शुक्रवार, 19 नवंबर 2021

वक्त से डरकर रहें...


 व्यस्तता इतनी अधिक है कि लेखन गतिविधियां लगभग अवरूद्ध सा है। इसलिए ब्लाॅग अभी थम सा गया है। लेकिन कल और आज में दो लोगों की जिंदगी में आए मोड़ को देखकर ताज्जुब में हूं‌।कल जनजातीय ग्राम कनफाड़ में जाना हुआ। वहां एक धाकड़ और वजनदार व्यक्तित्व वाले जनजाति नेता थे। पिछले दो सालों से उनसे मुलाकात नहीं हुई थी।सोचा आया हूं तो हालचाल पूछता चलूं। फिर उनके घर के सामने जाकर आवाज लगाया।जब दो तीन बार पुकारने पर भी कोई जवाब  नहीं आया तो उनके खुले द्वार से झांककर देखा तो आंगन नजर आया जहां वो बुजुर्ग मुझे अपने हाथ पैर से घिसटते नजर आए। मैं स्तब्ध था, एक दौर था जब वो शख्स धड़धड़ाते हुए किसी भी कार्यालय में चला जाता था और साइकिल में ही कई किलोमीटर की दूरी नाप देता था।आज घिसटकर चलने पर मजबूर है। उनकी दशा देखकर दुख हुआ। गांव वालों से पूछने पर पता चला कि पिछले साल भर से उनकी ऐसी ही दशा है। वक्त भी अजीब सितम ढाता है।
आज नजदीकी गांव सेम्हरा में कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर लोक कला मंच लोरिक चंदा की प्रस्तुति देखने गया तो वहां भी एक आश्चर्य मेरा इंतजार कर रहा था। वहां लगभग पागलों जैसी हालत में एक शख्स कार्यक्रम देखने पहुंचा था।मुझे उसे देख कर एक पुराने कलाकार की याद आई।पूछने पर ज्ञात हुआ कि वो वही थे।जो नशे की लत में अपना जीवन तबाह कर चुके हैं। गुजरे दौर में वे एक शिक्षक,एक मंचीय अभिनेता और गायक के रूप में जाने जाते थे। लेकिन उस पर वक्त की मार ऐसे पड़ी कि उसका पूरा जीवन बिखर गया।उनका वैवाहिक जीवन असफल रहा और उसने नशे की राह में कदम बढ़ा दिया।जो शनै:शनै: उसे बर्बादी की ओर ले गया।कब किसके साथ क्या घटित हो जाए कुछ कह नहीं सकते। इसलिए अपने अच्छे दौर में हमेशा ईश्वर के प्रति कृतज्ञता का भाव और दीन दुखियों के लिए सहयोग की भावना होनी चाहिए।
उन दोनों शख्स के अच्छे दौर से भी मैं परिचित था, और उनके बुरे दौर से भी मेरा साक्षात्कार हुआ।दोनों के हालत पर मुझे एक ही बात याद आ रही है....
किसी की मजबूरियों पे मत हॅंसिए, कोई मजबूरियां खरीद कर नहीं लाता।
वक्त से हमेशा डरकर रहें, बुरा वक्त बताकर नहीं आता...
और फिल्म वक्त में साहिर लुधियानवी का गीत भी तो यही सिखाता है...
वक़्त से दिन और रात, वक़्त से कल और आज
वक़्त की हर शै गुलाम, वक़्त का हर शै पे राज । 

वक़्त की गर्दिश से है, चाँद तारों का निजाम
वक़्त की ठोकर में है क्या हुकूमत क्या समाज । 

वक़्त की पाबंद हैं आती जाती रौनकें
वक़्त है फूलों के सेज, वक़्त है काँटों का ताज । 

आदमी को चाहिए वक़्त से डर कर रहे
कौन जाने किस घड़ी वक़्त का बदले मिजाज । 

शनिवार, 2 अक्टूबर 2021

गांधी के मायने....

 फोटो सोशल मीडिया से साभार
आज भारत के दो विराट व्यक्तित्व वाले महामानवों की जयंती हैं।किनकी है?अगर ये पूछने की और बताने की नौबत आती है,तो निश्चित रूप से हमें शर्म आनी चाहिए अपने हिंदुस्तानी होने पर!!
आज विश्व अहिंसा दिवस भी है। अहिंसा के परम उपासक बापू के सम्मान में उनकी जयंती को विश्व ने अहिंसा दिवस के रूप में मान्यता देकर उनको आदरांजलि दी है। लेकिन ऐसे विराट और महान व्यक्तित्व के लिए पिछले कुछ सालों से कुछ अल्पबुद्धियों और अधकचरे ज्ञान के धनी लोगों ने सोशल मीडिया पर घृणा का अभियान चला रखा है। गांधीजी की फोटो पर अभद्र मीम्स बनाये और प्रसारित किए जा रहे हैं।इन लोगों के दिमाग में एक प्रकार की कुंठित मानसिकता घर कर गई है।उनको लगता है कि भारत विभाजन के लिए गांधीजी ही जिम्मेदार हैं।अनेक क्रांतिकारियों की शहादत गांधी की उदासीनता के कारण अकारण हुई।
जिस बापू को टैगोर ने महात्मा, बोस ने राष्ट्रपिता और अखिल विश्व ने अहिंसा के पुजारी की पदवी से अलंकृत किया उनके योगदान पर आज की पीढ़ी सिर्फ वाट्सएप ज्ञान के बूते उनके चरित्र पर उंगली उठाती है तो क्षोभ होता है।
गांधी का त्याग अतुलनीय है। स्वतंत्रता के रण में उन्होंने अपना सब कुछ राष्ट्र के लिए न्यौछावर कर दिया था। संपूर्ण भारतवर्ष को पैदल नापने का दुस्साहस भी किया था।कुछ तो बात जरूर रही होगी उस महामानव में जो पूरा भारत उसके पीछे-पीछे चलने के लिए आतुर था।
आज़ादी की लड़ाई का नेतृत्व कई नेताओं ने किया। लेकिन सर्वमान्य नेता केवल गांधी थे। आडंबर रहित जीवन जीने वाले गांधीजी पर पूरे भारत की श्रद्धा थी। गांधी के अहिंसात्मक आंदोलनों से ब्रिटिश सरकार थर-थर कांपती थी।कई महत्वपूर्ण निर्णयों को ब्रिटिश शासन वापस लेने पर बाध्य हुई थी। गांधीजी की रणनीति अंग्रेजों को मजबूर कर देती थी। संभवतः इसलिए आज भी कहा जाता है "मजबूरी के नाम महात्मा गांधी"!
गांधीजी के कुछ निर्णय भले ही वर्तमान परिस्थितियों में असहमतिजनक हो सकते हैं।पर तत्कालीन परिस्थितियों में वस्तुस्थिति के मुताबिक सही थे।
गांधीजी भारत के विभाजन से आहत थे। इसलिए वो आजादी की स्वर्णिम बेला पर दिल्ली से कहीं दूर चले गए थे।अगर वे सत्ता का आकर्षण और आकांक्षा रखते तो स्वतंत्रता उपरांत वे खुद को भी किसी राजनैतिक पद के लिए प्रस्तुत कर सकते थे, और संभवतः उनका विरोध भी नहीं होता। लेकिन उनका उद्देश्य ये सब नहीं था।वे भारत को एक खुशहाल और उन्नत राष्ट्र के रूप में देखना चाहते थे।
वे उपदेश देने के बजाय किसी भी  बात को स्वयं आचरण में उतारने पर बल देते थे।जब अप्रैल 1917 में चंपारण सत्याग्रह चल रहा था तब वहां जाने पर उनको ज्ञात हुआ कि नील के कारखानों में काम करने वाले मज़दूरों को जूते नसीब नहीं होते। उन्होंने उसी क्षण जूतों का परित्याग कर दिया। चंपारण सत्याग्रह के दूसरे चरण में जब उन्होंने एक गरीब महिला को वस्त्र की कमी से जूझते देखा तो अपना चोगा त्याग दिया।
सन् 1918 में अहमदाबाद के कारखानों में काम करने वाले मज़दूरों की दीन- हीन दशा को देख पगड़ी पहनना छोड़ दिया।उनका तर्क था कि इस पगड़ी में जितना कपड़ा लगता है,उतने में 4 महिलाओं के तन ढंक सकते हैं।उनके त्याग का ये क्रम जारी रहा।अल्पतम में जीने को उन्होंने अपना अभियान बना लिया। सितंबर 1921 में एक रेलयात्रा के  दौरान हुए कष्टप्रद अनुभव के बाद उन्होंने कमीज और धोती का भी त्याग कर दिया। सिर्फ घुटने तक धोती ही उनका परिधान बन गया।
गांधी को समझना आसान नहीं है।गांधी को जानना हो तो उनकी आत्मकथा पढ़ें जिसमें उन्होंने अपनी सच्चाई खुली किताब की तरह रख दी है।दूसरे राजनैतिक व्यक्तियों के गांधी के बारे में विचार पढ़ें। गांधी कल भी प्रासंगिक थे और आज भी प्रासंगिक हैं।उनके विचार अमर हैं।ऐसे महान व्यक्तित्व के बारे में सोशल मीडिया पर अंट शंट अधकचरा ज्ञान ना बाटें। गांधीजी  आज भी कितने प्रासंगिक हैं, ये धमतरी से प्रकाशित इस खबर को पढ़कर समझा जा सकता है।
राम...राम...

शुक्रवार, 1 अक्टूबर 2021

ये जीवंत देव प्रतिमाएं...

 आज अंतर्राष्ट्रीय वृद्धजन दिवस है।जीवन की विदाई बेला पर खड़े अनुभव के पिटारे को सम्मानित करने का दिन।साल 1991 से 1 अक्टूबर को बुजुर्गों के सम्मान के लिए समर्पित किया गया है। लेकिन इस एक दिन को छोड़ बाकी दिनों में क्या बुजुर्गों का सम्मान नहीं किया जाना चाहिए।

मनुष्य में एक बड़ी गंदी आदत है, जो चीज उनके काम की रहे या जब तक उनसे कोई लाभ मिल रहा हो तभी तक वह उसकी कद्र करता है। भौतिकतावादी इस युग में अब बुजुर्गों को भी किसी सामग्री की तरह उपयोगी और अनुपयोगी में वर्गीकृत कर दिया गया है। शारीरिक शक्ति से हीन और मानसिक रूप से खिन्न बुजुर्गों को आज हाशिये पर रखा जा रहा है।आज घर घर में बुजुर्गों का अपमान होता है।किसी के पास धन संपत्ति हो तब बात अलग हो जाती है।

बचपन के दिनों में पढ़ी मुंशी प्रेमचंद की लिखी दो कहानियों "पंच परमेश्वर" और "बूढ़ी काकी" की दोनों बुजुर्ग पात्रों की तस्वीर आज भी आंखों के आगे बरबस आ जाता है। विशेष रूप से बूढ़ी काकी की वो दीन-हीन बुजुर्ग, जिसका अत्यंत मार्मिक चित्रण मुंशीजी ने किया है। कहानी पढ़ते पढ़ते ही बरबस आंखें छलक आती है। बुढ़ापे में जीभ से स्वाद पाने की व्यग्रता और परिवार के लोगों के द्वारा किए जाने वाले निरंतर तिरस्कार का चित्रण अत्यंत हृदय विदारक है।

आज ऐसी ही अनेक बुजुर्गों को समाज के भीतर ही प्रताड़ना और अपमान झेलना पड़ रहा है। बुजुर्गों को जीवंत देव प्रतिमा का दर्जा देने वाले देश में बुजुर्गों के साथ होने वाली अमानवीय व्यवहार की खबरों से आज के समाचार पत्र भरे होते हैं।हमारे देश में अब वृद्धाश्रम जैसी संस्थाओं की संख्या बढ़ती जा रही हैं।जीवन की संध्या वेला पर खड़े बुजुर्गों को जहां सम्मानजनक विदाई दी जानी चाहिए वहां उनको उम्र के अंतिम पड़ाव पर भिक्षाटन और दर दर भटकने के लिए मजबूर किया जा रहा है।

जब संयुक्त परिवार होते थे,तब तक बुजुर्गों का मान सम्मान बना रहा।आज के एकल परिवार वाली संस्कृति ने बुजुर्गों को अनाथ कर दिया है।किसी शायर ने बड़ी सुंदर पंक्तियां कही थी जिसका आशय था -फूल और फल भले ही ना दे पर बूढ़ा पेड़ ठंडी छांव तो देगा।इन बूढ़े दरख्तों की स्नेहिल छांव की जरूरत आज भी समाज को है।उनके अनुभव का सम्मान किया जाना चाहिए। कहते हैं कि बुजुर्गों के आशीर्वाद और श्राप अवश्य फलित होते हैं।तो समाज का यत्न आशीर्वाद बटोरने की होनी चाहिए। वृद्धावस्था जीवन का एक अनिवार्य पड़ाव है।हम सबको एक दिन इस पड़ाव तक पहुंचना ही है। इसलिए वरिष्ठ जनों का परिवार और समाज में यथोचित सम्मान जरूर हो, ताकि कोई बुजुर्ग ये ना कहे-

मुझे इतना सताया है मेरे अपने अज़ीज़ों ने

कि अब जंगल भला लगता है घर अच्छा नहीं लगता

फोटो सोशल मीडिया से साभार


रविवार, 8 अगस्त 2021

विद्रोह जरूरी है!!!

 कुछ महीनों से ब्लॉग लेखन बंद था।कुछ भी लिखने का मन नहीं कर रहा था।वैसे मेरे लेख को पसंद करने वाले लोग सतत मेरा उत्साह वर्धन ब्लाग पर आकर या मेरे निजी नंबर से संपर्क कर करते रहते हैं,जो मेरे ब्लाग लेखन में निरंतरता के लिए टानिक का काम करता है।लेखन का कार्य भी दिमाग के ऊपर आश्रित होता है।कभी कभी लिखने के लिए जगह और विषय मायने नहीं रखती, धाराप्रवाह मन का आवेग शब्दों में उतर जाता है और कभी कभी पूरी तैयारी के साथ भी लिखने के लिए बैठो तो कुछ भी नहीं सूझता।मेरे मित्रों ने लेखन के लिए सदैव मेरा उत्साह बढ़ाया है।उनका सतत सहयोग भी मुझे मिलता है।मैं मित्रों को परेशान करना अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझता हूं और जब वे सीधे नहीं मानते तो बरपेली(जबरदस्ती)उनको सहयोग देने के लिए बाध्य करता हूं।

 पिछले दिनों एक परिचित से मुलाकात हुई। पिछले वर्ष वे अकस्मात पक्षाघात के शिकार हुए और उसके चेहरे के दांये भाग और हाथ को लकवा मार गया था। लेकिन अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति और प्राकृतिक उपचार की ताकत से अब अच्छी हालत में हैं।दैनिक दिनचर्या को स्वयं कर लेते हैं अकेले साइकिल चला पा रहे हैं।हालांकि मुंह में थोड़ा टेढ़ा पन आ गया है और बातचीत में हकलाहट अभी भी होती है।फिर भी उनकी बातें समझ में आ जाती है।साल भर पहले तक हट्टे कट्टे इंसान थे पर लकवे ने उनको कमजोर कर दिया है।पहले भारी भरकम बोझ को यूं ही चुटकियों में फेंक देते थे।पेशे से मजदूर है।

पिछले साल अचानक जब किसी से उसके साथ घटी घटना के बारे में सुना तो यकीन करना मुश्किल था मेरे लिए,महज अडतीस साल के गबरू जवान को लकवा मार जाने की बात मेरे लिए अविश्वसनीय था। लेकिन वर्तमान में स्वास्थ्यगत घटनाओं के संबंध में कुछ भी नहीं कहा जा सकता।किसी के साथ कभी भी और कुछ भी घटित हो सकता है।

मुलाकात होने पर मैंने उनसे हालचाल पूछा और इधर उधर की बातें हुईं।इसी दौरान उनके साथ घटी घटना का प्रसंग चल पड़ा तो उसने अपने साथ घटी घटना का कारण अत्यधिक मानसिक तनाव को बताया।

कभी कभी मनुष्य के जीवन में ऐसे अवसर भी आते हैं जब वह किसी निर्णय पर नहीं पहुंच पाता और इसी अनिश्चय की स्थिति में तनाव ग्रस्त हो जाता है। उनके साथ भी कुछ ऐसा ही घटित हुआ था।किस्सा कुछ यूं था कि उनके पहले से ही दो संतान थी और तीसरे की आने की संभावना निर्मित हो गई थी।इसी बात पर उनका अपने मां-बाप से मतभेद हो गया।उनके मां-बाप तीसरी संतान लाने के लिए सहमत नहीं थे और वो(जिनके बारे में लिख रहा हूं) गर्भपात के पक्ष में नहीं थे। वैसे आर्थिक दृष्टिकोण से उनका परिवार सक्षम था और उनकी श्रीमती को भी कोई स्वास्थ्यगत परेशानी नहीं थी।कुल मिलाकर कहा जाए तो ऐसा कोई कारण नहीं था,जिसके आधार पर तीसरी संतान ‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌ना लाया जा सके।  

तीसरी संतान के जन्म के विषय में उनका अपने माता-पिता से मतभेद हो गया।उनके माता-पिता ने उनको जमकर खरी खोटी सुनाई।   

खैर,इस संबंध में जब उन्होंने  मुझे बताया तो मेरे हिसाब से उनके मां-बाप का निर्णय वहां पर गलत था। चूंकि हमारे यहां मां बाप की आज्ञा को सर माथे से लगाने की परंपरा रही है और वह भी आज्ञाकारी पुत्र था इसलिए अपने मां-बाप की आज्ञा का उल्लंघन करने का साहस नहीं जुटा पाया और उसके दिमाग में एक द्वंद्व महीनों चलता रहा और दुर्भाग्य से एक दिन वह तनाव के कारण पक्षाघात का शिकार हो गया।समय रहते उनको उचित इलाज मिल गया तो आज अच्छी स्थिति में है। हालांकि इस सही गलत फैसले के कारण बहुत बड़ी धनराशि व्यय हुआ और मानसिक प्रताड़ना‌ सबने झेली वो अतिरिक्त था।

उनकी किस्मत अच्छी रही और वह काफी हद तक स्वस्थ हैं और अपनी पूर्व दिनचर्या में लौटने की उनकी कोशिश जारी है। माता-पिता का सम्मान सदैव किया जाना चाहिए।इस बात में कोई दोमत नहीं है। लेकिन गलत निर्णय कभी कभी माता-पिता द्वारा भी हो सकता है।

 मुझे उनकी उस स्थिति के जिम्मेदार उनके मां-बाप ही लगे।क्या किसी सही बात के लिए अपने मां बाप का विरोध करना गलत है जबकि उनके मां-बाप गलत का साथ दे रहे हों। तथाकथित आदर्शवाद के पालन के लिए बाध्यता क्यों?कभी कभी विद्रोह भी जरूरी होता है। महाभारत के प्रसंग को याद करें जब द्रौपदी का चीरहरण हो रहा था तब सभी वरिष्ठ जनों ने अपने मुंह सी रखे थे।किसी ने भी उस अनुचित कार्य का विरोध करने का साहस नहीं किया।फलत: आगे चलकर उन सबको अपने मौन का फल भोगना पड़ा।उसी प्रकार जब रामायण के प्रसंग में भरत जी को राजगद्दी दिलाने के लिए उसकी मां कैकेई ने जब षड्यंत्र रचा तब भरत ने उनका विरोध किया।उन्होंने वहां अपनी जन्मदात्री माता के गलत निर्णय का विरोध किया।लंका के प्रसंग को देखें तो विभीषण ने भी अपने भाई रावण के अनुचित कृत्यों में सहभागिता के बजाय उनके शत्रु के पक्ष में जाना अधिक उचित समझा क्योंकि वहां सत्य था।

 आदर्शवाद की परंपरा का निर्वहन करके गलत का साथ देना क्या गलत नहीं है?गलत को गलत कहने का साहस करना क्या गलती है?मुझे तो लगता है कि जहां पर भी गलत हो, वहां पर गलत के खिलाफ विद्रोह जरूरी है।आप लोगों का क्या कहना है?

रविवार, 16 मई 2021

स्कूली किताबें



 हमारे देश में बच्चों की पढ़ाई लिखाई को चौपट हुए डेढ़ साल होने को है।चीन देश की आफत हमारे देश सहित विश्व भर में कहर बरपा रही है।अमूमन बहुत से देशों में पढ़ाई लिखाई ठप्प पड़ा है।स्कूलों और कॉलेजों में ताले लगे हैं। हालांकि पढ़ाई-लिखाई का कार्य यथावत रखने के लिए आनलाईन पढ़ाई जैसे  वैकल्पिक उपायों का सहारा लिया जा रहा है।परिस्थितियों के अनुकूल होने के बाद ही सभी प्रकार के नुक़सान की भरपाई हो सकती है, लेकिन जो अकारण काल के ग्रास बने उनकी और बच्चों के बीते समय की पढ़ाई के नुक़सान की भरपाई कभी नहीं हो सकती।आज सोशल मीडिया में किसी ने बचपन के दिनों की एक कविता शेयर किया तो गुजरे दौर की यादें चलचित्र की भांति चलायमान हो गई।

आज मुझे अपने स्कूली दिनों की भाषा की किताबें और उसमें लिखी कविता और कहानियां याद आ रही है। सचमुच तब कितनी दिलचस्प हुआ करती थी हमारी स्कूली किताबें।उस समय ना तो आज की तरह प्राइवेट स्कूलों की भरमार थी और ना ही आज की तरह ताम-झाम और फालतू के चोचले। उस समय सब बच्चे विद्यार्जन के लिए सरकारी स्कूलों में ही पढ़ते थे चाहे उनके पालक व्यापारी हों, कर्मचारी हों या किसान हो। सब बिना भेदभाव बिना कोई ठसनबाजी के एक साथ पढ़ते थे।स्टेटसबाजी नाम की बीमारी नहीं आई थी उस वक्त तक।

हम लोगों की पढ़ाई अविभाजित मध्यप्रदेश में हुई थी।तब स्कूलों में मध्यप्रदेश पाठ्य-पुस्तक निगम की किताबें पढ़ाई जाती थी।उस समय के स्कूली किताबों में लिखा पापुनि और पेड़ की डाली पर बैठे मोर का लोगो मानस पटल पर आज भी अंकित है।तब कक्षा पहिली और दूसरी की किताबें रंगीन होती थीं जबकि कक्षा तीसरी के बाद किताबें श्वेत श्याम हो जाती थी।मतलब सफेद कागज पर काली स्याही से छपी पुस्तकें पढ़ने को मिलती थी।ठीक भी थीं,जीवन का फलसफा भी यही सिखाता है।आदमी के जीवन में बचपन के दिन ही रंग बिरंगे होते हैं।बाद में धीरे-धीरे दुनियादारी की कालिख मन-मस्तिष्क पर चढ़ने लगती है और जीवन की रंगीनियां खोने लगती है।शनै:शनै: आदमी का जीवन श्वेत श्याम हो जाता है। लेकिन कोशिश जीवन में रंग भरने की ही होनी चाहिए।सारे रंग ना मिले ना सही,जो मिल जाए उसी से जीवन में खुशियां भरने की कोशिश होनी चाहिए।

खैर,इस पर फिर कभी चर्चा करूंगा। फिलहाल तो बातें स्कूली किताबों की।भाषा की किताब में सर्वप्रथम ईश वंदना के पाठ होते थे।जगत नियंता की आराधना से पठन पाठन का कार्य शुरू होता था।इन पाठों को प्रायः हम लोग गणतंत्र दिवस और स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर सांस्कृतिक कार्यक्रमों में पढ़ते थे और तालियां और ईनाम बटोरते थे। एक वंदना आज भी थोड़ा बहुत याद है।

जिसने सूरज चांद बनाया

जिसने तारों को चमकाया

जिसने फूलों को महकाया

जिसने चिड़ियों को चहकाया

जिसने सारा जगत बनाया

हम उस ईश्वर के गुण गाएं

उसे प्रेम से शीश झुकाएं।

बस इतना ही!!!

उस समय के स्कूली पाठ्यक्रम में सरल शब्दों में सुंदर सुंदर कविता और चित्र मजेदार होते थे।जिनसे बचपन मजेदार हो जाती थी।कुछ कविताएं और कहानियां आज भी याद है जैसे अब्बू खां की बकरी,सुई धागा और मशीन,पांच बातें,लक्ष्मी बहू, प्रायश्चित,पंच परमेश्वर,खुदीराम बोस आदि आदि।बचपन में पढ़े कुछ कहानियों के पाठों का नाम भले ही भूल गया हूं, पर उसकी कलावस्तु और पात्रों के नाम आज भी याद है।हरपाल सिंह और उसकी पांच बातें,लालची पंडित का बिल्ली मारने पर सोने की बिल्ली दान करवाने का सुझाव,पंच परमेश्वर के अलगू चौधरी और जुम्मन शेख।लाल बुझक्कड और चल रे मटके टम्मक टूं के बुढ़िया की चतुराई।मां खादी की चादर दे दो, यह कदंब का पेड़, पुष्प की अभिलाषा कविता आज भी जुबानी याद है।सारी कविताएं और कहानियां बेजोड़!एक से बढ़कर एक!!

आजकल की किताबों में मुझे व्यक्तिगत तौर पर वो बात नहीं दिखाई देती है जो हमारे दौर की स्कूली किताबों में हुआ करती थी।तब पाठ्य-पुस्तक आज के किताबों की तरह बोझिल और उबाऊ नहीं होते थे। किताबें देखकर भागने का मन नहीं करता था। लेकिन आजकल की किताबें नीरस जान पड़ती है।शायद इसीलिए बच्चे किताबें देखकर भागते हैं।ऐसे में मुझे बच्चों का कोई दोष नहीं दिखाई देता।पता नहीं वर्तमान के शिक्षाविदों को क्या हो गया है कि वे बच्चों के मन को रिझाने वाले विषय-वस्तु को पाठ्यक्रमों में स्थान नहीं दे रहे हैं। बच्चों की किताबों से साहित्य गायब हो रहे हैं और कामचलाऊ रचनाएं पाठ्य-पुस्तक की शोभा बढ़ा रही है।मुंशी प्रेमचंद,पंत,निराला,परसाई,शरद जोशी जैसे विलक्षण साहित्यकारों की रचना का स्कूली किताबों में अभाव खटकता है।रोचकता के अभाव में बच्चों में पढ़ाई के प्रति ललक बढ़े भी तो कैसे? हालांकि बदलते समय के साथ आधुनिक तकनीक और


विचारधारा वाले विषय-वस्तु का समावेश स्कूली किताबों में जरूरी है, लेकिन अतीत के पन्नों को भी जोड़ा जाना चाहिए।

एक पालक के तौर पर बच्चों की किताबों को जरूर खंगालें....

चित्र सोशल मीडिया से साभार 

शुक्रवार, 14 मई 2021

एक छोटी सी कहानी अक्षय तृतीया की



 

बहुत दिनों से कुछ लिखना नहीं हो पा रहा है।महामारी ने इतनी दहशत फैला रखी है कि कुछ भी सूझता नहीं है।फिर भी आज कुछ लिखने का मन किया तो एक कहानी लिखा हूं।एक सुखांत प्रेमकथा...
अक्षय तृतीया...
आज अक्षय तृतीया है।कहते हैं इस दिन कोई भी कार्य अगर शुरू किया जाये तो वह अवश्य सफल होता है।अक्षय तृतीया स्वयंसिद्ध शुभ मुहूर्त है। इसलिए छत्तीसगढ़ के ग्रामीण क्षेत्रों में इस दिन हजारों की संख्या में शादी ब्याह रचाया जाता है।कुछ जीवनपर्यंत साथ निभाने के लिए रचाई जानेवाली सचमुच की शादियां और कुछ गुड्डे-गुड़ियों वाली शादी जिसे बच्चे आपस में मिल जुलकर रचाते हैं।
ऐसे ही गुड्डे-गुड़ियों की शादी में तो मिले थे, सरला और सुधीर! बच्चों ने बहुत जिद करके सुधीर को लड़के पक्ष की ओर से बाराती बना लिया था, और सरला तो अपनी ममेरी बहन की जिद के कारण उस शादी में शामिल हुई थी।सरला अभी पढ़ाई कर रही थी अपने मामाजी के घर में रहकर जबकि सुधीर सालभर पहले ही अपनी पढ़ाई पूरी करके गांव लौटा था।सुधीर अच्छा खासा पढ़ा लिखा था, इसलिए उसको घर की खेती किसानी में कुछ खास रूचि नहीं थी।वह घर में रहकर ही नौकरी के लिए अर्जियां देते रहता और प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करते रहता।
बच्चों ने लोकजीवन में निभाई जाने वाली तमाम रस्मों को खूब मन लगाकर पूरा किया।शादी संपन्न हुई।रसोई में भोजन बनाने का जिम्मा सरला और उसकी कुछ सहेलियां संभाल रही थी।इधर सुधीर बराती बनकर शादी का लुत्फ उठा रहा था अपने मित्रों के साथ।जब भोजन करने की बारी आई तो सरला और सुधीर का एक दूसरे से सामना हुआ। दोनों ने एक दूसरे को देखा और देखते ही रह गए।सरला को उसकी छोटी ममेरी बहन ने दीदी!दीदी! चिल्लाकर जब झंझोड़ा तब उसकी तंद्रा भंग हुई, और वो नजरें झुका कर वहां से चली गई।इधर सुधीर भी वहां से दूसरे कामों में लग गया।
माना जाता है कि अक्षय तृतीया के दिन बीज बोना शुभ होता है और फसल में बढ़ोतरी होती है।आज सरला और सुधीर के मन में भी प्रेम के बीज पड़ चुके थे।
अक्षय तृतीया की शादी संपन्न हुई।अक्षय तृतीया का अगला दिन सबके लिए दिन सामान्य दिनों की तरह ही पहले जैसे हो गया। लेकिन सरला और सुधीर के लिए अब दिन पहले जैसे ना रहा। दोनों ही एक-दूसरे को देखने का बहाना ढूंढते।
सुधीर के घर में नींबू का पेड़ था।सरला कुछ दिनों बाद अक्सर ही अपनी ममेरी बहन के साथ नींबू लेने के बहाने सुधीर के घर आ जाती।कभी कभी तो अकेले भी।अब सरला का सुधीर की मां से गहरा परिचय हो चुका था।जब भी नींबू लेने आती मां के साथ गपशप जरूर करती और कनखियों से सुधीर को निहारती।इधर सुधीर भी किताबों से नजर हटाकर सरला को देखने का लालच नहीं छोड़ पाता था।एक अलग ही प्रकार का आकर्षण दोनों के बीच बढ़ रहा था। लेकिन जुबां दोनों ने नहीं खोले थे। सिर्फ आंखों ही आंखों में बात कर लेते थे।
एक दिन रोज की तरह सरला नींबू लेने आई तो सुधीर की मां नहीं थी।मां!मां कहकर उसने आवाज लगाई‌।जब कोई उत्तर नहीं मिला तो लौटने लगी।तब सुधीर ने उससे कहा-ठहरो!! मैं लेके आता हूं। कहकर घर की बाड़ी में गया और उसके हाथ में तीन चार नींबू रख दिए।सरला ने आंखे नीचे किए नींबू लिए और दौड़कर घर आ गई।सुधीर उसे जाते देखता रहा अपलक!
बहुत दिनों तक उन दोनों के मध्य मौन वार्तालाप चलता रहा।समय गुजरता रहा।इसी बीच क्वांर नवरात्र का पर्व आया।बस्ती वालों ने गौराचौकी पर हमेशा की तरह मां दुर्गा की मूर्ति स्थापित कर माता की पूजन अर्चन और सेवा आरंभ किया।रात में गांव के सभी लोग जसगीत गाते और माता का जयगान करते।सरला और सुधीर भी इसमें शामिल होते।सुधीर को मांदर की थाप पर जसगीत गाते देख सरला मंत्रमुग्ध हो जाया करती।इधर सुधीर सरला की उपस्थिति से उत्साहित होकर देर रात तक जसगीत गाता था। नवरात्र के अंतिम दिवस जब सब लोग माता को विदाई देकर लौट रहे थे सरला नीम के पेड़ के नीचे खड़ी होकर अपनी सहेलियों की राह देख रही थी तभी सुधीर उसके पास आया और चुपके से एक कागज हाथ में थमा गया।
सरला ने उस कागज को धड़कते दिल से खोला। उसमें लिखा था-अगर तुम मुझे पसंद करती हो तो इस बार दीवाली यहीं मनाओगी।
इससे ज्यादा कुछ भी नहीं लिखा था।क्वांर का महीना बीता और कार्तिक मास आया।सरला के पिताजी दीवाली के दस दिन पहले ही उसको घर ले जाने के लिए आ गए थे।हर बार अपने घर जाने के लिए एक पैर पर खड़ी रहने वाली सरला ने इस बार जब अपने मामाजी के घर दीवाली मनाने का निर्णय लिया तो उसके बाबूजी और मामाजी को बहुत अचंभा हुआ।फिर सरला की खुशी के लिए सबने उसकी हां में हां मिला दी।
इधर सुधीर को जैसे ही ये खबर मिली।उसका मन मयूर नाच उठा।गांव में घर की लिपाई पुताई का काम चरम पर था।सब दीवाली की तैयारियों में लगे थे।आखिर दीवाली की रात आई।चौक में गौरी गौरा स्थापित हो चुका था। बच्चियां,महिलाएं और युवतियां सिर में कलश लिए गौरी गौरा की परिक्रमा कर रही थीं। उनमें सरला भी शामिल थी।सुधीर अपने मित्रों के साथ इस मनोरम दृश्य का आनंद ले रहा था।तभी सुधीर को लगा कि सरला का कलश कुछ तिरछा हो गया है।वह दौड़कर गया और उसने उसकी कलश को सीधा किया।रात भर गौरी गौरा गीत का गायन चलता रहा।सवेरे गौरी गौरा के विसर्जन से लौटने के बाद सरला ने दीवाली की मिठाई और कागज का एक छोटा सा टुकड़ा अपनी ममेरी बहन को देकर सुधीर के पास चुपचाप देकर आने के लिए कहा। वो बच्ची सुधीर के पास गई और उसका सामान थमाकर लौट गई।सुधीर ने मिठाई को किनारे रखा और कागज खोलकर देखा।लिखा था-इन मिठाईयों से ज्यादा मीठास है मेरे प्रीत में।इतना पढ़ कर सुधीर गटागट सरला की भेजी मिठाईयां निगलता चला गया।
इसके बाद दोनों कभी कभार इशारों इशारों में बात भी कर लिया करते थे। धीरे-धीरे उन दोनों को लेकर पड़ोसी खुसर-पुसर करने लगे।बात सरला के मामाजी के कानों तक पहुंची तो उसने सरला को बाहर निकलने से मना कर दिया और उसे पढ़ने की सख्त हिदायत दी और परीक्षा के बाद उसे उसके घर छोड़ आया।
इधर सुधीर परेशान हो उठा।उसकी मां अपने बेटे की मनोदशा  समझ चुकी थी। उसने सुधीर को प्यार से समझाया-बेटा! सब-कुछ अपने मन का नहीं होता।अगर तुम चाहते हो कि सब कुछ अपने मन का हो तो तुमको काबिल बनना होगा।
सुधीर ने मां की बात को गांठ बांध लिया और नौकरी के लिए सरला की स्मृति को रखकर परीक्षा की तैयारियों में जुट गया।कुछ दिन के बाद परीक्षा का परिणाम आया और सुधीर उंचे पोस्ट के लिए चुन लिया गया।तब सुधीर की मां ने उसके पिताजी से सरला के बारे में बात किया और उसको सुधीर की मनोदशा से अवगत कराया।सुधीर के पिता सुलझे हुए इंसान थे।जैसे ही चैत्र का महीना आया वो सरला के मामाजी को साथ लेकर सरला के घर गए।
उन्होंने सरला के पिताजी को सुधीर के बारे में बताया और अपने बेटे के लिए सरला का हाथ मांगा। थोड़ी बहुत औपचारिक बातें हुई और सरला के पिताजी आखिरकर रिश्ते के लिए मान गए।
अक्षय तृतीया का पावन पर्व आ चुका था।चारों तरफ हर्षोल्लास का माहौल था।दुल्हा दुल्हन सजकर फेरे ले रहे थे। लेकिन ये शादी गुड्डे-गुड़ियों का ना था।ये शादी थी सरला और सुधीर की।अक्षय तृतीया को प्रस्फुटित प्रेम का बीज अक्षय हो चुका था...जन्म जन्मांतर के लिए..
और मंडप पर गूंज रही थी स्वर लहरियां-  ये मोर दाई सीता ला बिहावय राजा राम....

बुधवार, 3 फ़रवरी 2021

चढ़ता सूरज धीरे-धीरे ढलता है ढल जायेगा


आप सबको कभी कभी महसूस नहीं होता कि ये पूरी दुनिया मैं.. मैं..मैं.... चिल्लाने वालोें से भरी पड़ी हैं।आपने क्या सोचा? हम किसकी बात कर रहे हैं....बकरी की!!!

जी नहीं; हम यहां बकरियों की बात नहीं कर रहे हैं।हम बात कर रहे हैं उन लोगों की, जिनको ये भ्रम है कि दुनिया उनके भरोसे चल रही है।वो नहीं रहेंगे तो दुनिया डगमगाने लगेगा। ऐसा सोचने वाले लोग!! मैंने ये किया,मैंने वो किया, मैं ये जानता हूं, मैं वो जानता हूं,मुझे ये चीज आती है, मैं सब जानता हूं कहने वाले।याने मैं ही मैं का रट्टा मारने वाले आत्ममुग्ध इंसान।

वैसे ऐसे लोगों को ढूंढने के लिए ज्यादा दूर जाने की जरूरत नहीं है।हम सबके आसपास ही ऐसे लोग बेहिसाब तादाद में अगल-बगल में खड़े मिलते हैं।हमारे धार्मिक ग्रंथों में बताया भी गया है कि इंसान मिट्टी से बना है और अंत में मिट्टी में ही मिल जायेगा।

छिति जल पावक गगन समीरा। पंच रचित अति अधम सरीरा

पर ये मानता कौन है? समझता कौन है?

धार्मिक ग्रंथ पढ़ने का टाईम किसके पास है? कम से कम आज की पीढ़ी के पास तो बिल्कुल नहीं हैं। तमाम सुख सुविधाओं से लैस आज की पीढ़ी आईफोन,सोशल मीडिया, आनलाईन गेमिंग और उल्लू जैसे प्लेटफार्म में अपने वर्तमान का कबाड़ा कर रहे हैं। ऐसे में जीवन की कड़वी सच्चाई को जानने समझने का सबसे सरल तरीका है आप अजीज नाजा साहब कि कव्वाली सुन लीजिए।अब आप पूछेंगे कौन अजीज नाजा? यूट्यूब में सर्च कीजिए मिल जायेगा।कदाचित कुछ मदिराप्रेमियों को स्मरण भी हो आया हो।

हां..हां...वही अजीज़ साहब जिनकी कव्वालियों ने शराबियों को मदमस्त किया था।मस्ती में आ पीये जा...झूम बराबर झूम जैसे सुपरहिट कव्वाली गाने के गायक।उसी अजीज नाजा साहब ने खूबसूरत संगीत के साथ कैसर रत्नागिरवी के चौबीस कैरेट सोने से खरे शब्दों को जब अपनी आवाज़ की खनक के साथ मिलाया तो ये कव्वाली कालजयी बन पड़ा है।जो शायद सदियों तक सुनी जाती रहेगी।जीवन की सच्चाई का आईना दिखाती और दिखावे से दूर रहने की हिदायत देती ये कव्वाली कमाल बनी है। झूठे घमंड में चूर लोगों को ये कव्वाली जरूर सुननी चाहिए।मुझे तो इसकी दो पंक्तियां सबसे ज्यादा भाती है-

याद कर सिकंदर को हौसले तो आली थे।

जब गया वो दुनिया से, दोनों हाथ खाली थे।।

हमारे बचपन के दिनों में ये कव्वाली खूब चला करती थी।अजीज साहब के बाद उसके साहबजादे जाहिद नाजा ने भी इस कव्वाली को उन्हीं की आवाज में गाया है,जिसे आप यूट्यूब में सुन और देख सकते हैं। महाभारत युद्ध के समय भगवान श्रीकृष्ण ने जीवन का सार गीता में बताया था। बिल्कुल उसी कृष्ण के गीता उपदेश का सार सा लगता है ये कव्वाली।शब्द ज्यों का त्यों उद्धृत कर रहा हूं-

हुए नामवर ... बेनिशां कैसे कैसे ...

ज़मीं खा गयी ... नौजवान कैसे कैसे ...


आज जवानी पर इतरानेवाले कल पछतायेगा - ३

चढ़ता सूरज धीरे धीरे ढलता है ढल जायेगा - २

ढल जायेगा ढल जायेगा - २


तू यहाँ मुसाफ़िर है ये सराये फ़ानी है

चार रोज की मेहमां तेरी ज़िन्दगानी है

ज़र ज़मीं ज़र ज़ेवर कुछ ना साथ जायेगा

खाली हाथ आया है खाली हाथ जायेगा

जानकर भी अन्जाना बन रहा है दीवाने

अपनी उम्र ए फ़ानी पर तन रहा है दीवाने

किस कदर तू खोया है इस जहान के मेले मे

तु खुदा को भूला है फंसके इस झमेले मे

आज तक ये देखा है पानेवाले खोता है

ज़िन्दगी को जो समझा ज़िन्दगी पे रोता है

मिटनेवाली दुनिया का ऐतबार करता है

क्या समझ के तू आखिर इसे प्यार करता है

अपनी अपनी फ़िक्रों में

जो भी है वो उलझा है - २

ज़िन्दगी हक़ीकत में

क्या है कौन समझा है - २

आज समझले ...

आज समझले कल ये मौका हाथ न तेरे आयेगा

ओ गफ़लत की नींद में सोनेवाले धोखा खायेगा

चढ़ता सूरज धीरे धीरे ढलता है ढल जायेगा - २

ढल जायेगा ढल जायेगा - २


मौत ने ज़माने को ये समा दिखा डाला

कैसे कैसे रुस्तम को खाक में मिला डाला

याद रख सिकन्दर के हौसले तो आली थे

जब गया था दुनिया से दोनो हाथ खाली थे

अब ना वो हलाकू है और ना उसके साथी हैं

जंग जो न कोरस है और न उसके हाथी हैं

कल जो तनके चलते थे अपनी शान-ओ-शौकत पर

शमा तक नही जलती आज उनकी तुरबत पर

अदना हो या आला हो

सबको लौट जाना है - २

मुफ़्हिलिसों का अन्धर का

कब्र ही ठिकाना है - २

जैसी करनी ...

जैसी करनी वैसी भरनी आज किया कल पायेगा

सरको उठाकर चलनेवाले एक दिन ठोकर खायेगा

चढ़ता सूरज धीरे धीरे ढलता है ढल जायेगा - २

ढल जायेगा ढल जायेगा - २


मौत सबको आनी है कौन इससे छूटा है

तू फ़ना नही होगा ये खयाल झूठा है

साँस टूटते ही सब रिश्ते टूट जायेंगे

बाप माँ बहन बीवी बच्चे छूट जायेंगे

तेरे जितने हैं भाई वक़तका चलन देंगे

छीनकर तेरी दौलत दोही गज़ कफ़न देंगे

जिनको अपना कहता है सब ये तेरे साथी हैं

कब्र है तेरी मंज़िल और ये बराती हैं

ला के कब्र में तुझको मुरदा बक डालेंगे

अपने हाथोंसे तेरे मुँह पे खाक डालेंगे

तेरी सारी उल्फ़त को खाक में मिला देंगे

तेरे चाहनेवाले कल तुझे भुला देंगे

इस लिये ये कहता हूँ खूब सोचले दिल में

क्यूँ फंसाये बैठा है जान अपनी मुश्किल में

कर गुनाहों पे तौबा

आके बस सम्भल जायें - २

दम का क्या भरोसा है

जाने कब निकल जाये - २

मुट्ठी बाँधके आनेवाले ...


मिलते हैं अगले पोस्ट में..तब तक राम-राम

मुट्ठी बाँधके आनेवाले हाथ पसारे जायेगा

धन दौलत जागीर से तूने क्या पाया क्या पायेगा

चढ़ता सूरज धीरे धीरे ढलता है ढल जायेगा




ड्रामे की किताब


 आज एक किताब की दुकान में जाना हुआ। पिछले साल से स्कूल कालेज बंद चल रहे हैंं। पर बच्चों की परीक्षा आयोजित होना तय है, इसलिए गाईड और प्रश्न बैंक वगैरह सजाके दुकानदार बैठा था।दुकानदार परिचित था इसलिए थोड़ी देर तक इधर-उधर की बातें होती रही।तभी मेरी नजर कुछ पुरानी पतली से पुस्तकों पर पड़ी।समय के मार से धूल खाते पड़ी थी।शायद सालों से उन पतली पुस्तकों की माॅंग नहीं थी। मैंने उन पुस्तकों पर पड़ी धूल झाड़कर देखा तो समझ में आया कि ये किताबें तो नाटकों की हैं,जो पहले गांवों के रंगमंचों पर खेला जाता था।
तब का जमाना भी क्या जमाना था? मनोरंजन के विशेष साधन ना थे। विशेष अवसरों पर ही नाचा या अन्य मंचीय कार्यक्रमों का संयोग बनता था।अक्सर दशहरे के अवसर पर रामलीला होता था।और अन्य अवसर के लिए ड्रामा की मंचीय प्रस्तुति होती थी। जिनमें सामान्यतः सामाजिक विषयों का फिल्मी टच के साथ मसालेदार कहानी हुआ करती थी।डाकू,सती,दहेज और रामायण तथा महाभारत के विभिन्न प्रसंगों के नाटक हुआ करते थे। नाटकों के शीर्षक भी दिलचस्प होते थे।जैसे-राखी के दिन, इंसाफ की आवाज,लहू की सौगंध,गरीब का बेटा,जयद्रथ वध,राजा हरिश्चंद्र,कीचक वध,सती सावित्री आदि।ये नाटक ऐसे होते थे जिन्हें कम बजट पर मंच पर प्रस्तुत किया जा सकता था।
इन नाटकों की पुस्तकें ज्यादातर भागलपुर बिहार से प्रकाशित हुआ करती थी।डायलॉग सरल सहज हिंदी में लिखे होते थे। जिन्हें गांव के कम पढ़े लिखे लोग भी आसानी से रट्टा मार लिया करते थे। मनोरंजन का सशक्त माध्यम होता था ये ग्रामीण क्षेत्रों में। जहां अभिनेता और दर्शक गांव के लोग ही होते थे। स्त्री पात्र का अभिनय भी पुरुष ही करते थे। 
इन नाटकों का कोई निर्देशक नहीं होता था।नाटक का मैनेजर ही सबका एक्टींग में मार्गदर्शन करता था। कलाकार भी भोले भाले ग्रामीण होते थे जिन्हें स्त्री पुरुष दोनों का अभिनय करना होता था।चेहरे की बनावट,अभिनय क्षमता और पार्ट याद करने की क्षमता के आधार पर पात्र का चयन किया जाता था।रातभर नाटक चलता था जिसमें बीच-बीच में प्रसंगानुसार स्थानीय बोली के गीत और फिल्मी गानों का भी समावेश होता था। पेट्रोमेक्स की रोशनी और लो बजट के साउंड सिस्टम के साथ कपड़े और बांस बल्लियों से बने अस्थाई रंगमंच पर रातभर कामेडी, इमोशन,एक्शन और रोमांस का तड़का लगता था। लोगों का रातभर मनोरंजन करने वाले कलाकार अगली सुबह फिर दैनिक दिनचर्या में व्यस्त हो जाते थे।
उस दौर में पैसे की कमी जरूर थी.... लेकिन दिल बड़ा हुआ करते थे

शनिवार, 30 जनवरी 2021

हमारे बापू

 मोहनदास करमचंद गांधी;नाटे कद का एक ऐसा विराट व्यक्तित्व जिसके आगे बड़े से बड़े व्यक्ति का कद भी बौना साबित होता था।एक ऐसा करिश्माई शख्सियत जिसने पूरी दुनिया को अहिंसा का पाठ पढ़ाया और सत्य की ताकत का एहसास कराया।पूरा भारतवर्ष उनको महात्मा,बापू और राष्ट्रपिता के संबोधन से संबोधित करता है।उनके व्यक्तित्व से समूचा विश्व प्रभावित रहा है। आज के युवाओं के चहेते आईफोन बनाने वाली कंपनी "एप्पल"के संस्थापक स्टीव जॉब्स गांधी जी के मुरीद थे।वे उनके सम्मान में उनके जैसे ही गोल फ्रेम का चश्मा पहनते थे। अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा किसी मृत व्यक्ति से मुलाकात का अवसर मिलने के प्रश्न पर उनसे मिलने की इच्छा जताते हैं।दलाई लामा, नेल्सन मंडेला समेत अनेक हस्तियां उनके व्यक्तित्व से प्रभावित हैं।

अहिंसा के इस पुजारी के सम्मान में संयुक्त राष्ट्र संघ ने सन् 2007 में उनकी जयंती को विश्व अहिंसा दिवस घोषित किया।सबसे बड़ी बात ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री रहे जिस विंस्टन चर्चिल ने गांधी जी को 'अधनंगा फकीर' कहा था उसी चर्चिल के प्रतिमा के बगल में 4 मार्च 2015 को लंदन के पार्लियामेंट स्क्वायर में गांधी जी की 9 फुट ऊंची कांस्य प्रतिमा लगाई गई है।ये कुछ उदाहरण है हमारे बापू के विराट व्यक्तित्व के आभामंडल का।

2 अक्टूबर 1869 को गुजरात के पोरबंदर शहर में जन्म लेकर मोहनदास गांधी ने महात्मा की पदवी पाने तक एक लंबे संघर्ष का मार्ग तय किया है।सन् 1914 में बैरिस्टर बनकर स्वदेश वापसी के बाद वे चाहते तो एक वकील के रूप में अपना जीवन निर्वाह कर सकते थे। लेकिन उन्होंने पराधीनता की पीड़ा को महसूस किया और अहिंसा के मार्ग पर चलते हुए स्वतंत्रता प्राप्ति के कठिन मार्ग को अपने जीवन का लक्ष्य बनाया। अनेकों उतार चढ़ाव उनके जीवन में आते रहे पर वे अपने सिद्धांतों पर अडिग रहे।कोई भी कठिनाई उनके अटल नियम और निश्चय को तोड़ पाने में असफल रही।

स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए मीलों की पैदल यात्रा, लगातार देश भर में भ्रमण,देशभर के अपने अनुयायियों के साथ पत्र व्यवहार उनके जीवन चर्या का अभिन्न अंग था।

बापू कभी थकते नहीं थे। संयमित जीवनशैली को स्वयं अपनाते थे और अन्य लोगों को भी अपनाने के लिए प्रेरित करते थे।

भारतीय राजनैतिक आंदोलन में उन्होंने समूचे राष्ट्र का नेतृत्व किया।अनेक आंदोलनों का शंखनाद किया और ब्रिटिश सरकार की चूलें हिलाकर रख दिया।उनके इस सफर में पं जवाहरलाल नेहरू,सरदार पटेल और अनेक नेताओं ने उनके साथ कदम पर कदम मिलाकर काम किया।

उनकी आत्मकथा"सत्य के प्रयोग" एक खुली किताब है जिसमें उन्होंने बड़ी बेबाकी से अपने जीवन के प्रसंगों को उजागर किया है।हालांकि कुछ लोगों को गांधीजी के कुछ राजनैतिक निर्णय असहज लगते हैं और इस पर उनकी आलोचना भी होती रहती है।पर अंततोगत्वा वे सर्वमान्य नेता थे।

उनके जीवन की सरलता और सहजता प्रेरणादायक है।उनके विचार आज भी निराश मन में नई ऊर्जा का संचार करते हैं। बल्कि मुझे तो लगता है आज के मारकाट वाले दौर में उनके विचार और अधिक प्रासंगिक हैं।उनका कथन "आंख के बदले आंख फोड़ देने की सोच समूचे विश्व को अंधा बना देगी।"क्या गलत है?

30 जनवरी सन् 1948 को नाथूराम गोडसे ने इस महामना की हत्या कर दी।वह गांधी जी के कुछ निर्णय और विचारों से सहमत नहीं था।लेकिन गांधीजी का निधन भारत के लिए अपूरणीय क्षति थी।

गांधीजी के बारे में 2 अक्टूबर 1944 को प्रख्यात वैज्ञानिक "आइंस्टीन" ने कहा था कि-"आनेवाली नस्लें शायद मुश्किल से ही विश्वास करेंगी कि हाड़ मांस का बना हुआ कोई ऐसा  व्यक्ति भी धरती पर चलता-फिरता था।"

गांधीजी की लोकप्रियता समूचे विश्व में है। हमारे छत्तीसगढ में भी दो बार उनका आगमन सन् 1920 और 1933 में हुआ था।ये ऐतिहासिक तथ्यों से ज्ञात होता है। गांधीजी से छत्तीसगढ़ का भी जुड़ाव है।

  हमारे विकास खंड छुरा की सीमा से लगा हुआ महासमुंद जिले का एक छोटा सा गांव तमोरा है।माना जाता है कि इस ग्राम में भी गांधीजी का आगमन हुआ था, लेकिन इस संबंध में ऐतिहासिक दस्तावेज प्राप्त नहीं हैं।लेकिन गांधीजी की यादें ग्रामीणों के मन में आज भी बसती है।सन् 1930 में यहां तमोरा जंगल सत्याग्रह हुआ था,जिसका नेतृत्व स्व. शंकरलाल गनोदवाले,स्व.यति यतनलाल और तमोरा निवासी स्व. रघुवर दीवान  ने किया था।इस स्थान पर 8 सितंबर से 24 सितंबर 1930 तक आंदोलन हुआ था।इस आंदोलन के दौरान एक आदिवासी बालिकाद दयावतीने अंग्रेज अधिकारी को तमाचा भी जड़ा था, जो स्व.रघुवर दीवान की भतीजी थी।आजादी के पश्चात सन् 1955 से ग्रामीणों के द्वारा आपसी सहयोग से प्रतिवर्ष गांधी जी के पुण्य तिथि के अवसर पर गांधीग्राम-तमोरा में गांधी मेला का आयोजन होता है। जहां आसपास के ग्रामीण जुटते हैं और राष्ट्रपिता को श्रद्धांजलि देकर कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं। दिनकर के शब्दों के साथ बापू को भावभीनी श्रद्धांजलि-

लौटो, छूने दो एक बार फिर अपना चरण अभयकारी,

रोने दो पकड़ वही छाती, जिसमें हमने गोली मारी।


रविवार, 17 जनवरी 2021

फिल्मी पोस्टर











 पिछले दिनों हिंदी फिल्म जगत के पोस्टर डिजाइन करने वाले महान कलाकार दिवाकर करकरे जी का निधन हो गया।एक ऐसे कलाकार जिसकी कूची ने अमिताभ को एंग्रीयंगमैन के रूप में पोस्टर के द्वारा प्रतिष्ठित किया।जिनके रंग संयोजन में उनकी भावनाओं को स्पष्टतया समझा जा सकता था।

फिल्मों के लिए पोस्टर बनाने की शुरुआत तो भारतीय सिनेमा के जनक दादासाहेब फाल्के ने ही करी थी। उन्होंने अपनी पहली फिल्म"राजा हरिश्चंद्र" के पोस्टर भी स्वयं बनाये थे और कलाकारों के नाम को अपने हाथों से लिखा था।बाद में बाबूराव पेंटर जैसे कलाकारों ने पोस्टर कला को ऊंचाईयां प्रदान की। पश्चिम के देशों की तरह हमारे यहां चीजें संग्रहित करने की परंपरा में विशेष रुचि ना होने के कारण पोस्टर संग्रह का काम सिनेमा के शुरुआती दिनों में नहीं हुआ।बाद के वर्षों में लोगों ने पोस्टर संग्रहण शुरू किया और नोट छापे।बताया जाता है कि शाहरुख खान ने फिल्म मुगल-ए-आजम के हस्तनिर्मित पोस्टर को अच्छा खासा दाम देकर खरीदा था।
 मशहूर चित्रकार एमएफ हुसैन साहब ने भी हिंदी फिल्मों के पोस्टर डिजाइन किए थे।इसके अलावा अपने अलग डायलॉग डिलीवरी के लिए मशहूर अभिनेता नाना पाटेकर ने भी फिल्म पोस्टर बनाने का काम किया है।वे मुंबई के मशहूर जेजे स्कूल आफ आर्ट के छात्र रह चुके हैं।
फिल्म पोस्टर पहले हस्तनिर्मित होते थे। सिद्धहस्त चित्रकार अपनी कल्पना से फिल्म के किरदारों को जीवंत रूप में पोस्टर पर चित्रित करते थे।
ये बहुत से कलाकारों के लिए आय का स्त्रोत भी था।पहले हस्तनिर्मित पोस्टर कागज पर बनाये जाते थे।बाद के वर्षों में प्रिंटिंग मशीनों का आगमन हुआ और हस्तनिर्मित उन पोस्टरों की सैकड़ों हूबहू कापियां निकाल ली जाती थी।फिर जब कैमरे से फोटो लिए जाने लागे तो पोस्टर को मशीन से ही डिज़ायनिंग की जाने लगी।लेकिन उनमें वो बात नहीं थी जो कलाकारों के ब्रश स्ट्रोक्स से बने पोस्टरों में हुआ करती थी।
साल 2000 के बाद हस्तनिर्मित पोस्टर बनने पूर्ण रूपेण बंद हो गये।अब फ्लैक्स बनते हैं जो कम्यूटर के माध्यम से डिजाइन की जाती हैं।
पुराने जमाने के पोस्टरों की बात ही निराली होती थी। फिल्म की कहानी के विशेष दृश्यों को पोस्टरों में स्थान मिलता था। पोस्टर फिल्म देखने के लिए आए दर्शको के मन में कौतूहल पैदा करती थी और फिल्म देखने के लिए प्रेरित भी करती थी।
पोस्टर ब्वाय तड़के सवेरे पान के खोमचों,चौक चौराहों,बसों के पिछले हिस्से, ट्रेन में पोस्टर चिपकाने का काम करते थे।पोस्टर में जादू ही ऐसा होता था कि दर्शक टाकीजों तक खिंचे चले आते थे।मुझे याद आता है जब टाकीज के पोस्टर ब्वाय और एनाउंसर साइकिल रिक्शा पर माइक लेकर पोस्टर चिपकाते घूमा करते थे और उनका अंदाज होता था....कदरदान, मेहरबान, दोस्तों...आपके शहर में पहली मर्तबा...पहली बार... सुपरस्टार अमिताभ बच्चन... शहंशाह के रूप में....चले आइए अपने परिवार के साथ...फलाने टाकिज पर रोजाना चार खेलों के साथ....
चित्र-इंटरनेट से साभार

बुधवार, 6 जनवरी 2021

छत्तीसगढ़ में मितानी परंपरा




मित्रता का सभी मनुष्य के जीवन में महत्वपूर्ण स्थान होता है।किसी व्यक्ति के मित्रों के व्यक्तित्व से ही संबंधित व्यक्ति के व्यक्तित्व का अंदाजा सहज रूप से लगाया जा सकता है।सरल शब्दों में कहा जाये तो दो मित्र एक दूसरे का प्रतिबिंब होते हैं।ये एक ऐसा नाता होता है जिनमें रक्त संबंध नहीं होता पर ये उससे बढ़कर होता है।

हमारे पौराणिक ग्रंथों में भी राम-सुग्रीव,राम-विभिषण, कृष्ण-सुदामा,कृष्ण-अर्जुन,दुर्योधन-कर्ण जैसे मित्रों का वर्णन मिलता है।मुंशी प्रेमचंद के साहित्य में भी मित्रता ने स्थान पाया है।चाहे वह इंसान से इंसान की मित्रता हो जानवर की।

छत्तीसगढ़ में भी मित्रता के नाते को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है।हमारे यहां मितान बदने की परंपरा है।मतलब किसी धार्मिक आस्था से जुड़ी वस्तुओं का साक्षी रखकर जीवन भर के लिए मित्र (मितान/मितानिन)बनाया जाता है।मितान बदने वाले दो परिवार जीवनपर्यंत इस संबंध का निर्वहन करते हैं।महापरसाद, गंगाजल,गंगाबारू,गजामूंग,भोजली,जंवारा,तुलसीदल,रैनी,दौनापान,गोबरधन आदि मितान बदने के संबोधन है।मितान बदने के बाद मितान/मितानिन का नाम नहीं लिया जाता बल्कि उसे उपरोक्त संबोधन से संबोधित किया जाता है। परस्पर भेंट होने पर सीताराम महापरसाद,भोजली या अन्य संबोधन का प्रयोग होता है।मितान बदने में लैंगिक भेदभाव नहीं होता। स्त्री-पुरुष दोनों इस मित्रता संबंध में बंध सकते हैं।

भिन्न-भिन्न अवसर और पर्व आदि पर मितान बदने की परंपरा है।

गजामूंग-आषाढ महीने में भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा निकलती है और इस अवसर पर गजामूंग(अंकुरित चना व मूंग)के प्रसाद का वितरण होता है। महाप्रभु के इस प्रसाद को साक्षी मानकर गजामूंग मितान बदा जाता है।

महापरसाद-छत्तीसगढ का पड़ोसी राज्य ओडिशा से विशेष जुडाव है।यहां की संस्कृति में उत्कल प्रभाव देखा जा सकता है। छत्तीसगढ़ के लोगों की जगन्नाथ भगवान पर अगाध श्रद्धा है।हर साल बड़ी संख्या में छत्तीसगढ़ के श्रद्धालु जगन्नाथपुरी की यात्रा करते हैं। वहां पर मिलने वाले जगन्नाथ महाप्रभु के भोग महापरसाद को लोग लेकर आते हैं।महापरसाद खिलाकर महापरसाद बदा जाता है।

गंगाजल-हिंदू धर्मावलंबियों का गंगा मैया पर विशेष श्रद्धा है।जब किसी को गंगा मैया के दर्शन लाभ का अवसर मिलता है तो अपने साथ गंगाजल लेकर जरूर लौटते हैं।गंगाजल लेकर गंगाजल बदा जाता है।

गंगाबारू-गंगाजल की तरह गंगा की रेत,जिसे गंगाबारू कहा जाता है।इसका भी बड़ा महत्व है।गंगा की रेत से गंगाबारू बदा जाता है।

भोजली-भादो मास में छत्तीसगढ़ में भोजली बोने की परंपरा है।भोजली आदिशक्ति जगदंबा की आराधना का माध्यम है।भोजली के विसर्जन के समय भोजली बदा जाता है।

जंवारा-छत्तीसगढ मातृशक्ति का उपासक राज्य है। यहां ठांव-ठांव पर आदिशक्ति जगदंबा भिन्न-भिन्न नाम रूप में विराजित है। चैत्र और क्वांर दोनों नवरात्र पर छत्तीसगढ़ में जंवारा बोने की परंपरा है।जंवारा विसर्जन के समय जंवारा बदा जाता है।

रैनी-नवरात्र पर्व के बाद आता है।अच्छाई की बुराई पर जीत का महापर्व दशहरा। छत्तीसगढ़ के गांव-गांव में रावण दहन किया जाता है।रावण दहन पश्चात एक दूसरे को रैनी पान भेंटकर दशहरे की शुभकामना दी जाती है।इस अवसर पर रैनी बदने की परंपरा है।

गोबरधन-दीपावली का पर्व छत्तीसगढ़ में धूम धाम से मनाया जाता है। गौ-पालन की संस्कृति से जुड़े छत्तीसगढ़ में गोवर्धन पूजा की विशिष्ट परंपरा है। गोवर्धन पूजा के दिन गोठान में छोटे से बछड़े को सोहाई बांधकर और उसका पूजन कर अन्य ग्राम्य देवी-देवताओं की पूजा अर्चना की जाती है।इसके बाद गौ के गोबर का एक दूसरे के ऊपर तिलक लगाकर गोवर्धन पूजा की बधाई दी जाती है।इस अवसर पर गोवर्धन बदा जाता है।

दौनापान-छत्तीसगढ के ग्रामीण क्षेत्रों के घर और बाड़ी में एक खुशबूदार पेड़ दौना जरूर लगाई जाती है।इस पौधे के पत्तियों को एक दूसरे के कान में खोंसकर दौनापान बदा जाता है।

तुलसीदल-तुलसी का पेड़ छत्तीसगढ़ के घर घर में मिलता है।जनमानस में तुलसी के प्रति अगाध श्रद्धा देखने को मिलती है।हर शाम तुलसी चौरा में दीपक जलाने की परंपरा छत्तीसगढ़ में पुरातन काल से चली आ रही है।तुलसी की पत्तियों से तुलसीदल बदा जाता है।

पर्व विशेष से जुड़े मितान बदने की परंपरा पर्वादि पर ही होते हैं जबकि महापरसाद,गंगाजल,तुलसीदल,दौनापान कभी भी बदा जा सकता है।खासतौर से गांव में बूढी औरतें जो कि मुंहबोली दादियां होती है छोटे-छोटे नाती सदृश्य बच्चों के साथ उपरोक्त मितान जरूर बदती हैं।

मितान को जन्म जन्मांतर का संबंध माना जाता है। इसलिए विशेष रूप से पूरी जिम्मेदारी के साथ इस परंपरा का निर्वहन किया जाता है। विभिन्न पर्व आदि पर एक दूसरे के घर दाल-चावल और सब्जियों आदि का भेंट भिजवाया जाता है।एक व्यक्ति के किसी परिवार में मितान बदने के साथ ही पूरा परिवार मितानी संबंध से बंध जाता है। सामान्यतः इसे फुलवारी संबंध कहा जाता है।मतलब मितान/मितानिन के पिताजी को फुलबाबू,माता को फुलदाई कहा जाता है और भाई बहनों को फुलवारी भाई बहन।मितान बदने में ऊंच-नीच, जाति-पाति,धर्म और अमीरी-गरीबी आड़े नहीं आती।प्राय: सुख-दुख के सभी मौके पर मितान/मितानिन एक दूसरे के साथ दृढ़ता से खड़े मिलते हैं।मितानी परंपरा सीख देती है अपने मित्र (मितान)के प्रति विश्वास और जिम्मेदारी को जीवन पर्यन्त निभाने की। छत्तीसगढ़ की मितान परंपरा को सम्मान देने के लिए ही छत्तीसगढ़ शासन द्वारा गांव में प्राथमिक स्वास्थ्य सुविधाएं प्रदान करने वाली माता-बहनों को मितानिन का नाम दिया गया है।गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा भी है-

जे न मित्र दुख होहिं दुखारी, तिन्हहि विलोकत पातक भारी।

निज दुख गिरि सम रज करि जाना,मित्रक दुख रज मेरू समाना।

सीताराम मितान!!!

सोमवार, 4 जनवरी 2021

उम्मीदें 2021

 


त्रासदी भरा साल 2020 अपनी दुखद स्मृतियों के साथ विदा हुआ और साल 2021 ने दस्तक दे दी है।उम्मीद करते हैं कि नया साल सबके लिए मंगलकारी होगा।वैसे हर नये साल के मंगलकारी होने की कामना तो हम हर बदलते कैलेंडर के साथ करते हैं,पर साल का अच्छा या बुरा होना हमारे बस में नहीं होता।अपना सोचा कब होता है?वो जब सोचे तब होता है। वो मतलब ऊपर नीली छतरी वाला मालिक।सबका सृजनकर्ता, पालनहार,जगतनियंता ईश्वर।
इंसान को ऊपरवाले ने ही बनाया है लेकिन नश्वर धन-दौलत और संपत्ति के मोह में फंसा माटी का पुतला जब कुदरत को ललकारने का दुस्साहस करता है तब उसका हश्र बहुत बुरा होता है।
वैसे पिछले साल की महामारी ने अब तक पीछा नहीं छोड़ा है। वैज्ञानिकों की मानें तो कोरोना नाम का दैत्य अब अपडेटेड होकर अधिक घातक होकर लोगों की जान लेने पर आमादा है।
भारत जैसे बड़ी जनसंख्या वाले देश में अल्प सुविधाओं के बावजूद कोरोना जैसी महामारी का नियंत्रण काबिले तारीफ है।इसके लिए भारत की सभी राज्य सरकारों और केंद्र सरकार की पीठ थपथपाई जा सकती है।जिस देश में कभी पीपीई किट नहीं बनती थी,वो देश अपने दृढ़ संकल्प से पीपीई किट के उत्पादन में विश्व में बहुत जल्दी ही दूसरे नंबर पर आ गया।लोगों को स्वास्थ्य सुविधा प्रदान करने में सरकारी तंत्र की तत्परता, चिकित्सा पेशे से जुड़े सभी लोगों का समर्पण निश्चित रूप से वंदनीय है।
साल 2021 में आशा करते हैं कि देश का विकास होगा और लोगों की जिंदगी में खुशियों का संचार होगा।हम सबको महामारी से निपटते हुए बच्चों की पिछड़ती हुई शैक्षिक गतिविधियों पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है। पिछले साल अगर किसी का सर्वाधिक नुकसान हुआ है तो वे विद्यार्थी ही थे।लंबे समय तक स्कूल के बंद हो जाने से बच्चों की पढ़ाई लिखाई का बहुत अधिक नुकसान हुआ है। हालांकि शिक्षकों के माध्यम से बच्चों को आनलाईन पढ़ाई से जोड़े रखने का वैकल्पिक प्रयास किया जा रहा है। कहीं कहीं पर इसके अच्छे परिणाम भी देखने को मिल रहे हैं। छत्तीसगढ़ में मोहल्ले क्लास के माध्यम से बच्चों को पढ़ाई-लिखाई से जोड़े रखने का प्रयास किया जा रहा है।
मेरे विचार से अब स्कूलों को खोलने की दिशा में विचार किये जाने की जरूरत है। जिन क्षेत्रों में केस में कमी आ गई है या जहां कोरोना केस निरंक हैं उन क्षेत्रों में व्यापक सुरक्षा प्रबंध के साथ 50% बच्चों की अल्टरनेट उपस्थिति सिस्टम से स्कूलों में पढ़ाई शुरू किये जाने की जरूरत है ताकि ये शैक्षणिक सत्र खाली ना गुजरे।
कोरोना महामारी की मार से प्रभावित छोटे-छोटे व्यावसायियों और प्राइवेट फर्म में नौकरी कर रहे लोगों को आर्थिक सहायता दिए जाने की जरूरत है ताकि वे आत्मनिर्भरता की ओर कदम बढ़ा सकें। आखिर हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने से कुछ नहीं हो सकता। बदलाव की दिशा में प्रयास जरूर होना चाहिए।
आप सभी को नये साल 2021 की अशेष शुभकामनाएं!!!नया साल आप सबके लिए कल्याणकारी हो... मिलते हैं अगले पोस्ट में..तब तक राम राम

फोटो सोशल मीडिया से साभार

अलविदा 2020

अंततः साल 2020 का सफर खत्म हुआ..! गजब का साल रहा बीता साल!!जिसने गजब ढाया था।ये ऐसा साल साबित हुआ जिसके समापन के लिए लोग बेसब्री से इंतजार कर रहे थे। आखिर हो भी क्यों ना? ज्यादातर लोगों के लिए साल 2020 मुसीबतें लेकर ही आया था।ये साल इतिहास में कोरोना महामारी के कारण सदा सदा के लिए ऐतिहासिक हो गया।इस साल की कड़वी यादें लोगों के जेहन में हमेशा रहेगी।

चीन में जन्मी कोरोना नाम की महामारी ने साल 2020 में पूरी ‌दुनिया को नचा दिया।इटली और अमेरिका जैसे देशों को नाकों चने चबाने मजबूर कर दिया।सभी छोटे बड़े देशों की आर्थिक स्थिति डांवाडोल हो गई।

भारत में मार्च महीने में स्कूलों को बंद कर दिया गया और लाकडाऊन का एक लंबा दौर चला।बेबस मजदूरों को घर वापसी के लिए संघर्ष करना पड़ा।कई लोगों की जान घर वापसी की जद्दोजहद में चली गई।कोरोना की दहशत ने लोगों के सामाजिक जीवन को तहस-नहस कर दिया।सामूहिक आयोजन रद्द करने पड़े।इस कोरोना ने ये साबित कर दिया कि आप चाहे कितने ही प्लान बनाकर रख लो कुदरत उसको पलभर में मटियामेट कर सकती है।इस कोरोना ने लोगों को जीने का ढंग भी सिखाया।

लाकडाऊन के दौरान लोगों ने न्यूनतम आवश्यकताओं के साथ जीना सीखा। बिजनेस और नौकरी की भागदौड़ में फंसे लोगों को परिवार के साथ वक्त बिताने का मौका दिया। प्रकृति की स्वत: सफाई का मार्ग बना। प्रदूषण में कमी आई। बच्चों की पढ़ाई के लिए तकनीक के प्रयोग का मार्ग प्रशस्त हुआ। भारत में प्रचलित वैवाहिक आयोजनों में की जाने वाली अनावश्यक खर्च के आडंबर में कमी आई।कुल मिलाकर साल 2020 लोगों को सबक सिखाने वाला साल साबित हुआ।मेरे लिए भी कुछ खास नहीं रहा। सिर्फ ब्लाग लेखन का कार्य ही सार्थक हुआ।कुछ पाठक मित्रों की सराहना भी मिली। कामना करते हैं आगामी नववर्ष सबके लिए मंगलमय हो....राम राम

फ़ोटो सोशल मीडिया से साभार




दिन चारी मइहरवा में....सुरता स्व.मिथलेश सर के

  लोकगीतों की अपनी एक अलग मिठास होती है।बिना संगीत के भी लोकगीत मन मोह लेता है,और परंपरागत वाद्य यंत्रों की संगत हो जाए, फिर क्या कहने!! आज ...