारी लड़की शादी के लिए मिल जाता है पर एक विधवा को कोई कुंवारा लड़का जीवनसंगिनी बनाने के लिए तैयार नहीं होता।नारी का जीवन वास्तव में बहुत कठिन है।मशहूर गजलकार मुनव्वर राणा ने बेटियों के बारे में बड़ी सुंदर पंक्तियां लिखी हैं-


घर में रहते हुए भी गैरों की तरह होती हैं।

बेटियां धान के पौधों की तरह होती हैं।

उड़ के एक रोज बड़ी दूर चली जाती है।

घर की शाखों पे ये चिड़ियों की तरह होती है।


 दशहरे का पर्व के नारी के सम्मान की रक्षा का पर्व है।नारी के अपमान करने का परिणाम रावण को मृत्यु के रूप मिला।आज भी हमारे आसपास अनगिनत रावण घूम रहे हैं।उनको भी दंडित किये जाने की जरूरत है।

 नारी के जीवन में शादी के बाद मायके से विदाई का दृश्य अत्यंत हृदयविदारक होता है। छत्तीसगढ़ के विवाह गीतों में विदाई का गीत सबसे मार्मिक होता है।गौने के समय की मार्मिकता का चित्रण दाऊ मुरली चंद्राकर जी के एक गीत में बहुत ही खूबसूरत ढंग से हुआ है, जिसमें नारी मन की व्यथा को बखूबी पिरोया गया है।दाऊ मुरली चंद्राकर छत्तीसगढ़ के उन चुनिंदा गीतकारों में से एक है जिनके गीतों में छत्तीसगढ़ की कला संस्कृति और परंपरा के दर्शन होते हैं।ये गीत"सुरता के चंदन"नाम के आडियो कैसेट में आया था।इस गीत को छत्तीसगढ़ की स्वर कोकिला पद्मश्री ममता चंद्राकर ने बहुत ही भावपूर्ण तरीके से गाया है।दुश्यंत हरमुख का संगीत भावविभोर कर देता है।पर दुख की बात ये है कि ये गीत यूट्यूब पर उपलब्ध नहीं है।काफी खोजबीन के बाद भी मुझे ये गीत नहीं मिला।

नारी शक्ति को नमन करते हुए नवरात्र के विदाई बेला में विजयादशमी की शुभकामनाओं के साथ गीत की पंक्तियां प्रस्तुत है-


तिरिया जनम जी के काल

निठुर जोड़ी गवना लेवाए


दाई के कोख, ददा के कोरा सुसकथे

बबा के खंधैया गोहराय

निठुर जोड़ी गवना लेवाए


संग-संगवारी फुलवारी सुसक रोथे

अंचरा ल, कांटा ओरझाय

निठुर जोड़ी गवना लेवाए


घाट घठौन्दा नदी नरवा करार रोथे

पथरा के, छाती फटजाय

निठुर जोड़ी गवना लेवाए


छोर के छंदना मया के डोरी ऐसे बांधे

खोर गली, देखनी हो जाय

निठुर जोड़ी गवना लेवाए


सैया के नांव, पैया म पैरी ल पहिरे

बैरी के, घांठा पर जाय

निठुर जोड़ी गवना लेवाए




गुरुवार, 22 अक्टूबर 2020

ब्रम्हचारिणी स्वरूपा मां जटियाई

 जैसा कि मैंने पिछले पोस्ट में बताया था कि मां जटियाई की महिमा के बारे में कुछ भी जानकारी प्राप्त होगी साझा करूंगा ।सो जानकारी प्रस्तुत है।

 माता जगदंबे की महिमा निराली है।वह अपने भक्तों की पीड़ा हरने के लिए अनगिनत रूप में स्थान स्थान पर विराजित हैं। छत्तीसगढ़ अंचल में अनेक ग्राम्य देवी-देवताओं की उपासना की जाती है। मातृशक्ति की उपासक इस धान के कटोरा का एक छोटा सा विकास खंड मुख्यालय है छुरा,जो गरियाबंद जिले में अवस्थित है।छुरा से लगभग 9 किमी की दूरी पर स्थित है जटियातोरा ग्राम।इसी गांव से लगा हुआ जटियाई पहाड़ी जिसमें माता जटियाई विराजमान है।धरातल से लगभग-लगभग 400 फीट ऊंची पहाड़ी पर माता का मंदिर स्थित है।ऊपर पहाड़ी तक जाने के लिए किसी भी प्रकार की सीढ़ी आदि का निर्माण नहीं हुआ है।कुछ दूरी तक मुरूम का रास्ता है, लेकिन ज्यादा रास्ता पथरीला है। पहाड़ी पर चढ़ाई आसान नहीं है। चट्टानों के बीच टेढ़े-मेढ़े पगडंडियों से होकर पहाड़ी की खड़ी चढ़ाई चढ़नी पडती है। जैसे-जैसे हम ऊपर जाते हैं सांस फूलने लगती है।किसी को सांस संबंधी कोई परेशानी हो तो पहाड़ी पर चढ़ने का प्रयास बिल्कुल ना करे। महिलाओं, बुजुर्गों और बच्चों के लिए पहाड़ी की चढ़ाई वर्तमान में सुगम नहीं है।दूसरी खास बात ये है कि शारदीय नवरात्र पर्व के अलावा वर्ष के अन्य महीनों में पहाड़ी निर्जन होता है,साथ ही हिंसक जंगली जानवरों का भय भी रहता है तो उस समय भी आना उचित नहीं होगा।

माता का मंदिर विशाल चट्टान के नीचे बनाया गया है। मंदिर आकार में छोटा है, जहां माता की सुंदरमुखाकृति वाली मूर्ति स्थापित है।खास बात ये है कि माता की यहां श्वेत पूजा होती है।किसी भी प्रकार की पशु बलि आदि यहां पूर्णतः निषिद्ध है।माता की पूजा श्वेत पुष्प से होती है और माता को श्वेत सिंगार सामग्री चढ़ाई जाती है।बताया जाता है कि माता यहां साध्वी(ब्रम्हचारिणी) स्वरूप में विद्यमान है।हालांकि माता के जटियाई नामकरण के पीछे किसी प्रकार की कोई किंवदंती नहीं है।पर ऐसा प्रतीत होता है कि सामान्यतः साधुगण जटाजूट धारी होते हैं और साध्वी के केश भी लट बंधाके जटा के रूप में बदल जाती है। संभवतः इसके कारण ही जटियाई(जटा वाली)नाम प्रचलित हुआ हो।

माता आदिकाल से इस पहाड़ी पर विराजमान है ऐसी मान्यता क्षेत्र में प्रचलित है।इसके संबंध में एक कहानी का उल्लेख करते हुए सेंदबाहरा निवासी गोपीराम ठाकुर ने बताया कि माता के साक्षात्कार की बहुत सी कहानियां बुजुर्ग बताते रहे हैं।ऐसा माना जाता है कि माता भिन्न भिन्न रूप में पहाड़ी के आस-पास भटकने वाले लोगों का मार्गदर्शन करती थी और भोजन आदि की व्यवस्था भी करती थी।

किसी समय हरिराम नाम का एक माता का भक्त जटियातोरा गांव में रहा करता था।माता जटियाई की उस पर अगाध आस्था थी और पहाड़ी के नीचे ही उसका खेत था। प्रतिदिन वह अपने कृषि कार्य से खेत जाता था,परंतु उसकी पत्नी को उसके लिए भोजन लाने में विलंब हो जाया करता था।माता भला अपने भक्त को भूखा कैसे रखती।तब माता जटियाई उसके लिए एक ग्रामीण महिला का वेष बनाकर उसको भोजन करा देती।तत्पश्चात उसकी पत्नी भोजन लेकर जाती तो वह पेट भरा है कहकर भोजन करने से इंकार कर देता।

इस बात से उसकी पत्नी के मन में शंका उत्पन्न हुई और वह सत्यता जानने के लिए एक खेत के मेड़ की ओट में छुपकर देखने लगी।दोपहर का वक्त हुआ और खाना खाने का समय हुआ तो एक ग्रामीण स्त्री हरिराम के लिए बटकी(एक प्रकार का गहराई वाला पात्र,बासी खाने के लिए प्रयोग होता है) में बासी लेकर आई और उसको भोजन कराया।जब हरिराम की पत्नी ने ये सब देखा तो उसके क्रोध का पारावार न रहा। ग्रामीण वेषधारी माता से उसने झूमा झटकी करना शुरू कर दिया।इस दौरान माता के हाथ में जो बटकी थी उसने उसे दूर तक फैंकते हुए कहा कि तुमने मुझ पर शंका किया है, इसलिए अब मैं यहां नीचे नहीं आउंगी, पहाड़ी पर ही रहूंगी। कहकर अंतर्ध्यान हो गई।तब दोनों पति-पत्नी  माता से क्षमा याचना करने लगे और माता सौम्य रूप में  पहाड़ी पर विराजमान हो गई।जिस स्थान पर माता ने बटकी फैंकी थी,वो आज भी बटकी बाहरा के नाम से जाना जाता है।

एक अन्य कहानीनुसार एक बार समीपस्थ ग्राम हीराबतर का गडहाराम नाम का आदमी छुरा बाजार से अपनी साइकिल में जरी खेंडहा की सब्जी लिए वापिस घर लौट रहा था।सेंदबाहरा पार करने के बाद पहाड़ी के समीप पहुंचने पर उसे लघुशंका करने की जरूरत महसूस हुई।उसने अपना साइकिल वहीं सडक किनारे खड़ी किया और सडक के नीचे लघुशंका के उद्देश्य से उतरने लगा।तभी उसको ऐसा महसूस हुआ कि शायद आसपास महिलाएं हैं।ऐसा सोचते सोचते वह थोड़ी दूर निकल आया।तभी कुछ दूरी पर उसको एक महलनुमा सुंदर मकान दिखाई दिया।जिज्ञासावश वह वहां चला गया। वहां माता जटियाई मोहक मुस्कान के साथ बैठी थी। उसने माता को प्रणाम किया तो माता ने कहा कि भोजन करके चले जाना।गडहाराम को वहां छप्पन भोग खाने को मिला।उसने जीवन भर में ऐसा भोजन नहीं खाया था।

इधर गडहाराम के रात तक घर ना आने पर उसके परिजन उसको ढूंढने निकल पड़े।सप्ताह बीत गया गडहाराम की खोज में,पर उसके संबंध में कोई जानकारी प्राप्त नहीं हुआ।इधर गडहाराम माता के सान्निध्य में था तो उसे कुछ पता नहीं था।भोजन के बाद गडहाराम ने माता से जाने की आज्ञा मांगी तो माता ने उसको जाने का मार्ग बता दिया। वहां से गडहाराम अपनी साइकिल पकड़ कर घर आया।उसके साइकिल में जरी खेडहा की सब्जी जस के तस हरी के हरी थी।घर वालों ने बताया कि उसके लौटने तक सात दिन बीत चुके हैं।गडहाराम मानने को तैयार ही नहीं था।वह उन लोगों को ये कहता था कि अगर इतने दिन बीत गए हैं तो सब्जी मुरझाया या खराब क्यों नहीं हुआ।इधर खोजबीन के दौरान लोगों को और रास्ते से गुजरने वाले लोगों को भी दैवीय कृपा से वह साइकिल नजर नहीं आती थी।गडहाराम घरवालों को बताता था कि माता ने उसको छप्पन भोग खिलाया था और वह भोजन उपरांत तुरंत लौटा है।जबकि वास्तविकता में बाहरी दुनिया में एक सप्ताह गुजर चुका था।तो ऐसी है माता की लीला और चमत्कार!!!

पहाड़ी पर पहुंचने के बाद आप देखेंगे कि


माता मंदिर के सामने ही ज्योतिकक्ष का निर्माण किया गया है। हनुमानजी जी की सीमेंट से निर्मित मूर्ति भी पहाड़ी पर खुले में स्थापित है।उसी प्रकार माता काली और शिवजी के स्वरूप का अंकन भी पहाड़ी पर किया गया है। पूर्णतः नैसर्गिक वातावरण है,जो मन को भाव विभोर कर देता है। आसपास के 27 गांव मिलाकर जटियाई सेवा समिति का गठन किया गया है,जिनके मार्गदर्शन में प्रतिवर्ष शारदीय नवरात्र का आयोजन हर्षोल्लास से किया जाता है।सन् 2000 से यहां पर मनोकामना ज्योति प्रज्ज्वलित की जा रही है। पहाड की चढ़ाई वर्तमान में थोडा कष्टसाध्य है। यहां सीढ़ी आदि का निर्माण हो जाए तो भक्तों को पहुंचने में सुगमता हो सकती है।
पहाड़ी की चढ़ाई कठिन होने पर भी यहां स्थानीय श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है।मन में माता की छवि लिए इस भाव के साथ...
 सेत सेत तोर ककनी बनुरिया

सेते पटा तुम्हारे हो मां

सेत हवय तोर गर के सुतिया

गज मोतियन के हारे...


बोलो जटियाई महारानी की जय!!

पोस्ट के आखिर में बताना चाहूंगा कि माता के संबंध में जानकारी देनेवाले श्री गोपी ठाकुर जी एक कुशल चित्रकार और जसगीत गायक है।वर्तमान में माता जटियाई की गाथा को लिपिबद्ध करने का स्तुत्य प्रयास कर रहे हैं।माता जटियाई की कृपादृष्टि सब पर बनी रहे। 



बुधवार, 21 अक्टूबर 2020

केरापानी की रानी मां

जगत जननी मां जगदम्बे की आराधना का महापर्व चल रहा है।कोरोना जैसी वैश्विक महामारी के तांडव के बाद भी आस्था डगमगाई नहीं है,बस स्वरूप बदल गया है। बड़े बड़े पंडालों में देवी मूर्ति स्थापित करने की परंपरा में एक रूकावट सी आ गई। भीड़ इकट्ठी न हो, इसके लिए शासन ने कड़े निर्देश जारी किए हैं इस कारण अपेक्षाकृत धूमधाम कम दिखाई दे रही है। मंदिरों में माता के भजन आदि भी नहीं चल रहे है।अत्यंत सादगीपूर्ण कार्यक्रम आयोजित करने के लिए साल 2020 इतिहास में सदैव याद रखा जायेगा। साल 2015 में आज ही के दिन यानि पंचमी तिथि को माता रानी माई के दर्शन लाभ का संयोग बना था।मुढीपानी के शिक्षकों के सान्निध्य में ये अवसर प्राप्त हुआ था।उसकी यादें आज भी मानस पटल पर अंकित है।

रानी माता का दरबार ओडिशा और छत्तीसगढ़ के बीच गौरागढ पहाड़ी श्रृंखला पर अवस्थित है। स्थानीय लोग इसे मलेवा डोंगरी कहते है।ये पहाड़ी ओडिशा की सीमा रेखा तय करती है और छत्तीसगढ़ को स्पर्श करती है।कभी ये क्षेत्र प्राचीन दक्षिण कौशल का अभिन्न हिस्सा था।इसी पहाड़ी पर सोनाबेडा नामक स्थान हैं जो भव्य दशहरे के लिए विख्यात है।साथ ही इस सोनाबेडा का संबंध भुंजिया जनजाति की उत्पत्ति की दंतकथा से भी है।

छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से लगभग 100 किमी की दूरी पर  गरियाबंद जिलांतर्गत है छुरा,और छुरा से लगभग 17 किमी की दूरी पर है रसेला गांव, जहां से पड़ोसी राज्य ओडिशा की सीमा मात्र दस बारह किमी की दूरी पर है। सीमावर्ती क्षेत्र होने के कारण रसेला के आसपास के गांवों में उत्कल प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है।

रसेला से लगभग-लगभग 7 किमी की दूरी पर मुढीपानी गांव है जहां से रानी माता स्थल तक जाने का मार्ग बना है। जनजातीय बाहुल्य इस मुढीपानी ग्राम पंचायत में कमार,भुंजिया,कंवर और गोंड जनजाति वर्ग के लोगों की बड़ी संख्या निवास करती है।

रानी माता के दरबार तक पहुंचने का रास्ता अत्यंत दुर्गम है। बीहड़ वन और चट्टानों को पार करके जाना पड़ता है।जंगली जानवरों का भी भय बना रहता है। संभवतः इसी कारण ज्यादातर लोग समूह में जाते हैं।ऊपर पहाड़ी पर माता के स्वरूप का अंकन एक शीला पर किया गया है,साल 2015 में मंदिर आदि का निर्माण नहीं हुआ था,ज्योति कक्ष का निर्माण कार्य आरंभिक अवस्था में था।सुना हूं कि वर्तमान में निर्माण पूर्ण हो गया है।जब ज्योतिकक्ष नहीं बना था तब पालीथीन और तिरपाल आदि की मदद से अस्थायी ज्योतिकक्ष का निर्माण किया जाता था।

जिस प्रकार रमईपाट सोरिद में आम वृक्ष के नीचे से प्राकृतिक जलधारा निकलती ठीक वैसी ही जलधारा यहां जंगली कदली(केले)के पेड़ से निकलती है।इसी कारण रानी माता का ये प्राकट्य स्थल केरापानी के नाम से जाना जाता है।इस पहाड़ी पर भालू,बाघ,चीते, वनभैंसे जैसे जानवर बड़ी संख्या में मौजूद रहते हैं और विभिन्न प्रकार की वनस्पतियां भी यहां मिलती है।जानकार लोग बताते हैं कि यहां बहुत सी आयुर्वेद में काम आने वाली जड़ी बूटियां मिलती है।

साल 1996-97 के आसपास यहां पहली बार ज्योतिकलश स्थापित किया गया था। आसपास की 7 ग्राम पंचायत क्षेत्र के निवासी रानी माता समिति के सदस्य हैं।जिनके कुशल मार्गदर्शन में समस्त कार्य संपादित होते हैं।इस विधानसभा क्षेत्र (बिन्द्रानवागढ़) के भूतपूर्व विधायक श्री ओंकार शाह ने इस स्थल के विकास के लिए विशेष प्रयास किया था।उनके द्वारा पहाड़ी के रास्ते पर श्री हनुमानजी की विशाल मूर्ति स्थापित किया गया है।

माता के प्राकट्य संबंधित कथा है कि किसी समय गांव मुढीपानी के एक कमार जनजाति के व्यक्ति को रानी मां ने स्वप्न में आकर अपने केरापानी स्थल में स्थित होने की बात बताई।तत्पश्चात उस व्यक्ति ने गांव के वरिष्ठ जनों के समक्ष स्वप्न की बात रखी।सभी लोगों ने मां की कृपा को स्वीकारा और रानी माता की पूजा-अर्चना की शुरुआत हुई।एक विशेष बात ये है कि नवरात्र में पंडा(प्रधान पुजारी)का कार्य हमेशा कमार जनजाति के व्यक्ति द्वारा किया जाता है।

हम पंचमी की विशेष पूजा के दिन पहुंचे थे इसलिए माता का भोग प्रसादी प्राप्त करके ही लौटे।मुढीपानी स्कूल के शिक्षक श्री तरूण वर्मा जी को फोटोग्राफी में विशेष रूचि है।सारे फोटोग्राफ्स उन्हीं की सौजन्य से है!

बोलो रानी माई की जय!!






मंगलवार, 20 अक्टूबर 2020

जटियाई डोंगर में....

 








   इस नवरात्रि के तीसरे दिवस मां जटियाई धाम जाने का प्रोग्राम बनाया।फिर जाने के लिए अपनी मित्र मंडली के ठेलहा(फुरसतिये)लोगों को अपनी मेमोरी में सर्च किया।तब याद आया कि अभी डी कमल उपलब्ध है,उसी को पूछा जाये।फिर दोपहर एक बजे के करीब मैंने अपने चलित दूरभाष यंत्र से कमल को टुनटुनाया।उसकी ओर से आदरणीय अमिताभ बच्चन जी का कोरोना संदेश प्राप्त हो रहा था। संदेश समाप्ति के कगार पे था तभी कमल ने फोन उठाया और बताया कि वो बिल्कुल फ्री है,लेकिन खाना खाके बताता हूं,बोलके फोन रख दिया।दोपहर के लगभग दो बज गये उसका वापसी काल नहीं आया।शायद भाई साहब खा पीके निद्रादेवी के आगोश में चले गए हों।मेरा प्रोग्राम अब फेल होने के करीब था।अकेले जाने में रिस्क था।इस साल कोरोना के कारण देवी तीर्थ स्थलों में नवरात्र पर्व को स्थगित किया गया है।ज्योति प्रज्वलन और जंवारा का कार्यक्रम भी नहीं है। कहीं मंदिर में जाने पर कोई नहीं मिला तो??ये आशंका थी।तब सेंदबाहरा के एक शिक्षक से फोन पर जानकारी लिया तो उन्होंने बताया कि एक ही ज्योति जल रही है।दिन में लोग रूकते हैं शाम तक लौट जाते हैं।

इतनी जानकारी साहस दिलाने के लिए पर्याप्त थी।दोपहर भोजन करने की तैयारी थी तभी जय का फोन आया। उसने बताया कि वो आज फुरसत में है।तुरंत मैंने उसको प्रोग्राम के बारे में बताया तो वो जाने के लिए तैयार हो गया।इसको कहते हैं संयोग!!!

माता के दरबार में जाने की इच्छा प्रबल हो तो संयोग बन जाता है।ये सिद्ध हो गया। थोड़ी देर के बाद जय आया तो दोनों मेरी मोटर साइकिल में जटियाई माता के दर्शन के लिए चल पड़े।

जटियाई माता छुरा से लगभग 7 किमी की दूरी पर जटियातोरा और सेंदबाहरा ग्राम के मध्य स्थित पहाड़ी पर विराजित हैं।छुरा से निकलने के बाद मेरे गांव से ही माता की पहाड़ी धनुषाकार आकृति में दूर से ही नजर आने लगती है।

जाते वक्त जय बोला कि माता के दरबार में दर्शन के लिए जा रहे हैं तो श्रीफल मतलब नारियल रख लेते हैं। मैंने उसकी हां में हां मिलाया और सेम्हरा के सडक किनारे के दुकान से नारियल ले लिया।वैसे मेरी सोच देवस्थल में जाने पर अलग है। मैं कोई भी देवस्थल में किसी भी प्रकार का भेंट आदि चढ़ाने के लिए नहीं लेके जाता।मेरा मानना है कि जिसने संसार को सब कुछ दिया है उसको कुछ देने की मेरी क्या औकात??

हालांकि हमारे धर्म ग्रंथ कहते हैं कि देवता,मित्र और गुरू के पास जाते समय खाली हाथ नहीं जाना चाहिए।कुछ न कुछ भेंट अवश्य ले जाना चाहिए। मंदिर में देवता को द्रव्य या धनराशि नहीं तो कम से कम पुष्प जरूर अर्पित करने चाहिए।खैर,सबका अपना-अपना ढंग, आराधना के अनेकों तरीके!!पर ईश्वर की कृपा सब पर बराबर रहती है।

थोड़ी देर बाद हम पहाड़ी के नीचे थे।ऊपर पहाड़ी तक जाने के लिए किसी भी प्रकार की सीढ़ी आदि का निर्माण नहीं हुआ है।कुछ दूरी तक मुरूम का रास्ता है, लेकिन ज्यादा रास्ता पथरीला है। पहाड़ी पर चढ़ाई आसान नहीं है। चट्टानों के बीच टेढ़े-मेढ़े पगडंडियों से होकर पहाड़ी की खड़ी चढ़ाई चढ़नी पडती है। जैसे-जैसे हम ऊपर जाते हैं सांस फूलने लगता है। पहाड़ी की उंचाई धरातल से अंदाजन तीन चार सौ फीट जरूर होगी।किसी को सांस संबंधी कोई परेशानी हो तो पहाड़ी पर चढ़ने का प्रयास बिल्कुल ना करे। महिलाओं, बुजुर्गों और बच्चों के लिए पहाड़ी की चढ़ाई वर्तमान में सुगम नहीं है।दूसरी खास बात ये है कि नवरात्र पर्व के अलावा साल के बाकी महीनों में पहाड़ी निर्जन होता है,साथ ही हिंसक जंगली जानवरों का भय भी रहता है तो उस समय भी आना उचित नहीं होगा।

माता का जयकारा लगाते मैं और जय पथरीली पगडंडियों और चट्टानों के बीच से गुजरते हुए अंततः हम माता के दरबार तक पहुंच ही गए।पर माता के मंदिर के पास जाते ही हमें आश्चर्य का सामना करना पड़ा।

 नवरात्रि के पर्व में अन्य वर्षों में यहां मेले सा माहौल होता था।दुर्गम चढ़ाई के बावजूद लोगों की भीड़ उमड़ा करती थी। विभिन्न प्रकार की दुकानें सजा करती थी। वहां सन्नाटा व्याप्त था।

माता के पुजारी और स्थानीय लोगों के मौजूद होने की आशा से पहाड़ी पर चढ़े थे पर माता के अलावा वहां हमें कोई ना मिला। सुनसान निर्जन वन्यक्षेत्र में सिर्फ हम दो प्राणियों की मौजूदगी थोड़ी भयदायक थी,पर हम माता के आंचल की छत्रछाया में थे तो भयभीत नहीं हुए।जय पहली बार आया था,मैं पहले तीन चार बार और आ चुका था। दोनों हांफ रहे थे और माथे पर पसीना उभर आया था।

फिर मैंने और जय ने माता के चरणों में प्रणाम निवेदित करते हुए श्रीफल भेंट किया।चूंकि उस पहाड़ी पर सिर्फ मैं और जय ही थे इसलिए शाम होने के पहले उतरने की जल्दी थी। लगभग 15 मिनट तक हम वहां माता की छत्रछाया में रहे और इधर उधर का फोटो मैं अपने मोबाइल से लेता रहा।फिर माता को प्रणाम कर लौटने लगे।

माता का मंदिर विशाल चट्टान के नीचे बनाया गया है। मंदिर आकार में छोटा है, जहां माता की सुंदरमुखाकृति वाली कमर तक की मूर्ति स्थापित है।

सामने ही ज्योतिकक्ष का निर्माण किया गया है। हनुमानजी जी की सीमेंट से निर्मित मूर्ति भी पहाड़ी पर खुले में स्थापित है।उसी प्रकार माता काली और शिवजी के स्वरूप का अंकन भी पहाड़ी पर किया गया है।

चूंकि पहाड़ी पर इस स्थल के बारे में जानकारी देने वाला कोई नहीं मिला तो फिलहाल मैं माता के स्थापना के संबंध में जानकारी नहीं दे पाऊंगा।माता रानी की कृपादृष्टि रही तो अगले किसी ना किसी पोस्ट में जरूर उल्लेख करूंगा।

जय ताज्जुब में था पक्के ज्योतिकक्ष के निर्माण को देखकर।ऊपर पहाड़ी तक पानी और भवन निर्माण सामग्री पहुंचाने का काम आसान नहीं रहा होगा।स्थानीय जटियाई माता समिति के संचालक गण और ग्रामीणों के श्रम को प्रणाम है।

दिन डूबने के पहले ही माता जटियाई की कृपा से हम सुरक्षित वापस लौट आए....

बोलो जटियाई महारानी की जय!!!

दिन चारी मइहरवा में....सुरता स्व.मिथलेश सर के

  लोकगीतों की अपनी एक अलग मिठास होती है।बिना संगीत के भी लोकगीत मन मोह लेता है,और परंपरागत वाद्य यंत्रों की संगत हो जाए, फिर क्या कहने!! आज ...